Friday, January 17, 2025
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जबलपुर में सम्मानित होंगे डॉ. प्रभात सिंघल, कंचना सक्सेना और राम शर्मा

कोटा / अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रियाशील जबलपुर ( मध्य प्रदेश ) की संस्था ” कादंबरी ” द्वारा 85 ( विभाजित कर ) 111
साहित्यकारों  और पत्रकारों को वर्ष 2024 के पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। यह जानकारी देते हुए संस्था के अध्यक्ष आचार्य भाववत दूबे ने बताया कि कोटा से
 डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, डॉ. कंचना सक्सेना और राम शर्मा कापरेन का चयन किया गया है।
महासचिव राजेश पाठक प्रवीण ने बताया कि लेखक और पत्रकार डॉ. प्रभात कुमार सिंघल को समग्र लेखन विधा में पांच हजार नकद पुरस्कार सहित स्व. सिद्धार्थ भट्ट सम्मान से सम्मानियंकीय जायेगा। डॉ. कंचना सक्सेना को उनकी निबंध कृति ” आदिवासी, दलित एवं अन्य विमर्श ” पर इक्कीस सौ रुपए नकद पुरस्कार सहित स्व. प. हरिकृष्ण त्रिपाठी सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। राम शर्मा कापरेन को नाट्य विधा में उनकी कृति ” जलन से जल तरंग ” पर इक्कीस सौ रुपए नकद पुरस्कार सहित स्व. अभिषेक गुप्ता सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। इनको इस कृतिब्पर पूर्व में भी राष्ट्रीय साहित्य परिषद नई दिल्ली द्वारा  राष्ट्रीय मोहन राकेश नाट्य लेखन पुरस्कार प्रदान किया गया था। कार्यक्रम 9 नवंबर 2024 को जबलपुर के गोल बाजार स्थित शहीद स्मारक प्रेक्षागृह  में अपराह्न 3.00 बजे आयोजित किया जाएगा।

कैसी है अमेरिका की चुनावी प्रक्रिया

एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान पत्रकार मरियम सिद्दीकी ने अमेरिका की चुनावी प्रक्रिया की बारीकियों को समझा।

मरियम सिद्दीकी उर्दू-हिंदी साप्ताहिक जदीद मरकज़ से जुड़ी पत्रकार हैं। उन्होंने इस साल की शुरुआत में अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया पर इंटरनेशनल विजिटर लीडरशिप प्रोग्राम (आईवीएलपी) के तहत अमेरिका की यात्रा की और इस दौरान अमेरिकी लोकतंत्र की बारीकियों को समझने का प्रयास किया। आईवीएलपी अमेरिकी विदेश विभाग का एक प्रमुख पेशेवर एक्सचेंज कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम में मौजूदा और उदीयमान विदेशी नेतृत्वकर्ताओं को अमेरिका की अल्पकालिक यात्राओं के माध्यम से अमेरिकी समकक्षों के साथ स्थायी संबंध विकसित करने का अवसर मिलता है।

सिद्दीकी के अनुसार, अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया के बारे में गहन जानकारी हासिल करने से लोकतांत्रिक शासन के बारे में उनकी समझ समृद्ध हुई है जिससे उनकी पत्रकारिता को भी एक नया दृष्टिकोण मिला है। उनका कहना है, ‘‘इस यात्रा से मुझे यह देखने में मदद मिली कि लोकतंत्र किस तरह से काम करता है।’’

सिद्दीकी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से समाज कार्य विषय में डिग्री ली है और वह 14 वर्षों से लखनऊ से निकलने वाले इस साप्ताहिक अखबार के लिए काम कर रही हैं। वह इंडियन स्कूल ऑफ डवलपमेंट मैनेजमेंट की एकेडमिक टीम में सीनियर एसोसिएट के रूप में भी काम करती हैं।

प्रस्तुत है उनसे साक्षात्कार के प्रमुख अंश :
कृपया आईवीएलपी से मिले अनुभवों और महत्वपूर्ण सीखों के बारे में बताइए।
आईवीएलपी से मिला अनुभव समृद्ध और विचारोत्तेजक था। कार्यक्रम के माध्यम से मैं पेशेवरों,, नेतृत्वकर्ताओं और मतदाताओं से मिली- ऐसे अवसर जो अमेरिका की निजी यात्रा उपलब्ध नहीं करा सकती थी। मल्टीमीडिया और प्रिंट पत्रकारिता की भूमिका पर केंद्रित सत्रों से अनमोल समझ प्राप्त हुई और यह जानने का मौका मिला कि किस तरह से एक देश लोकतंत्र के सबसे आवश्यक स्तंभों में से एक पर निर्भर करता है। इंटरएक्टिव सत्रों ने मेरी समझ को और गहरा बनाया और यह जानने में मदद की कि जनता अपने निर्वाचित नेताओं से क्या अपेक्षा करती है।

अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया की कार्यप्रणाली को आप किस हद तक समझ सकीं?
पहले तो इसे लेकर काफी भ्रम वाली स्थिति थी लेकिन स्थानीय, राज्य और संघीय स्तर पर चुनावी प्रक्रिया हर सत्र और बातचीत के साथ स्पष्ट होती चली गई। प्राइमरीज़ की अवधारणा मेरे लिए नई थी और सुपर ट्यूज़डे ने प्रक्रिया को लाइव देखने और स्थानीय उम्मीदवारों और मतदाताओं से मिलने का रोमांचक अवसर प्रदान किया।

अमेरिकी चुनावी परिदृश्य में विविधता और व्यक्तिवाद की भूमिकाओं के बारे में आपके क्या विचार थे?
मुझे यह स्वीकार करना होगा कि इस यात्रा के दौरान अमेरिका को लेकर मेरे आग्रहों को चुनौती मिली। विविधता के बारे में मेरी समझ भी विकसित हुई। लोगों के मुद्दे, जातीय, धार्मिक और सामाजिक समूहों के आधार पर भिन्न-भिन्न थे और वे अपनी राय को जाहिर करने से कतराते नहीं थे। यह देखना अद्भुत था कि किस तरह से दूसरी पीढ़ी के प्रवासियों को प्रतिनिधि के रूप में चुना गया है और वे समस्याओं को सुलझाने के लिए कैसे काम करते हैं।

व्यक्तिवाद को भी बहुत महत्व दिया जाता है- लोगों के पास स्वतंत्र विकल्प होते हैं जो इस बात से जाहिर होता है हर कुछ वर्षों में राज्यों में कभी डेमोक्रेटिक, तो कभी रिपब्लिकन पार्टियां बहुमत हासिल करती रही हैं।

साभार- https://spanmag.com/hi/ से

अफ्रीका की पटरियों पर दौड़ेंगे मढ़ौरा संयंत्र में बने रेल इंजन

·        बिहार के मढ़ौरा संयंत्र से पहली बार निर्यात किए जाएंगे अत्याधुनिक लोकोमोटिव।
·        मढ़ौरा प्लांट वर्ष 2025 में इवोल्यूशन सीरीज ES43ACmi लोकोमोटिव का निर्यात शुरू करेगा।
·        भारतीय रेलवे और वैबटेक का एक संयुक्त उद्यम है वैबटेक लोकोमोटिव प्राइवेट लिमिटेड।

नई दिल्ली। भारतीय रेल और वैबटेक के संयुक्त उद्यम बिहार में स्थित मढ़ौरा संयंत्र में अफ्रीकी देशों को निर्यात करने के लिए अत्याधुनिक लोकोमोटिव का निर्माण किया जाएगा। इसके लिए वैबटेक लोकोमोटिव प्राइवेट लिमिटेड द्वारा अपने संयंत्र की क्षमताओं का विस्तार किया जा रहा है। मढ़ौरा प्लांट द्वारा पहली बार निर्यात के लिए लोकोमोटिक का निर्माण किया जाएगा। मढ़ौरा प्लांट वर्ष 2025 में लोकोमोटिव का निर्यात शुरू करेगा।

मढ़ौरा प्लांट द्वारा वैश्विक ग्राहकों को इवोल्यूशन सीरीज ES43ACmi लोकोमोटिव की आपूर्ति की जाएगी। ES43ACmi लोकोमोटिव में 4,500 HP इवोल्यूशन सीरीज का इंजन है, जो अपनी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ ईंधन दक्षता और उच्च तापमान वाले वातावरण में बेहतरी प्रदर्शन करता है।

गौरतलब है कि यह परियोजना रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है। यह संयुक्त परियोजना न केवल भारत को वैश्विक लोकोमोटिव विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करती है, बल्कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के “आत्मनिर्भर भारत” दृष्टिकोण के अंतर्गत “मेक इन इंडिया” और “मेक फॉर द वर्ल्ड” पहलों के अनुरूप है।

जाहिर है कि रेल मंत्रालय और वैबटेक के बीच सार्वजनिक-निजी भागीदारी की सफलता ने मढ़ौरा संयंत्र को विश्व स्तरीय वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में स्थापित किया है। अब तक इस प्लांट में लगभग 650 इंजनों का निर्माण किया जा चुका है और इन लोकोमोटिव्स को भारतीय रेल द्वारा उपयोग किया जा रहा है। विदित हो कि मेक इन इंडिया नीति को बढ़ावा देते हुए वर्ष 2018 में बिहार के मढ़ौरा में 70 एकड़ में इस संयंत्र की स्थापना की गई थी। इस संयंत्र की स्थापना भारतीय रेल के लिए 1,000 अत्याधुनिक लोकोमोटिव निर्माण के लिए की गई थी। मढ़ौरा संयंत्र से भारतीय रेल को प्रति वर्ष 100 लोकोमोटिव की आपूर्ति की जा रही है।

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असम डाउन टाउन विश्वविद्यालय से प्रो.अच्युत सामंत को मिली 60वीं मानद डॉक्टरेट की डिग्री

भुवनेश्वर, 25 सितंबर: भारत के जाने-माने समाजसेवी,महान् शिक्षाविद् तथा ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर स्थित कीट-कीस दो नामी शैक्षिक संस्थाओं के  संस्थापक प्रो.डॉ अच्युत सामंत को आज गुवाहाटी में असम डाउन टाउन विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय के 11वें दीक्षांत समारोह में प्रो.सामंत की कीट-कीस जैसी विश्वविख्यात पहल तथा निःस्वार्थ समाजसेवा के लिए उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई,  जो प्रो डॉ.सामंत के नाम कीर्तिमान रुप में 60वीं मानद डॉक्टरेट की डिग्री है।
उल्लेखनीय है कि प्रो.डॉ. अच्युत सामंत ने शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी कल्याण,कला, संस्कृति, साहित्य और ग्रामीण विकास के क्षेत्रों में उल्लेखनीय तथा प्रशंसनीय कार्य किया है जिनके बदौलत उनके नाम अबतक कुल 60 मानद डॉक्टरेट की डिग्री मिल चुकी है जो भारत के किसी भी शिक्षाविद् के लिए एक कीर्तिमान मानद डॉक्टरेट की डिग्रियां हैं। विश्वविद्यालय ने सम्मान प्रदान करते समय इन क्षेत्रों में उनके उत्कृष्ट प्रयासों को स्वीकार किया।
 व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं के कारण, प्रो.डॉ.अच्युत सामंत व्यक्तिगत रूप से समारोह में शामिल नहीं हो सके लेकिन उनके एक प्रतिनिधि ने उनकी ओर से पुरस्कार स्वीकार किया। प्रो.डॉ. अच्युत सामंत ने सम्मान के लिए विश्वविद्यालय के प्रति हार्दिक आभार जताते हुए मीडिया को यह जानकारी दी कि वे इस सम्मान को संजो कर रखेंगे क्योंकि यह उन्हें प्रदान की गई 60वीं मानद डॉक्टरेट है। उन्होंने कहा, “पिछले 33 सालों से वे समाज के लोगों के लिए अथक रुप से अनेक क्षेत्रों में निःस्वार्थ सेवा काम कर रहे हैं।
यह 60वीं मानद डॉक्टरेट की उपाधि उन्हें हमेशा याद रहेगी।” उन्होंने जल्द ही असम डाउन टाउन विश्वविद्यालय का दौरा करने का वादा किया। प्रो.डॉ. सामंत को समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके अनुकरणीय कार्यों के लिए दुनिया भर के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों से कई मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ मिली हैं। 2009 में, उन्हें कंबोडिया नेशनल यूनिवर्सिटी से अपनी पहली मानद डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी।

पितरों को भोजन कैसे मिलता है ?

प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है?
कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से या ब्राह्मण को भोजन करने से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है?इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है
एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, ‘मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’
भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व- जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।
किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।
यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है।
यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है।
नाग योनि में वायु रूप से,  यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में,, दानव योनि में मांस रूप में,. प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है।
 जिस प्रकार बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मंत्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।
 जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधि रूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गईं। ब्राह्मण भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं-
 आप जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन करते हैं  तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सटकर उपस्थित होते हैं।  तुलसी से पिंडार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यंत तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं। पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न- श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है।
आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)
यमराज का कहना है कि श्राद्ध करने से मिलते हैं ये 6 पवित्र लाभ-
 श्राद्ध कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
श्राद्ध कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता, वरन वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।
( उज्जैन से श्री मुकेश जोशी द्वारा प्रेषित)
 प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें

नानासाहेब पेशवा की पत्नी श्रीमंत गोपिकाबाई एक कुशल रणनीतिकार थी- कौस्तुभ कस्तुरे

मुंबई। ” नानासाहेब पेशवा की पत्नी और बड़े बाजीराव की प्रिय बहू श्रीमंत गोपिकाबाई एक कट्टर राजनीतिज्ञ, वाकपटु और सैन्य अभियानों की योजना बनाने में परिवार की चतुर मुखिया थीं।” ये विचार बोरीवली के ‘इतिहास कट्टा’ पर बोलते हुए इतिहास के विद्वान और लेखक कौस्तुभ कस्तुरे ने व्यक्त किए।
 बोरीवली पश्चिम के सांस्कृतिक केंद्र के ‘ज्ञानविहार ग्रंथालय’ में ‘भारतीय इतिहास संकलन समिती – कोकण प्रांत, बोरीवली भाग’ व ‘बोरीवली सांस्कृतिक केंद्र’ द्वारा आयोजित ‘इतिहास कट्टा’ के कार्यक्रम अंतर्गत ‘गोष्ट ‘ती’ची’ के दूसरे भाग की ‘श्रीमंत गोपिकाबाई’ यह दूसरी कथा बताते हुए वे बोल रहे थे।
कौस्तुभ कस्तुरे ने ‘श्रीमंत गोपिकाबाई’ पर अभ्यासपूर्ण और इतिहास की कई भ्रांतियों को तोड़ने वाला व्याख्यान प्रस्तुत किया।अपने व्याख्यान की शुरुआत में उन्होंने कहा कि नाना साहेब पेशवा की पत्नी और महान बाजीरावा की प्यारी बहू गोपीकाबाई का चित्र कई ऐतिहासिक कालखंडों से एक खलनायक, एक अंदरूनी गांठ, एक ऐसी महिला के रूप में चित्रित किया गया है जो केवल अपने पति की ही सफलता के लिए लालसाही है।” परन्तु अगर हम कई ऐतिहासिक दस्तावेजों को ध्यान से देखें तो श्रीमंत गोपिकाबाई के बारे में हमारी आंखों के सामने सशक्त, मजबूत, कुशल और सैन्य अभियानों की योजना बनाने में निपूर्ण ऐसी प्रतिमा सामने आती है।

पानीपत में यह महिला अपने पति, भाई के समान प्यारे देवर सदाशिवराव भाऊ की मौत और फिर अपने पांच बेटों की मौत के दुःख को पचा कर उठ खड़ी हुई। अपने पोते सवाई माधवराव को शासन की उचित शिक्षा दिलाने के लिए अंत तक प्रयास करती रही। इसके लिए पुणे के शनिवार वाडा की सारी वैभव को छोड़कर दूर गंगापुर में जीवन के अंतिम क्षण तक मेहनत करते हुए मान-सम्मान के साथ जीने की कहानी गोपीकाबाई के सच्चे जीवनचरित्र को कौस्तुभ कस्तूरे ने इतिहास प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत की।
 ‘भारतीय इतिहास संकलन समिति, कोंकण प्रांत, बोरीवली भाग’ और ‘बोरीवली सांस्कृतिक केंद्र’ द्वारा आयोजित और ‘जनसेवा केंद्र, बोरीवली’ द्वारा प्रायोजित इस कार्यक्रम में श्रीधर साठे (वरिष्ठ विश्वस्त जन सेवा केंद्र बोरीवली), उदयजी शेवड़े (कोंकण प्रांत प्रचारक संस्कार भारती) सहित अनेक इतिहास प्रेमी उपस्थित थे।

तिरुपति प्रसाद मामला: आस्था से खिलवाड़, जिम्मेदार कौन?

गत 19 सितंबर को आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने तिरुपति तिरुमाला मंदिर के प्रसाद को लेकर जो खुलासा किया, उससे असंख्य आस्थावान हिंदुओं का दिल दहल गया। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की जांच रिपोर्ट के अनुसार, जिस घी से आंध्र प्रदेश के श्रीवेंकटेश्वर स्वामी मंदिर (तिरुपति मंदिर) का विश्वप्रसिद्ध प्रसाद (लड्डू) तैयार किया जा रहा था, वह न केवल मिलावटी है, बल्कि उसमें ‘फीश ऑयल’, ‘बीफ-टैलो’ और ‘लार्ड’ (सुअर की चर्बी) जैसे तत्व भी पाए गए हैं। करोड़ों भक्तों की आस्था और पवित्रता पर वर्षों तक प्रहार होता रहा और किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी।
इस खबर के सार्वजनिक होने के बाद अब तक क्या हुआ? यदि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों, आक्रमक मीडिया रिपोर्टिंग और कानूनी कार्रवाई को छोड़ दें, तो साधु-संतों द्वारा मंदिर के शुद्धिकरण के अतिरिक्त हिंदू समाज बड़े तौर पर शांत ही रहा। यह कह सकते है कि कुछ हिंदू इस खुलासे से सदमे में आ गए, तो कइयों को इसपर अपनी बेबसी का अहसास हुआ। इसका कारण क्या है? शायद सदियों से जुल्म सहने के बाद हिंदू समाज की संवेदनशीलता कुंद हो गई है, इसलिए घोर अन्याय के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया व्यापक रूप से बहुत सीमित या फिर न के बराबर होती है।
यह कोई पहली बार नहीं है। जब अंग्रेज, वामपंथी और मुस्लिम लीग ने मिलकर अगस्त 1947 में भारत को तकसीम किया, जिसमें करोड़ों लोग बेघर हो गए और लाखों मासूम मारे गए— तब बिना किसी व्यापक क्रोध के हिंदू समाज का बड़ा हिस्सा खंडित भारत में अपनी जिंदगियों को समेटने में मशगूल हो गया और अपने परिश्रम-बुद्धि से जीवन को सुधारने लगा। यहां तक पंडित नेहरू प्रदत्त सेकुलरवाद के नाम पर उसने कालांतर में उस वर्ग को राजनीतिक और सामाजिक रूप से स्वीकार कर लिया, जिनके प्रपंच से देश प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर विभाजित हुआ था। हिंदुओं की इस मानसिकता को संभवत: गांधीजी ने एक सदी पहले पहचान लिया था, इसलिए जब खिलाफत आंदोलन (1919-24) जनित सांप्रदायिक दंगों में अधिकांश स्थानों पर हिंदुओं पर जिहादियों का कहर टूट रहा था, तब उन्होंने 29 मई 1924 को ‘यंग इंडिया’ में मुसलमानों को ‘धींग’ (बदमाश), तो हिंदुओं को ‘दब्बू’ कहकर संबोधित किया था।
स्वतंत्र भारत में हिंदू संवेदनहीनता का पहला बड़ा मामला 1980-90 के दौर में तब आया था, जब घाटी में कश्मीरी पंडितों को उनकी पूजा-पद्धति और सनातन परंपरा के कारण जिहाद का शिकार होना पड़ा। न सिर्फ हिंदुओं के मंदिरों को निशाना बनाया गया, साथ ही कश्मीर में दहशत फैलाने के लिए आतंकियों ने स्थानीय मुस्लिमों की मदद से प्रभावशाली हिंदुओं को सरेआम मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया, तो उनकी बहू-बेटियों की आबरू लूटने लगे। परिणामस्वरूप, पांच कश्मीरी पंडित रातोंरात घाटी में अपनी करोड़ों पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में विस्थापितों की तरह कैंपों में रहने को मजबूर हो गए। तब भी शेष भारत में हिंदू समाज का बड़ा वर्ग तमाशबीन बना रहा।
इस घटनाक्रम के लगभग एक दशक बाद गुजरात स्थित गोधरा रेलवे स्टेशन के पास 27 फरवरी 2002 को जिहादियों ने ट्रेन के एक डिब्बे में 59 कारसेवकों को जिंदा जलाकर मार डाला। इस घटना के अगले दिन संसद के भीतर और बाहर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उस समय एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने अपने संपादकीय में इस जघन्य हत्याकांड के लिए पीड़ित हिंदुओं को ही यह कहकर कसूरवार ठहरा दिया कि वे अयोध्या की तीर्थयात्रा से लौटते समय मुस्लिम बहुल क्षेत्र में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे। जैसे ही गुजरात में गोधरा कांड के प्रतिक्रियास्वरूप सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई, तब कालांतर में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार (2004-14) ने इस्लामी कट्टरता को परोक्ष-स्वीकृति देने या न्यायोचित ठहराने हेतु फर्जी-मिथक ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ सिद्धांत को स्थापित करने और हिंदू-विरोधी ‘सांप्रदायिक विधेयक’ को पारित करने का भी असफल प्रयास शुरू कर दिया।
यह विडंबना है कि जब से तिरुपति तिरुमाला मंदिर के प्रसाद में पशु चर्बी मिलने का खुलासा हुआ है, तब से इस महापाप के शासकीय निवारण के लिए वैसा कोई राजकीय उपक्रम नहीं चलाया जा रहा, जैसा दिसंबर 1963 के अंत में पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) खोने पर हुआ था। मुसलमानों की मान्यता है कि श्रीनगर स्थित हजरतबल दरगाह में पैगंबर मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) रखा हुआ है, जिसके 26 दिसंबर 1963 को चोरी होने की अफवाह जंगल में आग की भांति फैल गई थी।
पाकिस्तान के साथ कश्मीर सहित शेष देश में हजारों-लाखों मुसलमानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने मामला संभालने के लिए अपने वरिष्ठ मंत्री लालबहादुर शास्त्री को भारतीय गुप्तचर एजेंसी के तत्कालीन प्रमुख भोलानाथ मलिक के साथ कश्मीर भेज दिया। जनवरी 1964 में मू-ए-मुकद्दस ढूंढ़ने का दावा कर लिया और मामला शांत हो गया। बकौल मलिक, जब उन्होंने इसकी सूचना पं.नेहरू को जानकारी दी, तब नेहरू ने उनसे कहा था, “तुमने भारत के लिए कश्मीर को बचा लिया।” पं.नेहरू की यह टिप्पणी इस बात को रेखांकित करती है कि ‘आस्था’ संबंधित मुद्दों को साधारण प्रशासनिक उपायों या सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं पर नहीं छोड़ा जा सकता।
भारत के कई राज्यों में एक लाख से अधिक मंदिरों (तिरुपति सहित) के प्रबंधन पर संबंधित सरकारों का नियंत्रण है। तिरुमाला तिरूपति देवस्थानम ट्रस्ट के अंतर्गत श्रीवेंकटेश्वर स्वामी मंदिर का संचालन होता है, जो दुनिया का सबसे अमीर मंदिर ट्रस्ट भी है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल, 2024 तक तिरुपति ट्रस्ट के बैंक खाते में 18,817 करोड़ रुपये की राशि थी। मंदिर प्रबंधन को करीब 500 करोड़ रुपये की वार्षिक आय होती है। ट्रस्ट के पास कुल 11,329 किलो सोना है, जिसकी कीमत करीब 8,496 करोड़ रुपये है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, तिरुपति मंदिर में प्रतिदिन औसतन 87 हजार भक्त दर्शन हेतु आते है। उन्हें प्रसाद के रूप में मिलने वाले लड्डुओं को बनाने में प्रतिमाह 42 हजार किलो घी, 22,500 किलो काजू, 15 हजार किलो किशमिश और 6 हजार किलो इलायची लगता है। यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर इनकी शुद्धता और गुणवत्ता की जांच प्रतिदिन आधुनिक प्रयोगशाला में क्यों नहीं कराई जाती? हैरानी है कि प्रसाद में पशुओं की चर्बी मिलने के महापाप रूपी खुलासे के बाद भी इस संबंध में कोई बात नहीं हो रही है।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं और हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)
संपर्क* :- punjbalbir@gmail.com

साहित्य और पर्यटन” पर विमर्श एवं प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन

कोटा अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन दिवस की पूर्व संध्या पर मदर टेरेसा उच्च माध्यमिक विद्यालय में  संस्कृति, साहित्य,मीडिया फोरम के संयुक्त तत्वाधान में गुरुवार को विद्यालय सभागार में ” साहित्य और पर्यटन ” विषय पर विमर्श एवम् प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम का आयोजन किया गया। लिखित प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम में 10 वीं से 12वीं के कला, विज्ञान एवम् वाणिज्य संकायों के 75 छात्र – छात्राओं ने रुचि पूर्वक भाग के।लिया। इस प्रतियोगिता में कक्षा 12 वीं की छात्रा वंदना नगर प्रथम, कक्षा 10 वीं के छात्र राहुल कोली द्वितीय एवं कक्षा 10 वीं के छात्र जतिन वर्मा तृतीय स्थान प्राप्त किया।
 इस अवसर पर आयोजित साहित्य एवं पर्यटन विषय पर विमर्श कार्यक्रम में शिशु भारती शिक्षा समूह के निदेशक योगेंद्र शर्मा ने सभी का स्वागत करते हर कहा कि इस प्रकार के आयोजन से बच्चों का सामान्य ज्ञानबढ़ता है और उनमें हमारी साहित्य और संस्कृति के प्रति सोच और समझ पैदा होती है तथा वे इनसे जुड़ाव महसूस करते हुए अपनी विरासत के प्रति सजग रहते हैं, जिस से पर्यटन विकास की संभावनाएं भी विकसित होती हैं।
साहित्यकार जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘ ने कहा कि देखा जाए तो साहित्य सांस्कृतिक पर्यटन का ही रूप है। अधिकांश प्राचीन पर्यटन स्थल हमारे साहित्य और उनमें वर्णित पत्रों, स्थानों के नाम पर हैं। एक यात्री जब अपना तेरा वृतांत लिखता है तो वह साहित्य का रूप ले लेता हैं। हमारी अनेक पत्र – पत्रिकाएं पर्यटन संबंधी जानकारी दे कर और लेखक पर्यटन पर पुस्तकें लिख कर पर्यटन का साहित्य के रूप में पठनीय हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रतियोगिताएं बच्चों में साहित्य और पर्यटन के प्रति चेतना जागृत करती हैं।
कथाकार और समीक्षक विजय जोशी ने अपने उद्बोधन में पर्यटन ,संस्कृति एवम् साहित्य के  अंतर्संबंधों को विश्लेषित करते हुए कहा कि ये तीनों त्रिआयामी रूप से जुड़े होने से विशेष स्थल की जानकारी और उसका ऐतिहासिक और पुरातत्विक महत्व बताता है।
उन्होंने  कहा कि यह महत्व साहित्य के माध्यम से उजागर हो कर पर्यटन को बढ़ावा देने में संदर्भ के रूप में उपयोग में लाया जाता है। साहित्यिक कृतियों में उल्लेखित विशेष स्थल पर्यटन के प्रमुख केंद्रों के रूप में उभरे हैं।यह साहित्यिक एवम् पर्यटन लेखन से ही संभव होता है कि हमारी संस्कृति और संस्कारों को इन स्थलों के माध्यम से जाने और उन्हें संरक्षित करने की दृष्टि से समृद्ध हो सकें।
फोरम के संयोजक एवम् पर्यटन लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल  सभी का धन्यवाद देते हुए कहा कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत वर्ष का पर्यटन में अपना अलग और विशिष्ठ महत्व है। देश की 41 धरोहरों को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है, जिसमें से 8 धरोहर अकेले राजस्थान  की हैं। राजस्थान एक इंद्रधनुषी प्रदेश है जिसकी संस्कृति, साहित्य, कला और पर्यटन स्थल दुनिया के सैलानियों को आपने जादुई सम्मोहन से खींच लाते हैं। उन्होंने बताया की प्रश्नोत्तरी में हाड़ोती, राजस्थान और देश के संदर्भ में साहित्य से पर्यटन का जुड़ाव पर कला, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्व, एवम् पर्यटन स्थलों संबंधित प्रश्न पूछे गए थे। विद्यार्थियों द्वार रुचि पूर्वक इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए उन्होंने विद्यार्थियों और संस्थान का आभार व्यक्त किया।

प्राचीन भारत के मौसम वैज्ञानिक घाघ और भड्डरी

घाघ भड्डरी  प्रसिद्ध लोक कवि और भविष्यवक्ता थे, जिनकी कहावतें भारतीय कृषि और मौसम विज्ञान से जुड़ी हुई हैं। उनकी कहावतें किसानों को मौसम, खेती और प्राकृतिक घटनाओं के बारे में सरल और प्रभावी सलाह देती थीं। आइए, उनके जीवन, कहावतों और उनके वैज्ञानिक महत्व पर चर्चा करते हैं: उनका जीवनकाल 16वीं या 17वीं शताब्दी का माना जाता है। घाघ को कृषि विशेषज्ञ के रूप में देखा जाता था, जिन्होंने प्रकृति और मौसम के आधार पर किसानों को खेती के सुझाव दिए।

राजा भोज 11वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध राजा थे, जिनका शासन मध्य भारत के मालवा के धार  क्षेत्र में था। वे विद्या, कला, और वास्तुकला के बड़े संरक्षक माने जाते थे। वहीं, घाघ भड्डरी एक लोक कवि और कृषि विशेषज्ञ थे, जिनका जीवनकाल 16वीं या 17वीं शताब्दी के आसपास माना जाता है।  कई लोक कथाओं में कहा जाता है कि राजा भोज और घाघ एक-दूसरे के समकालीन थे और दोनों के बीच एक अद्भुत संवाद होता था। घाघ को अक्सर राजा भोज के दरबार के एक विद्वान या सलाहकार के रूप में चित्रित किया जाता है। कहा जाता है कि घाघ अपनी कहावतों और बुद्धिमत्ता के लिए राजा भोज के दरबार में बहुत सम्मानित थे, और वे राजा भोज को कृषि और मौसम के बारे में सलाह देते थे। हालांकि, यह बातें ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नहीं हैं और अधिकतर दंतकथाओं पर आधारित हैं।

राजा भोज और घाघ दोनों ही अपने-अपने क्षेत्रों में बेहद प्रसिद्ध थे। राजा भोज अपने शासन और विद्वत्ता के लिए, जबकि घाघ अपनी कहावतों और कृषि ज्ञान के लिए। इसलिए, लोक कथाओं में दोनों का नाम साथ लिया जाता है। भारतीय परंपरा में अक्सर समय के अंतराल को अनदेखा करके दो महान व्यक्तियों को एक ही समय में रखा जाता है। यह संभव है कि लोगों ने राजा भोज और घाघ के गुणों को जोड़कर एक साथ उनकी कहानियाँ गढ़ी हों।

घाघ भड्डरी पर शोध करने वाले जर्मन वैज्ञानिक का नाम एंथ्रोपोसोफिस्ट डॉ. ऑस्कर वॉन हिन्यूबर (Dr. Oskar von Hinüber) था। डॉ. हिन्यूबर ने भारतीय कृषि और मौसम संबंधी पारंपरिक ज्ञान में गहरी रुचि दिखाई और विशेष रूप से घाघ की कहावतों पर अध्ययन किया।

डॉ. ऑस्कर वॉन हिन्यूबर ने यह समझने की कोशिश की कि कैसे घाघ की कहावतें पारंपरिक भारतीय कृषि ज्ञान के माध्यम से मौसम और फसल प्रबंधन का पूर्वानुमान लगाती हैं। उन्होंने इस पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने का प्रयास किया, और उनके शोध से यह सिद्ध हुआ कि घाघ की कहावतें स्थानीय जलवायु और मौसम के सूक्ष्म अवलोकन पर आधारित थीं, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी काफ़ी सटीक हैं।

इस प्रकार, डॉ. हिन्यूबर जैसे वैज्ञानिकों ने पारंपरिक भारतीय ज्ञान को वैश्विक मंच पर एक नया दृष्टिकोण दिया और दिखाया कि कैसे यह ज्ञान आधुनिक विज्ञान के लिए भी मूल्यवान हो सकता है।

घाघ और भड्डरी की कहावतें
घाघ की कहावतें मुख्य रूप से कृषि और मौसम की भविष्यवाणियों पर केंद्रित थीं। ये कहावतें आसान और सरल भाषा में होती थीं, ताकि आम किसान भी उन्हें समझ सके। कुछ प्रसिद्ध कहावतें हैं:

“आषाढ़ महीने खेती जो जोते, सावन में जो बियाए।
भादों मास जो पूरन पावे, लख को धान उपजाए।”
इस कहावत में यह बताया गया है कि अगर किसान सही समय पर खेत जोते और बीज लगाए, तो उन्हें अच्छी फसल मिलेगी।

“पूस मास हर जो हरियाए,
फागुन फसल सरसाए।”
यह मौसम और फसल की स्थिति के अनुसार फसल के सही बढ़ने के संकेत देती है।

तीतरवर्णी बादली विधवा काजल रेख।
वा बरसे वा घर करे इमे मीन न मेख।।
अर्थात्‌ बादलों का रंग तीतर जैसा हो जाये और विधवा स्त्री आँखों में काजल लगाये तो समझो कि बादल जरूर बरसेंगे और वह महिला घर बसायेगी।
ऐसी उक्तियों के सहारे बड़े मनोरंजक तरीके से वर्षा, गर्मी, सर्दी आदि की भविष्यवाणियॉं की जाती हैं। चीन में भी यह विज्ञान काफी विकसित हुआ। वहॉं भी बादलों का रंग, हवा का रुख तथा पशु-पक्षियों की हरकतों को देख कर मौसम की सम्भावना टटोली जाती है।

शुकरवारी बादली रही शनीचर छाय।
घाघ कहे,हे भड्डरी बिन बरस्यां नहीं जाय।।अर्थात शुक्रवार को छाये बादल शनिवार को भी बने रहे तो निश्चित है अच्छी वर्षा होगी।

उत्तर चमके बीजली पूरब बहे जु बाव।
घाघ कहे सुण भड्डरी बरधा भीतर लाव।।
उत्तर दिशा में बिजली चमके और हवा पूर्व की हो तो घाघ कहते हैं कि भड्डरी बैल को घर के अन्दर बॉंध लो, बरसात आने वाली है।

वर्षा और वायु के सिद्धान्त- घाघ और भड्डरी की जोड़ी ने वैसे तो खेती सम्बन्धी प्रत्येक पक्ष के सिद्धान्त बताये हैं, पर वर्षा सम्बन्धी उनकी उक्तियॉं अधिक प्रचलित हैं। अच्छी वर्षा के लिये वे कहते हैं-
सावन केरे प्रथम दिन, उगत न दीखै भान।
चार महीना बरसै पानी, याको है रमान।।
यदि श्रावण के कृृष्ण पक्ष की एकम को आसमान में बादल छाये रहे और प्रातःकाल सूर्य के दर्शन न हों तो यह इस बात का प्रमाण है कि चार महीनों तक जोरदार वर्षा होगी।

अच्छी वर्षा के और लक्षण बताते हुए घाघ कहते हैं-
चैत्र मास दशमी खड़ा, जो कहुँ कोरा जाइ।
चौमासे भर बादला, भली भॉंति बरसाई।।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को यदि आसमान में बादल नहीं हैं तो यह मान लेना चाहिये कि इस साल चौमासे में बरसात अच्छी होगी।

कम वर्षा के योग भड्डरी ने इस प्रकार बताये हैं-
नवै असाढ़े बादले, जो गरजे घनघोर।
कहै भड्डरी ज्योतिसी, काले पड़े चहुँ ओर।।
आषाढ़ कृष्ण नवमी के दिन यदि आकाश में घनघोर बादल गरजें तो भड्डरी ज्योतिषी कहती है कि चारों ओर अकाल पड़ेगा।

सावन पुरवाई चलै, भादौ में पछियॉंव।
कन्त डगरवा बेच के, लरिका जाइ जियाव।।
श्रावण माह में यदि पुरवा (पूर्व दिशा से हवा) बहे और भाद्रपद में पछुआ (पश्चिम दिशा की हवा) चले तो (भड्डरी घाघ से कहती है कि ) स्वामी पशुओं को बेच दो और बच्चों की चिंता करो, क्योंकि अकाल पड़ने वाला है।

पशु-पक्षियों के व्यवहार से वर्षा का अनुमान लगाने के सम्बन्ध में अनुमान लगाने के सम्बन्ध में कहा गया है-
उलटे गिरगिट ऊँचे चढ़े, बरसा होई भुई चल बढ़े।
जब गिरगिट उलटा हो कर ऊपर की ओर चढ़े तो समझो कि अच्छी वर्षा होगी और पृथ्वी पर जल बढ़ेगा।

ढेले ऊपर चील जो बोले, गली-गली में पानी डोले।
खेत में किसी ढेले पर बैठ कर चील बोले तो तय है कि जोरदार बरसात होगी और गलियों में पानी भर जायेगा।

वायु की दिशा से वर्षा का सम्बन्ध इस प्रकार बताया गया है-
पुरवा में पछियॉंव बहै, हॅंस के नारि पुरुष से कहै।
ऊ बरसे ई करे भतार, घाघ कहें यह सगुन विचार।।
यदि पूर्वी और पश्चिमी वायु एकसाथ मिल कर बहती हों और जब कोई महिला पर पुरुष से हॅंस कर बात करती हो तो जल निश्चित बरसेगा और वह महिला कलंक लगायेगी।

कार्तिक का महीना सर्दियों के शुरू में आता है। वर्षा ऋतु इसके आठ महीने बाद आती है। लेकिन इस महीने का भी वर्षा से सम्बन्ध बताते हुए भड्डरी कहती है-
कातिक सुदी एकादशी बादल बिजली होय।
कहे भड्डरी असाढ़ में, बरखा चोखी होय।।
अर्थात यदि कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवउठनी ग्यारस) को आकाश में बादल हों और बिजली चमके तो आषाढ़ में उत्तम वर्षा होगी।
वर्षा का अनुमान लगाने के बारे में भड्डरी संकेत देती है कि,

जो बदरी बादरमॉं खमसे, कहे भड्डरी पानी बरसे।
अर्थात्‌ यदि बादलों के ढेर में बादल समाते हों तो भड्डरी का कहना है कि पानी बरसेगा।

घाघ केवल मौसम के ही विशेषज्ञ नहीं थे बल्कि खेती के सभी पक्षों में निष्णात थे। बीज कब बोने चाहिये, जमीन को कब और कैसे जोतना चाहिये, निराई-गुड़ाई कब हो, खाद कैसे तैयार करनी चाहिये, बैलों की पहिचान आदि सभी पक्षों के सिद्धान्त उन्होंने बताये हैं। इसके अतिरिक्त उनकी नीति सम्बन्धी उक्तियॉं भी हैं। एक उदाहरण देखिये-
अतरे खोतरे डंड करै, ताल नहाय ओसमॉं परै।
कहे भड्डरी ऐसे नर को, देव न मारे आपुई मरै।।
जो कभी-कभी या अनियमिति रूप से कसरत करता है, तालाब में (बिना गइराई जाने) स्नान करता है और ओस में सोता है, उसे ईश्वर नहीं मारते, वह खुद अपनी मौत बुलाता है।

लोकोक्तियॉं बहुत प्रभाव छोड़ने वाली होती है और ग्रामीण अंचल की लोकोक्तियॉं तो किसानों का मार्गदर्शन करने का काम करती हैं। घाघ की उक्तियॉं ऐसी ही प्रभावी लोकोक्तियॉं हैं। वे कहते हैं-
गया पेड़ जब बगुला बैठा, गया गेह जब मुड़िया पैठा।
गया राज जहॅं राजा लोभी, गया खेत जहॅं जामी गोभी।।
जिस पेड़ पर बगुला बैठने लगता है, वह सूख जाता है, जिस घर में कापालिकों-तांत्रिकों का प्रवेश हो जाता है वह घर नष्ट हो जाता है। वह राज्य नष्ट हो जाता है जिसका राजा लोभी हो और वह खेत नष्ट हो जाता है जिसमें गोभी पैदा की जाती है।

अपने यहॉं ऋतुचर्या अर्थात्‌ मौसम के अनुसार खाने-पीने का बड़ा महत्व है। घाघ-भड्डरी ने भी सभी ऋतुओं के पथ्य-कुपथ्य बताये हैं। वर्ष के बारह महीनों में क्या नहीं खाना चाहिये, इस बारे में कहा गया है-
चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पन्थ अस़ाढे बेल।
सावन साग न भादो दही, क्वार करेला न कातिक मही।
अगहन जीरा पूसे धना, माघ मिश्री फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय, वाहि घर बैद कबौं न जाय।।
याने चैत्र में गुड़, वैशाख में तेल, ज्येष्ठ माह में धूप में धूमना, आषाढ़ में बील, श्रावण में हरी सब्जी, भादों में दही, क्वार में करेला और कार्तिक में छाछ, मार्गशीर्ष में जीरा, पौष में धनिया, माघ में मिश्री तथा फागुन में चने का प्रयोग नहीं करना चाहिये। जो इसका ध्यान रखते हैं उनके घर वैद्य-डाक्टर कभी नहीं आते। ये तो निषेध हैं, फिर खाना क्या चाहिये?

घाघ कहते हैं-
सावन हर्रे भादों चीत, क्वार मास गुड़ खायउ मीत।
कार्तिक मूली, अगहन तेल, पूस में करें दूध से मेल।
माघ मास घिउ खिचड़ी खाय, फागुन उठि के प्रात नहाय।
चैत मास में नीम बेसहती, वैसाखे में खाय जड़हथी।
जेठ मास जो दिन में सोवै, ओकर ज्वर असाढ़ मे रोवै।।
सावन में हरड़, भादों में चीता (एक झाड़ी जिसके पत्ते बड़े गुणकारी होते हैं), क्वार में गुड़, कार्तिक में मूली, मार्गशीर्ष में तेल, पूस में दूध , माघ महीने में घी-खिचड़ी, फागुन में प्रातः काल स्नान, चैत्र में नीम की पत्तियॉं और वैसाख में भात जो खाता है तथा जेठ के महीने में दोपहर में सोने (विश्राम करने) वाला आषा़ढ़ माह में होने वाली बीमारियों एवं बुखार से दूर रहता है।

मौसम पूर्वानुमान: घाघ की कहावतों में मौसम के बारे में सटीक भविष्यवाणियाँ की गई हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ बादलों, हवाओं और अन्य प्राकृतिक संकेतों पर आधारित होती थीं।

फसल प्रबंधन: उनकी कहावतें बताती हैं कि किस समय कौन-सी फसल उगानी चाहिए और किन मौसमों में फसल की सुरक्षा कैसे करनी चाहिए।

स्थानीय ज्ञान: घाघ ने स्थानीय पर्यावरण और भूगोल के आधार पर सलाह दी, जो हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग होती थी।

आज भी कई कृषि वैज्ञानिक और शोधकर्ता घाघ की कहावतों का अध्ययन कर रहे हैं। वे देख रहे हैं कि कैसे पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान को एक साथ जोड़ा जा सकता है। कई अध्ययनों में पाया गया है कि घाघ की कहावतें मौसम के व्यवहार और कृषि की समझ को विकसित करने में सहायक हो सकती हैं। खासकर ग्रामीण इलाकों में यह ज्ञान आज भी प्रासंगिक है।

घाघ भड्डरी की कहावतें भारतीय कृषि का एक अमूल्य हिस्सा हैं। उनका वैज्ञानिक महत्व आज भी प्रासंगिक है, और उन पर शोध यह दिखाता है कि किस तरह पारंपरिक ज्ञान आधुनिक विज्ञान के साथ मिलकर किसानों के लिए फायदेमंद हो सकता है। उनकी कहावतें न केवलकृषि ज्ञान का स्रोत हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा भी हैं।

क्या वेदों को लेकर कुप्रचार कि वे जातिवाद का समर्थन करते हैं

वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों के साथ अन्याय करते हैं | हिन्दू/सनातन/वैदिक धर्म का मुखौटा बने जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आन्दोलन इस देश में चलाया जा रहा है |

परंतु, इस से बड़ा असत्य और कोई नहीं है | इस श्रृंखला में हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि…
१.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं |

२.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती |

३.वेद ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो | जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते |

आइए, सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं –
यजुर्वेद १८ | ४८

हे भगवन! हमारे ब्राह्मणों में, क्षत्रियों में, वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये | मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं |
यजुर्वेद २० | १७

जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों, जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों, जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों, कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुड़ाइए |
यजुर्वेद २६ | २

हे मनुष्यों ! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं, इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र,वैश्य, स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो | विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें |
अथर्ववेद १९ | ३२ | ८
हे ईश्वर ! मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए | मैं सभी से प्रसंशित होऊं |
अथर्ववेद १९ | ६२ | १

सभी श्रेष्ठ मनुष्य मुझे पसंद करें | मुझे विद्वान, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ |
इन वैदिक प्रार्थनाओं से विदित होता है कि –
-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं |

-सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है |

-और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं |

-वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है |

-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है,अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और ना ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है|
इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है |
यह कहना कि वेदों में शूद्र का अर्थ कोई ऐसी जाति या समुदाय है जिससे भेदभाव बरता जाए – पूर्णतया निराधार है |

ॐ!!