Saturday, April 27, 2024
spot_img
Homeअध्यात्म गंगाजैन साहित्य में पुरुषोत्तम श्रीराम

जैन साहित्य में पुरुषोत्तम श्रीराम

कुलों को धारण करने वाले कुलधर कहलाते है, जिन्हें ‘मनु’ भी कह कहते हैं। अंतिम कुलकर नाभिराय थे, जिन्हें “तिलोयपणत्ती” में भी “मनु” कह गया है। इसके अनंतर श्लाका पुरुषों का उल्लेख आता है। उसमें 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रति नारायण इस तरह कुल 63 (तिरसठ शलाका) पुरुष हुए हैं। नौ बलदेवों में ‘राम’ का उल्लेख है। प्रागैतिहासिक काल में राम को पुरुषोत्तम कहा गया है। वे असाधार‌ण व्यक्तित्व के महाधनी थे। वे ‘नरत्त्व’ से ‘नारायणत्व’ की ओर अग्रसर हुए, उन्हें परम प्रतापी, धर्मज्ञ, कर्तव्य परायण, पितृ आज्ञाकारी , मातृशक्ति के प्रति आस्थावंत, गम्भीर, धीर-वीर एवं नैतिक गुणों से परिपूर्ण परिलक्षित किया गया है।

प्राकृत में रचित अनेक काव्यों में ‘राम’ को ‘पद्म’ भी कहा गया है। विमलसूरि ने ‘पउमचरियं’ नामक ग्रन्थ की प्राकृत में रचना की है। जो महाराष्ट्री प्राकृत में है। यह काव्य पौराणिक है, इसमें ‘राम’ के चरित्र की यथार्थवादिता के भी दर्शन होते हैं। इसमें प्राकृ‌तिक घटनाओं मानवीय मूल्यों, धार्मिक वातावरण, सामाजिक रीतियाँ व रूपात्मक विवरण है। इसमें परम प्रतापी पुरुषों के जीवनवृत्त आदि भी का समावेश है।

जैन राम कथा पैराणिक कथा है, इसमें लोकतत्व, कालतत्व, वंश परंपरा आदि भी विद्यमान है। जैन राम कथा में राम, लक्ष्मण, भरत आदि के चित्रण के साथ रावण, जटायु आदि के पूर्वजन्मों की कथाएँ भी विद्यमान है। ये अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में उत्पन्न हुए है। राम शलाका पुरुष है। पुरुषोत्तम है व पद्म सदृश होने से ये ‘पद्म’ भी इन्हें कहा गया है। चरित्र एवं पुराण काव्यों में राम को ‘पद्म’ उल्लेखित किया गया है। इसी प्रचलित ‘पद्म’ शब्द के आधार पर आचार्य रविषेण ने ‘पद्मपुराण’ लिखा। सोमदेव भट्टारक, धर्म कीर्ति भट्टारक ने संस्कृत भाषा में एवं महाकवि स्वयंभू ने अपभ्रंश में ‘राम’ का चित्रण किया है। कवि रइधू, चन्द्रकीर्ति एवं ब्रह्मजिनदास ने भी अपभ्रंश में ‘पउमचरीउं’ ग्रन्थ की रचनाओं में ‘राम’ के लौकिक व धार्मिक स्वभाव का बड़ा ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

‘पुरुषोत्तम श्रीराम’ जैन धर्म के बींसवें (20) तीर्थंकर मुनिसुव्रत काल में हुए। जो सहस्रों वर्षों का काल माना जाता है। ‘राम’ भरतखण्ड के साकेत में उत्पन्न हुए, जिसे अयोध्या भी कहा गया है। अयोध्या, चित्रकूट, दसपुर, दण्डकवन, किष्किन्धा आदि स्थान जंबूद्वीप के अन्तर्गत ‘भरत खण्ड’ में विद्यमान थे। भरतखण्ड को ‘भरतक्षेत्र’ भी कहा जाता हैं भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान पर्वत और मध्य में विजयारध पर्वत होने का उल्लेख मिलता है और ‘राम’ का सबंध भरतक्षेत्र से रहा है जो कि अपने आप अतुलनीय है।

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इक्ष्वाकु वंश के थे। इक्ष्वाकु वंश की इसी पृष्ठभूमि से ‘सूर्यवंश’ का उद्‌भव हुआ है। इसीलिए ‘राम’ सूर्यवंशी कहलाए। श्रीराम आठवें (8) बलदेव हैं। जिसे तिलोयणणति में भी देखा व समझा जा सकताहै। ‘राम’ बलदेव हुए है जिसके माध्यम से वे परम प्रतापी, तेजस्वी, सौम्य, धीर, वीर, गुणी, महाबली एवं अपराजेय रहे। वस्तुतः राम ‘पुरुषोत्तम’ है, क्यूँकि उनका समग्र जीवन पुरुषोत्तम पर ही आधारित रहा। वे अन्याय एवं अत्याचारों को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए जन्म लेते हैं। वे उत्तमोत्तम कर्म करने वाले महापुरुष रहे है वस्तुतः राम अपने युग के पुरुषोतम थे व आज भी पुरुषोत्तम राम बने हुए है व जनमानस को भी पुरुषार्थ पुरुषोत्तम बनने का सफल संदेश दे रहे है। जैनागम के अनुसार राजपाठ की आयु पूरी करने के बाद श्री राम ने दिगंबरी दीक्षा धारण करके महाराष्ट्र के माँगीतुंगी पर्वत की तुंगी चोटी से मोक्ष का वरण किया, यहाँ पर उनकी प्रतिमा व चरण चिह्न आज भी विद्यमान हैं।

राम अयोध्यापति दशरथ के पुत्र थे। वैदिक, जैन एवं बौद्ध परंपरा में ‘राम’ के विविध आदर्श हैं। जो हजारों वर्षों से जन मानस को चेतना का पाठ पढ़ा रहे हैं। ‘राम’ के चरित्र में आत्मस्वरूप की उत्कृष्ट स्थिति है, जो कि वर्तमान समय में आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर करती है।’राम’ के नाम में विश्वव्यापकत्व का रहस्य है। जो उन्हें कालजयी बनाता है प्रत्येक युग के विचारकों ने राम-चरित’ को विकसित किया है। जहाँ वैदिक परम्परा में भगवान विष्णु का अवतार माना है, वही जैन मनीषियों व साहित्यकारों ने “राम” के विश्व-व्यापी व्यक्तित्व की दृष्टि से ‘शलाका पुरुष’ में स्थान दिया है। ये ‘राम’ प्रत्येक भारतीय भाषा के पटल पर विद्यमान रहे है। इसलिए प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, मराठी, गुजराती, राजस्थानी एवं हिन्दी काव्यकारों ने उन्हें आदर्शरूप के आधार पर ही प्रस्तुत किया है।

अतः मैं कह सकता हूँ कि ‘राम’ जन-जन को आचार-विचार के दृष्टिकोण देने वाले पुरुषोत्तम भी रहे है। वे साधना के शिखर थे, विपत्तियों में भी सौम्य बने रहने वाले पुरुष नहीं, अपितु जनमानस की आस्था के ‘परमसेतु’ रहे है। उनके जीवन का प्रमुख व परम लक्ष्य प्राणि मात्र के कल्याण के लिए निहित रहा है। उनका समग्र जीवन दर्शन व्यावहारिक साधना से लेकर चरम लक्ष्य की ओर ले जाने वाला रहा है। जीवन, सम्पति एवं संसार स्थिर नहीं कर सकता है। दुष्कृत का परि त्याग सुकृत अवश्य लाता है। जीव दया, करुणा, मृदुता, ऋजुता, तपस्या, संयम, ब्रह्मचर्य एवं सत्यानुभूति भव-मवान्तर से हटाती है, और यही जन जन के ‘राम’ को ‘पुरुषोत्तम’ बनाने में सहायक सिद्ध हुई है।

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार