Saturday, April 27, 2024
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आओ हाड़ौती की सैर करें….

कोटा प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी है, गंगा सदृश्य चर्मण्यवती की पावन धारा यहां प्रवाहित होती है, ऋषियों की तपोभूमि के साथ-साथ कालिदास के “मेघदूत” के यक्ष का भी संबंध इस निर्मल सलिला से रहा है। कोटा की गौरवपूर्ण राजसी परंपरा तो है ही। कोटा में चंबल रिवर फ्रंट और सिटी पार्क आज विश्व स्तरीय आकर्षण के दर्शनीय स्थल बन गए हैं।

हम केवल कोटा शहर के ही सीन साइड्स की ही बातें करें तो इन्हें देखने के लिए एक दिन भी कम पड़ सकता है। हम चंबल उद्यान की ओर ही चलते हैं। यह बहुत ही खूबसूरत गार्डन है। दिल्ली या चंडीगढ़ के बगीचों से कहीं भी उन्नीस नहीं है। यहां का म्यूजिक सिस्टम अद्वितीय है। यदि यहां चर्चित संगीतमय फवारा लगा दिया जाए तो वृंदावन गार्डन (मैसूर) की कमी पूरी कर सकता है। यह कावेरी नदी की तलहटी में महकता है। यह चंबल के कूल पर चहकता है। सरिता के तट पर ऐसा दूसरा कोई बाग हमारे देश में नहीं है। यदि यहां नौकायन की नियमित व अच्छी व्यवस्था की जाए तो कहने ही क्या। इसमें एक छोटा मगरमच्छ तालाब है, उस पर लक्ष्मण झूला बनाया हुआ है।

इसी के पहलू में सिमटता चिल्ड्रन पार्क व यातायात पार्क की उपयोगिता, सौंदर्यता अपने आप में अनुपम है। शहर के हृदय स्थल में लबालब भरा किशोर ताल यहां का विशिष्ट स्थल है। यह किसी झील से काम नहीं है। निशा को विद्युत रोशनी में नहाया, चांद को अपने आगोश में समेटे हुए यह ताल कोटा की सुषमा में चार चांद लगा देता है। इसे धीर देव ने 1346 ईस्वी में बनवाया था। इसके भी हृदय में स्थित जग मंदिर महल के तो कहने ही क्या। 1346 में ही रानी ने इसके बीच में लाल व सफेद प्रसिद्ध दीप महल बनवाया था। यहां अब नौकायन की व्यवस्था भी है। सुंदर-सुंदर नौकाएं, रंग बिरंगी तितलियां सी, शिकारनुमा जैसी की नैनीताल के नाकुचिया ताल में देखी थी हमने।

किशोर सागर की चौकसी करता लक्की बुर्ज सुंदर रमणीय स्थल तो है ही साथ ही यहां से तालाब का भव्य दृश्य एवं शहर का नजारा भी अतीव आकर्षक लगता है। थोड़ी सार संभाल से यह और लक्की हो सकता है। अधरशिला जिसे सुई का नाका भी कहते हैं। अच्छा खासा पॉइंट है। इसके नीचे एकदम सकरी गुफानुमा जगह है जिसमें से बड़ी मुश्किल से निकला जा सकता है यानी इसमें से निकलने का अर्थ है सुई के नाके में से गुजरना। नैनीताल में हरे भरे पहाड़ों के बीच में एक पहाड़ ऐसा है जिस पर एक भी झाड़ी नहीं है, इससे इसका रंग ऊंट जैसा भूरा लगता है, इसे “कैमल बैक“ के नाम से दिखाया जाता है, यह भी कोई बात हुई लेकिन टूरिस्ट गाइड में एक पॉइंट है।

गोदावरी के बालाजी, खड़े गणेशजी, रंगबाड़ी का मंदिर, तिरुपति बालाजी, स्कोंन टेंपल जैसे मंदिर काफी दर्शनीय एवं मान्यता वाले हैं। बनारस में कई पॉइंट ऐसे ही मंदिर हैं। पुरातात्विक एवं पौराणिक संपदा कंसुआ का मंदिर यहां की धरोहर है। गुप्तकालीन यह मंदिर अपना विशेष महत्व रखता है। कहते हैं कि यहां कण्व ऋषि ने तप किया था, उन्हीं की तपोस्थली है, उन्हीं के नाम से इसे कंसुआ नाम से जाना जाता है। शकुंतलता एवं उसके पुत्र भरत जिसके नाम से भारत देश का नाम भारत पड़ा है। यह इन दोनों की स्थली है। वर्षों पूर्व यह काफी मनोरम हुआ करता था। इसका जीर्णोद्धार हो सकता है। भीतरिया कुंड तो यहां का प्रमुख पिकनिक स्थान है ही।

अभेड़ा के महल कोटा की पुरातात्विक धरोहर है। बावड़िया, छतरियां वहां भी हरियाली एवं ताल मन मोह लेते हैं। इसकी विशालता एवं निर्मल जल किसी भी झील से टक्कर ले सकती है। नौका विहार का आनंद यहां भी उठाया जा सकता है। महल स्थापत्य कला के सबूत हैं ही। वही बात की “खंडहर बता रहे हैं इमारत बुलंद थी ”। पाटन पोल में वल्लभम संप्रदाय का मथुराधीश मथुरा जी का अपने आप में अनूठा है। इसे कोटा का छोटा नंद गांव भी कहते हैं। यहां संप्रदाय की परंपरा-अनुसार वर्ष भर महोत्सव होते हैं। श्रीनाथजी की ही तरह अन्नकूट, नंद महोत्सव, होली पर भी उत्सव बड़ी ही धूमधाम से व भक्ति भावना से मनाए जाते हैं। नाथद्वारा के श्रीनाथजी की तरह ही पत्तल भी यहां मिलती है। यहां बने विविध स्वादिष्ट अष्टरस युक्त व्यंजनों का रस कुछ अलग ही होता है। कहते हैं की औरंगजेब की क्रूरता के कारण श्री मथुरा जी की प्रतिमा गोवर्धन पर्वत से लाकर भटनागर कायस्थ परिवार की हवेली में पदराई गई थी।

अन्य शहरों की तरह कोटा का गढ़ पैलेस भी दर्शनीय व प्रसिद्ध है। यह राजाओं का महल है। जनता में यह राजा कितने लोकप्रिय हैं यह हमने बचपन में देखा है। महाराज कुंवर एक बार हमारे ग्राम सावन भादो में पधारे थे तब हमारी दादी जी ने थाली में दीपक लेकर उनकी आरती उतारी थी। यहां का संग्रहालय जहां की स्थापत्य कला, भित्ति चित्र, पेंटिंग, कांच का कौशल चित्ताकर्षक है। इसमें पुरानी रियासतों की वस्तुएं हैं। नदियों पर बने बांध विशेष दर्शनीय स्थलों में आते हैं। इसमें भी कोटा कहीं पीछे नहीं है। 3 करोड़ 80 लाख में बना कोटा बैराज यहां का अच्छा खासा देखने योग्य डेम है। बारिश में जब इसके द्वार खुले होते हैं तो अदभुत हो जाता है इसका दृश्य। वहां पर अठखेलिया करते सैकड़ो कबूतरों की गूटर-गू तो मन ही मोह लेती है। इसमें 19 द्वार बने हुए हैं इनमें से उछलती कूदती धवल जल राशि की अठखेलियां बहुत ही रोमांचक होती हैं। यह डेम गढ़ पैलेस से सटा हुआ है।

किशोर सागर के एक कॉर्नर पर मंदिरों की माला भी श्रद्धालुओं को बरबस ही आकर्षित करती है। यहां से प्रारंभ होता है क्षारबाग जो नयापुरा तक अपना साम्राज्य जमाए हुए हैं। इसमें जलज खिलते हैं तो गुलाब भी महकते हैं। घनी वृक्षावलियां, झूले, दुर्वादल, नाना देवी का मंदिर यानी सुरभ्य वातावरण मन को अपूर्व शांति एवं सुकून प्रदान करता है। जयपुर के रामबाग की भांति यह कोटा का बहुत ही प्रिय बगीचा है। इसमें फव्वारों का सौंदर्य भी अप्रतिम है। साढ़ियों पर से उतरता हुआ रंगीन शरबत नुमा पानी, प्रकाश में नहाए फव्वारे वाकई वृंदावन गार्डन की याद दिलाते हैं। पास में ही नवविकसित स्वर्ण महल और दूसरे किनारे पर सेवन वंडर पार्क।

तलवंडी के बी सेक्टर में राधा कृष्ण का मंदिर यहां का विशेष आकर्षण बन चुका है। मूर्तियों का श्रृंगार गजब ढाता है। बारह छोटे-छोटे शिवलिंगों के वृत के मध्य बड़ा शिवलिंग स्थापित है। सावन के पूरे महीने में प्रतिदिन इनका श्रृंगार अनुपम होता है। कभी फूलों से, कभी फल से, कभी बर्फ से, कभी भांग से, तो कभी पत्तियों से किया गया श्रृंगार दर्शको का ताता लगा देता है। सामने दीवार पर लगा विशाल दर्पण इन्हें प्रतिबिंबित करता है। जन्माष्टमी पर बनी सुंदर झांकियो के दर्शनार्थ तो आधा किलोमीटर तक भी लाइन लग जाना आम बात है। वैसे भी झांकियो के लिए यह नगर हाडोती में प्रसिद्ध है। डीसीएम की झांकियां भी बेमिसाल होती हैं। इसलिए यहां पर जन्माष्टमी का अवकाश दूसरे दिन होता है, ताकि दर्शक इनका पूरा-पूरा चक्षु लाभ ले सकें। डीसीएम की रामलीला भी देखने योग्य होती है। जिसमें यहां के कर्मचारीगण कलाकार होते हैं। साथ ही खड़े गणेश जी का मंदिर भी दर्शनीय है एवं श्रद्धा स्थल भी है। इन मंदिरों का माधुर्य एवं सौंदर्य भीतर तक सरसता घोल देता है।

चंबल नदी अपने आप में ही पूरा पर्यटन स्थल है। इसकी गहरी खाइयां, घाटियां, पाट, अरावली पर्वतमाला से इसका मेलजोल बहुत ही खूबसूरत है। इस प्रिय सलिला के नाम से तो यहां कई प्रतिष्ठान चलते हैं जैसे चंबल स्टूडियो, चंबल कोचिंग सेंटर, चंबल गार्डन, चंबल कॉलोनी आदि इसी पवित्र सरिता की शस्य श्यामला, सुंदरता और रम्यता पर मंत्र मुक्त होकर ही तो कालिदास जी ने अपने मेघदूत में भाव मीना चित्रण किया है-
“तवस्या जल भवन्ते शर्दिनो वर्णचौरे । तस्याः सिन्धोः प्रथुमपी तनु दूर भावात प्रवाह
प्रेशियंते गगन गतयो नुन्मावस्यम द्रष्टि। रेक मुक्ता गुनार्भव भुवा स्थल मधेन्द्र नीलम।

यही नहीं चंबल नदी का किनारा राजा रन्तिदेव की तपोभूमि रही है। चंबल का ही अनुग्रह है कि इस नगरी में आठों प्रहर जलापूर्ति होती है। कोटा के साथ दशहरा पर्व का संबंध तो आत्मा व शरीर की तरह जुड़ चुका है। इसकी गणना राष्ट्रीय मेले में आती है। वैसे तो इसका स्थान मैसूर के दशहरे के पश्चात् आता है लेकिन सच्चाई यह है कि वर्तमान में मैसूर के दशहरे में अब वो भव्यता, आकर्षण, गरिमा नहीं रही। कुल्लू (मनाली) का दशहरा जरूर बड़ी धूमधाम से संपन्न होता है। अतः कोटा का यह मेला दशहरा भारत वर्ष में प्रथम स्थान पर है। इसका श्री गणेश मध्यकालीन हाडा शासक महाराज दुर्जन शाल सिंह के समय से ही हो चुका था, यह काल 1723-1756 ईसवी सन रहा है। लेकिन इसका पल्लवन विशेष आकर्षण देने का श्रेय जाता है महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय को। इसे राष्ट्रीय ख्याति दिलाने का पुनीत कार्य इन्हीं के द्वारा हुआ है।

यह बात 1889 -1940 इसवी के मध्य का काल रहा है। वैसे इसका प्रारंभ 1892 से माना जाता है। उस समय पर मेला त्रिदिवसीय हुआ करता था। इसके वर्तमान स्वरूप के तो कहने ही क्या। इसका शुभारंभ अश्विन नवरात्रि की प्रतिपदा से ही हो जाता है। श्री राम रंगमंच पर इस दिन से रामलीला का मंचन प्रारंभ हो जाता है एवं दुकानें लगने का सिलसिला भी धीरे-धीरे शुरू होने लगता है। इसका शुभारंभ गणमाननीय नागरिक अथवा मंत्री या प्रशासनिक अधिकारी द्वारा होता है।

विजयदशमी के दिन सांय रावण दहन का भव्य व आकर्षक तथा रोमांचकारी दहन होता हें। 70 फीट से लेकर 175 फीट तक का रावण का पुतला जिसे कागज एवं आतिशबाजी से निर्मित किया जाता है, लगाया जाता है। साथ ही मेघनाथ व कुंभकरण के पुतले भी होते हैं। गढ़ पैलेस से राम बारात व झांकियों का भव्य सिलसिला चलता है गाजे बाजे के साथ। यह झांकियां मेले का विशेष आकर्षण होती है। इस दिन पूरे अंचल से जन सैलाब उमड़ पड़ता है। लाखों दर्शकों की भीड़ को संभालने हेतु सैकड़ों पुलिसकर्मी तैनात किए जाते हैं। रावण दहन का कार्यक्रम तो इतना भव्य होता है की पलकें झपकना ही भूल जाती हैं। आतिशबाजी की घटा मन मोह लेती है।

दूर-दूर से यह नजारा दिखाई पड़ता है। दहन के पूर्व हेलीकॉप्टर से रावण के पुतले पर पुष्प वर्षा भी की जाती है। दहन पूर्व दिन भर रावण के पुतले में कई हरकतें भी चलती रहती हैं, जैसे पलकें झपकना, तलवार का चलते रहना, गर्दन का घूमना आदि। यह मेला धनतेरस तक चलता है। प्रशासन द्वारा की गई विद्युत घटा बेजोड़ होती है। मेले के साथ-साथ आसपास के भवनों व कार्यालयो, द्वारो पर भी विद्युत लड़ियां जगमग होती हैं। ऐसा लगता है जैसे हीरे, मण्यिॉं जड़ी हो, पूरा प्रांगण प्रकाश से झिलमिल होता है। रावण की कंचन नगरी का वैभव भी इसके आगे फी़का रहता होगा।

भारत भर से सैकड़ो प्रतिष्ठानों की दुकानें यहां लगाई जाती हैं। रंग-बिरंगे झूले, सर्कस, डिज्नीलैंड, प्रदर्शनियां, हंसी-घर, यानी भरपूर मनोरंजन। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है, जिसमें पूरे देश के कलाकार भाग लेते हैं। साथ ही किसान रंगमंच पर अलग-अलग रंगारंग कार्यक्रम होते हैं। पशु मेला भी समानांतर चलता है। विभिन्न प्रतियोगिताएं होती हैं। समापन दिवस पर पुरस्कार वितरण होते हैं। कुछ वर्षों से इस दिन राजस्थान पत्रिका द्वारा भव्य आतिशबाजी भी संपन्न होती है। क्या मजाल कि दर्शकों की आंखें आसमान से धरती पर आ जाएं।

मोजी बाबा की गुफा का एक ऐतिहासिक प्रसंग है। पुरातन काल में मोजी बाबा सिंह संत ने तपस्या, साधना भी की थी। यह गुफा उनकी तपस्थली होने के कारण मोजी बाबा की गुफा कहलाती है। यह एक तीर्थ स्थल है, य।पि असली गुफा बैराज बनने के कारण जलमग्न हो गई है। इसलिए इसके ठीक ऊपर कृत्रिम गुफा बनाई है। यहां अखंड रामायण पाठ चलता है एवं मानस का पाठ करते हुए हनुमान जी की प्रतिमा भी है जो अद्वितीय है। जैसा कि सभी पर्यटक शहरों में होता है कि स्थानीय दर्शनीय स्थल के बाद उसके आसपास यहां तक की 80 किलोमीटर तक की दूरी के स्थल भी उस स्थान विशेष के पर्यटन में संलग्न होते हैं।

कोटा शहर के आसपास भी पर्यटन स्थलों की लंबी सूची है। सर्वप्रथम हम चलते हैं कोटा रावतभाटा मार्ग पर। कोटा से 20 किलोमीटर दूरी पर आता है प्रसिद्ध गेपरनाथ मंदिर जो प्राकृतिक वैभव से सराबोर है। कहते हैं कि कुबेर की तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने उसे दर्शन दिए थे। तब से यहां स्वयंभू शिवलिंग विराजित हैं। यह काफी गहरी घाटी मैं स्थित है, जहां सीढ़ियों से उतरकर जाना होता है। नीचे शंकर भगवान जी का प्राचीन मंदिर है, कुंड है तथा जलप्रपात है। यहां की हरियाली, शांत वातावरण व भीमकाय चट्टानें खूबसूरती को संवर्द्धित करती है। बारिश में तो दीवारों से सारी चट्टाने ही झरने का रूप ले लेती है। चारों ओर से फुहारे भरती रहती हैं। आसमान की वर्षा बंद होने पर भी यहां बरसात होती रहती है, वैसा ही आनंद आता है। झरना इतना तेज ध्वनि करता है कि ऊपर तक नाद सुनाई पड़ता है। झरना चट्टानों से बहुत आगे तक बहता हुआ चंबल में एकाकार होता है। यह प्राकृतिक पिकनिक स्थल है। बारिश में तो इसकी सुंदरता अनुपम होती है। हजारों लोग पिकनिक मनाने आते हैं। कच्चा खाना बनाने की जगह तक नहीं मिलती। यह स्थल पंचमढ़ि के ‘बड़े महादेव’ से कहीं काम नहीं है। दोनों घाटियों में है। दोनों शिव के मंदिर हैं। वहां मंदिर में ऊपर से चट्टानों से बूंदे गिरती हैं, यहां बाहर धाराएं गिरती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कोटा में यह स्थल अन्य जगहों से उन्नीस नहीं है। गेपरनाथ से आगे आप देख सकते हैं जवाहर सागर बांध। जी हां पहाड़ों के मध्य सुशोभित दो पर्वतों का सेतु है यह डेम। साथ में पहाड़ी रास्ते, घुमावदार मोड़, पेड़ों से लगे पर्वत, वहीं पहाड़ी वृक्ष, एवं जड़ी-बूटियां, झरने, बांस के वन यानी हिल स्टेशन का पूरा-पूरा लुत्फ़ उठाया जा सकता है। मसूरी या मनाली की घटा यहीं देखी जा सकती है। बीच में बहती चंबल कहीं भी सुरसरि से कम नहीं लगती। उसे पार पहाड़ी पर ही बसा है छोटा सा कस्बा, जहां पिकनिक मनाई जा सकती है। छोटा सा पार्क भी है यहां। विद्युत निर्माण का प्रोजेक्ट भी लगा हुआ है।

यहीं पश्चिम की ओर हें ‘जवाहर सागर वन्य जीव अभ्यारण्य’ जिसका क्षेत्रफल 315 वर्ग किलोमीटर है। इसे 1975 में अभ्यारण्य घोषित किया गया था। यहां पर बांस एवं धोक के वृक्ष ज्यादातर मिलते हैं। रिछ, तेंदुआ, लकड़बग्घा आदि कई जंगली जानवर यहां देखे जा सकते हैं। यहीं कुछ दूरी पर गड़रिया महादेव का पुरातन धार्मिक स्थल है। रास्ते में चंबल का खूबसूरत दृश्य का तो कोई सानी ही नहीं है। यहां का लिया गया फोटो तो टूरिस्ट विभाग ने पोस्टर के रूप में भी प्रकाशित किया है। इसमें चंबल को बड़ी ही खूबसूरती से केमरे में कैद किया है। ऐसा लगता है जैसे बीच में टापू है और चारों ओर चंबल घिरी हुई है।

जवाहर सागर बांध से चंबल के यमुना में मिलने तक का क्षेत्र घड़ियाल अभ्यारण घोषित है। इसका क्षेत्रफल 280 वर्ग किलोमीटर है। घड़ियाल, मगरमच्छ, आटर आदि जीवों के साथ-साथ जलीय पक्षी भी मिलते हैं। यह भारत का दुर्लभ अभ्यारण्य है, जो विशेष दर्शनीय है। यहीं गरडिया महादेव के पास विद्यांचल एवं अरावली पर्वत के एक साथ मिलने के कारण इको-टोन बनता है।

ऐसे क्षेत्र में अति विशिष्ट जड़ी बूटियां उत्पन्न होती हैं। शंखपुष्पी यहां उत्पन्न होती है जो कि बहुत कीमती है एवं आयुर्वेद की प्रमुख दवा है। यह इस क्षेत्र की अति विशेष महत्ता है, जिससे जनसाधारण अभिभूत है। एकमात्र केरल में भी यह जड़ी बूटी उत्पन्न होती है। जवाहर सागर से लगभग 5 किलोमीटर आगे चलते ही उतराई प्रारंभ होती है एक और दरा अभ्यारण्य है दूसरी और अरावली की खूबसूरत पर्वतमालाएं। लगभग 10 किलोमीटर तक इस रास्ते का लुत्फ उठाया जा सकता है।

इसके बाद आता है ‘बाड़ोली के मंदिर’ जो रावतभाटा से लगभग 5 किलोमीटर पहले हैं। यहां मंदिरों की स्थापत्य शैली देखकर दांतों तले उंगली दबाए बिना नहीं रह सकता है। बहुत सुंदर कुंड भी है, इसके मध्य में छोटा सा शंकर भगवन का मंदिर भी है लेकिन इन मंदिरों को बुरी तरह ध्वस्त किया गया है। अधिकांश मूर्तियों के चेहरे तोड़े गए हैं। टूटे हुए खंडहर यही बिखरे पड़े हैं। एक मंदिर में शंकर का लिंग पूरा बचा हुआ है, जहां नियमित पूजा अर्चना होती है।

बहुत ही शीतलता एवं सुकून मिलता है। यहां मंदिर के आगे भी कुंड है जो जर्जर अवस्था में है। यहाँ वट पीपल, आम आदि के वृक्ष भी हैं। यानी एकदम प्राकृतिक एवं पुरातात्विक स्थल है। यहा प्रवेश करते ही दो छोटी-छोटी जल धाराएं बहती मिलती हैं। जिनका पानी एकदम शीतल व कांच का टूक है। इसके पास बैठकर बहुत ही अच्छा लगता है। यह जल 12 महीने बहता है। इन मंदिरों का इतिहास भी है। कहते हैं या 9 मंदिर थे ।

यहां से 5 किलोमीटर आगे रावतभाटा कस्बा आता है। जहां चंबल पर राणा प्रताप नामक बांध है जो दर्शनीय है। यहां पर भारी मात्रा में बिजली बनाई जाती है। आज्ञा लेकर इस प्रक्रिया को देखा जा सकता है। यह बांध भी ऊंचाई पर ही है। इसी के नीचे बना है छोटा सा सैंडल डैम जिस गुजरते हुए चंबल का शांत बहता जल एवं घनी हरीतिमा पर्यटकों को ठहरने के लिए बाध्य कर देती है। यहां से लगभग 15 किलोमीटर कच्चे रास्ते से चलकर पहाड़ी पर बना है ’अग्रवाल फार्म हाउस’ पहाड़ियों पर दूर दूर फैला यह स्थल बारिश में तो गजब ढाता है।

यहां तरण ताल भी है। ऑंवले, मौसमी, संतरा, नींबू, अनार आदि कई फलों के विशाल बगीचे हैं। जिन पर फल लदे पड़े होते हैं। यूं ही हाथ बढ़ाकर तोड़ा जा सकता है। ऑंवले तो एक-एक पेड़ पर हजारों की तादात में लगे होते हैं। पेड़ छोटे-छोटे हैं लेकिन फलों के भंडार। मौसमी व संतरे लदे देखकर उत्तरांचल के सेव के बाग याद आ जाते हैं। यहां भी पूर्व परमिशन जरूरी है। कोटा के ही राकेश अग्रवाल का यह फार्म हाउस है। स्थिति यह है कि इतने फल पैदा होते हैं की सप्लाई तक नहीं हो पाती। फल यूं ही ढेर के पड़े पड़े सड़ जाते हैं।

समीप ही कच्चे रास्ते से चलने के बाद पहाड़ पर महादेव जी का रमणीय स्थल है। यह गेपरनाथ की तरह है। केवल कुछ गहराई काम है वहीं की भांति यहां भी बारिश में पहाड़ धराएं झरने लगती हैं साथ ही झरना तो फूट पड़ता ही है। शंकर भगवान का मंदिर एवं कुंड तो है ही। बारिश में तो पर्यटकों की लाइन लग जाती है। रावतभाटा से आगे है विशाल बांध ’गांधी सागर’ जहां अथाह जल राशि को पहाड़ों के बीच बांध लिया गया है।

यहां की प्राकृतिक सुंदरता मन को भी बांध लेती है। कुछ आगे जाकर तो चंबल की जल राशि का पारावार का आर पार ही नहीं, दूसरा छोर तो नजर ही नहीं आता। समंदर जैसा आभास होने लगता है। जवाहरलाल नेहरू ने बांधों को आधुनिक तीर्थ कहा है। इस दृष्टि से यह क्षेत्र प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हुआ।

कोटा से सांगोद मार्ग पर 15 किलोमीटर दूर कैथून कस्बा भी पर्यटन की दृष्टि से समृद्ध है। यहां विश्व का एकमात्र विभीषण मंदिर है। किदवंती है कि प्रतिवर्ष यह विभीषण जी की प्रतिमा चावल के बराबर भूमि में समा जाती है। इस मंदिर को लेकर एक लोक कथा प्रचलित है कहते हैं कि एक बार शंकर भगवान हनुमान जी के साथ विभीषण के कंधे पर कावड़ में बैठकर लंका चलने को तैयार हो गए थे लेकिन शर्त थी कि यदि कावड़ कहीं भी धरती पर रख दी गई तो वह यही स्थापित हो जाएगी। कैथून के निकट विभीषण जी को लघुशंका होने लगी।

उन्होंने एक ग्वाले को कावड़ थमा दी। उसने उसे धरती पर रख दिया। शर्त अनुसार शंकर भगवान चार चोमा में चमत्कारेश्वर के नाम से स्थापित हो गए व हनुमान जी कोटा के रंगबाड़ी में स्थापित हुए। विभीषण जी को इस बात का बड़ा दुख हुआ। तब श्री राम ने प्रसन्न होकर वर्तमान में इसका सीने के ऊपर का भाग ही भूमि के ऊपर है। पास ही बावड़ी भी है।

विशेष बात यह है की होली पर यहां विशाल मेले का आयोजन होता है। मेला आयोजन समिति इसका प्रबंधन करती है। होली के दिन बड़ी ही धूमधाम से विमान, अखाड़े, झांकियां, गाजे-बाजे के साथ मुख्य बाजारों से होकर निकलती है। इस दिन मेले स्थल पर हिरणकश्यप के विशाल पुतले का दहन किया जाता है। ऐसा शायद पूरे भारत में कहीं नहीं होता। विभीषण जी का विशेष श्रंगार होता है।

प्रतिदिन विभिन्न रंगारंग व सांस्कृतिक प्रोग्राम होते हैं। जिनमें देश के नामी कलाकार हिस्सा लेते हैं। प्रशासन व समिति उन्हें आमंत्रण देकर बुलाती है साथ ही रासलीला भी चलती है जहां ब्रज मंडली आती है। दूर-दूर से लोग इस समारोह को देखने आते हैं। आर्थिक प्रबंधन हेतु समिति कूपन विक्रय करती है। इसके कार्यकर्ता लाखों की संख्या में कूपन बेचते हैं। मेले के समापन पर कूपनो पर कई पुरस्कार, लॉटरी सिस्टम से निकले जाते हैं। अभी तक इनका बड़ा इनाम बाइक होती है। बिल्कुल ताजा खबरों के अनुसार बहुत जल्द कैथून में एफ एम यानी फ्रिकवेंसी माड्यूलेशन टावर लगाई जाएगी। जिससे इससे संबंधित कई स्टेशन रेडियो पर इस क्षेत्र में सुने जा सकेंगे।

इसी के साथ यहां बनाई जाने वाली कोटा साड़ी विश्व में अपना सानी नहीं रखती। कोटा डोरिया के नाम से भी जानी जाती है। यहां घर-घर में घर के बाहर रास्ते में ही यह साड़ी बनती हुई देखी जा सकती है। 300-400 से 25000 रुपए तक की इनकी कीमत होती है। इसमें असली जरी और रेशम का भी प्रयोग होता है। पर्यटकों को बनती हुई साड़ियां दिखाई जा सकती हैं। बनारस, बेंगलुरु, मैसूर की तरह एक बिंद यह भी हो सकता है। साड़ी बुनाई की प्रक्रिया दिखाना एवं शोरूम पर ले जाकर पर्यटकों को विक्रय हेतु प्रेरित करना जैसा कि उपरोक्त शहरों में पर्यटक बसे हमें ले गई थी। और हमें साड़ियां खरीदनी ही पड़ी थी।

निशानी के तौर पर, लोगों को दिखाने के लिए, असली होने की प्रमाणिकता के लिए एवं सस्ती भी होती हैं। जो साड़ी वहां के कैथून में बुनकरों के यहां या थोक वालों के यहां 650 रुपए में मिलती है, वही साड़ी उसी दिन कोटा में 850 रुपए में मिलती है। ऐसा हमने ही करके देखा है। अभी भी वह साड़ी अलमारी में रखी हुई है। वाकई इन साड़ियों की ग्रेस व खूबसूरती यूनिक है। हां, दुपट्टे भी मिलते हैं। मसूर के दानो जैसी बनावट होने के कारण इसे मसूरिया साड़ी के नाम से भी जाना जाता है।

कैथून से लगभग 20-22 किलोमीटर दूर पर स्थित है आंवा कस्बा। यहां बद्रीनाथ जी का मंदिर है जो भारत में दूसरा ही होना चाहिए। मंदिर सड़क लेवल से थोड़ा नीचे है। श्याम वर्ण की बड़ी ही सुंदर प्रतिमा है। यहां आकर दर्शन करके परम आनंद की स्वतः ही प्राप्ति होती है। इस मंदिर में हिमालय पर्वत वाले बद्रीनाथ जी मंदिर जैसी मूर्तियां हैं, जिसे महसूस ही किया जा सकता है, लिखा नहीं जा सकता। यहां भी उत्सवों पर विशेष आयोजन होते हैं। शुक्रवार को भीगे चने का प्रसाद बेहद स्वादिष्ट होता है। हमें तो चौथी कक्षा में ढाई महीने वहीं पढ़े थे। वहां खूब खाया है यह प्रसाद। यहां से लगभग एक किलोमीटर दूर हमारा गांव सावन भादो है। उस वक्त हमारे छोटे दादा जी वहीं शिक्षक थे। मंदिर के सामने तिबारी में ही हमारी कक्षा लगती थी।

इस मंदिर की भी एक कहानी है। आंवा की एक महिला प्रतिवर्ष हिमालय पर बद्रीनाथ जी के दर्शन करने जाती थी। जीवन के पिछले प्रहर में जब वह अशक्त हो गई और यात्रा नहीं कर पा रही रही थी। इसका उसे बहुत दुख हुआ और वह मन ही मन बद्रीनाथ जी का स्मरण करने लगी। कहते हैं कि उस वर्ष बद्रीनाथ जी की प्रतिमा वहां प्रकट हुई और फिर मंदिर का निर्माण हुआ। बुढ़िया की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह बात सपने में भगवान ने उसे बताई थी। संभव है श्रद्धा के समक्ष नारायण तो नतमस्तक होते ही आए हैं। भक्तों के वश में जो हैं।

“पोपा बाई का रावला” कहावत पूरे देश में प्रसिद्ध है। पोपा बाई नामक महिला आवां की ही थी। वह स्थल, वह जगह आज भी यहां है। इसे देखा जा सकता है। आंवा कुछ ऊंचाई पर स्थित है। सावन भादो से यहां आने पर टेक चढ़नी पड़ती है। कहते हैं कि कौरवों द्वारा पांडवों पर रेत बरसाने का जो प्रसंग है वह स्थान आंॅवा ही है। रेत बरसाने के कारण वह जमीन से ऊंचा हो गया है। हैं ना एतिहासिक, पौराणिक व दिलचस्प जगह। हां बद्रीनाथ मंदिर के लिए यह भी कहा जाता है कि यह मंदिर प्रतिवर्ष तिलभर भूमि में समाता जा रहा है।

आंवा से लगभग एक किलोमीटर दूर प्रसिद्ध माताजी का मंदिर हे जो दूधिया खेड़ी के नाम से जाना जाता है। यहां प्रति रविवार को विशेष पूजन होता है। इस दिन माता जी के दर्शन से विशेष फल मिलता है। हम सावन भादो से पैदल चलकर रविवार को सैकड़ो बार माताजी के दर्शन करने अवश्य आए थे। यहां पर मनौतिया खूब मांगी जाती हैं। यहां पर भोपा दर्शनार्थियों को लच्छा देता है।

जिसे खेल कहते हैं। वह गले में धारण की जाती है। दोबारा आने पर उसे यही लगे पेड़ों पर टाक कर नई खेल धारण कर लेते हैं। पहले यहां माई साते को तीन दिवसीय मेला भी लगता था। अब 8-10 दिनों तक लगता है। आसपास के व्यापारी आते हैं, दूर दराज के भी। आसपास गांव के विद्यालयों के छात्रों की खेलकूद प्रतियोगिताएं मेले के समय आयोजित की जाती हैं। पुरस्कार वितरण भी किया जाता है।

पहले वहां एक कमरे की छोटी सी धर्मशाला थी, अब तो अच्छी धर्मशाला भी बन गई है। मंदिर का स्वरूप भी कुछ और ही हो गया है यानी सुंदर मंदिर बन गया है। यहां दूर दूर से दर्शनार्थी आते हैं। इसके पीछे भी एक किंदवंती है। कहते हैं कि एक व्यक्ति विशेष कहीं किसी स्थान से माताजी की मूर्तियां लेकर अपने इच्छित स्थान पर पादराने के लिए जा रहा था। रास्ते में रात्रि हो जाने के कारण यहां प्रतिमाओं को भूमि पर रखकर सो गया। सुबह जब वह मूर्तिया उठाने लगा तो प्रतिमाएं तिल भर भी नहीं हिली। सारा प्रयास बेकार गया।

अगले दिन उस व्यक्ति के सपने में माताजी ने कहा कि मुझे यही स्थापित किया जाए। ऐसा ही हुआ और आज मातेश्वरी सब की मनोकामना पूरी करती हैं। माता जी के नाम से ही यहां बस स्टॉप है। मंदिर के चारो तरफ घने पेड़ हैं। थोड़ा आगे जाकर नदी बहती है। जहां पिकनिक मनाई जा सकती है। जब हम सावन भादो के स्कूल में पढ़ते थे। हमारे स्कूल की पिकनिक यही हुई थी। इसके आसपास दूर-दूर तक बेरों की झाड़ियां लदी पड़ी है। इनमें इतने बेर आते हैं कि एक डंडे से मारो हजारों बेर आपकी झोली में गिर पड़ेंगे।

यहां से दीगोद मार्ग पर रेल गांव के पास चार चौमा का व साराणियां के महादेव जी का मंदिर है। चार चौमा में चार मुखी शिवजी की प्रतिमा है। इसलिए इसके नाम चार चौमा पड़ा है। दोनों मंदिरों पर शिवरात्रि पर मेले लगते हैं। चार चौमा स्थापत्य कला का श्रेष्ठ नमूना है। यहां 4 फीट ऊंची चतुर्मुखी बड़ी ही विशाल भव्य प्रतिमा है। मंदिर के चारों दिशाओं में मुंडली की चौमा, निम्बू की चौमा, मालियों की चौमा है।

कोटा से सांगोद के दो मार्ग हैं, एक आंवा कनवास होकर दूसरा दरा होकर। दरा का अभ्यारण्य भी विशेष दर्शनीय है। सन 1955 में मुकुंदरा पर्वत के बीच स्थित झाड़ियों के वनों को दरा वन्य जीव अभ्यारण्य का नाम दिया गया। इसके पूर्व यह राजा महाराजाओं की शिकार करने का प्रसिद्ध क्षेत्र रहा है। यह 80 किलोमीटर में विस्तारित है तथा इसका क्षेत्रफल 274 वर्ग किलोमीटर है। बड़ी नैसर्गिक सुंदरता यहां बिखरी पड़ी है। जगह-जगह झरते झरने इसे और मोहक बना देते हैं।

इस वन में प्रमुखतः पलाश, नीम, बबूल, डाक, साल, शीशम, महुआ, अंजीर, बेलपत्र, धोक, बरगद सहित कई झरने प्रमुख हैं। झरनों के साथ-साथ यहां कई तालाब भी इस की छवि बढ़ाते हैं। अब तो यहां शेर अति दुर्लभ हैं लेकिन चीतल, सांभर, रीच, लंगूर, नीलगाय सहित कई जंगली पशु पाए जाते हैं। सैकड़ो प्रकार के पक्षी भी यहां चहल-पहल करते हैं। जिनमें मुख्यतः पोलक, हरियल, बटेर, तीतर, तोता आदि हैं। इस क्षेत्र में गुप्तकालीन भीम चौकी एवं ऐतिहासिक महल भी देखने योग्य है। साथ ही मीणी का महल विशेष चर्चित है।

कोटा के महाराजा इसकी सुंदरता पर आसक्त थे। अमझार पैलेस के पास वाली मीणी का महल कलाकारी का श्रेष्ठ नमूना है। महाराज छत्रसाल सिंह की प्रेयसी मीणी सुंदरता के साथ-साथ बहादुर व वीर भी थी। साथ ही नट विद्या में पारंगत थी। इस महल की कला नायिका की मुद्राएं, घटनाओं का ब्यौरा आदि पर्यटकों को मानसिक सुकून देता है। उम्मेद क्लब कोटा भी इसी प्रेमिका के लिए बनवाया गया था। मिणी की छतरी क्षारबाग की छतरियों में भी एक है। ‘दरा’ नाम मुकुंदरा पर्वत का नाम ही छोटा होकर बोलचाल में दरा रह गया है। शायद यहां भी कई संगोष्ठियां, पिकनिक आयोजन होते हैं।

यहां से रामेश्वरम महादेव जी का पावन स्थल भी अत्यधिक रमणीक व मनोरम पिकनिक स्पॉट है। यह बूंदी से 14 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। छोटा सा प्राचीन मंदिर है। यहां सुंदर जल प्रवाह भी 12 महीने गिरता रहता है। नैसर्गिक सुंदरता देखते ही बनती है। यहां शिवरात्रि को मेला भी लगता है। यह भी अरावली पर्वत में गमंद पर्वत में ही आता है। इसी के साथ मेनाल भी बहुत ही रमणीय व आकर्षक, प्राकृतिक स्थल है। बारिश में हजारों पर्यटक यहां पिकनिक करने जाते हैं। यहां झरना एवं शंकर भगवान का मंदिर तो दर्शनीय ही है।

कोटा से दिल्ली-मुंबई मार्ग पर इंदरगढ़ स्टेशन से 100 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर शेमकरी देवी का प्राचीन मंदिर है। माता को बिजासन माता के नाम से जाना जाता है। यह देवी मां अत्यंत चमत्कारी मंदिर हैं। भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं। नवरात्रि में मेला भी लगता है।

शेरगढ़ किला
बारां जिले का शेरगढ़ अभ्यारण्य भी काफी प्रसिद्ध एवं चर्चित है। यहां शेरगढ़ का किला भी दर्शनीय है। यह परवन नदी के किनारे पर स्थित है। यहां पर कई जंगली जानवर दिखाई देते हैं। नदी में मगरमच्छ तो देखे ही जा सकते हैं। यही राज्य पक्षी गोडावण के लिए घोषित व संरक्षित क्षेत्र भी है। सोरसन में कई जलीय पक्षी भी बिहार करते हैं। यहां चिंकारा, सियार, काले हिरण आदि विचरते हैं।

कोटा से 75 किलोमीटर झालरापाटन में सूर्य मंदिर है। कोणार्क का सूर्य मंदिर जो विश्व प्रसिद्ध है ही। लेकिन यहां का सूर्य मंदिर भी कला का बेजोड़ नमूना है। कहते हैं कि यह जमीन के अंदर से ही निकला है। प्रारंभ में इसी मार्ग पर 25 किलोमीटर दूर चलकर दाएं ओर 1 किलोमीटर चलने पर कर्णेश्वर का रम्य स्थल है। यहां शिव मंदिर है एवं कल-कल, छल-छल करती सुंदर सी धारा बारिश में गदरा जाती है। सुंदर, रमणीय स्थल एवं पिकनिक स्थल है। इसी मार्ग चट्टानेश्वर भी अच्छा स्थल है। यहां भी शिव मंदिर झरना चहाने आदि आनंद दायक है।

कोटा से लगभग 20 किलोमीटर दूर पर केशोरायपाटन चंबल के पुल पर स्थित है। प्रतिवर्ष यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता है। कई सुंदर आयोजन होते हैं। यहां केशवराय जी का विशाल मंदिर है। जिसका वास्तु शिल्प अप्रतिम है। इस समय यह नगर खूब सजाया जाता है। कहते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को चौथे प्रहर में के आसमान से केसर की वर्षा होती है। संभव तो इसी वजह से इस स्थान का नाम व मंदिर का नाम केशवराय कस्बे का नाम ‘केशोरायपाटन’ पड़ा होगा। पुण्य पर्वो के साथ-साथ कार्तिक पूर्णिमा को यहां चंबल में स्नान करने को हजारों श्रद्धालु आते हैं। यहा इस मंदिर में 19 सीढ़ियां लगी हुई है। इसमें केशवराय जी की सुंदर मूर्ति स्थापित है।

यह मंदिर बूंदी के राजा शत्रुसाल सिंह जी ने सन 1641 ईस्वी में बनवाया था। कहते हैं कि राजा रतिदेव ने नदी में से मूर्तियों को खोज कर तट पर मंदिर में रखा था। यहाँ पर पांडवों ने भी वास लिया था। राजा राती देव महर्षि परशुराम जी ने भी इस पावन धाम पर कठोर तप किया था। यहां पर पांडवो की गुफा, यज्ञशाला, उनके बनाये शिवलिंग, नागेश्वर, हनुमान जी व अंजना माता के मंदिर भी हैं। जैन धर्म के भी यहां प्रसिद्ध व विशाल प्राचीन मंदिर हैं। मंदिर के भूमिगत गर्भ ग्रह में 20 वें तीर्थंकर मुनि सुब्रत नाथ की माले पत्थर की चमत्कारी मूर्ति है।

कोटा से 56 किलोमीटर दूर दीगोद मार्ग पर सुल्तानपुर पंचायत समिति में बूढ़ादीत मंदिर भी दर्शनीय है। यह वृद्ध सूर्य मंदिर होने के कारण बढ़ादीत यानी ‘बुध आदित्य’ कहलाता है। कोणार्क शैली में बना है यह मंदिर। इसे 9 वीं शती में बनाया बताते हैं। झालावाड़ पाटन के सूर्य मंदिर के बाद यही मंदिर प्रख्यात है। यह मंदिर भी सरोवर के कूल पर अवतरित है। सरोवर में कमल खिले होते हैं। यहां भी सधन वृक्षावलियां हैं। जो नैसर्गिक वातावरण निर्मित करती हैं। सुन्दर स्थान है यह भी। यहां से 25 किलोमीटर दूर अलनिया के शैल चित्र बहुत ही श्रेष्ठ और दर्शनीय है।

कोटा से लगभग 20 किलोमीटर दूर कैथून मार्ग पर मोतीपुरा के समीप चरण चौकी भी एक स्थल है। इस मंदिर में श्रीनाथजी के चरण चिन्ह पूजे जाते हैं। औरंगजेब ने जब मंदिर तोड़ना शुरू किया तब श्रीनाथजी के दिव्य विग्रह को यहां लाया गया था। यहां श्रीनाथ जी ने चार महीने वास किया था। यह स्थल श्रद्धालुओं के लिए पावन स्थल बन गया। रमणीय स्थल तो है ही। कोटा मुंबई रेल मार्ग पर रामगंजमंडी स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर खैराबाद कस्बे में फलौदी माताजी का मंदिर बहुत ही प्रसिद्ध है।

फलौदी में प्रकट होने के कारण देवी मां के इस मंदिर का नाम फलौदी माताजी का मंदिर कहलाता है। मां की मूर्ति श्याम वर्ण की है। जो बेहद आकर्षक व चमत्कारी है। पास ही कलात्मक कुंड भी है। कुम्भ की तरह 12 वर्षों में यहां भव्य मेले का आयोजन भी होता है। हां, विश्व प्रसिद्ध कोटा स्टोन की खाने रामगंजमंडी में ही हो। चमक व मजबूती इसकी विशेषताएं हैं। कोटा के महाराजा द्वितीय ने ही इस पत्थर को ‘कोटा स्टोन’ का नाम दिया था। इस भांति हाड़ौती पर्यटन कि द्रष्टि से बेहद सुसम्रद्ध, सोंदर्य से शराबोर हें। आइए, और हाड़ौती दर्शन का नयन लाभ उठाइए।

(लेखिका विभिन्न विषयों पर hindimedia.in के लिए लिखती रहती हैं।)

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