पुस्तक संस्कृति की जब बात करते हैं तो साफ है कि हमारा भाव पुस्तकों के प्रति आत्मीय संवाद से है। पुस्तकों को जब जीवन का, कार्य व्यवहार का, अपनी गति व सोच का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं तो हमारे पास पुस्तक के साथ प्रेम करने का विकल्प और भाव होता है। पुस्तकों से किसी एक व्यक्ति का लगाव या जुड़ाव होना पुस्तक संस्कृत नहीं है।
कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जिसका घर पुस्तकों से भरा हो, कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जो नई से नई पुस्तक और पत्र पत्रिकाएं खरीदता रहता हो, कोई ऐसा व्यक्ति मिल सकता है जिसका ड्राइविंग रूम पुस्तकों से सजा हो, यह एक दो उदाहरण पुस्तक संस्कृत के प्रतीक या उदाहरण नहीं हो सकते।
जब पुस्तक संस्कृति की बात की जाती है तो यह देखा जाना जरूरी है कि हमारे जीवन में किस गहराई से पुस्तकों के लिए जगह है। पुस्तक किस तरह हमारे जीवन से जुड़ी है और जीवन के प्रत्येक पक्ष में कहां तक पुस्तकों का साथ है। इसे तभी समझा और जाना जा सकता है जब हम इस बात को इस भाव को समाज में व्यापक रूप से होते हुए देखते हैं। पुस्तक संस्कृति है इस बात का प्रमाण है कि हम अपने रीति रिवाज को मनाते समय कितनी जगह पुस्तकों को देते हैं।
हमारे यहां महंगी से महंगी शादियां होती हैं किसी भी अवसर पर पटाखे में अनाप-शनाप खर्च कर देते हैं। बाजार से लौटते हुए थैली भरे पैकेट इस तरह भरे होते हैं कि आदमी को चला नहीं जाता पर इन स्थलों को उलट पलट कर देख लीजिए एक पन्ना भी नहीं मिलेगा। एक पत्रिका नहीं मिलेगी एक किताब भी नहीं मिलेगी तो कहां से पुस्तक संस्कृति आएगी?
पुस्तक संस्कृति को बनाने के लिए हमें अपने विचार में, अपने मन में इतनी जगह बनानी होगी की विभिन्न अवसरों के लिए हमारे पास पुस्तक हों। हम अपने आसपास के समाज में पुस्तक के लिए वातावरण निर्माण कर सकें। कम से कम जन्मतिथि, वैवाहिक वर्षगांठ पर अपने परिचितों को एक अच्छी पुस्तक भेंट कर सकें। रिटायरमेंट या अन्य जो भी अवसर आसपास आते हैं तो उसमें आपकी उपस्थिति एक पुस्तक प्रेमी और पुस्तक संस्कृति के संवाहक के रूप में होती है तो समाज में बड़ा मैसेज जाएगा।
हमें पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आसपास के उन दुकानों के बारे में पता करना चाहिए जहां पुस्तकें होती हैं। वहां पुस्तक क्रय करने के लिए होती है। यदि आप पुस्तक क्रय करते हैं तो उससे दुकानदार का भी हौसला बढ़ता है और वह आपको नई पत्रिकाएं नई पुस्तक दिखता है उनके बारे में बताता है। चलिए आजकल अमेजॉन फ्लिपकार्ट और ऐसे ही अनगिनत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आ गए हैं जहां से पुस्तक आसानी से मंगा सकते हैं। यह आपको तय करना होगा कि हर साल कुछ अच्छी पुस्तक खरीद कर पढ़ें। गोष्ठियों आदि में दी गई पुस्तक, पुस्तक संस्कृति का बढ़ावा नहीं करती बल्कि पुस्तकों के प्रति एक विपरीत माहौल भी बनाती है। बहुत सारे लोग उन पुस्तकों को ले जाकर रख देते हैं।
पुस्तक को पढ़ना आवश्यक है। जो चर्चित है जो महत्वपूर्ण है वहां यह देखना भी जरूरी है कि ऐसा क्या है उस पुस्तक में जो लोग उस पुस्तक को पढ़ने के लिए इतना भाग रहे हैं। जब आप पुस्तक पढ़ते हैं तो विचार के साथ पुस्तक के साथ और उस दुनिया के साथ चलते हैं जो सामाजिकता की वह दुनिया होती है जिसे लेखक द्वारा दिया गया होता है। लेखक के संसार को जीना, फिर उसे संसार में जाना और उसके लिए कुछ नया लेकर आना ही पुस्तक संस्कृत का निर्माण करता है। जहां तक पुस्तक संस्कृति के साथ समाज की बात है तो कोई भी मूल्यवान संदर्भ तब तक मूल्यवान नहीं बनता जब तक उसमें समाज शामिल न हो। जब आप अपने ज्ञान को अपनी पढ़ी गई दुनिया को औरों के साथ जोड़ते हैं औरों से संवाद करते हैं तो सच मानिए आप पुस्तक संस्कृति का निर्माण कर रहे होते हैं।
पुस्तकें समाज में आकर उल्लसित होती है और खिलती व खिलखिलाती हैं। जब पुस्तकें सामाजिक होती हैं पूरे समाज में लोकार्पित होती हैं तो पुस्तकों के साथ समाज की एक अलग मानसिकता होती है। आप अकेले पुस्तक का लोकार्पण कर लें, अकेले में पढ़ लें तो पुस्तक की सामाजिकता के लिए आप कुछ नहीं कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है की पुस्तकों की सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। समाज में अन्य पर्वों की तरफ पुस्तक पर्व के लिए भी अवसर व समय होना चाहिए। यदि पुस्तकें समाज में अपनी जगह बनाती हैं तो और लोगों के जीवन का आधार भी बनती हैं और लोगों के जीवन जीने का जरिया भी।
जब प्रेमचंद भोला महतो के घर का शब्द चित्र खींचते हैं तो लिखते हैं कि उनके बरामदे में एक ताखे पर लाल कपड़े में लिपटी रामायण थी। रामचरितमानस थी तो यहां सामाजिक पुस्तक प्रेम का जिक्र कर रहे होते हैं। रामचरितमानस के दोहे चौपाई लोगों की जुबान पर ऐसे थे कि उनकी कोई भी बातचीत चौपाइयों के बिना पूरी नहीं होती थी। यही हाल भक्ति काल के अन्य कवियों अन्य संतों और लेखकों का था। वे लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलते रहते थे। लोग बात पर कबीर रहीम मीरा के पद कोड करते थे। यह पुस्तक संस्कृति का सामाजिक पक्ष था कि लोग अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए संतो भक्तों की पंक्तियां इस्तेमाल करते थे।
आज जब लोग बातचीत करते हैं तो इधर-उधर बंगले झांकते हैं या फिल्मी गाशिप करने लग जाते हैं या जोक सुनाते हैं। जो अंततः उनके व्यक्तित्व को कमजोर करने का काम करती हैं। सार्वजनिक पुस्तकालय की जहां तक बात कर है तो वह आपको पुस्तकों के एक अपरिमित संसार में ले जाने की जगह होती है। यहां आप एक साथ असंख्य पुस्तकों को पाते हैं। अपने समय और समकाल को पाते हैं तो पीछे जो पुस्तकों की दुनिया रही है वह सब कुछ यहां उपलब्ध होता है।
एक पुस्तकालय स्कूल कॉलेज विश्वविद्यालय में होता है जहां विषय सामग्री की सब्जेक्ट को केंद्र में रखकर पुस्तक होती हैं पर जहां तक सार्वजनिक पुस्तकालयों की बात होती है तो वह आम आदमी की मनो रूचियों को ध्यान में रखकर होती है इस पुस्तकालय में जो लोग होते हैं जो पढ़ने आते हैं उनकी रुचियां को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा पुस्तक मंगाई जाती हैं जहां तक सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की बात है तो यह एक विशेष संदर्भ और अभिरुचि से जुड़ा ऐसा पुस्तकालय है जिसे मंडल पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा विशेष स्नेह से सींचा गया है उनकी रुचि और पुस्तक प्रेमियों के साथ इनका सौजन्य सौहार्द और पुस्तकालय को जन-जन के बीच ले जाने की उनकी पहल ही इस पुस्तकालय को न केवल हाडोती में बल्कि राजस्थान और देश के कुछ विशिष्ट सार्वजनिक पुस्तकालयों में जगह दिलाने का काम करती है।
आम आदमी के बीच पुस्तकों के प्रति प्रेम बढ़े इसकी उज्जवल घोषणा ही सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय कोटा को विशिष्ट बनाती है। सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की उपस्थिति सामाजिक पुस्तक प्रेमी को तैयार करने में है। यहां आप सब एक अभिरुचि से आते हैं और आपकी अभिरुचि को तैयार करने का काम पुस्तक प्रेमी पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा की जाती है। वह अपने पाठकों की जरूरत अभिरुचियों को ध्यान में रखकर पुस्तक संसार का एक ऐसा कोना तैयार करते हैं जहां आकर आपको लगेगा कि हां यहां सुकून है। यही तो मैं खोज रहा था। एक खुला मन एक साथी का भाव ही कि हां सब हो जाएगा। सब उपलब्ध हो जाएगा। इस तरह किताबों का एक बड़ा संसार यहां सामाजिक केंद्र बनकर आता है। पुस्तक यहां संवाद और साक्षात्कार करती हैं। साथ में केंद्र में होते हैं पुस्तकालय अध्यक्ष। इस तरह पाठकों पुस्तकालय और समाज के बीच एक व्यापक सेतु बन जाता है। इस पर चलना आवश्यक लगता है। पुस्तकें पहचान और व्यक्तित्व को पुख्ता बनाने का काम करती हैं।
पुस्तक पढ़ते-पढ़ते आप एक संसार में, एक समाज में न केवल जाते हैं अपितु एक जीवन संसार को जीते हुए अपने बहुत करीब महसूस करते हैं। अपने संसार को नजदीक से देखते हैं। यह आकर जो सांसारिक होते हैं उसमें शब्द से संसार से एक अमरता की सत्ता भी जुड़ जाती है और जो यहां होता है वह अमर होता है। उसके विचार बोलते हैं। उसकी वाणी लोगों के भीतर जीवित हो अमर गान बन जाती है। इस तरह पुस्तक संस्कृति समाज और पुस्तकालय एक सांस्कृतिक सत्ता को निर्मित करने का मंच है। यहां से आप संसार के मन मस्तिष्क पर राज करने का काम करते हैं।
(यह बीज व्याख्यान विख्यात साहित्यकार द्वारा हाल ही में राजकीय सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय, कोटा द्वारा आयोजित पुस्तक फेस्टिवल के प्रथम दिन दिया गया।)