Saturday, April 27, 2024
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डॉ. अंबेडकर इन सवालों का जवाब नहीं दे पाए

डॉ. कुशलदेव शास्त्री की पुस्तक में खुलासा 

6 दिसंबर 1956 को डॉ. भीमराव अंबेडकर का देहावसान हुआ। कानपुर के वैदिक गवेषक पंडित शिवपूजन सिंह जी का चर्चित ‘भ्रांति निवारण’ सोलह पृष्ठीय लेख ‘सार्वदेशिक’ मासिक के जुलाई-अगस्त 1951 अंक में उनके देहावसान के पांच वर्ष तीन माह पूर्व प्रकाशित हुआ था। डॉ. अंबेडकर इस मासिक से भलीभांति परिचित थे और तभी यह चर्चित अंक भी उनकी सेवा में भेजा गया था। लेख डॉ. अंबेडकर के वेदादि विषयक विचारों की समीक्षा में 54 प्रामाणिक उद्धरणों के साथ लिखा गया था। इसकी प्रति विदर्भ के वाशिम जनपद के आर्य समाज कारंजा के प्राचीन ग्रंथालय में सुरक्षित है।

आशा थी कि डॉ. अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विद्वान या तो इसका उत्तर देते या फिर अपनी पुस्तकें बताए गए अकाट्य तथ्यों की रोशनी में संपादित करते। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। ऐसा इसलिए कि जो जातिगत भेदभाव और अपमान उन्होंने लगातार सहा उसकी वेदना और विद्रोह ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

डा. अंबेडकर की दोनों पुस्तकें -अछूत कौन और कैसे तथा शूद्रों की खोज- पर लेख शंका समाधान शैली में लिखा गया था परंतु डॉ. कुशलदेव शास्त्री जी ने इसे सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रूपांतरित किया है जिसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस लेख को स्वामी जी द्वारा लिखित ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ के आलोक में पढ़कर सत्यासत्य का निर्णय सहर्ष लिया जा सकता है।

1 – ‘अछूत कौन और कैसे’

डॉ. अंबेडकर – आर्य लोग निर्विवाद रूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे, जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य और दूसरे यजुर्वेदीय आर्य, जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी। ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे, अथर्ववेदीय जादू-टोना में।

पंडित शिवपूजन सिंह – दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप जैसे कुछ मस्तिकों की उपज है। यह केवल कपोल कल्पना या कल्पना विलास है। इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कोई ऐतिहासिक विद्वान भी इसका समर्थन नहीं करता। अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नहीं है।

डॉ. अंबेडकर – ऋग्वेद में आर्यदेवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (सांप देवता) से होता है,जो कालांतर में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पं. शिवपूजन सिंह – वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश पाताल का अंतर है। यहाँ इंद्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है। यह संघर्ष आर्य देवता और और नाग देवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होने वाला संघर्ष है। वैदिक शब्दों के विषय में.निरुक्त का ही मत मान्य होता है। वैदिक निरूक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण ही आपको भ्रम हुआ है।

डॉ. अंबेडकर- महामहोपाध्याय डा. काणे का मत है कि गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेही संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था की गयी है।

पं. शिवपूजन सिंह – श्री काणे जी ने वाजसनेही संहिता का कोई प्रमाण और संदर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है। आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।

डॉ. अंबेडकर – ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।

पं. शिवपूजन सिंह – कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं, किंतु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खंडन किया है।वेद में गोमांस भक्षण विरोध करने वाले 22 विद्वानों के मेरे पास स-संदर्भ प्रमाण हैं।ऋग्वेद से गोहत्या और गोमास भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं, वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अंतर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं। जैसे वेद में’उक्ष’ बलवर्धक औषधि का नाम है जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ‘बैल’ क्यों न हो।

डॉ. अंबेडकर – बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता। मधुपर्क में मांस और विशेष रूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है।

पं. शिवपूजन सिंह – आपका यह विधान वेदों पर नहीं अपितु गृह्यसूत्रों पर आधारित है। गृहसूत्रों के वचन वेद विरूध्द होने से माननीय नहीं हैं। वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती जी के अनुसार,” दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है। उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है।”

डॉ. अंबेडकर – अतिथि के लिए गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही ‘गोघ्न’, अर्थात् गौ की हत्या करना पड़ गया था।

प. शिवपूजन सिंह – ‘गोघ्न’ का अर्थ गौ की हत्या करने वाला नहीं है। यह शब्द ‘गौ’ और ‘हन’ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं, यथा -वाणी, जल, सुखविशेष, नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ‘हन’ का अर्थ ‘गति’ और ‘हिंसा’ बतलाते हैं।गति के अर्थ हैं -ज्ञान, गमन, और प्राप्ति। प्राय: सभी सभ्य देशों में जब किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए गृहपति घर से बाहर आते हुए कुछ गति करता है, चलता है,उससे मधुर वाणी में बोलता है, फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासंभव उसके सुख के लिए अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिए कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है नहीं, गृहपति की आंखें भी उस ओर टकटकी लगाए रहती हैं। ‘गोघ्न’ का अर्थ हुआ -‘गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै: स गोघ्न:’ = जिसके लिए गौदान की जाती है, वह अतिथि ‘गोघ्न’ कहलाता है।

डॉ. अंबेडकर – हिंदू ब्राह्मण हो या अब्राह्मण, न केवल मांसाहारी थे, किंतु गोमांसहारी भी थे।

प. शिवपूजन सिंह – आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिए मांस भक्षण का भी विधान नहीं है।

डॉ. अंबेडकर – मनु ने गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया। उसने तो विशेष अवसरों पर ‘गो-मांसाहार’ अनिवार्य ठहराया है।

पं. शिवपूजन सिंह – मनुस्मृति में कहीं भी मांसभक्षण का वर्णन नहीं है। जो है वो प्रक्षिप्त है। आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया कि मनु जी ने कहां पर गोमांस अनिवार्य ठहराया है। मनु (5/51 ) के अनुसार हत्या की अनुमति देनेवाला, अंगों को काटने वाला, मारनेवाला, क्रय और विक्रय करने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खानेवाला इन सबको घातक कहा गया है।

2- ‘ शूद्रों की खोज

डॉ. अंबेडकर – पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिध्दि के लिए प्रक्षिप्त किया है। कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छंद और शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न है। अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना हुआ है।

पं. शिवपूजन सिंह – आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है। आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरूषों का समुदाय -‘संगठित समुदाय’- ‘एक पुरुष’ रूप है।इस समुदाय पुरुष या राष्ट्र पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मंत्र ‘ ब्राह्मणोSस्य मुखमासीत्…’ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिए।

उक्त मंत्र में कहा गया है कि ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख, केवल भुजाएँ, केवल जङ्घाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं अपितु मुख, भुजाएँ, जङ्घाएँ और पैर ‘इनका समुदाय’ पुरुष अवश्य है।वह समुदाय भी यदि असंगठित और क्रम रहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नहीं कहेंगे।उस समुदाय को पुरुष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।

राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं, भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय हैं, जङ्घाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं। राष्ट्र में चारों वर्ण जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं तभी इनकी पुरुष संज्ञा होती है। अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते।

आधिभौतिक दृष्टि से यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान, क्षात्र, व्यापार- व्यवसाय, परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ‘एक पुरुष’ रूप है।

चर्चित मंत्र का महर्षि दयानंद जी इसप्रकार अर्थ करते हैं- “इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण, सत्य भाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है। इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है।इस पुरुष के उपदेश से खेती, व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना और पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिध्द होता है।जैसे पग सबसे नीचे का अंग है वैसे मूर्खता आदि गुणों से शूद्र वर्ण सिध्द होता है।”

आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद जोड़ दिया गया सर्वथा भ्रमपूर्ण है ।मैंने अपनी पुस्तक “ऋग्वेद दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात” में संपूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खंडन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी विद्यमान है, बाद का बना हूआ है।

डॉ. अंबेडकर – शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय हैं।ऋग्वेद में सुदास, तुरवाशा, तृप्सु,भरत आदि शूद्रों के नाम आए हैं।

पं. शिवपूजन सिंह – वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं। आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है वो ऐतिहासिक नाम नहीं हैं। वेद में इतिहास नहीं है क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया गया ज्ञान है।

डॉ. अंबेडकर – छत्रपति शिवाजी शूद्र और राजपूत हूणों की संतान हैं (शूद्रों की खोज, दसवां अध्याय, पृष्ठ, 77-96)

पं. शिवपूजन सिंह – शिवाजी शूद्र नहीं क्षत्रिय थे। इसके लिए अनेक प्रमाण इतिहासों.में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ महामहोपाध्याय डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डी.लिट्, लिखते हैं- ‘मराठा जाति दक्षिणी हिंदुस्तान की रहने वाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल पुरुष मेवाड़ के सिसौदिया राजवंश से ही था।’ कविराज श्यामल दास जी लिखते है- ‘शिवाजी महाराणा अजय सिंह के वंश में थे।’ यही सिध्दांत डॉ. बालकृष्ण जी, एमए, डीलिट्, एफआरएसएस, का भी था।

इसी प्रकार राजपूत हूणों की संतान नहीं किंतु शुदध क्षत्रिय हैं। श्री चिंतामणि विनामक वैद्य, एमए, श्री ईबी कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं. नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य, एमएमडीएल आदि विद्वान राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते हैं।प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है कि जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत दोनों एक ही श्रेणी के हैं।

(आर्य समाज और डॉ. अंबेडकर- प्रस्तुति अरुण लवानिया)

 

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