पितृ पक्ष समापन की ओर अग्रसर है। व्यक्ति अपने अपने पितरों को तर्पण जल और श्रद्धा दे रहे हैं।इस दौरान पुत्र और संतति का अर्थ और दोनों में विभेद का जानना समीचीन है। पुत्र’ शब्द की व्युत्पत्ति के लिये यह कल्पना की गई है कि जो पुन्नाम [‘पुत्’ नाम] नरक से उद्धार करे उसकी संज्ञा पुत्र है । पुत्र का अर्थ केवल संतति नही है। शास्त्रों में पुत्र को बहुत स्पष्ट परिभाषित किया गया है-
पुन्नर कात्रायते हि पुत्रः।।
पुत्र वही है जो अपने पितर के लिए समुचित श्रद्धा का निर्वहन करता है, यह उस शरीर की निजी संतति भी हो सकती है या पुत्रवत कोई अन्य भी। पुत्र शब्द को हमने रूढ़ि में संतान के साथ जोड़ कर ही देखा है। जबकि इस शब्द का केवल संतान से कोई संबंध नही है। पुत्र सिर्फ वह है जो पूर्वज की श्रद्धा विधि करे। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि व्यक्ति की मरणोपरांत दाह संस्कार एवं पिंड दान का कार्य तथा उसके उपरांत प्रतिवर्ष श्राद्ध आदि कार्य पुत्र के द्वारा ही किए जाने चाहिए अन्यथा व्यक्ति (जीवात्मा) की मुक्ति नहीं होती। हमारे यहां शादी का उद्देश्य मात्र शारीरिक सुख नहीं बल्कि गृहस्थ जीवन का सफल संचालन एवं वंशवृद्धि के लिए संतान की उत्पत्ति करना भी होता है। जीवन के सात सुखों में संतान सुख भी विशेष स्थान रखता है। जहां एक ओर शास्त्रों की मान्यता के अनुसार पितृ ऋण से उऋण होना जरूरी है वहीं देखा जाए तो आंगन में बच्चे की किलकारियां परिवार को व्यस्त कर देती हैं व ईर्ष्या-द्वेष मिटाकर प्यार का संचार करती है।
समाज में संतान(पुत्र) का होना अत्यावश्यक है, बिना संतति के जीवन लोक व परलोकार्थ सफल नहीं होता। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘पुत्रार्थे क्रियते भार्या पुत्र: पिंड प्रायोजन:’ पुत्र प्राप्ति के हेतु ही भार्या की आवश्यकता है न कि कामवासना को तृप्त करने के लिए और पुत्र के द्वारा ही उत्तर क्रिया सम्पन्न होती है। ‘अपुत्रस्यगहं शून्यम्’ व्यवहार दृष्टि से भी बिना पुत्र के घर मानो शून्य हैं। देवी भागवत में लिख दिया गया है कि ‘अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे वेदविदोविदु:’ अर्थात स्वर्ग में वेदवेत्ता देवताओं ने यह निश्चय किया कि बिना संतति के प्राणी की सद्गति नहीं होती है।
संतति पुत्र नहीं होता :-
हिन्दवी के अनुसार – संतति का हिंदी अर्थ. विस्तार; फैलाव; संतान; औलाद; बाल-बच्चे; रिआया; प्रजा. दल और झुण्ड होता है। संतति का यह भी अर्थ होता है –
किसी के वंश में उत्पन्न जीव, किसी राजा के अधीन या उसके राज्य में रहने वाले लोग , किसी का पुत्र या पुत्री , या किसी कार्य या उद्देश्य आदि।
जो संतति पुत्र धर्म का निर्वाह नही करती वह संतान होती है लेकिन पुत्र नही। पुत्र की शास्त्रीय परिभाषा बहुत स्पष्ट है। इसलिए हमारे जन मानस में लोकोक्ति में कहा जाता है –
” बाढ़े पूत पिता के धर्मे।
खेती उपजे अपने कर्म।।
पुत्र हमेशा पिता के द्वारा किए गए सत्कार्य से जीवन में आगे बढ़ता है क्योंकि दोनो का अनुवांशिक अंश मिलकर 49 अंश बन जाता है। यही कारण है कि पिता की मुक्ति भी पुत्र के हाथों ही होता है।