जीवन भारत राष्ट्र की अस्मिता और स्वत्व की प्रतिष्ठा के लिए समर्पित किया पूरा जीवन
किसी भी राष्ट्र और समाज के लिए केवल राजनैतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं होती। उसकी अपनी एक साँस्कृतिक विरासत होती है जो उस समाज और राष्ट्र के स्वत्व का प्रतीक होती है। सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गीताप्रेस गोरखपुर के संस्थापक राष्ट्र सेवी हनुमान प्रसाद पोद्दार ऐसी विलक्षण विभूति थे जिन्होंने इस सत्य को समझा और अपना जीवन इसी ध्येय को समर्पित कर दिया।
उनका जन्म अश्विन कृष्णपक्ष की द्वादशी विक्रम संवत 1949 को हुआ था। ईस्वी सन् के अनुसार यह 19 सितंबर 1892 का दिन था। उनके पिता लाला भीमराज अग्रवाल राजस्थान के रतनगढ़ में एक सुप्रसिद्ध व्यवसायी थे। और माता रिखीबाई हनुमान जी की भक्त थीं। माता जी ने पुत्र की प्रार्थना हनुमान जी से ही की थी। इसीलिए जब पुत्र प्राप्ति हुई तो माता की इच्छानुसार ही पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रखा गया। लेकिन बालक हनुमान को अपनी माता का स्नेह अधिक न मिल सका। जब वे केवल दो वर्ष के थे तभी माता का स्वर्गवास हो गया। पालन-पोषण दादी ने किया। दादी के संस्कारों से बालक हनुमान को गीता, रामायण, वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। जिनका गहरा असर पड़ा। बचपन में ही हनुमान कवच का पाठ मुखाग्र हो गया था।
पिता ने निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दिला दी। परिवार का अपना एक व्यवसाय समूह था जिसके देश के विभिन्न भागों दिल्ली, कलकत्ता और उत्तर प्रदेश के नगरों में संपर्क था। यह परिवार समूह संतों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का आर्थिक दृष्टि से सहायक भी था। बालक हनुमान प्रसाद को भी देश के विभिन्न भागों में घूमने का अवसर मिला। इस नाते विभिन्न भागों में संतों और स्वाधीनता सेनानियों के संपर्क में भी आए। इनकी अधिकांश शिक्षा कलकत्ता और असम में हुई। उन दिनों बंगाल और असम का वातावरण बहुत गर्म था स्वाधीनता के लिए छटपटाहट आरंभ हो गई। समय के साथ वे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के संपर्क में आए।1906 में उन्होंने संतो के आव्हान पर कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के विरुद्ध आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का आव्हान किया।
युवावस्था में ही उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग और स्वदेशी शिक्षा की ओर लौटने का आव्हान कर दिया था। इससे पूरे देश के प्रमुख जनों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ। उन दिनों बंगाल और असम का वातावरण बहुत गर्म था स्वाधीनता के लिए संघर्ष आरंभ हो गया था। समय के साथ वे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं. झाबरमल शर्मा आदि के संपर्क में आए और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए। जब गाँधी जी, लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले कलकत्ता आए तो उनसे भी संपर्क बढ़ा और शीघ्र ही भाई जी उपाख्य से प्रसिद्ध हो गए।
अपनी इन्ही गतिविधियों के चलते वे कलकत्ता में गिरफ्तार हुए। उन पर क्रांतिकारियों का सहयोग करने और हथियार छिपाने में सहायता करने का आरोप लगा और राजद्रोह का मुकदमा चला।जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना आरंभ की। वे कलकत्ता और अलीपुर जेल में रहे। जेल की अवधि उन्होने साधना में लगाई। जेल के भीतर वे अन्य कैदियों को साधना से जीवन जीने की सलाह देते
फिर उन्हें पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई हनुमान प्रसाद जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी चिकित्सा सीख ली और रिहा होकर होम्योपैथी पुस्तकों की सहायता से स्वयं उपचार करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के भी संपर्क में आए।
मुंबई में उन्होंने नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। और स्वयं भक्ति गीत रचना में डूब गए। जो `पत्र-पुष्प’ के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई श्रीजयदयाल गोयन्दका जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित हुए और यहीं उन्होंने प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी जो कलकत्ता के वाणिक प्रेस से प्रकाशित हुई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद संशोधित संस्करण निकाला पर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से दुखी भाई जी ने तय किया कि स्वयं अपना प्रिटिंग प्रेस स्थापित करेंगे। यही संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना और 29 अप्रैल 1923 को गीता प्रेस की स्थापना हुई।
उन्होंने गीता के अधिकांश भाष्य एकत्र किए स्वयं गीता का अध्ययन किया और प्रवचन आरंभ किए। प्रवचन के लिए देश भर में जाते। अपने गुरु की आज्ञाऔर विड़ला जी के परामर्श पर विलुप्त हो रहे अन्य धार्मिक ग्रंथों का संकलन और पुन् प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन इसी ध्येय को समर्पित कर दिया।
1936 में गोरखपुर में और 1938 में राजस्थान में आई भीषण बाढ़ के समय पीडितों की सेवा के लिए उन्होने देश भर से धन संग्रह किया। पीडितों की सेवा और मृतकों के अंतिम संस्कार का प्रबंध किया। इसके साथ बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में पोद्दार जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अपने जीवन-काल में उन्होंने लगभग 25 हज़ार से अधिक पृष्ठों का साहित्य रचना की। 1955 में धार्मिक और आध्यात्मिक पत्रिका कल्याण का प्रकाशन आरंभ किया। इस प्रकार भारतीय सांस्कृतिक धार्मिक और आध्यात्मिक स्वत्व की साधना में उनका पूरा जीवन समर्पित रहा और अंततः 22 मार्च 1971 को वे नश्वर संसार को त्याग परम् ज्योति में विलीन हो गए। वे सही मायने में भारत रत्न हैं। उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी हुआ था।
(लेखक विभिन्न विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं।)