Sunday, December 22, 2024
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प्रेम ही सभी पर पेपर वेट का काम करता है – मंजू किशोर ‘रश्मि’

कोटा में हाल ही में राजकीय सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय द्वारा आयोजित पांच दिवसीय साहित्य उत्सव में यह साक्षात्कार आयोजित किया गया। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के कुछ अंश।

हमारे साथ मंजू किशोर ‘रश्मि’जी हैं, जो एक कवयित्री समीक्षक, कहानीकार, और शिक्षक भी हैं। आपने बहुत ही कम समय में एक अच्छा मुकाम भी साहित्य में हांसिल किया है।

मंजू जी! प्रथम हमें ये बताएँ कि आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी रही?
सवाल का जवाब देते हर वह बताती हैं मूलतः मेरा परिवार बारां जिले के माथनी गाँव से है और मेरा जन्म वहीं हुआ। पापा की नोकरी बूंदी जिले में रही, तो बचपन वहीं गुजरा। पढ़ाई के लिहाज से पापा को बच्चों के लिए कोटा रहना सही लगा,पापा यहीं आ गये। लगभग मैं आठ-नौ साल की रही होगी, तब से सारी शिक्षा दीक्षा यहीं हुई। लगभग चालीस वर्ष से कोटा में हैं। माता जी पढ़ी लिखी गृहणी हैं। हम छः भाई बहन हैं पिताजी ने कभी किसी भी तरह से बेटी और बेटों में अंतर नहीं समझा।

स्त्री विमर्श मीरा से शुरू होता है, जो समूचे सामंतवाद और राजशाही के विरुद्ध खड़ी हो गई। बाद में महादेव वर्मा शृंखला की कड़ियाँ में स्त्री की मुक्ति की गुहार करती है। फ्रांसिसी लेखिका सिमोनद बुआ द सेकण्ड सेक्स लिखकर स्त्री के अधिकारों की पुकार करती है। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रभा खेतान ने स्त्री उपेक्षिता के नाम से किया। आप स्त्री विमर्श को व्यक्तिगत रूप से कैसे देखती हैं?

मंजू उत्तर कहती हैं जी सच्चाई को झूठलाया नहीं जा सकता है। बहुत कठिनाइयों से संघर्ष करने के बाद महान स्त्रियों ने बड़ा मुकाम पाया है। जितना विरोध इनके लेखन का हुआ। सारा संसार एक तरफ वो लेखिका एक तरफ थी। आप समझ सकते हैं, कितना दम होगा कलम में, जब वे टिक पायीं। आज ही नहीं सदियों से स्त्री को सेकंड सेक्स ही माना गया है । किताब की पंक्ति – “स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है।”

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं मैं भी इस से सहमत हूँ क्यों कि आज भी स्त्री उसी जगह खड़ी है, जहां सदियों पहले खड़ी थी। इसका कोई एक वर्ग विशेष जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि इसका कारण मैं समाज के उस ताने-बाने को मानती हूँ, जब से सामाजिकता उत्पन्न हुईं तब से ही एक पक्ष को छोटा नीचा और कमजोर बताकर उसकी परवरिश की जाती रही है। जैसे बच्चा जन्म लेता है लड़की हो या लड़का समान होते, लेकिन लड़की तुरंत ढकी जाती है। वही लड़का पाँच साल तक नंगा ही घुमाता रहे, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर क्यों? सयानी बिटिया होने पहले ही चौंका चूल्हा ज़रूरी है, बेटे से कोई गिलास उठाने को नहीं कहता। लड़की को हमेशा डरा-धमका कर इज्जत के बोझ तले दबा दिया जाता है। आखिर क्यों?

वह कहती हैं इज्जत क्या अकेली के कारण कारण खराब होती है। उसमें जब तक कोई पुरूष शामिल न हो। तो फिर लड़की ही दोषी क्यों? जानते हैं ऐसा क्यों? क्योंकि जब पुरूष इसमें शामिल होता है, तो मुकर सकता मुझे नहीं पता नहीं किसका बीज है। स्त्री मुकर नहीं सकती की ये फल मेरा नहीं है। बस यही कारण है स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती।

आपकी कविताओं में एक खास तरह का स्त्री विमर्श दिखाई पड़ता है, आपके साहित्य में स्त्री का स्वातंत्र्य अधिक परिलक्षित होता है। ये कहाँ से आया?

उनका जवाब था समाज ही लेखक को वो सब तत्त्व उपलब्ध करवाता है। लेखक के भीतर एक अतिरिक्त संवेदनशील हृदय होता और महिला लेखक हूँ, तो स्त्रीत्व के स्वातंत्र्य की बात करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। जब पुरुष को कोई रोक नहीं तो महिलाओं पर क्यों? हमसे पहले भी बहुत कुछ ही नहीं, सब कुछ लिख चुके हैं। जब उन्हें स्वीकार किया तो स्त्री विमर्श पर सवाल क्यों?

हिन्दी साहित्य में आपकी दो कृतियां आ चुकी हैं- ‘दूर कहीं आस’, ‘भावों का स्पंदन’ तीसरी पोथी आपकी राजस्थानी भाषा की आई ‘थसूं मिलतांई’ आप हिन्दी से राजस्थानी की ओर कैसे मुड़े और बताइये कि आपके लेखन समाज को क्या देना चाहेंगी?

हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा भाषा है, जिसे हम पढ़ते-लिखते हैं। कह सकते हैं अभिव्यक्ति का सरल माध्यम है चाहे देश हो या विदेश। मगर राजस्थानी हाड़ौती हमारी मातृभाषा है। उससे भला कैसे दूर रह सकते हैं। पापा की जाॅब कृषि विभाग में रही, तो हम गाँव से हमेंशा जुड़े हुए रहे। किसान किसी न किसी काम से घर आते जाते रहते हैं। उनके दुःख दर्द को जानने-समझने का अवसर मिला। तो हिन्दी में तो कलम चली ही राजस्थानी में कैसे दूर रहती। हम भी गाँव में दादा दादी के यहाँ आते-जाते रहें। ननिहाल में छुट्टियाँ बिताते हुए राजस्थानी भाषा साहित्य में भी उतर आयी। लेखक के अपने परिवेश और उससे जुड़े संदर्भों से कविताओं का सृजन होता है, प्रत्येक की व्यथा कह जाना एक कवि का मुख्य कर्म है। वही हमने समाज को देने का प्रयास किया है। आगे भी करती रहूँगी। प्रेम सभी भावनाओं का मूल है, बाकी सभी भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ प्रेम की सहायक क्रियाएँ हैं। प्रेम ही सभी पर पेपर वेट का काम करता है। इसलिए मेरी कविताएँ प्रेम की पक्षधर हैं। मेरी कविताओं में सामाजिक सरोकार के साथ प्रेम की प्रमुखता है।

क्या एक स्त्री ही स्त्री के बारे में लिख सकती है या पुरुष भी लिख सकता है। दोनों के लिखने में आप क्या अंतर मानती हैं क्या अनुभव करती है । परकाया प्रवेश के बारे में आप क्या कहेंगी?

इस सवाल पर वह कहती हैं परकाया प्रवेश की बात करूँ, तो मैं कहना चाहूँगी। ये अनुमान पर चलता हैं, जबकि अनुभव ज्यादा गहराई मापता है। स्त्री की संरचना ही इस तरह बनीं होती। पुरूष स्त्री के बाहरी भाव भंगिमाओं के अनुमान से अपनी अभिव्यक्ति करता है और स्त्री अपने भीतर के अनुभव से रूबरू होकर कलम चलाती है। जिसे स्त्री बहुत ही सहजता से कर सकती, इसलिए वह स्त्री पुरुष पर भी उतनी गहनता और बारीकी से अपनी कलम चला सकती है, जितनी स्वयं स्त्री पर चला सकती है।

साक्षात्कार के अंतिम पड़ाव में आप बताइए कि साहित्य- क्षेत्र में आपकी और क्या योजनाएँ हैं?
अभी एक राजस्थानी उपन्यास पर काम चल रहा। लगभग तैयार ही है। एक कहानी की पुस्तक ‘कई वर्ष और मैं’ हाशिए के समाज मोग्या एवं साठियों पर काम की योजना बनाई है।
चलते चलते आपकी अपनी एक प्रतिनिधि रचना हमारे दर्शकों-श्रोताओं को सुनाएँ। वे पुस्तक भावों का स्पंदन से कविता सुनती हैं..
‘होठों की तुलिका से’
नयनों में लिए
आनन्दाश्रु
अब भी
बैठे हैं,
ज्यों के त्यों ही
हाथ में पानी का
गिलास लिए
जिसे छुआ था
तुमने,
अभी भी
ठहरा है
अहसास तुम्हारी
छुअन का,
और
गिलास पर
होठों का
अक्स बैठा
मुस्कुरा रहा है,
बरबस ही चूमने को
झुक गये
अधर,
मगर अनायास ही
ठिठक गये
अरे! छूने से
बिगड़ न जाएं
स्मृतियों के
प्रेम आलेख जो
लिख गये हो
तुम
होठों कि तुलिका से
गिलास पर ,
ज्यों का त्यों
संस्मरणों के
समय को बांध कर
रख देते हैं
फ्रेम में
हृदय के सोकेश पर
ताकि धड़कनों को
मिलती रहे
जीवटता
तुम्हारे अहसास की
हर साँस के साथ…

नन्दकिशोर- इस महत्वपूर्ण संवाद को हम यहाँ, इन अहसासों के साथ समाप्त करना चाहेंगे, कि ये धरती बची रहे, ये कायनात सजी रहे, हृदय का स्पंदन चलता रहे। भावों के ग्लेशियर पिघलते रहें। मानवता बची रहे। कविता शाश्वत चलती रहे। हम सब इसके राही बने रहें।
————-
प्रस्तुति – डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

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