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पंचायती राज की चुनौतियां

1950 के दशक में सुप्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘पंचलाइट’ नामक कहानी लिखे थे। तत्कालीन ग्रामीण समाज के संदर्भ में स्थापित यह कहानी एक ऐसे युग को दर्शाती है, जिसमें अधिकांश भारतवर्ष में बिजली नहीं थी। अधिकांश ग्रामीण घरों में प्रकाश के लिए ढिबरी या छोटा दीपक जलाया जाता था। कहानी का सार यह है कि ग्रामीणों को दरकिनार करके विकास नहीं हो सकता है।

भारत के मूल संविधान के भाग चार (4) में पंचायती राज व्यवस्था को एक नीति-निर्देशक सिद्धांत के रूप में समाहित किया गया था। भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के गठन करने के लिए प्रयास करेगी और उन्हें ऐसे अधिकार और सत्ता प्रदान करेगा जो कि उनके द्वारा स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने की योग्य बनाने के लिए अति आवश्यक हो।

संविधान का निर्माण करने वाले पंचायती राज व्यवस्था की आवश्यकता एवं सार्थकता के विषय में एकमत नहीं थे और उन्होंने गांधीवादियों की पंचायती राज की मांग को गंभीरता से नहीं लिए। संभवत यही कारण था कि पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख नीति-निर्देशक सिद्धांतों के रूप में किया गया जो न्याय योग्य नहीं है। इसके परिणाम स्वरुप पंचायती राज व्यवस्था को स्थापित करने के लिए नागरिकों द्वारा सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता है और पंचायतों को स्थापित करना राज्यों का स्व विवेक का मामला बना रहा था।

ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था में सत्ता केंद्रित थी जो भारत सरकार अधिनियम, 1935 में पूरी तरह  व्यक्त थी। इसी व्यवस्था के अंतर्गत कांग्रेस ने 1937 का चुनाव लड़ा था और तत्कालीन कांग्रेस के नेता इसी व्यवस्था के हिमायती थे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 के अंतर्गत ग्राम पंचायत का उल्लेख किया गया था।

इस पर शासन के तीसरे स्तर/मूल स्तर पर विकेंद्रीकरण की मांग उठने लगा था। 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने एक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रतिवेदन किया, जिसे कार्य, कर्मचारियों और कार्य पूंजी आवंटित किया जाए; लेकिन इसके सुखदाई प्रतिफलित होने के लिए जनता, सरकार एवं नागरिक समाज को 35 वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब 1992 में संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायत को संघीय ढांचे के तृतीय स्तर के रूप में स्वीकार किया गया था, संविधान के संरचनात्मक ढांचे में एक मौलिक उलट-फेर करना पड़ा जिससे अधिक से अधिक लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सम्मिलित हो सके।

पंचायती राज प्रक्रिया के तीन प्रमुख अवयव हैं; राजनीतिक वैधता, सत्ता का विकेंद्रीकरण और संसाधनों का विकेंद्रीकरण। राजनीतिक वैधता का आशय है कि इस प्रक्रिया के लिए नीचे से जनता मांग कर रही है जो इसे संपन्न कराने की राजनीतिक शक्ति देती है। जनता के बिना मांग का राजनीतिक शक्ति को हस्तांतरित कर दिया जाए तो यह शक्ति उतनी प्रभावी नहीं होती है। अतः जनता की मांग और शक्ति पर सत्ता हस्तांतरण अधिक प्रभावी होती है, पर उसके लिए उसे उस स्तर पर लोकतंत्र का संस्थात्मक स्वरूप होना जरूरी है जिसके माध्यम से जनता अपनी इच्छा और मांग को व्यक्त कर सके। जनता की यह मांग ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों पर निर्भर करती है।

लोकतांत्रिक इतिहास में शासन में जन सहभागिता कम रही है; इसलिए महात्मा गांधी जी के पंचायती राज मॉडल के लिए कोई जन चेतन या जन समर्थन नहीं रहा है; हालांकि देश में एक केंद्रीकृत लोकतंत्र मौजूद था, लेकिन समाज के वंचित वर्ग के लोग पंचायती राज के लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में स्वतंत्रता पूर्वक ढंग से हिस्सा ना ले सके। स्वतंत्रता के पश्चात उनका आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिल सका था।

भारत में लोक चेतना जमीनी स्तर पर सुशासन के लिए एक जन आंदोलन और जन चेतना को जन्म दिया था, इसी का सुखद परिणाम 1992 का 73 वा संविधान संशोधन था, जिसमें पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्रदान किया गया था। ग्राम पंचायत पंचायती ढांचे में सबसे निचले स्तर पर मौजूद है। इसका उद्देश्य ग्रामीण आबादी को एक ऐसे अवसर मुहैया कराना है जिससे वह ग्राम सभा  स्तर से स्थानीय स्तर पर शासन प्रणाली में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें।

ये ग्राम सभाएं लोगों के लिए प्रत्यक्ष मंच मुहैया कराती हैं, जहां ग्राम पंचायत के मतदाता शामिल होते हैं और उन्हें ग्रामीण कार्य, कार्यक्रम और परियोजनाओं की सीधे तौर पर निगरानी और ग्राम पंचायत की जवाब देही और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने का अधिकार होता है।

73वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज संस्थाओं को विस्तृत अधिकार और वित्तीय संसाधन दिए, लेकिन इन संस्थाओं ने पहले से चली आ रही केंद्रित व्यवस्थाओं के अंतर विरोध को नहीं स्पर्श किया था। अधिकतर स्थानों पर जनता की कोई जन चेतन नहीं थी जो तत्कालीन राज्य सरकारों से पंचायत के लिए सत्ता और संसाधनों के लिए प्रभावी मांग कर सकें।

भारतीय संघवाद का वित्तीय स्वरूप ऐसा है कि राज्य सरकार ने खुद ही संसाधनों का रोना रोती रहती हैं; और इसलिए अपने सीमित संसाधनों को पंचायती राज संस्थाओं से सहयोग करने से कतराते हैं, क्योंकि संघवाद के अंतर्गत राज्यों को वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है और केंद्र द्वारा आवंटित राशियों पर भी अपना नियंत्रण चाहती हैं। भारत संघ शक्तियों का वितरण है; लेकिन शक्तियों का पद सोपानिक हस्तांतरण अति कमजोर प्रक्रिया में हैं।

73वें संविधान संशोधन के प्रावधानों के अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित अधिकारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को ऊर्जित करने के लिए 2004 में एक नवीन मंत्रालय का गठन किया गया। इस मंत्रालय ने पंचायती राज के संबंध में अनेक कदम उठाए हैं तथा राज्यों को प्रोत्साहन एवं चेतावनी की मिश्रित शैली द्वारा पंचायत को शक्तिशाली होने का प्रयास किया है। इस हेतु मंत्रालय वर्ष में दो मूल्यांकन करता है। पंचायत की स्थिति का प्रतिवेदन और पंचायत के सशक्तिकरण हेतु हस्तांतरण सूचकांक रिपोर्ट।

इस तरह पंचायत के सशक्तिकरण के लिए जन सहभागिता होना आवश्यक है।पंचायत को राज्य सरकार शक्तिशाली हेतु कैसे शक्तियों का हस्तांतरण कर सके?

सवाल यह है कि राज्य और पंचायत के राजनीतिक हितों में सामंजस्य से कैसे बैठाया जाए? इन सामंजस के पीछे प्रमुख कारण वितीय है।केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों में पंचायती राज संस्थाओं के साथ मध्यस्थ करके दोनों के बीच संतुलन स्थापित किया जाए, जिससे पंचायती राज संस्थाएं अति मजबूत स्थिति में हो सके।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।)