Saturday, April 27, 2024
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ईसाई मिशनरियों ने किया जाति व्यवस्था को बदनाम

जातीय विद्वेष का सच सामने लाने वाली पुस्तक

 

रामेश्वर मिश्र पंकज

अवधेश मिश्र की पुस्तक ‘जातीय वैमनस्य का इतिहास: सत्य या दुष्प्रचार’ जाति संस्था पर एक सांगोपांग पुस्तक है। पुस्तक ‘सभ्यता अध्ययन केंद्र’ नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। अब तक हिंदी, तमिल, तेलुगु, मराठी, बांग्ला, गुजराती, मलयालम, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश सहित विश्व की अनेक भाषाओं में जाति व्यवस्था को लेकर चालीस हजार से अधिक पुस्तकें छप चुकी हैं। परंतु अवधेश मिश्र की यह पुस्तक उनमें से जितनी मैंने देखी हैं, सबसे श्रेष्ठ और सभी पक्षों पर न्यायपूर्वक विचार करने वाली है। लेखक ने इस संबंध में लगाए गए मिथ्या आरोपों और कुटिल आक्षेपों का शांति और धैर्य से ज्ञानपूर्वक उत्तर दिया है। इसके लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं।

500 वर्ष पूर्व से ईसाई मिशनरियों ने लगभग विक्षिप्तों की तरह हिंदू समाज और उसकी जाति व्यवस्था पर निराधार, कुटिल और कुत्सित आरोप लगाने का दुस्साहस आरंभ किया। विश्व में अन्य किसी भी समाज पर इस प्रकार के आक्षेप लगते तो वह ऐसे दुष्टों को नष्ट कर डालता। परंतु हिंदुओं में विचार के आवरण में प्रस्तुत कुटिलताओं के प्रति विचित्र सा संकोच या सम्मान भाव आ गया है। इसका कारण अलग से विश्लेषण का विषय है।

मुख्य बात यह है कि संसार की किसी भी सामाजिक संस्था पर इतने आक्षेप नहीं लगाए गए। यह स्वाभाविक बात नहीं है, अपितु नितांत अस्वाभाविक बात है कि जाति पर इतने अधिक आक्षेप लगाए गए। यदि हिंदू समाज के बौद्धिकों में पर्याप्त आत्मगौरव होता तो वे कर्तव्य-भावना से अब तक इन आक्षेप लगाने वाले समुदायों-ईसाई मिशनरियों और कम्युनिस्टों तथा कतिपय सोशलिस्टों के भीतर व्याप्त गंदगियों, कुरीतियों और दुराचार के उदाहरणों का पहाड़ खड़ा कर देते और इन सबको उत्तर के लिए विवश कर देते। पर किसी कारण से हिंदुओं में ऐसी बौद्धिकता का पर्याप्त उन्मेष नहीं हुआ है। कतिपय तेजस्वी धर्माचार्यों ने और विद्वानों ने थोड़े में उनकी पोल अवश्य खोली है। पानीदार लोगों के लिए वही पर्याप्त है, परंतु ढीठ और निर्लज्ज तथा दुष्ट लोग उससे कहां मानते हैं?

प्रश्न उठता है कि हिंदू समाज की संस्थाओं की विवेचना करने वाले ये बाहरी लोग होते कौन हैं, जब तक कि वे स्वयं अपनी संस्थाओं की सच्ची विवेचना न कर लें। ईसा की एक प्रसिद्ध उक्ति है- शीशे के घरों में रहने वाले दूसरों पर पत्थर नहीं उछालते। परंतु ईसाइयों की स्थिति तो यह है कि वे अत्यंत सुदृढ़ चट्टान पर पत्थर पर पत्थर पागलों की तरह फेंके जा रहे हैं, चर्च टूट-फूट गया है, ईसाइयत ने अपनी आधारभूत आस्थाएं त्याग कर तरह-तरह के स्पष्टीकरण और बहाने अपना लिए हैं और छल-प्रपंच की शरण ली है तथा इस पर भी यूरोप के 60 प्रतिशत लोग ईसावाद का त्याग कर चुके हैं। लूट का माल बटोर कर संचित किए हुए कतिपय बौराए से मिशनरी भारत तथा अन्य एशियाई अफ्रीकी देशों में भांति-भांति के नट-करतब करते हुए अपनी समझ से ईसावाद का प्रचार कर रहे हैं।

यह कितनी हास्यास्पद दशा हो गई है कि भारत में ईसाई लोग यीशू को और स्वयं पादरियों को भगवा वस्त्र पहनाने लगे हैं। मरियम को देवी बताने लगे हैं। शंखध्वनि और घंटा-घड़ियाल बजाते हुए हिंदू प्रकार की आरती करने लगे हैं और लोकगीत बनाकर गाने लगे हैं। अनेक जगह वे अब चर्च को मंदिर भी कहने लगे हैं और संस्कृत-निष्ठ नामों से अपनी संस्थाओं का प्रपंच फैलाते-फैलाते अपना बाहरी रूप भी लगभग विलुप्त करने के कगार पर आ गए हैं, अंतःसत्व तो कुछ उनमें है ही नहीं। परंतु भारत में शासन के अभूतपूर्व संरक्षण से वे राष्ट्रीय संसाधनों को अनुपात से अधिक हड़पने में पूरी तरह सफल होते जा रहे हैं। यही उनके द्वेषमूलक और वैरभाव से भरपूर प्रचार का आधार है। अन्यथा कभी ऐसी कोई हिम्मत ही नहीं पड़ती।

महत्वपूर्ण बात यह है कि अभी भी भारतीयों का प्रबुद्ध समुदाय जाति को लेकर स्पष्टीकरण में विवश है। इसका कारण केवल यह है कि भारत में शासक समुदायों ने पहले तो आंग्ल ईसाई शासकों से सत्ता का ट्रांसफर अपने नाम कराने के लिए साझा इतिहास और साझी संस्कृति के लिए वचनबद्ध होकर ईसाई मिशनरियों के प्रचार को भारतीय विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र विभागों और इतिहास विभागों का आधार बना लिया और फिर छह दशक तक शिक्षा और संचार माध्यमों द्वारा किए गए ऐसे ही कुत्सित प्रचार और उनसे संचालित राजनीति के प्रभाव से शेष प्रबुद्धजन भी उसी प्रवाह में बहने को विवश हो गए।

कम ही लोग भारत में जानते हैं कि वर्तमान में जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा के प्रतिमान बने हैं, उनमें यूरोपीय समुदायों के नृतत्वशास्त्रीय अध्ययनों की अनुमति भारतीय तथा अन्य गैर यूरोपीय विद्वानों को नहीं दी गई है। यद्यपि यदि स्वस्थ शासन हो तो ऐसे अध्ययन को भारत के भीतर अनुमति देने में कोई बाधा नहीं है। परंतु यूरो-अमेरिकी विद्वानों के निर्देश पर भारत में भी भारतीय समाज के अध्ययन के केंद्र यूरो-ईसाई दृष्टि से निर्देशित प्रतिमानों के आधार पर बहुत से बन गए हैं। जबकि सबसे पहले स्वाधीन भारत में यूरो-ईसाई समाजों, मुस्लिम समाजों और कम्युनिस्ट समुदायों का नृतत्वशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय तथा राजनीतिशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए। ऐसा होते ही सच्चाई सामने आ जाएगी।

खुशी की बात है कि श्री अवधेश मिश्र ने वैसा कोई केंद्रित समाजशास्त्रीय अध्ययन ईसाइयों पर न करने पर भी यूरोप में ईसाइयत के नाम पर किए गए नृशंस और बर्बर व्यवहारों के कतिपय प्रभावशाली उदाहरण दे दिए हैं। जो यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि मानवजाति के लिए लज्जास्पद ऐसी आस्थाओं और संस्थाओं के पक्षधर लोगों की यह पात्रता ही नहीं है कि वे गैर ईसाई समाजों का अध्ययन कर सकें।

अवधेश मिश्र ने प्रसंगवश भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा की गई नृशंसता, बर्बरता और पैशाचिकता के जो छिटपुट दृष्टांत दिए हैं, वे भी उनकी असलियत खोलने के लिए पर्याप्त हैं। 1541 ईस्वी में पहली बार एक ईसाई समुदाय भारत आया और दो वर्ष बाद ही उसने हिंदू से ईसाई बने एक व्यक्ति को केवल इसलिए जिन्दा जलाने का आदेश दे दिया कि उसने मित्रों के साथ सामान्य बातचीत में ईसावाद की किसी आस्था के विरूद्ध एक वाक्य कह दिया। फिर उससे कहा गया कि अगर तुम इसके लिए पापस्वीकृति करते हुए शुद्ध हो जाओ तो हमारा यानी हम ईसाइयों का ‘होली ऑफिस’ तुम्हें जलाने की जगह गला घोंट कर मारने का निर्णय ले सकता है ताकि तुम जिन्दा जलने की पीड़ा से बच सको।

अकेला यह उदाहरण ही इस ‘होली ऑफिस’ को कुत्सित, बीभत्स, अपवित्र, पापमय, गंदा और घिनौना सिद्ध करने को पर्याप्त है। जहां ये शासक थे, वहां तो कुछ शताब्दियों तक ऐसी पैशाचिकता चल गई, यद्यपि वहां भी अब निष्प्रभावी हो रहे हैं। प्रश्न है कि भारत में इतने गए गुजरे समुदायों के झूठ से भरे प्रोपेगंडा पर बहस होने की विवशता क्या है? स्पष्ट है कि शासक समुदायों द्वारा ऐसे झूठ से भरे और घृणित प्रोपेगंडा को सत्य की तरह प्रचारित कर लोकमानस में विभ्रम खड़ा करने के कारण ही यह विवशता आई है। तथापि यह स्पष्ट है कि इस स्थिति की जड़ें राजनीति और शासन में हैं, विद्या से इसका कोई लेना-देना नहीं है। विद्या के सामान्य प्रतिमानों पर इस तरह के मिथ्या प्रचार पलभर नहीं टिक सकते। परंतु जब शासन और विधि का आधार ही ऐसे झूठे प्रोपेगंडा से निकाले गए मनमाने निष्कर्ष हों तो विद्वानों की विवशता हो जाती है कि वे शांतचित्त से ऐसे प्रोपेगंडा के झूठ को प्रबुद्ध समुदाय और विशेषकर शासक समुदाय के सामने बार-बार लायें।

इस दृष्टि से अवधेश मिश्र की यह पुस्तक अत्यधिक उपयोगी और सराहनीय है। यदि भारत के वर्तमान शासक इस विषय में सत्य और तथ्य में रूचि रखें तो जाति संस्था पर इस सांगोपांग पुस्तक में सभी पक्षों को प्रमाणपूर्वक रख दिया है। उससे अकाट्य रूप में यह प्रमाणित हो गया है कि जाति वैमनस्य के इतिहास का सारा ही प्रचार झूठ और छल से भरा है और द्वेष और दुर्भावना से प्रेरित है। सत्य से इसका दूर-दूर तक संबंध नहीं है।

भूमिका में ही लेखक ने स्पष्ट कर दिया है कि ईसाई मिशनरियों को अपने पापपूर्ण पंथ के प्रसार में भारत की जाति व्यवस्था और हिंदू समाज की उदार, समन्वित और सौमनस्यपूर्ण समाजव्यवस्था ही सबसे बड़ी बाधा है। लेखक ने ‘कन्वर्जन’ के लिए प्रचलित परंतु गलत शब्द ‘धर्मान्तरण’ का ही प्रयोग किया है जो सम्प्रेषण की दृष्टि से उचित है। परंतु वस्तुतः ‘कन्वर्जन’ का अनुवाद ‘छलबल से धर्म बिगाड़ना’ या ‘रूपांतरण’ ही होगा।

यदि ईसाइयों का इरादा धर्मांतरण होता तो वे विविध धर्मों के होने को मान्य करते और तब स्वतंत्र व्यक्ति के सम्मुख उन सबको प्रस्तुत कर नया धर्म वरण करने का भाव जगाते या उसके पक्ष में तर्क देते। परंतु वे तो ‘कन्वर्ट’ करने अर्थात रूपान्तरण कर डालने, बदल डालने, मूल रूप सर्वथा विलुप्त कर नया रूप बलपूर्वक थोप देने की भाषा ही बोलते हैं। ‘कन्वर्ट’ करने का अर्थ ही यही है। परंतु ऐसी क्रूर भावनाओं का गोपन करने के लिए ही भ्रामक अनुवाद उन्होंने रचे। ‘धर्मांतरण’ ऐसा ही झूठा अनुवाद है। क्योंकि वहां विविध धर्म समान रूप से या सामान्य रूप से प्रस्तुत नहीं किए जाते अपितु धर्म का विलोप करके अपनी आस्था का बलपूर्वक प्रक्षेपण किया जाता है।

ईसाई मिशनरियों ने जिस पापपूर्ण प्रयोजन से जाति संस्था पर प्रहार प्रारंभ किया, उस प्रयोजन की वर्तमान में क्या प्रासंगिकता है? क्या यह अभी भी ईसाई देश है? क्या भारत का शासन ईसाई शासन है? यहां जाति पर इतनी बहस चल क्यों रही है? जबकि जाति भारतीय संविधान में मान्य एक अधिकृत संस्था है। वह एक मान्य विधिक इकाई है। कारण यह है कि जाति को संवैधानिक इकाई मानकर ही शासकों को संतोष नहीं है। वे कुछ जातियों के पक्ष में और कुछ अन्य जातियों के विरोध में राष्ट्रीय संसाधनों का नियमित इकतरफा हस्तांतरण करते रहना चाहते हैं। उसके लिए भांति-भांति के विधान बनाए गए और बनाए जा रहे हैं। इसीलिए जाति के वास्तविक स्वरूप पर बहस की आवश्यकता बनी हुई है। जबकि भारत के अन्य नागरिकों-ईसाईयों और मुसलमानों की किसी सामाजिक व्यवस्था पर भारत में बहस नहीं हो रही। सारी बहस इकतरफा है क्योंकि संसाधनों का इकतरफा हस्तांतरण होना है।

लेखक अवधेश मिश्र की यह विनम्रता है कि उन्होंने मिशनरियों के झूठे प्रोपेगंडा को जानते हुए भी भारतीय शासकों द्वारा उसे महत्व दिए जाने के कारण उस पर तथ्यों के आधार पर संयत ढंग से विमर्श किया। पहले ही अध्याय में उन्होंने जाति संस्था पर विचार किया है और एएल बाशम, रमेशचंद्र मजूमदार, हर्बर्ट रिजले, निकोलस डिर्क, जे.एच. हट्टन, आरवी रसेल, स्लेटर, दुबाय, एचए रोज, डूमा जैसे इतिहासकारों द्वारा जाति पर किए गए अलग-अलग विचारों और व्याख्याओं की विवेचना करते हुए यह स्पष्ट किया है कि वस्तुतः ये सारी ही व्याख्यायें कल्पना एवं अनुमान मात्र हैं। क्योंकि उनमें से किसी के भी पक्ष में पर्याप्त तथ्य और साक्ष्य नहीं मिलते।

इस संदर्भ में अवधेश मिश्र ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान खींचा है, वह यह है कि प्राचीनकाल से अब तक सभी कर्मकांडों और पूजा-पाठ आदि में तथा किसी भी कार्य के संकल्पपूर्ण प्रारंभ में जो संकल्पमंत्र पढ़ा जाता है, उसमें काल का स्पष्ट निर्धारण होता है और देश का भी स्पष्ट निर्धारण होता है, इसके साथ ही अपने गोत्र का और वर्णसूचक पद का उल्लेख होता है, जाति का कभी कोई उल्लेख नहीं किया जाता। इससे स्पष्ट है कि धर्मशास्त्रों में हिंदू समाज की आधारभूत इकाई जाति नहीं है और उसे कोई धर्मशास्त्रीय मान्यता प्राप्त नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आस्पद तथा यज्ञाग्नि के भेद या चरण के भेद जो ब्राह्मणों ने वर्गीकृत किए थे, उनकी भी कोई स्थायी मान्यता हिंदू समाज में नहीं हो पाई। इसलिए ब्राह्मणों के द्वारा आरोपित कोई व्यवस्था हिंदू समाज में चल सकती है, इसका कहीं कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है क्योंकि ब्राह्मण इस विषय में वही कहते थे, जो उनके यजमान व्यवहार में थे।

जाति का उल्लेख न तो किसी धर्मशास्त्र में है और ना ही वर्तमान रूप में प्रचलित ‘जाति’ के अर्थ में साहित्य और व्याकरणशास्त्र में है। लेखक ने व्याकरण शास्त्र के उद्धरणों के द्वारा भी यह दर्शाया है। नेस्फील्ड और डहलमन को उद्धृत करके अवधेश दिखाते हैं कि उक्त व्यक्तियों के अनुसार कार्य या व्यवसाय के आधार पर कुलसमूहों ने अपनी जो पहचान बनाई, जनगणना में उसे ही जाति लिखा गया है। व्यवसाय की श्रेणियों को ही जनगणना में जाति के रूप में दर्शाया गया। अंत में लेखक प्रमाणपूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि जाति की वर्तमान समझ वाली अवधारणा हिंदू धर्मचिन्तन में कभी थी ही नहीं क्योंकि हिंदू धर्मशास्त्र गुणकर्म व्यवस्था को ही पर्याप्त मानते हैं और वह व्यवस्था भी मुक्त और परिवर्तनीय थी।

उदाहरण के लिए शूद्र का धर्म तो गिनाया गया है परंतु कुम्हार, बढ़ई, चर्मकार, लोहार, सुनार, नाई, धोबी, माली आदि के पृथक-पृथक कर्तव्य की चर्चा किसी शास्त्र में नहीं है। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि ए.एल.बाशम की भी ही मान्यता है कि ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था निर्धारित या स्थापित नहीं की है। अवधेश मिश्र ने यह भी ध्यान दिलाया है कि डिर्क का मानना है कि ब्राह्मणों ने जातीय-पदानुक्रम को न कभी परिभाषित किया न उसके नियम ही बनाए। डिर्क का कहना है कि समाज की प्रबल जातियों ने यह सुनिश्चित किया कि वे उन जातियों को अपने नियंत्रण में रखें जो उनके लिए काम करती हैं। समाज में पदानुक्रम इन प्रबल जातियों के इस आधिपत्य का परिणाम है।

अगले अध्याय में लेखक ने भलीभांति दर्शाया है कि जाति का वर्तमान रूप ईसाई मिशनरियों के प्रोपेगंडा का फल है, इसके विषय में उन्होंने प्रचुर प्रमाण दिए हैं। उन्होंने याद दिलाया है कि 1931 में की गई अंतिम जातीय जनगणना में जाति की कुल संख्या 4147 थी। यह तब है जब अंग्रेजों की और ईसाई मिशनरियों की भीषण कोशिश और इच्छा थी कि उनकी अधिक से अधिक संख्या दर्शायी जाए ताकि हिंदू समाज में भेद-विभेद निरूपित किए जा सके।

परंतु वह संख्या आज 46 लाख से अधिक बताई जाती है। इससे स्पष्ट है कि जाति कुलसमूहों द्वारा अपनी अलग पहचान के लिए दी गई संज्ञा मात्र है। उसका समाज के किसी पदानुक्रम से कोई सीधा संबंध नहीं है। क्योंकि वैसा पदानुक्रम केवल वर्णों के बारे में है। ब्रिटिश शासन ने विशेषकर जातियों के भेद को प्रोत्साहित किया। तब भी उस पर उठे प्रचंड विरोध के कारण स्वयं ब्रिटिश शासन को 1931 ईस्वी के बाद जातियों को एक श्रेणी के रूप में प्रयोग करना बंद करना पड़ा।

अध्याय 3 में धर्मशास्त्रों और लोक में वर्णसंबंधी प्रमाणिक विचारों को दर्शाते हुए लेखक ने ध्यान दिलाया है कि शुक्राचार्य जैसे शीर्षस्थ आचार्य ने जिन समुदायों की रक्षा और विकास पर विशेष ध्यान देने को कहा है वे सब शूद्र वर्ण के ही हैं और राजा के प्रजापालक और धर्मरक्षक होने की बात बार-बार और इतने विस्तार से शास्त्रों में कही गई है कि जिससे प्रामाणित होता है कि हमारे धर्मशास्त्र सभी मनुष्यों के लिए परस्पर सहयोग, सामंजस्य, समता, सौमनस्य, सद्भाव और सखाभाव का निर्देश करते हैं और वास्तविक समाज में भी यही भाव व्यापक है।

पुर्तगाली शब्द ‘कास्टा’ स्वयं भेदभावमूलक है और उस शब्द के अर्थ का आरोपण जाति में कर दिया जाना नितांत मनमानी है। यह लेखक ने दिखाया है। विभिन्न जातियों की परस्परता के प्रचुर प्रमाण उन्होंने दिए हैं। इसके विपरीत यूरोपीय समुदायों के विभिन्न ट्राइब्स जिस प्रकार परस्पर रक्तरंजित युद्ध करते रहे हैं और एक-दूसरे के सर्वनाश का प्रयास करते रहे हैं तथा अपने-अपने क्षेत्र से भिन्न ट्राइब का वंशनाश करने का और जिनका नाश न कर पायें या ना करना चाहें उन्हें गुलाम बनाने का वहां व्यापक चलन ही रहा है। अपनी उसी दृष्टि का प्रक्षेपण उन्होंने भारत में किया।
बिना किसी यथार्थ अध्ययन और मूल्यांकन के जातिव्यवस्था के विरूद्ध जो प्रोपेगंडा चला है उसका विस्तार से खंडन विद्वान लेखक ने किया है। एक सुन्दर और श्रेष्ठ, न्यायकारी और संतुलनकारी संस्था को संतापकारी और विभेदकारी बताने वाले दुष्टों का मनोरथ स्वाधीन भारत में राज्यकर्ताओं के संरक्षण में ही सफल हो रहा है।

तथ्य यह है कि भारत में भी प्रारंभ से ही अलग-अलग चर्च के अनुयायियों ने आपस में भी भयंकर भेदभाव एवं अत्याचार किए जो उनकी प्रकृति को बताता है। अध्याय 10 में लेखक ने उन अत्याचारों और भेदभाव के अनेक उदाहरण दिए हैं। जो यूरोप से लेकर भारत और अमेरिका तक मतान्ध पादरी लोग ईसावाद के आवरण में करते रहे हैं। अरब और यूरोप दोनों के इतिहास से उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत में हुए ऐसे भेदभावों और अत्याचारों का भरपूर दृष्टान्त दिया है तथा अध्याय 11 में उन प्रसंगों की मीमांसा की है जो हिंदू समाज में बलपूर्वक वैमनस्य फैलाने के प्रयोजन से प्रचारित किए जाते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात लेखक ने यह दर्शायी है कि जो व्यवहार राजा हरिश्चन्द्र, राजा नल, सम्राट नहुष, नृग, बर्बरीक, भीष्म और अन्य अनेक श्रेष्ठ स्त्रियों और पुरूषों के साथ किया गया, उसका कभी कोई उल्लेख न कर केवल शम्बूक जैसों के साथ किए जाने वाले व्यवहार पर विमर्श को एकाग्र करना विमर्श नहीं, आपराधिक दुष्टता एवं उद्दंडता है। परंतु मुख्य बात यह है कि भले ही विद्वान लेखक ने जाति पर सांगोपांग विवेचन कर पूर्ण प्रामाणिक तथ्यों के द्वारा इस विषय में सत्य को सामने ला दिया गया है तब भी झूठ और प्रोपेगंडा में ही जीने वाले लोग अपना वह काम नहीं छोड़ने वाले हैं क्योंकि राज्य का उन्हें संरक्षण मिला हुआ है।

किसी भी सत्यनिष्ठ और न्यायनिष्ठ राज्य में ऐसे लोगों का दंडित किया जाना चाहिए। वर्तमान संविधान में भी भारत के प्रमुख समाज के प्रति मिथ्या प्रोपेगंडा कर सामाजिक और राष्ट्रीय विक्षोभ जगाकर लोकमानस को अशान्त और विक्षुब्ध करने वाली सभी क्रियाओं के लिए दंड का भरपूर प्रावधान है। परंतु राज्यकर्ता उसका प्रयोग नहीं करते। जबकि सामान्य से सामान्य प्रावधानों का प्रयोग गैर-हिंदू समाज के पक्ष में रात दिन होता रहता है। फिर भी सत्य के जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपादेय है। लेखक अवधेश मिश्र साधुवाद के अधिकारी हैं।

(लेखक राष्ट्रवादी विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं, आपकी कई पुस्तकें ङी प्रकाशित हो चुकी हैं।)

साभार- https://www.facebook.com/civilisationalstudies

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