Saturday, November 23, 2024
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संवेदनाओं के इंद्रधनुषी हाइकु

( कभी जब कोई आपकी पुस्तक पढ़ कर उसकी समीक्षा लिख कर आपको स्नेह से भेजे तो असीम आनन्द की अनुभूति होती है। ऐसा ही कार्य किया रायपुर के रहने वाले श्री रमेश कुमार सोनी जी ने। उन्होंने मेरी किताब की समीक्षा की है और इतने सुन्दर तरीके से की है कि अपनी ही पुस्तक कुछ नई नई सी लगने लगी है। आपने पुस्तक को मात्र पढ़ा ही नहीं है उसको आत्मसात भी किया है। आप के जैसे साहित्य प्रेमी और कविहृदय व्यक्ति से तारीफ के शब्द पा कर मैं धन्य हो गयी। उनकी लिखी समीक्षा आप सभी के लिए प्रस्तुत हैः रचना श्रीवास्तव, लेखिका)

हिंदी हाइकु अपने पँख पसारते हुए विविध देशों की सैर पर निकल चली है। जहाँ से भी हाइकु की आँधी गुजरती है वह संवेदनाओं को गूँथते हुए महकाने लगती है। हाइकु को महज उसके फ्रेम में रच देने से कोफ्त होती है क्योंकि हाइकु एक संपूर्ण कविता है जिसमें काव्य के सभी तत्व होते हैं। हाइकु महज शब्दों की जादूगरी भी नहीं और न ही यह अन्य की संवेदनाओं के शब्द बदलकर उसे नया हाइकु मानने पर विश्वास करती है। कोई हाइकु तभी सुदृढ़ है जब वह किसी हाइकुकार के दिल की इबारतों से रची गयी हो।

रचना श्रीवास्तव, अमेरिका की एक उत्कृष्ट शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं। 2013 में आपकी अवधी अनुवाद वाले-‘मन के द्वार हजार’ साझा हाइकु संकलन प्रकाशित हुई थी। इससे पूर्व आपकी दो अन्य हाइकु-संग्रह-‘भोर की मुस्कान’ एवं ‘यादों के पाखी’ प्रकाशित हो चुकी है। इस हाइकु संग्रह- ‘सपनों की धूप’ में कुल 460 हाइकु 29 विविध उपशीर्षकों के तहत प्रस्तुत हुए हैं। आपके हाइकु में रूपक,बिम्ब और प्रतीकों का सुंदर शब्दांकन हमें देखने को मिलता है जो आपकी शिल्प और कथ्य को सुदृढ़ता प्रदान करते हैं।

लोकजीवन का चक्र घर-संसार एवं सामाजिकता के साथ ही बीतता है इसमें रिश्तों का ताना-बाना सदैव से महत्वपूर्ण रहे हैं जो मुश्किल हालातों में हमें थामते रहे हैं। आपने अपने परिवेश में रिश्तों के महत्व को हाइकु में पिरोया है। ये हाइकु बताते हैं कि-माँ रिश्तों की संपूर्णता है,पिता गुरुर है तो वहीं भाई सजग प्रहरी है-अपनी बहनों के।
बहन बाँधे/उम्मीदों का सूरज/भाई के हाथ।
बादल पिता/चुपके से ढक ले/दर्द का सूर्य।
ठीक हूँ शब्द/पेटेंट है शायद/ माँ के नाम पे।
इस जीवन मे सुख-दुःख का अध्याय सभी को पढ़ना होता है,किसी को कम तो किसी को कुछ ज्यादा। बारी-बारी से इनका आना-जाना हमारे जीवन को एकरसता से बचाते हैं तथा मानवीय संवेदनाओं को सहेजते भी हैं। ऐसे ही पलों को आपने हाइकु का चोला पहनाया है जो पाठकों के समक्ष शिद्दत से अपनी उपस्थिति देते हैं-
दर्द का पंछी/पिंजरा खोलूँ,तो भी/उड़े ही नहीं।
रुके ना पास/ सुख की चादर में/थे कई छेद।
दे थपकियाँ/दर्द सुलाए पर/ नींद ना आए।

इस सदी ने मानवता पर सबसे बड़ी त्रासदी कोरोना के दर्द को भोगा है। किसी ने अपने परिजन खोए हैं तो किसी ने एकांतवास भोगा है। इस समय में सबने जाना कि प्रकृति का क्या महत्व है,कर्तव्य कैसे निभाया जाता है और संयमित जीवन क्या होता है। ऐसे ही पलों को आपने हाइकु काव्य में संजोया है-
सफेद कोट/ त्यागे नींद अपनी/डट के खड़े।
माँग रही है/भीख प्राणवायु की/साँस चिड़िया।

रंगों की पोटली के तहत आपके हाइकु बिल्कुल ही नए बिम्ब और प्रतीक के साथ प्रस्तुत हुए हैं। इनमें शब्द विन्यास सुदृढ़ हैं,आध्यात्म की खुशबू है और सुंदर मानवीयकरण भी है। ये हाइकु अपने आपको फुर्सत से बाँचने की माँग करते हैं-
मेहंदी रची/धरती के हाथों में/ सूरज उगा।
चाँदी का रंग/बादल के माथे पे/बिजली कौंधी।
आठवाँ रंग/हमारे प्यार का है/झरे न कभी।
सुनहरी-सी/धूप बैठी मुंडेर/ पालथी मारे।

हाइकु में प्रकृति जब ठुमकती है तो उसे पढ़ने का आनंद अद्भुत होता है लगता है कि जैसे हम उसके साथ ही हैं, वैसे कोई भी हाइकुकार कभी भी बिना प्रकृति वर्णन के अपने हाइकु को सार्थक नहीं बना पाएगा। ‘ठिठुरे शब्द’ के हाइकु ओस को गुदगुदी कर रहे हैं,खेतों में किरणें चोर-सिपाही खेल रही हैं और शीत ने नदी को भी प्रभावित किया है। ये हाइकु पढ़ते ही अपने दृश्य को पाठकों के समक्ष प्रकट करने में सक्षम हैं-
ओस-बूँदों को/गुदगुदी कर रहे हैं/दूब-पत्तियाँ।
खेलें किरणें/खेतों की मुँडेरों पे/चोर सिपाही।
फटी बिवाई/नदी के पैरों में भी/ठण्ड है आई।

प्रकृति वर्णन और लोकजीवन को केंद्र में रखते हुए आपके हाइकु सशक्त हैं। ‘पर्वत’ की संवेदना को आपने इस तरह व्यक्त किया है-
वस्त्र विहीन/पहाड़ सकुचाए/ लाज के मारे।

‘झील’ को नारीमय बनाते हुए अपने समीप ही महसूस किया और साड़ी के रंगों से देखा तथा बत्तखों के अनुशासित कदमताल को दर्शाया है, ऐसा तभी हो सकता है जब हम इन दृश्यों को बेहद करीब से झाँकते हैं। इसी क्रम में आपने अपने भीतर के सागर को भी रचा है जो स्वागतेय है-
हुई सिंदूरी/नीली साड़ी झील की/सूरज डूबा।
सीधी पंक्ति में/झील के आँगन में/बत्तखें चलें।
फेन का टीका/लहरों के माथे पे/सुंदर दिखे।

हमारी प्रकृति में ‘भोर-साँझ’ के कई चित्र नित्य देखने को मिलते हैं फर्क सिर्फ इसके दृश्यांकन का होता है। इन हाइकु को मैंने भीतर तक महसूस किया है-
साँझ ढली तो/हुई गुलाबी ऑंखें/पनघट की।

चोंच में चली/दबाकर सवेरा/ भोर चिड़िया।
‘होली’ की मस्ती त्योहारों के इस देश में सौहाद्र का संदेश रंगों के साथ दे रहे हैं। प्रकृति भी वसंत के आगोश में अपने रंगों की मदमस्तता बिखेरकर झूम जाने को आमंत्रित करती है, कुछ ऐसा ही कहते हुए ये हाइकु बौराए हुए हैं-
फागुन आया/पत्ते हुए गुलाबी/फूल-से लगे।
छेड़े फूलों को/भाँग पीकर आई/बौराई हवा।

‘पुकारे देश’ हम सभी में देशभक्ति का राग प्रसारित करते हैं। शहीद का गौरव और त्याग-समर्पण की पराकाष्ठा को कोई माँ से ही सीख सकता है। ये मार्मिक हाइकु अपनी पुष्टता को दर्शाते हैं, वर्दी को लोरी सुनाना, बर्फीले वादियों को गोलियों से गरमाना और शुभ्र,धवल बर्फ में लाल पुताई जैसे उत्कृष्ट दृश्यांकन को साधुवाद-
सहलाती माँ/गोद में रख वर्दी/गाती है लोरी।
खटकाती हैं/पर्वत की कुण्डी ये/गर्म गोलियाँ।
सफेद बर्फ/लाल पुताई यहाँ/है किसने की।
‘पतझड़’ जीवन खंड के हाइकु हमारे और प्रकृति के बीच अंतरसंबंधों की सेतु बनाते हैं। पतझड़ का आना वाकई विधवा होने जैसा ही है,सिंघोरा का जलना,चूड़ियों का टूटना जैसे बिम्ब अद्भुत हैं। आइए इन हाइकु को करीब से अनुभूत करें-
सिंघोरा जला/है चिता में उनकी/सफेद माँग।
दर्द उसका/समझती केवल/ टूटी चूड़ियाँ।

‘सपनों की धूप’ के हाइकु आपकी संवेदनाओं को धूप दिखाकर ऊर्जान्वित करते हुए यहाँ नवीनतम स्वरुप में प्रस्तुत हुए हैं,जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करेगी। इस संग्रहणीय एवं पठनीय संग्रह के लिए आपको अनंत शुभकामनाएँ।

सपनों की धूप (हाइकु-संग्रह)- रचना श्रीवास्तव
अयन प्रकाशन, नई दिल्ली-2021, मूल्य-230/-रु., पृष्ठ-104
ISBN:978-93-91378-45-5
भूमिका- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
फ्लैप-डॉ.कुँवर दिनेश सिंह, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.कविता भट्ट एवं रश्मि विभा त्रिपाठी।

संपर्क
रमेश कुमार सोनी
रायपुर, छत्तीसगढ़-492099
मो.-70493 55476

Rachana Srivastava
Freelance Reporter, Writer, and Poet
Los Angeles, CA

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