Saturday, November 23, 2024
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शोक संतप्त परिवारों के लिए संस्कृत के श्लोकों में व्यक्त कीजिए श्रध्दांजलि और शोक संवेदना

हमारी सनातन पंरपरा में हर अवसर के लिए संस्कृत साहित्य में इतने सटीक, संवेदना व विवेक से भरपूर इतना साहित्य है कि हम उनका उपयोग करके हमारी भावनाओं को बहुत सशक्त व सहजता से व्यक्त कर सकते हैं। हमारे पाठकों के लगातार आग्रह पर हम अपने प्रियजन के दिवंगत होने के शोक व दुःख भरे क्षणों के लिए संस्कृत के शेलोक प्रस्ततु कर रहे है। इनके साथ इनका स्त्रोत भी दे रहे हैं ताकि आप जान सकें कि हमारे वैदिक साहित्य में हमारे मनीषियों ने जीवन की विषमताओं को लेकर कितनी गहरी, अध्यात्मिक व प्रभावी बातें कही है। इनमें से कई श्लोकों के लिए हम उज्जैन के हमारे सुधी पाठक श्री विवेक चौऋषिया के भी आभारी हैं जो नियमित रूप से महाभारत के विभिन्न प्रसंगों के श्लोक हिंदी अर्थ सहित नियमित रूप से हमें भेजते हैं। अन्य श्लोक हमारे सुधी पाठकों ने उपलब्ध कराए हैं, हम उनके प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। यदि आप संस्कृत में अपनी संवेदना और श्रध्दांजलि व्यक्त करते हैं तो शोक संतप्त परिवारों के लिए ये एक अध्यात्मिक अनुभव भी होगा और इसके माध्यम से हमारे वेद ,पुराणों व प्राचीन ग्रंथों मे ंउपलब्ध अध्यात्मिक साहित्य अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचेगा।
इसके पूर्व हमने विभिन्न अवसरों पर संस्कृत में बधाई संदेश देने के लिए लेख प्रकाशित किया था

ये भी पढ़िये विवाह हो या जन्म दिन हर मौके पर संस्कृत में दीजिए शुभकामनाएँ

जिसे हमारे पाठकों ने पसंद ही नहीं किया बल्कि कई अन्य वेबसाईटों ने भी इस लेख को शब्दशः पोस्ट कर इन श्लोकों को लोकप्रिय बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रस्तुत है शोक संवेदना व श्रध्दांजलि अर्पित करने के लिए कुछ श्लोक…

यथा व्यक्तमिदं शेते स्वप्ने चरति चेतनम्।

ज्ञानमिन्द्रियसंयुक्तं तद्वत् प्रेत्य भवाभवौ।

अर्थात् जैसे स्वप्नावस्था में यह स्थूल शरीर तो सोया रहता है और सूक्ष्म शरीर विचरण करता रहता है, उसी प्रकार इस शरीर को छोड़ने पर यह ज्ञानस्वरूप जीवात्मा या तो इंद्रियों के सहित पुनः शरीर धारण कर लेता है या सुषुप्ति की भाँति मुक्त हो जाता है।

(महाभारत शांतिपर्व 204/1)

( प्रजापति मनु का महर्षि बृहस्पति को उपदेश )

यथा चन्द्रो ह्यमावस्यामलिङ्गत्वान्न दृश्यते।

न च नाशोSस्य भवति तथा विद्धि शरीरिणम्।।

अर्थात् जिस प्रकार अमावस्या के प्रकाशहीन हो जाने के कारण चन्द्रमा दिखाई नहीं देता है, और उस समय उसका नाश नहीं होता है, उसी प्रकार शरीरधारी आत्मा को समझना चाहिए। अर्थात् आत्मा भले अदृश्य है पर वह अस्तित्व में बनी हुई है। ( यह शरीरस्थ आत्मा ही परमात्मा है। )

शांतिपर्व 203/15

( प्रजापति मनु का महर्षि बृहस्पति को उपदेश )

उत्पत्तिवृद्धिव्ययसंनिपातैर्न

युज्यतेSसौ परम: शरीरी।

अनेन लिङ्गेन तु लिङ्गमन्यद्

गच्छत्यदृष्ट: फलसंनियोगात्।।

अर्थात् आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है। वह इसकी उत्पत्ति, वृध्दि, क्षय और मृत्यु आदि दोषों में कभी लिप्त नहीं होती। मनुष्य पूर्वकृत कर्मों के फल के सम्बन्ध से उपरोक्त सूक्ष्म शरीर सहित दूसरे शरीर में चला जाता है। ( अज्ञानी नित नए शरीर धारण कर जन्म लेता रहता है जबकि ज्ञानी आत्म तत्व को जानकर मुक्त हो जाता है। )

(महाभारत -शांतिपर्व 202/15)

जातमेवान्तकोSन्ताय जरा चान्वेति देहिनम्।

अनुषक्ता द्वयेनैते भावा: स्थावरजङ्गमा:।।

अर्थात् देहधारी जीव के जन्म लेते ही अंत करने के लिए मौत और बुढापा उसके पीछे लग जाते हैं। समस्त चराचर प्राणी इन दोनों से बंधे हुए हैं।

(महाभारत – शांतिपर्व 175/24)

त्रदारकुटुम्बेषु प्रसक्ता: सर्वमानव:।

शोकपंकार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव।।

अर्थात् स्त्री, पुत्र और कुटुम्ब में आसक्त हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोक के सागर में डूब जाते हैं, जैसे बूढ़े जंगली हाथी दलदल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं।

महाभारत- शांतिपर्व 174/26

( पुत्र के निधन से शोकाकुल राजा सेनजित् को ब्राह्मण का उपदेश )

पुत्रदारकुटुम्बेषु प्रसक्ता: सर्वमानव:।

शोकपंकार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव।।

अर्थात् स्त्री, पुत्र और कुटुम्ब में आसक्त हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोक के सागर में डूब जाते हैं, जैसे बूढ़े जंगली हाथी दलदल में फँसकर नष्ट हो जाते हैं।

शांतिपर्व 174/26

( पुत्र के निधन से शोकाकुल राजा सेनजित् को ब्राह्मण का उपदेश )

जीवितं च शरीरेण जात्यैव सह जायते।

उभे सह विवर्तते उभे सह विनश्यत:।।

अर्थात् यह जीवन स्वभावतः शरीर के साथ उत्पन्न होता है। दोनों विविध रूपों में साथ रहते हैं और साथ ही नष्ट हो जाते हैं।

महाभारत -शांतिपर्व 174/22

( पुत्र के निधन से शोकाकुल राजा सेनजित् को ब्राह्मण का उपदेश )

यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।

समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागम:।।

अर्थात् जिस प्रकार समुद्र में बहती हुए दो लकड़ियाँ कभी-कभी एक दूसरे से मिल जाती हैं और फिर अलग हो जाती हैं, उसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम औऱ वियोग होता है।

महाभारत- शांतिपर्व 174/15

( पुत्र के निधन से शोकाकुल राजा सेनजित् को ब्राह्मण का उपदेश )

त्वं चैवाहं च ये चान्ये त्वामुपासन्ति पार्थिव।

सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम्।।

अर्थात् तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्हारे आसपास हैं, सब वहीं जाएंगे, जहाँ से हम सब आए हैं। ( अतः किसी के जाने का शोक मत कीजिए )

(महाभारत- शांतिपर्व 174/11)

आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम।

यथा मम तथाSन्येषामिति चिन्त्य न मे व्यथा।

एतां बुद्धिमहं प्राप्य न प्रह्रष्ये न च व्यथे।।

अर्थात् यह शरीर भी मेरा नहीं और यह धरती भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएं जैसे मेरी हैं, वैसे ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती। इसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक। ( जो ऐसा ही सोचता है वह दुःखों से ऊपर उठ जाता है। )

(महाभारत-शांतिपर्व 174/14)

पुत्रनाशे वित्तनाशे ज्ञातिसम्बन्धिनामपि।

प्राप्यते सुमहद् दुःखं दावाग्निप्रतिमं विभो।

दैवायत्तमिदं सर्वे सुखदुःखे भवाभवौ।।

अर्थात् प्रभो! यहाँ सब लोगों को पुत्र, धन, कुटुम्बी तथा सगे सम्बन्धियों का नाश होने पर दावानल के समान दाह उत्पन्न करने वाला महान दुःख प्राप्त होता है परन्तु सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु यह सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है।

(महाभारत- शांतिपर्व 174/27)

( पितामह भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश। )

न ह्यहानि निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपा:।

सोSयं प्रपद्यतेSध्वानं चिराय ध्रुवमध्रुव:।।

अर्थात् दिन, रात और महीनों के जो चक्र चल रहे हैं, वे किसी के टाले नहीं टलते हैं। इसी प्रकार जन्म, मृत्यु और जरा आदि के क्रम प्रायः चलते ही रहते हैं। जिसके जीवन का कुछ ठिकाना नहीं, वह मरणधर्मा मानव दीर्घकाल के पश्चात मोक्षमार्ग का आश्रय लेता ही है। ( उसकी अंततः मृत्यु हो जाती है। )

शांतिपर्व 319/7

( राजा जनक को महर्षि पञ्चशिख का मोक्ष सम्बन्धी उपदेश )

न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

अर्थात् आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह मारा नहीं जाता।

भीष्म पर्व, गीता 2/20

( अर्जुन के प्रति साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण का गीतोपदेश )

अतीव मनसा शोक: क्रियमाणो जनाधिप।

संतापयति चैतस्य पूर्वप्रेतान् पितामहान्।।

अर्थात् जनेश्वर! यदि मनुष्य मृत प्राणी के लिए अपने मन में अधिक शोक करता है तो उसका वह शोक उसके पहले दिवंगत हुए पितामहों को भारी संताप में डाल देता है।

महाभारत-आश्वमेधिक पर्व 2/2

( भीष्म के स्वर्गारोहण से शोकाकुल युधिष्ठिर को सांत्वना देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा)

परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नर:।

अभ्येति ब्रह्म सोSत्यन्तं न ते शोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् जो व्यक्ति सुख और दुःख दोनों को छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्म को प्राप्त होता है। इसीलिए ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं।

शांतिपर्व 205/7

( प्रजापति मनु का महर्षि बृहस्पति को उपदेश )

अशोकं शोकनाशार्थे शास्त्रं शान्तिकरं शिवम्।

निशम्य लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते।।

अर्थात् शास्त्र शोक को दूर करने वाला, शान्तिकारक और कल्याणमय है। जो अपने शोक का नाश करने के लिए शास्त्र का श्रवण करता है, वह उत्तम बुद्धि पाकर सुखी होता है।

(महाभारत-शांतिपर्व 330/1)

( देवर्षि नारद ने शुकदेवजी से कहा। )

परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नर:।

अभ्येति ब्रह्म सोSत्यन्तं न ते शोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् जो व्यक्ति सुख और दुःख दोनों को छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्म को प्राप्त होता है। इसीलिए ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं।

शांतिपर्व 205/7

( प्रजापति मनु का महर्षि बृहस्पति को उपदेश )

परित्यजति यो दुःखं सुखं वाप्युभयं नर:।

अभ्येति ब्रह्म सोSत्यन्तं न ते शोचन्ति पण्डिता:।।

अर्थात् जो व्यक्ति सुख और दुःख दोनों को छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्म को प्राप्त होता है। इसीलिए ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं।

शांतिपर्व 205/7

( प्रजापति मनु का महर्षि बृहस्पति को उपदेश )

स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्‌। परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते॥

अर्थात्, केवल उसी व्यक्ति का जीवन वास्तव मे सार्थक होता है जिसके जन्म लेने से उसके वंश (कुल) की प्रसिद्धि और उन्नति होती हैं। अन्यथा इस परिवर्तनशील संसार में ऐसा कौन प्राणी है जिसकी मृत्यु नहीं होती है?

भर्तृहरि नीति शतकम्

आशापाश शताबद्धा वासनाभाव धारिणः। कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद्वृक्षमिंवाण्डजा।
मनुष्य मन सैकड़ों आशाओं (महत्वाकांक्षाओं) और वासनाओं के बन्धन में बंधा हुआ मृत्यु के उपरान्त उस क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति वाली योनियों और शरीरों में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार सैकड़ों आशारूपी पाशों में बंधे हुए, वासनाओं को हृदय में धारण किए हुए, जीव एक शरीर से दूसरे शरीर में इस प्रकार चला जाता है, जैसे पक्षी एक वृक्ष से उड़कर दूसरे वृक्ष पर चले जाते हैं।
( महर्षि वशिष्ठ ने श्री राम को पुनर्जन्म के सिध्दांत को इस श्लोक के माध्यम से समझाया)

धीराः शोकं तरिष्यन्ति लभन्ते सिद्धिमुत्तमं |

धीरैः संप्राप्यते लक्ष्मी धैर्यं सर्वत्र साधनम् ||

जो व्यक्ति धैर्यवान होते हैं वे दुःख की स्थिति में होने पर भी उस से तर (उबर) कर सफलता प्राप्त कर लेते हैं | धीर व्यक्ति ही धन-संपत्ति प्राप्त करने में सफल होते हैं | अतः धैर्य ही सदैव अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक उत्तम साधन है।

जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म।

को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः।।

किसका जन्म सराहनीय है? जिसका फिर जन्म न हो। किसकी मृत्यु सराहनीय है? जिसकी फिर मृत्यु न हो।

(शङ्कराचार्य, प्रश्नोत्तरी – २८)

 

 

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