Sunday, April 28, 2024
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लन्दन में धर्म का बदलता चेहरा

छठे दशक में हमारी दादी हमें बताया करती थीं कि बरतानिया गोरे ईसाइयों का देश है और वहाँ की राजधानी लन्दन में सूट बूट और टाई पहनने वाले जेंटलमैन , टॉप और स्कर्ट पहनने वाली गोरी मेमें रहती हैं. जब से मेरा लंदन आना जाना शुरू किया है तबसे मैं दादी के द्वारा बताये हुलिये के गोरे जेंटलमैन खोजता रहता हूँ. वे अब आसानी से दिखायी नहीं दिखते हैं . लन्दन अब ऐसा शहर बन चुका है जहां अब भिन्न भिन्न रंग रूप , शक्ल सूरत, वेशभूषा और भौगोलिक पृष्ठभूमि के लोग ज़्यादा मिल जाएँगे . शलवार कमीज में गबरू पठान, ईरानी, इराक़ी, बुर्के या अभाया में मुस्लिम महिलाएँ, कुर्ते पजामे में तिलकधारी हिंदू बुजुर्ग, माथे पर बिंदी , गले में मंगलसूत्र पहने साड़ी में हिंदू महिलायें , शनील की छोटी गोल टोपी में यहूदी , फूल और छींट के प्रिंट वाले वस्त्रों में अश्वेत अफ्रीकी मिलना आम बात है.

2021 में हुई जनगणना के आँकड़े तो चौंका देने वाले हैं . इसके अनुसार तो लन्दन में ईसाई 40.66% ही रह गए हैं , इसके बाद नम्बर उन लोगों का है जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं , ऐसे लोगों की संख्या 27.05% है. बाक़ी में मुस्लिम 14.99% , हिंदू 5.15% , यहूदी 1.65% , सिख 1.64% , बौद्ध 1.0% हैं . अगर चमड़ी के रंग की बात करें श्वेत कुल मिला कर 53.8% हैं लेकिन इनमें ब्रिटिश मूल के श्वेत केवल 36.8% हैं . एशियाई मूल के 20.8% और श्याम वर्ण के 13.5% हैं, इस बीच अलग अलग समुदायों के लोगों के बीच हुए वैवाहिक संबंधों से जन्मे लोगों की तादाद 5.7% तक पहुँच चुकी है . 2011 से ले कर 2021 की दो जनगणनाओं के बीच या तो मुस्लिमों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है या फिर उनकी जो कोई धर्म नहीं मानते हैं . मस्जिदों और मंदिरों में भीड़ भाड़ दिखती है लेकिन चर्च जाने वालों की संख्या में भारी गिरावट आई है. चर्च में रविवार के मास में लोग कम आते हैं कई चर्च में बाहर मैंने सूचना लिखी देखी है कि मास के बाद कॉफ़ी और स्नैक्स भी सर्व किए जाते हैं पर इससे भी आने वालों की संख्या में कोई ख़ास असर नहीं दिखता है.

लन्दन में बसे लोगों का इतिहास जानना रोचक है .अब से कोई दो हज़ार साल पहले का लंदन एक बहुत छोटी बस्ती हुआ करता था. रोमन और वाइकिंग लोग यहाँ अतिक्रमण करके आये और टेम्स नदी के दोनों किनारों पर बस गए , रोमन लोगों ने अपनी बस्ती को दीवारों से सुरक्षित किया था जिसके अवशेष लंदन म्यूजियम के पास आज भी मौजूद हैं.

फिर एक सिलसिला चला , यूरोप के अन्य देशों के लोग भी यहाँ पर उपलब्ध बेहतर रोज़गार अवसर , स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण आ कर बसते गए. उनमें काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की भी थी जो अपने देश में प्रताड़ित किए जाने या उनके साथ हुए भेदभाव के कारण यहाँ आ गए. इस शहर ने सभी को बाँह पसार कर स्वीकार किया.

सन् 935 में ब्रिटेन में राजशाही स्थापित हुई , जिसने सोलहवीं शताब्दी में एक पूरा का पूरा स्वर्णिम युग देखा जब इसका नियंत्रण धीरे धीरे दुनिया के कोने कोने में फैल गया , उस के बाद से इस देश का तेज़ी से औद्योगिकरण होना शुरू हुआ. इस कारण दुनिया भर से व्यापार के लिए लोगों ने लन्दन आना और बसना शुरू कर दिया. विशेषकर अठारहवीं शताब्दी में लन्दन की जनसंख्या खूब बढ़ी .

ब्रिटेन की सामरिक और व्यापारिक ताक़त बढ़ने के कारण लन्दन का बंदरगाह व्यस्ततम स्थान बन गया , यहाँ दुनिया भर से जहाजों से सामान आ कर उतरता था , इस कारण भी कई देशों के लोग यहाँ काम करते थे . वियतनामी और चीनी लोग उसी दौर के आये हुए हैं , लन्दन का पहला चाइना टाउन भी यहाँ के बंदरगाह के इलाक़े में बना था, 1970 में यह जा कर वेस्टएंड इलाक़े में शिफ्ट हुआ . फिनिश और नॉर्वेजियन लोग जब यहाँ गोदी में काम करने आए तो उन्होंने बंदरगाह के ही इलाक़े में अपने अपने चर्च भी बनाए.

लन्दन शहर के ईस्ट एंड की तंग गलियों ने सौलहवीं शताब्दी में प्रवासियों को खूब आकर्षित किया. अंग्रेज़ी में रिफ़्यूजी शब्द इन्हीं गलियों में उस दौर से आया है जब फ़्रांस के ह्युग्नॉट प्रोटेस्टेंट ने अपने देश में सताये जाने से बचने के लिए भाग कर इन्हीं गलियों में रिफ़्यूज यानी शरण ली थी . लन्दन का उदार माहौल स्पेन और रूस में सताये हुए यहूदियों के लिए भी वरदान बना . आयरलैंड और इटली में ग़रीबी के शिकार लोग भी इसी ईस्ट एंड की गलियों में आ कर बसे. उन्नीसवीं शताब्दी में इनमें से काफ़ी सारे संपन्न कामगार विक्टोरियन बिल्डरों द्वारा बनाये गये टेरेस-घरों में शिफ्ट हो गए.विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में यहूदियों को प्रताड़ित किया , उनमें से बहुत सारे यहूदी लंदन आ गए.

यह सब और आगे की कहानी सुनाने के पीछे मेरा मक़सद यह बताना है कि धीरे धीरे किस तरह से लन्दन शहर का धार्मिक और जातीय चेहरा मोहरा बदलता चला गया है. एक और बड़ी लहर पिछली शताब्दी के पाँचवें दशक में आई . दो विश्व युद्धों की विभीषिका और विनाश के कारण लन्दन की जनसंख्या में ख़ासी गिरावट आ गई थी , युद्ध के कारण ध्वस्त अर्थव्यवस्था के कायापलट और क्षतिग्रस्त इमारतों और बंदरगाह के पुनर्निर्माण के लिए बड़ी संख्या में कामगारों की ज़रूरत थी जो लंदन में मौजूद नहीं थे , उस समय सरकार की निगाह कॉमनवेल्थ देशों पर गई जहां से सस्ते मज़दूर मिल सकें . इस दौर में भारत, बांग्लादेश(तब के पूर्वी पाकिस्तान) , पश्चिमी पाकिस्तान और कैरिबियन द्वीपों के बहुत सारे कामगार लोग ब्रिटिश सरकार के बुलावे पर यहाँ आ गए , ईस्ट एंड का टावर हैमलेट तब से बांग्ला भाषी मुस्लिमों की बस्ती बन गया, बांग्ला मुक्ति संग्राम के दौरान प्रताड़ित बांग्ला मुस्लिमों ने ब्रिटेन में शरण ली उनमें से काफ़ी शरणार्थी ईस्ट एंड इलाक़े में बसे , नतीजा यह है कि टावर हैमलेट बांग्ला देश का ही हिस्सा नज़र आने लगा है .

पिछले तीस वर्षों में बोस्निया , सर्बिया , मध्य एशिया, अफ़्रीका के भिन्न भिन्न देशों में गृह युद्ध के कारण भी बहुत सारे निर्वासित लोग यहाँ आये . गौर करने की बात यह है कि लन्दन में आने वाले लोगों का रंग, रूप , धार्मिक मान्यताएँ ब्रिटिश लोगों से अलग थे.

यही नहीं, 1979 के आसपास लन्दन विश्व का सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केन्द्र बन गया , इस कारण अन्तरराष्ट्रीय निवेशक, फ़ायनेंसर, सलाहकारों ने भी यहाँ अपना कामकाज जमा लिया. 1973 से लेकर 2020 तक यूरोपीय संघ का हिस्सा रहने के कारण यूरोप के विभिन्न देशों से भी काम काम की तलाश में यहाँ आए .

लन्दन शहर की एक और खूबी है यहाँ पर काम करने या व्यवसाय जमाने के लिए आप को किसी धर्म विशेष या किसी समुदाय विशेष का होने की ज़रूरत नहीं है इसी लिए यहाँ हर व्यक्ति को उसकी योग्यता और क्षमता के हिसाब से काम मिल जाता है. कोविड और यूक्रेन युद्ध से लंदन में महंगाई बढ़ गई है लेकिन फिर भी गुज़ारा हो जाता है.

ईसाई धर्म लन्दन के बहुसंख्यक निवासियों का धर्म रहा है लेकिन उसके अधिकांश मतावलंबी अपने धर्म और धार्मिक कर्मकांड से दूर होते चले गए हैं, ऐसे लोगों की संख्या यहाँ की जनसंख्या के बीस प्रतिशत से भी अधिक हो गई है जो अपने आप को किसी भी धर्म का नहीं मानते हैं , उनका वैज्ञानिक सोच चीजों को तार्किक आधार पर कसने के लिए कहता है और धार्मिक कर्मकांड इस कसौटी पर खड़े नहीं उतरते हैं.

दूसरी ओर यहाँ पर अन्य धर्मों के मतावलंबी विशेषकर मुस्लिम, हिंदू और सिखों में धार्मिक प्रतीकों और कर्मकांड को लेकर आग्रह बढ़ा है जिसकी परिणति मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारों की बढ़ती संख्या है . सेंट्रल लंदन के रीजेंट पार्क के कोने पर सेंट्रल मस्जिद है , कुल मिला कर लन्दन में छोटी बड़ी 1500 मस्जिदें हैं .1985 से तो यहाँ मुस्लिम शरिया कौंसिल भी बन गई है जो इमाम बनाने का प्रशिक्षण और अन्य इस्लामी स्कॉलर्स को शिक्षा तो देती ही है साथ ही शरिया के आधार पर अपने समुदाय में विवादों का निस्तारण भी करती है . मंदिरों की बात करें तो इनकी संख्या मस्जिदों की तुलना में काफ़ी कम है लेकिन भारत के बाहर सबसे विशाल और भव्य स्वामीनारायण मंदिर यहाँ नाजडेन है यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या रोज़ाना हज़ारों में रहती है. क्षेत्रफल की दृष्टि से वॉटफ़ोर्ट का इस्कॉन मंदिर सबसे बड़ा है , स्लाउ, साउथहाल में भी हिंदू मंदिर काफ़ी पहले से हैं . लन्दन और उसके उपनगरों में दस से अधिक सिखों के गुरुद्वारे हैं इनमें सबसे पहला गुरुद्वारा 1908 में सेंट्रल लन्दन के शेफ़र्ड बुश इलाक़े में स्थापित हुआ था. इसमें कोई संदेह नहीं कि इन धार्मिक स्थलों की स्थापना ने धर्म विशेष के मानने वालों को अपने धार्मिक अनुष्ठान और पूजा अर्चना के लिए एकत्रित होने का अवसर दिया है और अपने अपने तीज त्योहारों को मनाने का प्लेटफार्म उपलब्ध भी कराया है.

उदारवादी सोच के चलते जिस प्रकार से ग़ैर ईसाई उपासनागृहों को बनाने और संचालित करने की अनुमति यहाँ दी गई है उसकी कल्पना किसी मुस्लिम देश या यहाँ तक कि किसी अन्य धर्म प्रधान देश में करना संभव नहीं है . लेकिन यहाँ के प्रबुद्ध वर्ग में इस बात को लेकर सुगबुगाहट है कि इस कारण यहाँ के उदारवादी समाज में कुछ वर्ग धार्मिक कट्टरता का शिकार न हो जाएँ. इसमें कुछ तो दम भी दिखता है क्योंकि हाल ही में लेस्टर से लेकर बर्मिंघम में मंदिर और मस्जिद के मसले पर हिंदू और मुसलमानों के बीच तनातनी देखी गई थी. यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि यहाँ का प्रशासन किस प्रकार से यह सुनिश्चित करेगा कि आगे से ऐसे अप्रिय घटनाक्रम का दोहराव न हो।

(लेखक इन दिनों लन्दन प्रवास पर हैं और वहाँ की सामाजिक व सांकृतिक गतिविधियों पर लिख रहे हैं)

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