उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की लोगों की सबसे बड़ी खासियत है कि उन्हें हिंदी और शब्दों की ताकत विरासत में मिली है। इस ताकत के दम पर आज हम दुनिया में अपना एक नया मुकाम हासिल कर रहे है। मैंने भी मुंबई के फुटपाथ पर भिखारियों के साथ रहकर संघर्ष करते हुए शब्दों के बाहुबली बनने तक सफर शुरु किया। आज खुद को खुशनसीब मानता हूं कि देश के करोड़ों लोगों की जुबा पर मेरे गीत और डायलॉग ताउम्र मौजूद रहेंगे। यह बात इन्दौर में आयोजित लिटेरेचर फेस्टिवल में गीतकार और स्क्रिप्ट राइटर मनोज मुंतशिर ने कही।
उन्होंने कहा, ‘मैं लखनऊ से मुंबई के लिए रवाना हुआ तो जेब में सिर्फ 700 रुपए थे। इनमें 350 रुपए मुंबई जाने का किराया था। ये वो आखिरी रुपए थे, जो मैंने पापा से मांगे थे। इसके बाद मैंने कभी घर से पैसे नहीं मंगाए। इसके कारण मुझे मुंबई में फुटपाथ पर सोना पड़ा।
मनोज मुंतशिर ने उस दौर का जिक्र किया जो उन्हें फुटपाथ पर भिखारियों के साथ गुजारना पड़ा। इस बीच केबीसी के समीर नायर की नजर में उनकी लिखी चंद लाइनें आईं और जिंदगी बदल गई। अमिताभ बच्चन से मेरी मुलाकात कराई। एक दिन मेरे पास एक फोन आया कि अमिताभ बच्चन मिलना चाहते हैं। पहले तो मुझे लगा कि कोई मेरे साथ मजाक कर रहा है। फिर जब मुझे सच्चाई का पता चला तो मैं सैकंड हैंड जूते और कपड़े खरीदकर उनसे मिलने पहुंच गया। 20 मिनट की मुलाकात के बाद उन्होंने मुझसे कहा आपकी भाषा बहुत अच्छी है। उनसे मिलकर आधे रास्ते पहुंचा था, तभी मेरे पास मैसेज आया कि केबीसी के डायलॉग मुझे लिखने हैं।’
उन्हें लाइनें पसंद आईं और करियर की गाड़ी पटरी पर आ गई। मेरा मानना है कि अपनी भाषा की जड़ों से जुड़े बिना हम किसी दूसरी भाषा की भी सेवा नहीं कर सकते हैं। ‘आधा मैं हूं मुझमें बाकी आधा है तू, दिल में धड़कन कम है यारा ज्यादा है तू” और ‘प्यार है ऐसा खेल यारा तनहा कोई जीता नहीं, तू जहां थक के बैठ जाएगा हार जाऊंगा मैं भी वहीं” जैसी मनोज की सुनाई पंक्तियां खूब पसंद की गईं। उन्होंने कहा कि ‘मुंतशिर” के मायने टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा होता है। मैं भी बिखरा हूं मगर कांच की तरह नहीं रोशनी की तरह। नए रचनाकारों को मुंतशिर ने सलाह दी कि पहले दूसरों का खूब पढ़ो फिर अपना नया गढ़ो।
मनोज मुंतशिर ने बताया जो बॉलीवुड के लिए गाने लिखने को दोयम दर्जे का काम मानते हैं, मैं उनसे सहमत नहीं हूं। फिल्मों के लिए गाने लिखना कविता, शायरी और गजल लिखने से कम नहीं बल्कि और मुश्किल काम है। फिल्मों के लिए गाने लिखना पत्थर तोडऩे जैसा है। उन्होंने कहा कि गानों की धुन पहले से डिसाइड होती है और उस धुन के अनुसार सरल और आसान शब्दों का चुनाव करते हुए गाने लिखने पड़ते हैं। उन्होंने कहा मुझे धुन की समझ है, लेकिन सुर के मामले में कच्चा हूं।
मनोज ने बताया वे अभी धोनी, रुस्तम, बादशाहों, जय गंगाजल, वजीर, अकिरा, तुम बिन-2, सनम रे, फोर्स-2 जैसी मूवी के लिए काम कर रहे हैं। मनोज का मानना है किसी भी काम को बतौर प्रेशर नहीं लें, बल्कि एक चैलेंज की तरह एक्सेप्ट करें।
कोई भी अवॉर्ड मेरे काम करने के तरीके को नहीं बदल सकता है। हां इतना जरूर है, ये अवॉर्ड पहचान दिलाते हैं। जब तक मुझे अवॉर्ड मिलना शुरू नहीं हुए थे, तब तक मुझे कोई पहचानता नहीं था। जहां तक अवॉर्ड लौटाने की बात है, मैं इसे सही नहीं मानता हूं।
बाहुबली के पहले भाग के लिए डायलॉग लिखना काफी टफ टास्क था। पूरी मूवी शूट की जा चुकी थी और अब उसे हिंदी में डब करना था। मुझे एक-एक कलाकार के लिपसिंक को पढ़कर उसके अकॉर्डिंग डायलॉग लिखने पड़े, जिससे कि लिपसिंक और डायलॉग अलग-अलग नहीं लगें। मैंने उन्हें मृत्यु क्या है वाला डॉयलाग लिखकरसुनाया जो ओरिजनल से अलग था। वह सभी को पसंद आया और फिर मैंने पूरी मूवी के डायलॉग लिखे। शनिवार से मैंने बाहुबली-2 के लिए डायलॉग लिखने का काम शुरू कर दिया है।
मनोज मुंतशिर ने कहा कि फिल्म को डब करना सबसे चुनौतीपूर्ण काम होता है। यहां आपको कलाकारों के होंठ के आधार पर अपनी स्क्रिप्ट को लिखना पड़ता है। बाहुबली की सबसे बड़ी खासियत है कि इस फिल्म को हिंदी में पूरे नए तरह से डब किया गया है। इसी कारण दुनियाभर के समीक्षकों ने इस फिल्म के बारे में लिखा कि 15 मिनट से इस फिल्म को देखने के बाद आप महसूस ही नहीं कर सकते है कि यह एक हिंदी में डब फिल्म है। किसी लेखक के लिए यही बात किसी ऑस्कर अवॉर्ड से कम नहीं है। शोले के बाद इंडस्ट्री में बाहुबली ही एसी फिल्म होगी जिसमें कटप्पा से लेकर हर किरदार लोगों के जेहन में मौजूद है। हर कार्यक्रम में मुझसे यही पूछा जाता है कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?
उन्होंने कहा कि दुनियाभर के साहित्यकार फिल्मी गीतों के लेखन को दोयम दर्जे का मानते हैं। फिल्मी गीतों की सबसे बड़ी ताकत यह होती है कि वह आपकी भावनाओं को सरल शब्दों में बयां करने का माध्यम बनती है। एक गीतकार के लिए यह काम पत्थर तोड़ने से भी मुश्किल होता है। एक विलेन फिल्म के गीत ‘तेरी गलियां” को पहली बार मुझे गीतकार बनने का मौका मिला। इस एक गीत के कारण मुझे इंडस्ट्री की 20 फिल्मों के लिए गीत और डायलॉग लिखने के प्रोजेक्ट मिला।
लेखक पंकज राग ने कहा कि पहले युवाओं का अपना दृष्टिकोण हुआ करता था मगर आज के युवाओं में ऑडियोलॉजी नहीं है। उन्हें सिर्फ पैकेज से मतलब है। जब तक उनके पैकेज पर कोई आंच नहीं आती, देश-दुनिया में होने वाली घटनाएं उन्हें उद्वेलित नहीं करतीं। दरअसल उनके पास भाषा और साहित्य के संस्कार नहीं हैं। उन्हें ये संस्कार देने के लिए हमें उस भाषा में लिखना होगा जिसे युवा बेहतर समझते हैं।
गुजराती भाषा के सत्र में कवि रघुवीर पटेल ने कहा कि सत्य और अहिंसा तो पर्वतों की तरह पुराने विचार हैं। इस लिहाज से महात्मा गांधी को भी पौराणिक इतिहास से जोड़ा जा सकता है। वरिष्ठ कवि माधव रामानुम ने महात्मा गांधी, आंतरिक उजास और भगवान श्रीकृष्ण पर सारगर्भित रचनाएं पेश कीं तो राजेंद्र पटेल ने बताया कि शिक्षक ने किस तरह उन्हें कवि बनने के लिए प्रेरित किया। अंत में शितांशु यशचंद्र ने नरसी मेहता के सुप्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जण तो तेणे कहिए” में ‘तो” शब्द की रुचिकर व्याख्या की।
आराम करने से बीमार पड़ जाती हैं लताजी
125 मराठी फिल्मों में गीत लिख चुके लेखक प्रवीण दवणे ने बताया कि एक बार उन्होंने लताजी से पूछा कि आप इस उम्र में भी इतनी सक्रिय कैसे रहती हैं तो उन्होंने कहा कि आराम करने से मैं बीमार पड़ जाती हूं। जीवन नदी के पानी की तरह सतत प्रवाहमान होना चाहिए। एक जगह रुकने से ये मैला हो जाता है। इसलिए हर शख्स को स्वयं को व्यस्त रखना चाहिए। मैं गौरवान्वित हूं कि उन्होंने मुझे अपने पिता दीनानाथ मंगेशकर के नाम पर शुरू गए सम्मान के योग्य समझा। सिंधी भाषा के कलमकार अशोक मनवानी ने भी संबोधित किया।
‘इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल’ का दूसरा दिन मशहूर शायर गीतकार जावेद अख्तर के नाम रहा। उन्होंने शाबाना आजमी के साथ ‘कैफी और मैं’ का मंचन किया। वहीं दिन में तबादला-ए-खयाल में अपने खयालात का इजहार किया। दूसरे दिन भी फेस्टिवल में श्रोताओं की कमी रही। मगर आयोजकों ने इस खामी को स्कूली बच्चों के जरिए ढाकने की कोशिश की।
इसलिए जावेद अख्तर हों या पीयूष मिश्रा सभी के संबोधन के केंद्रबिंदु में बच्चे ही रहे। श्री अख्तर ने शहर की जानी-मानी लेखिका निर्मला भुराड़िया की नई किताब ‘गुलाम मंडी” का विमोचन भी किया। इससे पहले आयोजन के दौरान पीयूष मिश्रा की किताब ‘कुछ इश्क किया, कुछ काम किया” का भी अनावरण किया गया।
शतरंज के मोहरों के जरिए आज के दौर की विसंगतियों को दर्शाती ताजा नज्म सुनाकर जावेद साहब ने पूरे सभागार को आंदोलित कर दिया।
श्री जावेद अख़्तर ने कहा, – जिस तरह कुछ लोग दौलत-शोहरत को मेडल बनाकर घूमते हैं उसी तरह कुछ लोग अपनी जिंदगी के बुरे वक्त को मेडल बना लेते हैं। मेरी जिंदगी में भी ऐसे कई उतार-चढ़ाव आए जैसे लाखों-करोड़ों की जिंदगी में आते हैं। उस वक्त मैं कोई गौतम बुद्ध की तरह सब कुछ त्यागकर वैराग्य नहीं ले सकता था क्योंकि मेरे पास त्यागने के लिए कुछ था ही नहीं। 20 साल की उम्र में मुंबई आया था और 25 तक मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे खोने का मुझे डर हो। मगर वक्त की यही खूबी है कि जैसा भी हो गुजर जाता है। इसलिए नाकामयाबी से घबराएं नहीं और कामयाबी पर इतराएं नहीं।
– समाज सुधारने का एक ही तरीका है। आप खुद कोई अच्छा काम शुरू कर दें। किसी की अंगुली न पकड़ें, अपनी राह खुद चुनें। दूसरों से प्रेरणा लें मगर आंख मूंदकर नकल हर्गिज न करें। अच्छे काम की कद्र हर जगह होती है। जिन्होंने मुझे काम दिया वो न तो मेरे दोस्त थे, न जान-पहचान के। उन्होंने मेरे हुनर को देखकर काम दिया और अब मैं भी नए कलमकारों को उनके हुनर के आधार पर ही परखता हूं।
अच्छे उसूलों के साथ-साथ जिंदगी में थोड़ी बदमाशी, आवारगी भी जरूरी है। ये तजुर्बे भी जिंदगी के किसी न किसी मोड़ पर बहुत काम आते हैं। वे उसूल जो कहे ‘सोचो मत” उसे मत मानो। जो कहे ‘कि वे लोग बहुत बुरे हैं” उसे भी मत मानो। क्योंकि दुनिया में लोग नहीं इंसान होते हैं।
व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा, ‘धर्मयुग’ में मेरी कुछ रचनाएं छपने के बाद 2-3 रचनाएं अस्वीकार कर दी गईं। मैंने धर्मवीर भारतीजी से पत्र लिखकर पूछा क्या वजह है कि मेरी अच्छी रचनाएं रिजेक्ट हो रही हैं जबकि दूसरे लेखकों की उनसे कमतर रचनाएं छप रही हैं। उन्होंने जवाब दिया कि तुम्हारा मुकाबला सिर्फ तुमसे है। इसलिए जब तक तुम अपनी पुरानी रचना से बेहतर रचना नहीं लिखोगे धर्मयुग में नहीं छपोगे। ये वाकया लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करने शहर आए ख्यात व्यंग्यकार पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी ने सुनाया।
उन्होंने कहा कि हर शख्स को अपनी हैसियत के साथ-साथ औकात भी पता होनी चाहिए और एक ही जगह कदमताल करने की बजाय आगे बढ़ें। मुझे बचपन में ही एहसास हो गया था कि मैं अच्छा लेखक बन सकता हूं। मगर विधा तय नहीं कर पा रहा था। बाद में मुझे लगा कि व्यंग्य ही मेरे लिए अपनी बात कहने का सबसे सशक्त माध्यम बन सकता है।
मासूमियत जिंदा रखें : पीयूष मिश्रा
जिस दिन मेरे एकाउंट में एक लाख रुपया हो गया उस दिन मैं बावरा सा हो गया। खूब थिएटर किया मगर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए सिर्फ पैसे के लिए फिल्मों की ओर रुख किया। अब पैसे से भी मन भर गया है और आर्ट से भी। लेफ्टिज्म, राइटिज्म सब छोड़ के आंख मूंदकर ध्यान करना चाहता हूं। विपश्यना करना चाहता हूं। मैं फिर से मासूम हो जाना चाहता हूं। क्योंकि मुझे समझ आ गया है कि अगर हमारी मासूमियत जिंदा रही तो तमाम दिक्कतें खुद-ब-खुद हल हो जाएंगी।
ब्लॉग के चलते हिट हुई किताब : प्रभात रंजन
नए राइटर्स को मेरा सजेशन है कि लीक से हटकर काम करें। जब मैंने ‘जानकी पुल” ब्लॉग शुरू किया था तो कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन ये इतना पॉपुलर हो जाएगा। चंद महीने पहले आई किताब ‘कोठागोई” से चर्चा में आए प्रभात कहते हैं कि ब्लॉग के जरिए मुझे लोगों की, खासतौर पर युवाओं की पसंद का पता चला। मैंने वही लिखा जो आज पसंद किया जा रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि मेरी किताब को लोकप्रिय बनाने में ब्लॉग ने अहम भूमिका अदा की है।
जिस भाषा में सोचें उसी में लिखें : राम कुमार सिंह
बॉलीवुड में लिखने के लिए पहुंचा तो चौंक गया। वहां हिंदी फिल्मों के संवाद और सीन अंग्रेजी और रोमन में लिखे जा रहे थे। मगर जब मैंने फिल्म ‘जेड प्लस” के डायरेक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी से कहा कि मैं हिंदी में डायलॉग लिखूंगा तो वो चौंक पड़े। मैंने कहा कि मैं जिस भाषा में सोचता हूं उसी में सहूलियत से लिख सकता हूं। आपको ट्रांसलेशन कराना है तो किसी और से करा लें। खैर फिल्म की स्क्रिप्ट हिंदी में ही लिखी गई और सबने डायलॉग भी हिंदी में ही पढ़े। हमारी भाषा हमारा आत्मविश्वास है।
यकीं रखें आप सब कुछ कर सकते हैं : आलोक श्रीवास्तव
एक बार एक बड़ी उम्र का बच्चा कुएं में गिर गया। एक छोटे बच्चे ने बड़ी जद्दोजेहद से उसे निकाल लिया। किसी को विश्वास नहीं हुआ। तब एक बुजुर्ग ने लोगों को समझाया कि जब ये बच्चा अपने से बड़ी उम्र और वजन के बच्चे को कुएं से निकाल रहा था तो इससे किसी ने ये नहीं कहा कि ‘तुम ये काम नहीं कर सकते हो।’ इसलिए किसी काम से घबराएं नहीं, आप सब कुछ कर सकते हैं।
गाने से रूहानी सुकून का एहसास करा सकूं : जसविंदर सिंह
‘कैफी और मैं’ करीब 9 साल पहले शुरू हुआ था। तब सोचा नहीं था कि ये शो देश-दुनिया में इस कदर पसंद किया जाएगा। इस लाइव शो में परफॉर्म करते हुए मेरी कोशिश होती है जो भी गाऊं दिल से गाऊं। जगजीत जी, रफी साहब की बुलंदी तक पहुंचना तो सबके बस की बात नहीं होती। मेरी कोशिश ये है कि मेरे गाने से सुनकारों को रूहानी सुकून का एहसास हो।
रमेश तलवार : थिएटर डायरेक्टर
‘कैफी और मैं’ भी एक तरह का थिएटर ही है। बस इसके प्रजेंटेशन का तरीका अलग है। जिंदगी कैफी आजमी और शौकत आजमी की है मगर लिखा जावेद अख्तर ने है। जिंदगी के हर किस्म की पेचीदगी से लेकर मुहब्बत की ठंडी बयार तक इसमें शुमार है। ये मेरी लाइफ का बेहद पसंदीदा प्रोजेक्ट है।
समापन सत्र में कनाडा के ख्यात चिंतक, लेखक तारिक फतह ने कहा कि लक्ष्मी को स्टेज पर बुलाकर इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल ने समभाव और सहअस्तित्व की भावना को नई गरिमा प्रदान की है। मैंने अपनी जिंदगी खुद पर ऐसा कांफिडेंस बहुत कम लोगों में देखा है। उनके आत्मविश्वास के उजाले से स्टेज रोशन हो गया है। फेस्टिवल के आयोजकों ने जो हिम्मत दिखाई है ऐसी तो अमेरिका जैसे विकसित देश में भी बहुत कम देखने में आती है।
साभार-दैनिक नईदुनिया से
इन्दौर लिटरेचर फेस्टिवल की वेब साईट http://www.indoreliteraturefestival.org/