एक ईसाई बंधु ने आर्य विचारों पर यह आक्षेप किया है कि ईश्वर जब कर्मों का फल देता है तो वह न्यायकारी तो हो सकता है, परन्तु, दयालु कैसे कहला सकता है? क्योंकि दया का अर्थ है दण्ड दिये बिना क्षमा कर देना और न्याय का अर्थ है। कर्मों के फल को बिना घटाए या न्यून किए देना। ये दोनों बातें परस्पर-विरोधी हैं। तथा एक वस्तु में दो परस्पर विरोधी गुण कैसे हो सकते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व इस बात का विचार करना आवश्यक है कि ईश्वर जो दण्ड देते हैं उसका प्रयोजन बदला लेना है अथवा सुधार करना? दूसरे, दण्ड देने से ईश्वर का कोई निजी लाभ है अथवा नहीं? तीसरे, यदि कोई निजी लाभ नहीं तो दण्ड अथवा कर्मफल किस उद्देश्य से दिया जाता है? चौथे, इस संसार में कई ऐसी भी देन हैं जो मनुष्य के कर्मों का फल नहीं, प्रत्युत ईश्वर की कृपा है। पाँचवें, क्या सभी कर्म इस प्रकार के हैं कि जिनका दण्ड देने से प्रभु अन्यायी कहलाता है? अथवा इनमें भी किसी प्रकार का भेद किया जा सकता है? इन्हीं प्रश्नों पर विचार करने से मूल प्रश्न का उत्तर स्वयमेव मिल जाएगा।
इस समय तक की खोज के परिणाम से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि दण्ड का प्रयोजन बुरी आदतों को दूर करके मनुष्य को ध्येयधाम की ओर जाने के योग्य बनाना है, बदला लेना नहीं। कारण? यदि दण्ड का प्रयोजन बदला लेना होता तो न्यायाधीश के मन में यह कदापि न आता कि वह चोर को कारागार में भेजे, प्रत्युत वह उसके घरबार को नीलाम करके जितना माल चोरी किया गया है उतना ही जुर्माना प्राप्त करता, क्योंकि सम्पत्ति की हानि अपराधी को कारागार में भेजने से तो कदापि पूरी नहीं हो सकती। परन्तु, सुधार का प्रयोजन जुर्माना से तो पूरा हो नहीं सकता। चोरी के अपराध में केवल जुर्माना का दण्ड बहुत न्यून समझा जाता है, जिससे पता चलता है कि विधि-विधान बनानेवालों (Law Makers) का उद्देश्य अपराधी का सुधार करना है। हमारे कई मित्र कहेंगे कि कई अवस्थाओं में हम अपराधी को फाँसी का दण्ड पाते हुए देखते हैं। उसमें किस प्रकार सुधार हो सकता है? परन्तु विचारशील सज्जन जानते हैं कि जब मनुष्य का मन दुष्कर्मों के करने में इतना प्रवृत्त हो जाये कि उसकी खरे-खोटे में विवेक करने की शक्ति शून्य हो जाये तो ऐसी स्थिति में उसके रहने से हानि के अतिरिक्त किसी बात की आशा नहीं की जा सकती।
इसी कारण मानव-जाति, तथा स्वयं उस अपराधी के लिए उसका जीवन अत्यन्त अहितकर है, तो फिर यही आवश्यक हो जाता है कि उसकी स्वतन्त्रता छीन ली जाय जिससे दूसरों को तो शिक्षा प्राप्त हो कि वे अपनी प्रवृत्ति को दूषित होने से रोकें, तथा उसको भी कुछ दिन तक कुसंगति से पृथक् रखकर सुधारा जाय जिसके कारण वह इतना भ्रष्ट हो गया था।
विधि-विधान निर्माताओं को जब तक यह आशा रहती है कि वह जुर्माना आदि दण्ड पाकर घर में रहकर भी सुधर सकता है, वे तब तक अपराधी को जेल में नहीं भेजते। परन्तु बुराई की अधिकता से उसकी दुष्प्रवृत्तियों के निवारण के लिए उसकी स्वतन्त्रता को न्यून करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है तो उसे उतना ही अधिक कठोर दण्ड दिया जाता है। प्रायः यह सिद्ध होता है कि दण्ड ‘सुधार’ के लिए दिया जाता है, न कि बदले की भावना से। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सुधारना दयालु ही का कार्य है। क्या परमेश्वर किसी से कुछ कर लेता है अथवा अभियोग के लिए कोई कोर्ट-फ़ीस चाहता है जिससे यह समझ लिया जाय कि वह सुधार का कार्य अपने किसी स्वार्थ से करता है? क्या उसको दण्ड देने से कोई निजी लाभ प्राप्त होता है?-कदापि नहीं।
परमेश्वर का कर्म-फल देने में कोई स्वार्थ नहीं। कर्म-फल का उद्देश्य सुधार है। तो नि:स्वार्थ भाव से औरों का सुधार करना दया नहीं तो क्या है? यदि ईश्वर जीवों के कर्मों का फल देना छोड़ दे तो इसका यही अर्थ लिया जाना चाहिए कि उसने मनुष्यों के सुधार का कार्य करने से अपना हाथ खींच लिया है। यह तो उसकी दयालुता के सर्वथा विरुद्ध है। किसी भी मत-पंथवाला अथवा दर्शन का विद्वान् यह नहीं कह सकता कि परमात्मा का कर्म-फल देने में कोई अपना स्वार्थ है। तो फिर परमात्मा के न्याय को क्यों न उसकी दया माना जाय? परमात्मा द्वारा कर्म-फल की व्यवस्था अपनी अनादि प्रजा-जीवों का सुधार करने के प्रयोजन से है, परन्तु यह स्मरण रहे कि जो सुख की इच्छा रखता है उसे ईश्वर के नियमों का पालन करना ही होगा। यह आवश्यक है।
जो मनुष्य ईश्वर के आदेशों का पालन नहीं करते, उन्हें तो दण्ड भोगना ही पड़ेगा। कुछ लोग प्रश्न पूछेगे कि परमात्मा की आज्ञा का ईश्वेच्छा के विरुद्ध आचरण करने से जीवों को क्यों दण्ड दिया जाता है? इसका उत्तर स्पष्ट है कि जब परमात्मा किसी स्वार्थ के बिना तुम्हारे सुधार के लिए नियमानुसार चलने की प्रेरणा देते हैं, उस अवस्था में तुम्हारा उनके आदेश का पालन करने से पृथक् हो जाना अथवा ईश्वर की आज्ञा के विपरीत आचरण करना, सुधार के मार्ग से सर्वथा दूर जानेवाली बात है। जो व्यक्ति सुधार-पथ के विरुद्ध जायेगा, उससे अवश्यमेव दोष उत्पन्न होगा। यही कर्मफल-व्यवस्था है।
तीसरी बात यह है कि कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक विधि’ अर्थात् करणीय कर्म और दूसरे ‘निषेध’ अर्थात् त्यागने योग्य। अब ये कर्म भी दो प्रकार के हैं। प्रथम वे कर्म, जिनका सम्बन्ध मनुष्य का मनुष्य से है या जीवात्मा का जीवात्मा से। दूसरे वे, जिनका सम्बन्ध जीव का ईश्वर से है। अब वे कर्म जिनका सम्बन्ध मनुष्य का अन्य जीवों से है, इस प्रकार से हैं कि उनको दण्ड न देना अकारण ईश्वर के न्याय पर कलंक लगाना होगा। क्योंकि ईश्वर का कोई गुण दूसरे गुण को हानि पहुँचाने वाला (एक-दूसरे की काट करने वाला) नहीं, इसलिए ईश्वर की दयालुता इस प्रकार के पापियों को दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ती। यद्यपि इस दण्ड में भी ईश्वर की दया ही पाई जाती है, तथापि ईश्वर की दया ऐसी नहीं है कि अपराधी के पाप को क्षमा करके उस अन्य पशुओं व मनुष्यों के लिए हानिकारक बनाकर अपने दया व न्याय दोनों गुणों का निषेध कर दें। क्योंकि, जिस समय दण्ड के प्राप्त न होने से स्वयं उस जीव की प्रवृत्ति बिगड़ती हो, दूसरे जीवों को हानि-कष्ट पहुँचता हो, उस समय दण्ड का न दिया जाना ईश्वर को दयालु होने की बजाय क्रूर सिद्ध करेगा। इससे ईश्वर के दया व न्याय के गुणों पर कलङ्क आएगा। क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है, इसलिए वह ऐसे अवसरों को जानता है और उस समय दण्ड अवश्य देता है।
अब रहे वे कर्म, जिनका संबंध किसी अन्य जीव से नहीं, प्रत्युत सीधा ईश्वर से होता है। ऐसे कर्मों को जिस समय जीव प्रार्थना करता है, उस समय परमात्मा उसकी सचाई जानकर क्षमा कर देता है। यह भी उनकी परम दयालुता का प्रमाण है। कारण यह कि उस समय न्याय की हत्या नहीं हुई और दया के प्रकाश से ईश्वर की दया भी प्रकट हो गई।
अब हम अपने उन मित्रों के लिए उदाहरण देकर इस बात को सिद्ध करते हैं। जिससे वे हमारे अभिप्राय को समझ जाएँ। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति को मारा; अब उसने न्यायालय में जाकर अभियोग चलाया। दयालु न्यायाधीश ने अपनी दया को पूरा करने के लिए उस अभियुक्त को मुक्त कर दिया। इससे दीन व्यक्ति का बड़ा अत्याचार हुआ और उस मारने वाले का उत्साह बढ़ गया। जिससे उस न्यायाधीश के न्याय की हत्या हो गई। कारण? उसके व्यवहार से एक पर दया हुई, दूसरे पर अन्याय। परन्तु, ‘इन्साफ़’ शब्द निकला है ‘निसफ’ से, जिसके अर्थ हैं प्रेम को दोनों में निसफ-निसफ आधा-आधा बाँट देना।
जब दोनों से एक-जैसा स्नेह होगा तो वह किसी का पक्षपात नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक एक से प्रेम न हो तब तक उसका पक्षपात नहीं हो सकता। जब न्यायाधीश का स्नेह दोनों ओर समान है तो जिसके कर्म खोटे होंगे उसको दण्ड देना पड़ेगा, तथा जिसके कर्म श्रेष्ठ होंगे उसको पुरस्कृत करना होगा। अब निःस्वार्थी न्यायाधीश द्वारा दण्ड व पुरस्कार दिया जाना उसके न्यायकारी व दयालु होने का प्रमाण है। कारण यह है कि उसने नि:स्वार्थ भाव से अपराधी की दुष्प्रवृत्तियों को छुड़ाने के लिए दण्ड दिया, जिससे उसका सुधार होकर भविष्य में कुकर्मों से बचना सम्भव है; अतः उसने अपराधी के साथ दया का बर्ताव किया। और जिस पर अत्याचार हुआ उसके साथ भी न्याय व दया दोनों का बर्ताव हुआ।
दूसरे किसी व्यक्ति ने न्यायाधीश के किसी ऐसे आदेश का पालन न किया जिसका किसी अन्य व्यक्ति से सम्बन्ध न था। जब वह न्यायाधीश के सम्मुख आकर क्षमा माँगने लगा तो न्यायाधीश द्वारा क्षमा करने से किसी भी व्यक्ति अथवा पशु पर अत्याचार नहीं हुआ जिससे कि उस न्यायाधीश के न्याय पर कलंक लगता है। अतः वह अपनी दया-भावना से उसको क्षमा कर दे तो कोई हानि नहीं। परमात्मा भी अपनी दया से ऐसे ही कर्मों को क्षमा करते हैं। ईसाई लोग जो प्रभु के न्याय व दया की सिद्धि के लिए ईसा का सूली पर चढ़ना और उसके कफ्फारा से (बदले में, पाप धो देने वाला दण्ड) लोगों के पापों का क्षमा किया जाना जो मानते हैं, यह बड़ी भारी भूल है। क्योंकि इससे परमेश्वर पर बहुत-से कलङ्क लगने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं है। पहले तो किसी व्यक्ति को दूसरे के स्थान पर दण्डित करना अन्याय व अत्याचार है, दूसरे, एक के फाँसी अथवा सूली पर चढ़ने से सबके पाप क्षमा कर देना दूसरा अन्याय है।
ईश्वर का एक गुण दूसरे का विरोधी नहीं, इसलिए जिससे ईश्वर के गुणों में परस्पर विरोध पाया जाय, वह मान्यता सर्वथा मिथ्या है। चौथी बात यह है कि इस सृष्टि में बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं जिनके साथ मनुष्यों का बड़ा संबंध है। उनसे उनको सुख दु:ख की अनुभूति होती है। परन्तु वे मनुष्यों के कर्मों का फल नहीं; उदाहरण के रूप में सूर्य जिसके प्रकाश के बिना सांसारिक लोगों का कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता, चन्द्र, भूमि, समुद्र, तारागण, इस प्रकार की अगणित वस्तु हैं जिनसे हमको लाभ पहुँचता है। क्योंकि वह लाभ प्रत्येक सज्जन-दुर्जन को प्राप्त हो रहा है, अतः वह कर्मों का फल नहीं, क्योंकि कर्मों का फल वह होता है जो एक के लिए हो, दूसरे के लिए न हो। अतः जिन वस्तुओं से सकल संसार को लाभ प्राप्त होता है, वे ईश्वर की दया से प्राप्त हुई है।
ईश्वर ने प्रत्येक आत्मा को अपने ध्येयधाम तक पहुँचने के लिए जहाँ उसके नयनों की सहायता के लिए सूर्य, कानों की सहायता के लिए आकाश, नाक की सहायता के लिए पृथिवी तथा रसना अर्थात् जिह्वा की सहायता के लिए जल देकर उसको बाह्य वस्तुओं के जानने की शक्ति प्रदान की, वहीं पर उनको आत्मिक शक्तियों के ज्ञान के लिए, जो किसी इन्द्रिय से अनुभव नहीं हो सकती, भीतरी यन्त्र बुद्धि दिया है और इसकी सहायता के लिए वेदोपदेश दिया। यद्यपि वर्तमान स्थितियों में सहस्रों ज्ञान-दीपक प्रज्वलित होने के कारण उनके प्रकाश से लाभान्वित होने वाले लोग सूर्य (वेद-भानु) के ज्ञान-प्रकाश की आवश्यकता को अनुभव नहीं करते, परन्तु प्रत्येक बुद्धिमान् मनुष्य जिसने कभी आधुनिक विश्व के मत-पंथों की अवस्था पर विचार किया है तथा माननीय व ईश्वरीय वस्तुओं की बनावट में भेद किया है, वह कदापि इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इस सृष्टि के आदि में गुरु था जिसकी शिक्षा से आज-पर्यन्त निरन्तर शिक्षा चल रही है।
उसने कोई पुस्तक मनुष्यों के उपदेश के लिए, शिक्षा के लिए दी थी। कुछ लोग पुस्तक का अभिप्राय मुद्रित अथवा लिखी पुस्तक समझेंगे, परन्तु, हमारा अभिप्राय निरन्तर रहने वाले आदेशों (Eternal Laws) नित्य सिद्धान्तों तथा ज्ञान के नियमों के प्रकाश से है, न कि किसी प्रकाशित अथवा लिखी हुई पुस्तक से।
पवित्र वेद के अतिरिक्त जितने भी ग्रन्थों का इलहामी (ईश्वरीय ज्ञान) होने का दावा है, वे ४५०० वर्ष से पूर्व के नहीं है। इनकी उत्पत्ति कुछ ही वर्षों से इनके अनुयायी स्वयं स्वीकार करते हैं, यथा कुरान १३०० वर्षों से, ज़बूर २६०० वर्ष, तौरेत ३४०० वर्ष से, यन्दावस्था ४५०० वर्ष से ईश्वरीय आदेश बतलाने के लिए विद्यमान हों ।
प्रत्येक दीपक मनुष्यों के बनाने से बनता है, अतः उनके निर्माण का, उत्पत्ति का समय भी संसार में ज्ञात होता है। इसके माननेवाले भी उसके इतिहास के साक्षी होते हैं। परन्तु वेदों के अनुयायी किसी भी विद्वान् ने वेदों की उत्पत्ति का समय आज तक नहीं बताया या लिखा, जिससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक मनुष्य से पूर्व वेद था, अतः उन्होंने उसकी उत्पत्ति को देखा न लिखा। वेदों का उपदेश किसी जीव के कर्मों का फल नहीं, प्रत्युत वह ईश्वर की परम दया का प्रमाण है। यदि परमात्मा किसी भी मनुष्य के पापों को न भी क्षमा करे, प्रत्युत प्रत्येक कर्म का यथायोग्य दण्ड दे, तो भी उसके दयालु होने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता। कारण? उसका दण्ड देना दया के अतिरिक्त किसी अन्य भाव से नहीं, अतः ईश्वर के दयालु व न्यायकारी होने को परस्पविरोधी बतलाना ठीक नहीं; प्रत्युत न्यायकारी वही हो सकता है जो कि दयालु है। अन्यथा, दूसरी प्रकार के व्यक्ति तो न्यायकारी हो ही नहीं सकते। उनके स्वार्थपूर्ण संबंधों से अवश्यमेव पक्षपात होगा ही।
यदि हिंसक पशु क्रूर है तो मनुष्य क्यों नहीं?—इस युग में मुस्लिम समुदाय में निर्दयता व हिंसा देखिए। यदि किसी मुसलमान के हाथ में किसी अभियोग का निर्णय अथवा न्याय चला जाता है तो वहाँ पर साम्प्रदायिक पक्षपात, पूर्वाग्रह का बोलबाला अवश्य ही होता है। भला वे लोग जो दया का भाव नहीं रखते, किस प्रकार न्यायकारी हो सकते हैं? तनिक गम्भीरता से ईसाई तथा मुसलमान बंधुओं को देखें। वे लोग सिंह आदि हिंसक पशुओं को इस कारण से क्रूर बताते हैं कि वे पशुओं को मार डालते हैं। परन्तु उन बंधुओं को जो दिन-रात पशुओं को मार-मारकर खाते हैं, कभी अन्यायी क्रूर नहीं कहते।
ईश्वर ने अपने सृष्टि-नियम के अनुसार सिंह आदि को चर्म का और सुअर आदि मल खाने वालों को गंदगी को दूर करने का कार्य सौंपा है। इससे प्रतीत होता है। कि हिंसक पशु का भोजन केवल मांस ही निश्चित किया गया है, परन्तु मनुष्य को मांसाहारी नहीं बनाया। तो भी, वे बेचारे जो सृष्टि नियमानुसार कार्य करते हैं, क्रूर हैं, और ये लोग जो सर्वथा नियम-विरुद्ध चलते हैं, श्रेष्ठ हैं। अन्यायी लोग ऐसा ही न्याय करते हैं। परन्तु दयालु परमात्मा न न्याय के साथ ही दया को जोड़ा है।
जो दूसरे की पीड़ा अनुभव करे सो दयालु-जिसको दूसरों के दु:खों से कष्ट अनुभव होता है, वही उसको दूर करने का प्रयास करता है। जो दूसरों के दु:खों से पीड़ा अनुभव नहीं करता, वह किस प्रकार उसके निवारण का यत्न कर सकता है? ईसाई व मुसलमानी मत में खुदा न तो दयालु हो सकता है और न ही न्यायकारी। कारण? जीवों को स्वयं ही भले-बुरे के भेद से पृथक् रखकर उनको पापों का फल देना सर्वथा अन्याय है। ईसाइयों के खुदा ने आदम की उत्पत्ति के समय ही उसको पाप-पुण्य के भेद (ज्ञान-वृक्ष को न चखने से विवेक-शून्य रहना स्वाभाविक ही है) से पथक कर दिया, जिससे सिद्ध होता है कि ईसाइयों को खुदा दयालु नहीं, क्योंकि किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान पर पहुँचा देना जहाँ पर पाप व पुण्य दोनों की सम्भावना हो, और उसको खरे-खोटे, हानि-लाभ का बोध प्राप्त करने का साधन न देना, दया से सर्वथा विपरीत है। ईसाई मत में मूसा की पुस्तक से पूर्व कोई पुस्तक दिखाई नहीं देती। हम जहाँ तक खोज करते हैं, वहाँ तक सुस्पष्ट पता चलता है कि जो रीति दया व न्याय के पूर्ण करने की ईसाई भाई बतलाते हैं, वह सर्वथा गलत प्रत्युत खुल्लमखुल्ला आँखों में धूल डालने वाली है, क्योंकि जब तक एक व्यक्ति को लाख के बोझ के नीचे दाब दिया जाय और वह उसे पसन्द न करता हो, जैसा कि हजरत ईसा की मृत्यु के समय के वृत्तान्त से ज्ञात होता है, तो स्पष्ट कहना पड़ता है कि इससे बढ़कर अन्याय और क्या हो सकता है कि जेकब के पाप का दण्ड मिल्टन को देकर न्याय व दया की पूर्ति कहा जावे!
सुधार बिना दण्ड सम्भव नहीं- ईसाई बंधु मज़हब में बुद्धि का प्रवेश उचित नहीं मानते, इसलिए उनके मस्तिष्क इञ्जील की दुर्बलताओं को समझने में असमर्थ हैं। वे खुदा की दया को पापों को क्षमा करने से ही पूर्ण करना चाहते हैं। परन्तु दया की पूर्ति के लिए पापियों को दण्ड देना ही यथार्थ है, क्योंकि इसी प्रकार से उनकी प्रवृत्तियों का सुधार होता है और अन्य लोगों को भी इससे शिक्षा प्राप्त होती है तथा मनुष्यों को पाप करने का साहस नहीं होता है। पापों को क्षमा करने से लोगों को पाप करने में तनिक भी भय नहीं रहता और वे पाप-कर्मों को माता के दूध समान मानकर (अपना अधिकार समझकर) उचित-अनुचित व्यवहार से बचकर नहीं चलते।
जब दया निर्दयता बनती है- अतः वे कर्म, जिनका सम्बन्ध मनुष्यों के परस्पर के व्यवहार से है, यदि ऐसे दुष्कर्मों को क्षमा किया जायेगा तो फिर रहमत ही ज़हमत (दया ही निर्दयता) सिद्ध होगी। उत्पत्ति की पुस्तक में (The Book of Genesis) जिस प्रकार परमेश्वर को अनेक बार पछताना पड़ा है, उसी प्रकार मनुष्य की प्रवृत्ति को बिगाड़ने वाले पापों को क्षमा करने से भी परमात्मा को पछताना पड़ेगा। यह सर्वज्ञ प्रभु की प्रतिष्ठा के सर्वथा विपरीत है।
[ श्री स्वामी दर्शनानन्द जी का यह दार्शनिक विषय का लेख १८९८ में उर्दू में प्रकाशित हुआ था। तब वे पं० कृपाराम शर्मा के रूप में थे। यह लेख पुस्तक “दर्शनानंद ग्रंथ संग्रह से लिया गया है । ]
प्रस्तुति – आर्य मिलन