Saturday, April 27, 2024
spot_img
Homeअध्यात्म गंगालोकनायक श्रीराम – भाग पांच

लोकनायक श्रीराम – भाग पांच

अवधपुरी के राजप्रासाद में श्रीराम के युवराज्याभिषेक की तैयारियां चल रही है। मुहूर्त पर चर्चा हो रही है। राजा दशरथ, श्रीराम को अपने पास बुलाते हैं और कहते हैं, “हे रघुनंदन, मेरे सपनों में अशुभ लक्षण प्रकट हो रहे हैं। इसलिए, शीघ्रता से युवाराज्याभिषेक करना उचित रहेगा। राजपुरोहित ने भी पुष्य नक्षत्र पर राज्याभिषेक शुभ रहेगा, ऐसा कहा है। कल पुष्य नक्षत्र है। अत: कल ही मैं तुम्हारा युवराज पद पर अभिषेक कर दूंगा। अभी से तुम, सारे यम-नियमों का पालन करना प्रारंभ करो। तुम्हें उपवास करना होगा तथा कुश की शैया पर सोना होगा”।

इसे भी पढ़ें – लोकनायक श्रीराम – भाग पांच

यह सुनकर श्रीराम अपने पिताश्री को प्रणाम करके चले जाते हैं।

उधर राजप्रासाद के रानी महल में, रानी कैकेयी के निवास में कोई विशेष हलचल नहीं दिख रही है। भरत अपनी नव परिणित पत्नी के साथ अपने नानिहाल गए हुऎ हैं और रानी कैकेयी विश्राम कर रही है।

रानी की एक दासी है मंथरा, जो रानी के मायके से ही उनके साथ आई है। अपनी कुरूपता के कारण वह कुब्जा भी कहलाती है। मंथरा अपने महल की वेदी से अयोध्यापुरी में चल रही साज सज्जा देख रही है। वह अपने साथ की दासी से नगर में चल रहे उत्सवी वातावरण का कारण पुछती है। उसे पता चलता है की कल श्रीराम का युवराज्याभिषेक होने जा रहा है।

बस्। मंथरा का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंचता है। श्रीराम ही क्यों..? भरत क्यों नहीं..? वह शीघ्रता से कैकेयी के कक्ष में आती है। उन्हें नींद से जगाकर कहती है, “ये आप क्यों सहन कर रही है?” कैकेयी को, श्रीराम के युवराज्याभिषेक के समाचार से बहुत फर्क नहीं पड रहा है। वे सहज भाव से मंथरा को समझाती है की ‘परंपरा के अनुसार, जेष्ठ पुत्र को सिंहासन मिलता है। यह स्वाभाविक है।’

किंतु मंथरा मानने के लिए तैयार नहीं है। वे अनेक तर्क-कुतर्क देकर कैकेयी को समझा रही है की भरत का युवराज्याभिषेक होना कितना आवश्यक है।

धीमे-धीमे रानी कैकेयी के मन-मस्तिष्क पर, मंथरा की बातें असर करने लगी है। वे कोप भवन में जाने का निर्णय लेती है, और वैसी सूचना, राजा दशरथ के पास पहुंचे, ऐसी व्यवस्था भी करती है।

अहं हि नैवास्तरणानि न स्रजो
न चन्दनं नाञ्जनपानभोजनम्।
न किञ्चिदिच्छामि न चेह जीवितं
न चेदितो गच्छति राघवो वनम् ॥६४॥
(अयोध्या कांड / नौं वा सर्ग)

कल के राज्याभिषेक की तैयारी में व्यस्त राजा दशरथ के पास, रानी कैकेयी के कोप गृह में जाने का समाचार मिलता है। राजा दशरथ, शीघ्रता से वहां पहुंचते हैं। हर्ष से आल्हादित और उत्साहित अयोध्या के ठीक विपरित चित्र, उन्हें यहां दृष्टिमान हो रहा है।

उदासीन और निराशा भरे वातावरण के बीच में, रानी कैकेयी, मंच पर, शोक करती हुई दिखती है। अवध नरेश, जब अपने इस रानी से उसके कुपित होने का कारण पुछते हैं, तो कैकेयी बताती है की ‘राज्याभिषेक तो भरत का होना चाहिए और राज्याभिषेक के बाद, श्रीराम को चौदह वर्ष तक वनवास में जाना चाहिए।’

कैकेयी के मुख से यह विषैले शब्द सुनकर मानो राजा दशरथ की हृदय गति रुक सी जाती है। वह अत्यधिक दुखी होकर रानी के इस मांग को अस्वीकार करते हैं।

तब रानी कैकेयी, अवध नरेश को, उन्होंने दिए हुए दो वरों का स्मरण दिलाती है। देवासुर संग्राम के समय, जब असुरों ने राजा दशरथ को घायल कर दिया था, तब कैकेयी ने ही असीम शौर्य का परिचय देकर राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी, तथा उस असुर दल को परास्त किया था। रानी के शौर्य से अभिभूत होकर, तब राजा दशरथ ने रानी को दो वर दिए थे, जो रानी, उनके जीवित रहते कभी भी मांग सकती थी।

और रानी कैकेयी, उन्ही दो वरों के आधार पर अपनी दो मांगे सामने रख रही है -भरत को राजसिंहासन तथा श्रीराम को वनवास।.!

कैकेयी के यह वचन सुनकर, महाराजा दशरथ, अत्यधिक क्रोध के कारण मूर्छित हो गए। कुछ क्षणों के बाद, होश में आने पर, वह कैकेयी का धिक्कार करने लगे। कैकेयी को अपनी मांगों से हटने के लिए कहने लगे। उन्होंने कैकेयी से पूछा, “जब सारा जीव-जगत, श्रीराम के गुणोंकी प्रशंसा करता है, तब मैं किस अपराध के कारण अपने इस प्यारे पुत्र को त्याग दूं..?

जीवलोको यदा सर्वो रामस्याह गुणस्तवम् ।
अपराधं किमुद्दिश्य त्यक्ष्यामीष्टमहं सुतम् ॥१०॥
(अयोध्या कांड / बारहवां सर्ग)

आखिरकार, अनेको बार अनुनय-विनय करने के बाद भी कैकेयी नहीं मान रही है, यह देखकर उन्होंने मंत्री सुमंत्र को, श्रीराम के महल में, उन्हें बुलाने के लिए भेजा। श्रीराम, राज्याभिषेक के यम-नियमों का पालन करते हुए, अपने महल में, कुछ अयोध्यावासी नागरिकों के साथ बैठे थे। सुमंत्र से, पिताश्री की आज्ञा पाकर, वे रानी कैकेयी के महल में पहुंचे।

महल में श्रीराम ने देखा कि पिता दशरथ, अत्यंत विकल अवस्था में बैठे हैं तथा माता कैकेयी के चेहरे पर उग्रता छाई हुई है। यह देखकर श्रीराम दीन से हो गए। वह कैकेयी को प्रणाम करके पूछने लगे कि ‘मुझ में, अनजाने में कोई अपराध हो गया है क्या? मेरे पिताश्री मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हैं?’

तब कैकेयी ने श्रीराम को अपनी दोनों इच्छाओं के बारे में बताया और यह भी कहा कि ‘आपका वनवास गमन यह राजा दशरथ की आज्ञा है।’

यह सुनकर श्रीराम बड़े सहज भाव से बोले, “हे माते, बहुत अच्छा। ऐसा ही होगा। मैं महाराज की आज्ञा का पालन करने के लिए, जटा और चीर धारण करके, वन में रहने के निमित्त यहां से अवश्य रूप से चला जाऊंगा।”

मन्युर्न च त्वया कार्यो देवि ब्रूमि तवाग्रतः।
यास्यामि भव सुप्रीता वनं चीरजटाधरः ॥४॥
(अयोध्या कांड / उन्नीसवां सर्ग)

आगे दशरथनंदन कहते हैं, “किंतु माते, मुझे दु:ख मात्र इतना है, कि पिताश्री ने पहले ही मुझे यह क्यों नहीं बताया? वे यदि मुझे संकेत मात्र कर देते, तो मैं अपने प्यारे भरत के लिए यह राज्य, सारी संपत्ति और मेरे प्राण भी अर्पित कर देता”।

श्रीराम के वन गमन की तैयारी देखकर भ्राता लक्ष्मण अत्यंत क्रोधित हो उठे। किंतु श्रीराम का संकेत पाकर, दोनों आंखों में आंसू भरकर, वह चुपचाप श्रीराम के साथ चल पड़े।

‘श्रीराम वनवास में जाने वाले हैं’, यह समाचार आग की भांति सारी अयोध्या नगरी में फैल गया। राजप्रासाद में शोक छा गया। कौसल्या और सुमित्रा, विलाप करने लगी। नगर में पौर जन उदास होकर, शोक करते हुए, राजप्रासाद की ओर बढ़ने लगे।

श्रीराम के साथ जाने के लिए सीता ने हठ किया। श्रीराम ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाया। किंतु वह नहीं मानी। ‘जहां राघव, वहां सीता’ यह उनका प्रमाण वाक्य था। भ्राता लक्ष्मण ने पहले तो क्रोधित होकर, श्रीराम से अपने पिता के अन्याय के विरोध में खड़े रहने के लिए कहा। किंतु बाद में श्रीराम के समझाने पर वे शांत हुए। वे तो मानो श्रीराम की परछाई थे। वे अपने इस बड़े भ्राता को छोड़ ही नहीं सकते थे।

अतः श्रीराम, लक्ष्मण और सीता, यह तीनों चौदह वर्षों के वनवास के लिए जाएंगे ऐसा निश्चित हुआ।

वनवास की पूरी तैयारी करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के साथ, अपने पिताश्री की आज्ञा लेने माता कैकेयी के महल में गए। श्रीराम को देखते ही भावावश होकर, राजा दशरथ मूर्छित हो गए। कुछ क्षणों के बाद, चेतना की अवस्था में आने पर उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, “रघुनंदन, मैं कैकेयी को दिए हुए वर के कारण मोह में पड़ गया हूं। तुम मुझे कैद करके स्वयं ही अब अयोध्या के राजा बन जाओ।”

अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः।
अयोध्यायास्त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम् ॥२६॥
(अयोध्या कांड / चौतीसवां सर्ग)

श्रीराम ने उन्हें समझाया कि ‘चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात, वे पुनः आकर उनके चरणों में मस्तक रखेंगे।’

नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते।
पुनःपादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥२९॥
(अयोध्या कांड / चौतीसवां सर्ग)

वनवास की पूरी सिद्धता के साथ, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने पिता दशरथ की परिक्रमा की। कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी को प्रणाम किया। सभी का आशीर्वाद लिया और ये तीनों, रथ में बैठकर दंडकारण्य की दिशा में निकल पड़े…
(क्रमशः)

(प्रशांत पोळ ऐतिहासिक, धार्मिक, पौराणिक व राष्ट्रीय विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं, आपकी की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी है)

इसे भी पढ़ें – लोकनायक श्रीराम – भाग पांच

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार