Tuesday, May 21, 2024
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कमजोर कांग्रेस और मोदी की मजबूती का कमाल

कांग्रेस हार गई। इस हार के बाद बहुत लोग बोलते लगे हैं। शरद पवार भी बोले। पवार सही बोले। किसी भी देश को नेता तो मजबूत ही चाहिए। क्या गलत कहा। मजबूती नहीं थी, इसीलिए राजस्थान में कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक हार भुगत रही है। एक सौ उन्तीस साल पुरानी कांग्रेस राजस्थान में सिर्फ 21 सीटों पर सिमट कर रह गई  है। वैसे, देखा जाए तो ये विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों प थे ही नहीं। नरेंद्र मोदी ने अपने पराक्रम से विधानसभा के इन राज्यों के चुनावों को भी किसी राष्ट्रीय चुनाव की तस्वीर बख्श दी।

हकीकत में यह सत्ता का सेमी फाइनल था। फिर भी   राजस्थान के इतिहास में यह पहला मौका है, जब कांग्रेस को इस तरह की शर्मनाक और सबसे खराब स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। देश में जनता पार्टी के उदय के मौके पर 1977 में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका लगा था, उस  दौरान भी राजस्थान में कांग्रेस को कुल 41 सीटें मिली थी। लेकिन इस बार उससे भी 20 सीटें कम मिलना कांग्रेस के सबसे बुरे समय की तस्वीर है। देने को इस दुर्गति का सारा दोष सीएम अशोक गहलोत को दिया जा रहा है। मुखिया होने के नाते जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों उन्हीं की है। लेकिन अकेले गहलोत क्या करते। इस बार पूरे प्रदेश में कोई था ही नहीं, जो कांग्रेस के समूचे चुनाव अभियान को संचालित करता। कांग्रेस ने बीजेपी की तरह थोड़ी सी भी एकता दिखाई होती तो लाख सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद कांग्रेस की कम से कम ऐसी दुर्गति नहीं होती, जो हुई है।

जो लोग मान रहे हैं कि सरकार में रहने के कारण सामान्य तौर पर जो कांग्रेस विरोधी वातावरण बनता है, उसकी वजह से कांग्रेस हारी। लेकिन ऐसा तो नहीं है कि गहलोत दिल्ली की शीला दीक्षित की तरह 15 साल से राज कर रहे थे। गहलोत तो पिछली बार भी अल्पमत को बहुमत में बदलने का करिश्मा करके पांच साल से सरकार में थे। जुगाड़ की जादूगरी करके भी उनने सरकार कोई बहुत बुरी नहीं चलाई। फिर ऐसा भी नहीं है कि अशोक गहलोत सरकार ने देश की किसी बी सरकार के मुकाबले खराब काम किया। और ऐसा भी नहीं है कि पेंशन, स्कूल फीस, मुफ्त दवा,  मुफ्त डाक्टरी जांच, बुजुर्ग सम्मान, तीर्थ यात्रा, जननी सुरक्षा सहित कई अन्य सरकारी योजनाओं से आम जनता को फायदा नहीं हुआ। फायदा हुआ, लेकिन पता नहीं क्यों काग्रेस को यह समझ में नहीं आया कि बाहर नरेंद्र मोदी जो माहौल बना रहे हैं, उससे सत्ता विरोधी लहर अचानक लहलहाने लगी है। और अंत तक कांग्रेस मोदी की उस लहर को ही सिरे से खारिज करने की बेवकूफी करती रही।  

देश में बेतहाशा बढ़ती महंगाई के कारण केंद्र सरकार के प्रति और खासकर कांग्रेस के खिलाफ लोगों में जबरदस्त गुस्सा था। बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने इस गुस्से को समझा, उसे हवा दी और उसे धधकती ज्वाला में परिवर्तित किया। जबकि कांग्रेस ने तो उसे समझने की ही कोशिश नहीं की। तो फिर वह उस ज्वाला का शमन करने के प्रयास क्या करती। यह एक खास किस्म का ज्वार है, जो अगले लोकसभा चुनावों तक जिंदा रखे रहने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस है कि हाथ पर हाथ धरे बैठी है। सोनिया गांधी ने चुनाव के नतीजों पर फट से कह तो दिया है कि वे हताश है, और युवराज राहुल गांधी ने भी कह दिया है कि हमें ‘आप’ से सीखने की जरूरत है। लेकिन आखिर कब तक सीखते ही रहेंगे, यह भी खयाल में रखना होगा। जहाज उड़ाने के अति महत्वपूर्ण अवसर पर भी सीखने की ललक नासमझी से ज्यादा कुछ नहीं होती।  

इधर, हारे हुए सीएम अशोक गहलोत अब भले ही मन को समझाने के लिए यह कहते रहें कि वसुंधरा राजे ने झूठा प्रचार किया और अफवाहें फैलाई, इसलिए वे जीती। लेकिन इतना तो वे भी जानते हैं कि झूठ और अफवाहों पर इतने डरावने अंदाज में चुनाव नहीं जीते जीते। दरअसल, उनके अपने ही साथियों सीपी जोशी की सभी तरह से असफल प्रयास करके सीएम बनने की अतृप्त आकांक्षा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे गरिमामयी पद पर बिराजमान होने के बावजूद डॉ. चंद्रभान की विधायक सा सामान्य पद पाने की लालसा में पार्टी का जो कबाड़ा हुआ, उस पर गहलोत पता नहीं नहीं क्यूं कुछ नहीं बोल रहे हैं। वैसे गहलोत समझदार राजनेता हैं और जब जो बोलना होता है, वही बोलते हैं। शायद इसीलिए वे राहुल गांधी के सीपी जोशी को अनावश्यक प्रोत्साहन पर भी मौन हैं। क्योंकि राजनीति में किसी को भी देर सबेर बहुत कुछ अपने आप समझ में आ जाता है। और न भी समझ में आए तो किसी को क्या फर्क पड़ता है।

कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि प्रदेश में पूरी बीजेपी वसुंधरा राजे के साथ खड़ी थी। यहां तक कि उनके परम पराक्रमी विरोधी घनश्याम तिवाड़ी भी संपूर्ण शरणागत भाव से पार्टी के सिपाही बनकर मैदान में आ गए थे और वसुंधरा की नीतियों के मुखर आलोचक गुलाबचंद कटारिया भी अपनी कटार को कमान में रखकर पार्टी को जिताने में लग गए थे। कांग्रेस में इस चुनाव के दौरान ऐसा कहीं नहीं और कभी नहीं दिखाई दिया। इस चुनाव में गहलोत अकेले थे। उनके साथ के बड़े नेता कहीं परिदृश्य में भी नहीं थे। नरेंदेर मोदी ने प्रद्श में जितनी सभाएं की, उससे माहौल बना। कांग्रेस ने उसे रोकने के लिए तो कोई प्रयास नहीं किए, यह तो ठीक। मगर अपने हालात सुधारने के लिए की गई सोनिया गांधी और राहुल गांधी की न तो सभाएं ज्यादा कराई और न ही उनमें भीड़ बढ़ाई। फिर सबसे बड़ी बात यह भी है कि गहलोत एक हद तक यह समझने में भी असफल रहे कि वे जिस पिछड़े वर्ग के प्रदेश मे सबसे बड़े नेता है, वह पिछड़ा वर्ग और उनका अपना माली समाज ही मोदी का मुरीद बनता जा रहा है।

गहलोत को थोड़ी बहुत भी राजनीतिक सहुलियत मिलती, तो वे भी अपने पिछड़े होने को केंद्र में रखकर जनता के समर्थन में इजाफा कर सकते थे। लेकिन कांग्रेस, कांग्रेसियों और पार्टी के अंदरूनी हालात ने उनको ऐसा अकेला कर दिया कि उनको यह सब समझने का मौका ही नहीं मिला। राजनीति में इसी नासमझी का लाभ सामने वाले को मिलता नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे को भरपूर मिला। फिर गहलोत सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण का समर्थन किया था। इस कोशिश का विरोध हुआ तो गहलोत सरकार ने इस आंदोलन को ही कुचलने की कोशिश करके अपने नुकसान का इंतजाम कर लिया और इससे अगड़ी जातियों में कांग्रेसी मतदाताओं में यह संदेश गया कि असोक गहलोत अगड़ी जातियों के विरोधी हैं। ऐसे में पिछड़ी जातियों से तो गहलोत हाथ धो ही बैठे थे, कांग्रेस के साथ की बची खुची अगड़ी जातियां भी कांग्रेस के विरोध में खड़ी हो गई। चुनाव के ऐन पहले मीणा वोटों के जरिए बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की किरोड़ी कोशिश का वार भी काली गया। गोपालगढ़ के दंगों के बाद मुसलमानों के घावों पर मरहम लगाने की कोशिश में अल्पसंख्यकों को कई सारी बड़ी सौगातें बख्शकर भी गहलोत ने बाकी लोगों को अपने से खो दिया।

 

फिर सबसे बड़ी बात यह भी रही कि कांग्रेस और गहलोत, दोनों ने यह कतई नहीं समझा कि दुनिया अब बहुत समझदार हो गई है। वह हर किसी के भी हर हुलिए को हर हाल में समझना सीख गई है। इसलिए अब किसी पर भी किसी के भी एहसान करने और उसके मायने समझती है। भले ही चुनाव सर पर आने के मौके पर गहलोत सरकार ने दुनिया भर की योजनाएं लागू कीं, लैपटॉप का लालच दिया, पत्रकारों को प्लॉट बांटे,  टैबलेट , साडियां, कंबल, साइकिलें और दवाइयों का मुख्त वितरण किया।  लेकिन इस सबका आम आदमी में संदेश यह गया कि कांग्रेस हमको खैरात बांटकर खरीदना चाहती है। जब किसी समझदार आदमी को कोई बेवकूफ समझता है, तो वह समझदार आदमी उसका प्रतिवाद भी बहुत अजब ढंग से करता है। सरकार को सबक सिखाने का जनता का यही अजब ढंग कांग्रेस को राजस्थान में सिर्फ 21 सीटों पर समेट गया। इन 21 में से भी बहुत सारे तो मरते पड़ते चंद वोटों से चुनाव जीते। जबकि बीजेपी हर सीट पर औसत 20 से 25 हजार वोटों के आसपास जीती है।   

अब कांग्रेस इस सदमे से उबरकर आत्ममंथन करेगी, लेकिन दुनिया जानती है कि इस आत्ममंथन और चारित्रिक चिंतन में भी उसे अपने युवराज राहुल गांधी की कमजोरियां नहीं दिखाई देगी। देश को मोदी की मजबूती भाई, लेकिन राहुल गांधी का बांहें चढ़ाने का अंदाज किसी नौसिखिए की नौटंकी के रूप में लगा, यह कोई तुर्रमखां कांग्रेसी भी राहुल गांदी को नहीं बताएगा। ताजा चुनाव परिणामों पर शरद पवार ने गलत नहीं कहा कि देश को कमजोर नेतृत्व पसंद नहीं आता। राहुल गांधी से मोदी जैसी मजबूती की कल्पना किसी को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर इंसान की अपनी अलग तासीर होती है। मगर, नरेंद्र मोदी का तोड़ तलाशने का वक्त कांग्रेस के हाथ से निकल गया है।

कांग्रेस को यह सबसे पहले समझना होगा कि संसद के गलियारों में जाने के रास्ते पंसारी की परचूनी की दूकान से शुरू होते हैं। विधान सभाओं में बहुमत पाने की पतवार सब्जी मंडियों की सांसों में समाई हुई होती है। इसीलिए देश का बजट सुधारने को कोशिश में हर घर का बजट बिगाड़ने का पराक्रम किसी भी सरकार को बहुत भारी पड़ता है। कांग्रेस की मनमोहन सरकार ने यही किया। जिसका परिणाम प्रदेशं में कांग्रेस को भुगतना पड़ा। अशोक गहलोत राजस्थान के सीएम थे, इस नाते प्रदेश मे हार का उनको चाहे कितना भी दोष दे दीजिए, लेकिन कांग्रेस का इस बार तो कमसे कम बचना संभव ही नही था। गलतियां प्रदेश की सरकार की भी हो सकती हैं। लेकिन कमरतोड़ महंगाई, सरकार में बैठे देश चलानेवाले लोगों का भ्रष्टाचार में गले तक डूब जाना, कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व और नरेंद्र मोदी का मजबूत चेहरा कांग्रेस पर बुत भारी साबित हुए। समूची कांग्रेस जब इस हार के लिए जिम्मेदार हैं, तो अकेले गहलोत को दोष देने का क्या मतलब ?  

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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चैनलों के सर्वे की पोल खुली

सत्ता के सेमीफाइनल में एग्जिट पोल की पोल एक बार फिर खुल गई। विधानसभा चुनाव के बाद टीवी चैनलों व एजेंसियों द्वारा कराए गए सर्वे के नतीजे चारों खाने चित्त रहे। इन सर्वेक्षणों की भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की भविष्यवाणी जरूर सही रही लेकिन आंकडों के सटीक आकलन में एग्जिट पोल पूरी तरह फ्लाप हो गए।

एग्जिट पोल के सर्वे दिल्ली में गेम चेंजर के रूप में उभरे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का सही मूल्यांकन नहीं कर पाए। ये सर्वे मध्यप्रदेश और राजस्‍थान में भाजपा की लहर को भी नहीं भांप पाए।

छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस की कांटे की टक्कर का अंदाजा लगाने में एग्जिट पोल थोड़ा कामयाब रहे। चाणक्य के एग्जिट पोल के नतीजे कहीं-कहीं जरूर हकीकत के करीब रहे। दिल्ली में ‘आप’ का अंडर करंट था। लेकिन मीडिया और चुनावी सर्वेक्षण कराने वाली तमाम एजेंसियां इसका सही आकलन नहीं कर पाईं। टाइम्स नाउ-सी वोटर, और एबीपी-एजी नेल्सन ने अपने सर्वे में आम आदमी पार्टी को 15-15 सीटें दी थीं।

इंडिया टुडे-ओआरजी ने तो अपने सर्वे में कहा था कि ‘आप’ को केवल 6 सीटें मिल रही हैं। लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं। चाणक्य ने जरूर ‘आप’ के 33 सीटें जीतने की भविष्यवाणी की थी।

जाहिर है ये सारे सर्वे दिल्ली में आप का एकदम सटीक आकलन करने में नाकाम रहे। दिल्ली में केवल चाणक्य ने कांग्रेस को 10 सीटें दी थीं। बाकी सब कांग्रेस को कम से कम 20 सीटें मिलने की भविष्यवाणी कर रहे थे।

मध्यप्रदेश में कोई भी सर्वे एजेंसी भाजपा को 138 सीटों से अधिक सीटें नहीं दे रही थी। आईबीएन-7-सीएसडीसी के सर्वे ने जरूर भाजपा को 136 से 146 सीटें मिलने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा को 165 सीटें मिलीं। चाणक्य ने अपने सर्वे में भाजपा को 161 और कांग्रेस को 62 सीटें दी थीं। जो लगभग सही बैठीं।

बाकी सर्वे एजेंसियां मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 80 से ऊपर सीटें दे रही थीं जबकि मप्र में कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई। इसी तरह राजस्‍थान में भी भाजपा का आकलन करने में सर्वे नाकाम रहे। टाइम्स नाउ-सी वोटर ने राजस्‍थान में भाजपा 130 और इंडिया टुडे-ओआरजी ने 110 सीटें दी थीं। जबकि राजस्‍थान में भी वसुंधरा ने 162 सीटें लाकर रण जीत लिया। चाणक्य ने भाजपा को सर्वाधिक 147 सीटें दी थीं। राजस्‍थान में सभी एग्जिट पोल कांग्रेस को 50 के आसपास सीटें दे रहे थे जबकि वह 21 सीटें ही जीत सकी।

चाणक्य तो राजस्‍थान में कांग्रेस को 39 सीटें दे रहा था। छत्तीसगढ़ के एग्जिट पोल में इंडिया टुडे-ओआरजी और चाणक्य को छोड़कर लगभग सभी एजेंसियों ने कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर का आकलन किया था। जो सही निकला।

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हिन्दू होने की सजाः हर जगह अपमान, आतंक और मौत का सामना

अभी-अभी मानवाधिकार दिवस बीता है। मानवाधिकार की कथित लड़ाई लड़ने वालों ने जोर-शोर से यह बताने की कोशिश कि उन्होंने उपेक्षित,दबे-कुचले और मानवीय अधिकारों से वंचित लोगों को उनके अधिकार दिलाने के लिए बड़े-बड़े आन्दोलन किए,लेख लिखे और उन्हें अपना हक दिलाया। पर उनके दावे कितने सही हैं,ये लोग किन लोगों के अधिकारों की बात करते हैं, यह जानने के बाद आप खुद ही कहेंगे कि कुछ लोग मानवाधिकार की आड़ में अपना स्वार्थ साध रहे हैं।

अपने यहां के मानवाधिकारवादी देश के किसी हिस्से में किसी आतंकवादी के मारे जाने पर उसके लिए भी मानवाधिकार की बात करने से नहीं हिचकिचाते हैं। ये लोग उन नक्सलियों के भी मानवाधिकार की बात करते हैं,जो कायरों की तरह छिप कर सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हैं। यही नहीं इस्रायल और फिलिस्तीन के बीच हुई लड़ाई में उग्रवादी संगठन हमास के किसी लड़ाके की मौत पर भी ये मानवाधिकारवादी हंगामा करते हैं। और तो और आतंकवादी गुट हिज्बुल्ला के किसी आतंकवादी के मरने पर भी ये लोग प्रदर्शन करते हैं। ये मानवाधिकारवादी बंगलादेश और म्यांमार से घुसपैठिए के रूप में भारत आए मुस्लिमों के मानवीय अधिकारों की भी बात करते हैं। उन्हें भारत की नागरिकता भी देने की बात करते हैं।

किन्तु इन लोगों ने कभी जम्मू-कश्मीर में रह रहे उन हिन्दुओं को नागरिकता दिलाने की बात नहीं की,जो 1947 में पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से आकर बसे हैं। इतने वर्षों बाद भी इन हिन्दुओं को पूरी तरह मतदान का भी अधिकार नहीं मिला है। ये हिन्दू लोकसभा के चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं,पर विधानसभा के चुनाव में वोट नहीं कर सकते हैं। 66 वर्ष बीत जाने के बावजूद इन हिन्दुओं को भारत की नागरिकता तक नहीं मिली है। क्या इससे भी बड़ा मानवाधिकार के उल्ल्घंन का कोई उदाहरण मिल सकता है? किन्तु इन हिन्दुओं की बात न तो कोई मानवाधिकारवादी करता है,न तो भारत की सेकुलर सरकार।

इन दिनों कुछ तथाकथित मानवाधिकारवादी मुजफ्फरनगर के उन शिविरों में जा रहे हैं, जिनमें मुस्लिम विस्थापित रह रहे हैं। किन्तु आज तक इन लोगों ने जम्मू-कश्मीर के उन करीब चार लाख हिन्दुओं की खोज-खबर नहीं ली, जो पिछले ढ़ाई दशक से अपने ही देश में शरणार्थी जीवन जी रहे हैं। जिहादी आतंकवाद के शिकार इन हिन्दुओं में से कुछ लोग अभी भी जम्मू के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। मानवाधिकारवादी इन हिन्दुओं की बात क्यों नहीं करते हैं? सवाल उठता है कि क्या हिन्दुओं के मानवाधिकार नहीं होते हैं? इनकी नजर में शायद नहीं। तभी तो ये लोग कभी भी हिन्दुओं के मानवाधिकार की बात नहीं उठाते हैं।

जो मानवाधिकारवादी बंगलादेश और म्यांमार के मुस्लिमों की बात करते हैं, वे पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं की बात क्यों नहीं करते हैं? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान और बंगलादेश में निरन्तर हिन्दुओं का दमन हो रहा है। कट्टरवादी तत्व हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने पर तुले हुए हैं। जो हिन्दू ऐसा नहीं करते हैं उन पर अत्याचारों का पहाड़ टूट पड़ता है। हिन्दुओं की बहू-बेटियों को सरेआम उठा लिया जाता है। जबरन उन्हें मुस्लिम बनाया जाता है और किसी मुस्लिम युवक से निकाह कर दिया जाता है।

पाकिस्तान से मजबूरन भारत आए हिन्दू बताते हैं कि वहां हिन्दुओं को हमेशा निशाने पर रखा जाता है। छोटी-छोटी बातों को लेकर भी हिन्दुओं पर हमले किए जाते हैं। यहां तक कि यदि भारत क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को हरा देता है तो पाकिस्तानी हिन्दुओं पर हमले किए जाते हैं। पाकिस्तानी हिन्दुओं के अनुसार यदि कोई हिन्दू मर जाता है तो उसके लाश को जलाने भी नहीं दिया जाता है। मुसलमान कहते हैं कि लाश जलाने से बदबू होती है इसलिए लाश को दफना दो। इसलिए वहां के हिन्दू अपने किसी परिजन के मरने पर रो भी नहीं पाते हैं। डर रहता है कि यदि रोए तो पड़ोस के मुस्लिमों को किसी के मरने की जानकारी हो जाएगी और वे आकर कहने लगेंगे कि चलो कब्र खोदो और लाश को दफना दो। ऐसा करने से मना करने पर हिन्दुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी जाती है।

इन सबसे बचने के लिए हिन्दू रात होने का इन्तजार करते हैं और गहरी रात होने पर अपने मृत परिजन का अन्तिम संस्कार कहीं दूर किसी नदी के किनारे कर आते हैं। लाश को आग के हवाले करने के बाद वे लोग वहां से भाग खड़े होते हैं, क्योंकि यह डर रहता है कि आग की लपटें देखकर मुसलमान आ धमकें और हिन्दुओं पर हमले न कर दें। पाकिस्तानी हिन्दू अपना कोई त्योहार भी खुलकर नहीं मना पाते हैं। मुस्लिम कहते हैं कि जो भी करना है अपने घर के अन्दर करो। बाहर त्योहार मनाना चाहते हो तो मुस्लिम बनो। होली,दीवाली या अन्य किसी पर्व के समय मुस्लिम लड़के मन्दिरों के बाहर खड़े रहते हैं और मन्दिर आने-जाने वालों को धमकी देते हैं कि मुसलमान बन जाओ और ये बुत-परस्ती छोड़ो वरना तुम लोगों को भी पाकिस्तान छोड़ना पड़ेगा। यही वजह है कि हाल के वषोंर् में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हिन्दू किसी भी तरह भारत आ रहे हैं। ये लोग यहां मानवाधिकारवादियों की हर चौखट पर हाजिरी लगाते हैं,अपनी पीड़ा बताते हैं,लेकिन ये मानवाधिकारवादी अपने मुंह पूरी तरह बन्द रखते हैं।

जो हाल पाकिस्तानी हिन्दुओं का है वही हाल बंगलादेशी हिन्दुओं का भी है,लेकिन उनके बारे में भी मानवाधिकारवादी चुप रहते हैं।

दिल्ली कथित मानवाधिकारवादियों का गढ़ है। हजारों किलोमीटर दूर गाजापट्टी पर हमास का कोई आतंकी मारा जाता है तो इनके कान तुरन्त खड़े हो जाते हैं, लेकिन दिल्ली से महज 60 किलोमीटर दूर मेवात से आने वाली हिन्दुओं की चित्कार इन्हें सुनाई नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि मेवात (हरियाणा) एक मुस्लिम-बहुल क्षेत्र है। यहां भी हिन्दुओं के साथ वही हो रहा है,जो पाकिस्तान या बंगलादेश में हिन्दुओं के साथ हो रहा है। आयेदिन मेवात में हिन्दुओं के साथ मारपीट होती है,हिन्दू लड़कियों को मुसलमान बनाकर किसी मुस्लिम के साथ निकाह कर दिया जाता है,मन्दिरों पर हमले करके देव मूर्तियां तोड़ दी जा रही हैं। श्मशान भूमि पर कब्जा कर लिया जाता है। जब कोई हिन्दू इन सबका विरोध करता है तो उसकी दिनदहाड़े हत्या कर दी जाती है। राजनीतिक दबाव पर हत्यारों के विरुद्घ थाने में पहले एफआईआर दर्ज नहीं की जाती है। हिन्दुओं के विरोध करने पर एफआईआर दर्ज तो कर ली जाती है,किन्तु कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। आरोपी खुलेआम घूमते हैं,किन्तु कोई मानवाधिकारवादी पुलिस से यह नहीं पूछने की जहमत उठाता है कि कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है?

करीब डेढ़ वर्ष पहले की एक घटना है। मेवात के नूंह में होली से कुछ दिन पहले कुछ मुसलमानों ने होलिकादहन के स्थल पर कब्जा कर लिया था। इसका विरोध प्रदीप नामक एक व्यक्ति ने किया। मुस्लिमों ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। थाने में एफआईआर दर्ज है, पर आज तक हत्यारों को पकड़ा तक नहीं गया है। नूंह के लोगों ने बताया कि प्रदीप के हत्यारे स्थानीय विधायक के साथ घूमते रहते हैं, किन्तु पुलिस उनको पकड़ने की हिम्मत नहीं कर पाती है। क्या यह मानवाधिकार की अवहेलना नहीं है? इधर निराश और भयभीत प्रदीप के घर वाले नूंह छोड़ चुके हैं। मेवात में शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जब कोई हिन्दू परिवार मेवात से पलायन न करता होगा। मेवात के हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा नहीं होने से वे लोग अपनी जन्मभूमि छोड़ने को विवश हैं। उन हिन्दुओं की ओर कथित मानवाधिकारवादियों का ध्यान क्यों नहीं जाता है?

हिन्दुओं का नस्लीय सफाया

हाल ही में ‘क्वाइट केस अफ एथनिक क्लींनज़िंग’’ शीर्षक से एक पुस्तक आई है। इसके लेखक हैं रिचर्ड एल बेंकिन, जो अमरीकी हैं। इसमें तथ्यों के साथ लेखक ने यह बताया है कि किस प्रकार बंगलादेश में हिन्दुओं का सफाया किया जा रहा है। कुल 10 अध्यायों वाली इस पुस्तक को पढ़ने से अनेक ऐसे तथ्य बाहर आते हैं,जो यह बताते हैं कि बंगलादेश में हिन्दुओं का नामोनिशान मिटाने के लिए गहरी साजिश चल रही है।

इस पुस्तक को अक्षय प्रकाशन (2/18,अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -110002) ने प्रकाशित किया है। पुस्तक की कीमत 360 रु. है।

 

इस पुस्तक के कुछ अंश जो अंग्रेजी में हैं—

After India’s 1947 partition, Hindus were a third of East Pakistan’s population; when East Pakistan became Bangladesh in 1971, they were less than a fifth; 30 years later under a tenth; and today fewer than eight percent. Bangladeshi Hindus face government tolerated murder, rape, abduction, forced conversion, land grabs, and more, including a 2009 pogrom behind a Dhaka police station. Yet, the world has remained silent—until now.

A Quiet Case of Ethnic Cleansing: the Murder of Bangladesh’s Hindus rips the cover off this atrocity with testimony by Hindus in Bangladesh and India; confrontations with their victimizers; and extensive research documenting a deliberate effort by the “moderate Muslim nation” of Bangladesh to kill, kick out, or convert Hindus; and the complicity of those entities that should be defending them. It is a call to action with practical solutions to end this quiet case of ethnic cleansing.

Dr. Richard Benkin burst onto the human rights scene in 2003 with a one-man campaign that freed a Bangladeshi journalist from imprisonment and torture for fighting radical Islam’s rise in Bangladesh and urging relations with Israel. Since then, Benkin has forced Bangladesh’s RAB to release an abductee unharmed, halted an anti-Israel conference at an official Australian building, and led the fight to stop the ethnic cleansing of Hindus in Bangladesh.

A sought after speaker and writer, Benkin has addressed audiences and published articles on four continents. He is the President and co-founder of Forcefield, a human rights NGO dedicated to defending the oppressed without regard to ideologies or political correctness, holds a doctorate from the University of Pennsylvania, has held a number of faculty and business positions, and serves on the Boards of several human rights organizations. He also serves as an expert witness in cases involving South Asian refugees.

साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

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आखिर दिल्ली में कैसे बनेगी सरकारः तीन विकल्प

दिल्ली विधानसभा की कुल 70 सीटों में भाजपा को 31, 'आप' को 28 और कांग्रेस को आठ सीटें मिली हैं. अन्य के खाते में तीन सीटें आईं हैं.

दिल्ली में सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत किसी भी दल के पास नहीं है. ऐसे में सवाल है कि संविधान में सरकार बनाने के कौन-कौन से विकल्प हो सकते हैं? बीबीसी ने संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप से बात की.

दिल्ली में सरकार बनाने के लिए सबसे पहला क़दम ये हो सकता है कि सबसे बड़ी पार्टी की सरकार बनाने की कवायद हो.

इसके लिए दिल्ली के उपराज्यपाल सबसे बड़े दल के नेता को बुलाएं और उन्हें अपना बहुमत साबित कर सरकार बनाने के लिए कहें.

सबसे ज़्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी  भाजपा यदि यह कहती है कि वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं, तो फिर उपराज्यपाल, जो दूसरा सबसे बड़ा दल है, यानी 'आप' के नेता को बुला सकते हैं.

यदि 'आप' भी यह कह दे कि वह सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं तो दो विकल्प हो सकते हैं.

विकल्प

पहला विकल्प यह हो सकता है कि उपराज्यपाल राष्ट्रपति को सिफ़ारिश करें कि दिल्ली में सरकार नहीं बन सकती इसलिए राष्ट्रपति शासन ज़रूरी हो गया है.

संविधान के अंतर्गत दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि उपराज्यपाल विधानसभा को कहें कि आप अपना नेता चुन लें. सदन जो नेता चुनेगा वो ज़रूरी नहीं कि सबसे बड़ी पार्टी से हो बल्कि वो किसी भी पार्टी से हो सकता है.

सदन उसे नेता चुन सकता है जिसे सदन का बहुमत मिल जाए. वह नेता सदन के बाहर का भी हो सकता है. जो नेता चुना जाएगा उसे सदन का बहुमत प्राप्त होगा. इसलिए वो सरकार बनाएगा. इस तरह दिल्ली में सरकार कई तरह से बन सकती है. वह सरकार दो दलीय, दल विहीन या सर्वदलीय हो सकती है. हालांकि ये अस्वाभाविक लगता है मगर ये संविधान के अंतर्गत संभव है.

अल्पमत सरकार

अगर कोई दल बहुमत साबित नहीं कर पाता तो गठबंधन की सरकार बन सकती है. दोनों बड़ी पार्टियां यह तय कर लें कि हम समर्थन तो नहीं करेंगे मगर हम विरोध भी नहीं करेंगे. बल्कि मुद्दा आधारित राजनीति होगी. संसदीय लोकतंत्र में ये ज़रूरी नहीं कि बहुमत का समर्थन प्राप्त हो. ज़रूरी यह है कि सरकार के विरोध में बहुमत न हो. इस तरह अल्पसंख्यक सरकार बनने की एक संभावना है. संविधान के तहत एक विकल्प यह भी है कि सदन एक ऐसे नेता को चुन ले जो बहुमत को स्वीकार्य हो. वह नेता सरकार बनाए.

दल विहीन सरकार

अब यह उस नेता पर निर्भर होगा कि वह अपनी सरकार में एक दल के लोगों को रखे या दो दल के लोगों को. हालांकि इस तरह सरकार बनाने की बात पहले कभी नहीं उठी है. हां, जब अंतरिम सरकार बनी थी. इसमें मुस्लिम लीग भी थी और कांग्रेस भी थी. जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी उसके सदस्य थे.

तो इस तरह से तीन विकल्प हैं. पहला कि कोई दल अपना बहुमत साबित कर सके, चाहे भाजपा हो या 'दूसरा विकल्प कि अल्पमत सरकार बने. और तीसरा विकल्प यह है कि एक नेता चुना जाए और बिना दल की सरकार बने. सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत किसी दल के पास नहीं है.

'दल बदल विरोधी कानून'

मौजूदा संख्या में एक स्थिति अगर यह बनती है कि दोनों दल, अगर दूसरे दल से चाहे भाजपा हो, आप या काँग्रेस  के  किसी विधायक को जोड़ती है तो इन पर 'दल-बदल विरोधी कानून' लागू होगा. जब तक विलय न हो इस क़ानून के लागू होने का ख़तरा है.

इसमें बस एक अपवाद यही हो सकता है कि अगर दो तिहाई सदस्य दूसरी पार्टी से जुड़ जाएं तब ये स्थिति नहीं आएगी. लेकिन इस स्थिति के आने की संभावना भी नहीं लगती.

अगर सरकार नहीं बनती है तो छह महीने के अंदर दोबारा चुनाव कराने होंगे. मौजूदा परिस्थितियों में इस बात की संभावना ज़्यादा लगती है कि ये चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही कराए जाएं. मगर अंतिम निर्णय चुनाव आयोग का ही होगा. इस दौरान दिल्ली में उपराज्यपाल का शासन रहेगा.

(बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य से बातचीत पर आधारित)

 

साभार-बीबीसी हिन्दीसे

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दूध की शुद्धता को बचाने हेतु अदालती संज्ञान

 'स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिकÓ गत् कई दशकों से अपने ही देशवासियों को नकली व मिलावटी खाद्य पदार्थ परोसते आ रहे हैं। और इस गोरखधंधे से होने वाली अपनी काली कमाई को मानवता के यह दुश्मन 'मां लक्ष्मीÓ की कृपा मानते हैं। मिलावटखोरों का यह कारोबार जहां अन्य और कई प्रकार की खाद्य सामग्री को ज़हरीला बना रहा है वहीं दूध जैसी बेशकीमती खाद्य सामग्री भी मिलावटखोरों से अछूती नहीं रह सकी है।

भारतवर्ष को जहां कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है वहीं दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में भी भारतवर्ष विश्व में अपना प्रमुख स्थान रखता है। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों का नाम तो देश में दूध की नदियां बहने वाले राज्यों के रूप में लिया जाता है । हरियाणा राज्य के लिए तो बड़ी प्रसिद्ध कहावत भी कही जाती है 'देसां में देस हरियाणा सै। जहां दूध-दही का खाणा सै।Ó परंतु इन हरामखोर नकली दूध बनाने वालों तथा इसके विक्रेताओं ने तो इस प्रकृति प्रदत बहुमूल्य खाद्य पदार्थ में ज़हर घोल कर रख दिया है। त्यौहारों के अवसर पर बार-बार ऐसी खबरें देश के विभिन्न राज्यों से आती रहती हैं कि कहां-कहां कितनी बड़ी मात्रा में मिलावटी व रासायनिक दूध,घी,खोया, पनीर तथा दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थ व मिठाईयां आदि पकड़ी गईं।          

देश की संसद भी इस विषय पर चर्चा कर चुकी है। ऐसे कारोबार में संलिप्त लोगों को फांसी दिए जाने की मांग तक उठाई जा चुकी है। इसके बावजूद सरकार द्वारा इस दिशा में अब तक कोई भी सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया है। परंतु देश के सर्वोच्च न्यायालय ने देश की जनता की पीड़ा को महसूस करते हुए मिलावटी व नकली दूध बेचने वालों के विरुद्ध शिकंजा कसने का मन बना लिया है। इस संबंध में दायर की गई जनहित याचिकाओं पर दिए गए अपने निर्देश में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों को यह हिदायत दी है कि वे मिलावटी दूध तैयार करने तथा इसकी बिक्री करने वालों को उम्र कैद दिए जाने के संबंध में कानून में उचित संशोधन करें। उच्चतम न्यायालय की जस्टिस के एस राधाकृष्णन एवं जस्टिस ए के सीकरी की खंडपीठ ने यह बात स्पष्ट रूप से कही कि ऐसे अपराध के लिए खाद्य सुरक्षा कानून में प्रदत 6 महीने की सज़ा अपर्याप्त है। अदालत ने देश के अन्य राज्यों से कहा कि वे उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा की ही तरह अपने-अपने राज्यों में कानून में उचित संशोधन करें। गौरतलब है कि गत् वर्ष भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानाक प्राधिकरण ने देश के 33 राज्यों के शहरी व देहाती सभी क्षेत्रों से दूध के 1791 नमूने इक_े किए थे। इसकी जांच के बाद पाया गया कि भारत में बिकने वाला लगभग 70 प्रतिशत दूध खाद्य सुरक्षा के निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करता। राष्ट्रीय स्तर पर किसी केंद्रीय संस्था द्वारा पहली बार इतने बड़े पैमाने पर किए गए इस  प्रकार के सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने पूरे देश के लोगों को चिंतित व आश्चर्यचकित कर दिया था। उसी समय संसद में भी ऐसे कुकर्मियों को फांसी देने तक की मांग उठी थी।

             

हमारे देश में जहां दूध की शुद्धता को तथा दूध के व्यापार को एक पवित्र व्यापार माना जाता है वहीं इसमें मिलावटखोरी करने वाले लोगों को आम लोगों की जान की कीमत के बदले में चंद पैसे कमाने से कोई गुरेज़ नहीं। नकली दूध के व्यापारी केवल दूध में पानी ही नहीं मिलाते बल्कि पशुओं में ज़हरीला इंजेक्शन लगाकर ज़बरदस्ती पशु का दूध उतारने से लेकर रासायनिक व सिथेंटिक दूध बनाने तक का कारोबार करते हैं। नकली दूध के निर्माण में पाऊडर दूध व ग्लूकोज़ के अतिरिक्त डिटर्जेंट पाऊडर, यूरिया खाद तथा हाड्रोजन पैराक्साईड जैसी बेहद ज़हरीली चीज़ों का इस्तेमाल किया जाता है।

ज़ाहिर है अनजाने में लगातार काफी दिनों तक ऐसे रासायनिक नकली दूध का सेवन करने के बाद कोई भी मनुष्य किसी भी भयंकर रोग का शिकार हो सकता है। यहां तक कि वह कैंसर जैसी बीमारी का ाी शिकार हो सकता है। परंतु जानबूझ कर मात्र अपने आर्थिक लाभ के कारण इस प्रकार के अपराधों को अपराधियों द्वारा लगातार अंजाम दिया जा रहा है। मुंबई,ज मू,राजस्थान तथा हरियाणा सहित और कई राज्यों में कई बार इस प्रकार के नेटवर्क रंगे हाथों पकड़े गए हैं जहां कि ऐसे रासायनिक दूध तैयार किए जाते हैं। त्यौहारों के अवसर पर मिलने वाली नकली मिठाईयों का जनता पर इतना अधिक दुष्प्रभाव पड़ा है कि जागरूक लोगों ने तो अब त्यौहारों के अवसर पर मिष्ठान भंडारों से अपना मुंह ही फेर लिया है। पंरतु देश में यह ज़हरीला कारोबार अब भी धड़ल्ले से चल रहा है।             

ज़ाहिर है यह अपराधी बेधड़क व निडर होकर ऐसे अपराधों को प्रशासनिक संरक्षण में ही अंजाम देते हैं। और दूसरी बात यह भी है कि अपराधियों को यह बात भी बखूबी मालूम है कि यदि पकड़े भी गए तो भी एक तो मुकद्दमा चलने व जुर्म साबित होने में ही वर्षों बीत जाएंगे। और यदि वर्षों बाद जुर्म साबित हो भी गया तो भी खाद्य सुक्षा कानून के अनुसार मात्र 6 महीने की ही सज़ा तो होगी। यही सोच अपराधियों के हौसलों को और बढ़ाती है।

यदि आम लोगों के स्वास्थय से खिलवाड़ करने वाले मिलावटखोरों के सिर पर आजीवन कारावास जैसी सज़ा के डर की तलवार लटकेगी तो इस बात की संभावना है कि ऐसे अपराधों में कुछ न कुछ कमी तो ज़रूर आएगी। ऐसे अपराधियों को यदि फांसी की सज़ा दिए जाने का कानून बनाया जाता तो भी देश की जनता को कोई एतराज़ नहीं होगा। क्योंकि मिलावटी व नकली ज़हरीली खाद्य सामग्री बनाने वालों में से ही वहीं मिलावटखोर भी हैं जोकि मंहगी से मंहगी जीवनरक्षक दवाईयों यहां तक कि इंजेक्शन में भी मिलावट करने से नहीं चूकते। जब इन्हें अपने चंद पैसों की खातिर किसी दूसरे की जान की कोई परवाह नहीं फिर आख़िर समाज में ऐसे खतरनाक लोगों के जि़ंदा रहने का भी क्या औचित्य है?           

हमें यह समझना चाहिए कि एक व्यक्तिगत परिवार से लेकर देश व सरकारों तक का संचालन अनुशासन व स ती के बिना नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र व आज़ादी का मतलब तथा उसके रचनात्मक परिणाम किसी से छुपे नहीं हैं। बड़े से बड़े जि़ मेदार पद पर बैठे लोग, बड़े से बड़े धर्माधिकारी 'स्वतंत्रताÓ का ही लाभ उठाकर क्या-क्या गुल खिलाते नज़र आ रहे हैं। इसका कारण यही है कि इन सब को मालूम है कि व्यवस्था को कैसे 'मैनेज’ किया जाता है तथा कानून इन्हें किस अपराध की अधिकतम क्या सज़ा दे सकता है। और इसी वजह से देश में मिलावटखोरी,जमाखोरी,आर्थिक घोटालों जैसे अपराध बलात्कार, छेड़छाड़ जैसी संगीन घटनाएं प्रतिदिन पूरे देश में कहीं न कहीं घटित होती ही रहती हैं।

इन अपराधों में संलिप्त लोगों को इसके नतीजों के बारे में भी बखूबी मालूम रहता है। आज चीन जैसे देश में कहीं भी नकली व मिलावटी दूध बेचते या बनाते कोई भी व्यक्ति नज़र नहीं आएगा। इसका कारण यह है कि कुछ समय पूर्व ऐसे दो व्यक्तियों को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया था जिन्होंने मात्र 6 महीने तक चीन में नकली दूध बनाकर बाज़ार में बेचने का अपराध किया था। इनको मिली सज़ा के बाद चीन में किसी दूसरे व्यक्ति की हि मत अब तक नहीं हुई कि वह फांसी के फंदे पर जाने की तैयारी करते हुए नकली दूध तैयार कर सके।            

लिहाज़ा किसी भी अपराध करने वाले अपराधी को यदि इस बात का ज्ञान बोध है कि उसे उसके अपराध की क्या सज़ा मिल सकती है फिर निश्चित रूप से वह उस अपराध विशेष को अंंजाम देने से पहले कई बार सोचेगा। परंतु यदि उसे मालूम है कि वह अपनी जेब में रिश्वत के लिए बांटने हेतु थोड़े से पैसे रखने के बाद कोई भी अपराध अंजाम दे सकता है तथा यदि रिश्वत से भी काम न चला और पकड़ा भी गया तो अधिकतम सज़ा दो-चार या 6 महीने तक की ही हो सकती है। फिर उसे ऐसे अपराध को अंजाम देने में उतनी हिचकिचाहट नहीं महसूस होगी।

आज अरब सहित और कई देशों में जहां कानून का स ख्ती से पालन होता है वहां अपराध व अपराधियों की सं या अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। भारत में भी जन संरक्षण के लिए केवल देश की अदालतों को नहीं बल्कि केंद्र व राज्य सरकारों को भी जनहित में खुलकर सामने आना चाहिए तथा अपराधों की गंभीरता व उनके दूरगामी परिणामों को मद्देनज़र रखते हुए स त से स त कानून बनाने चाहिए। ताकि घोर मंहगाई के इस दौर में आम लोग अपने चुकाए गए मूल्य के बदले कम से कम शुद्ध वस्तुएं विशेषकर खाद्य पदार्थ तो प्राप्त कर सकें। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नकली दूध बनाने वाले तथा इसमें मिलावट करने वाले लोगों के विरुद्ध आजीवन कारावास की सज़ा दिए जाने संबंधी जो निर्देश दिए गए हैं उनका सर्वत्र स्वागत किया जाना चाहिए।

 

संपर्क
तनवीर जाफरी

1618, महावीर नगर,
अंबाला शहर। हरियाणा
फोन : 0171-2535628

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आयोग में अभिलेख संधारण में सुधार हेतु

1. प्रार्थी ने दिनांक 16.10.13 को आयोग के जन सूचना अधिकारी को आवेदन कर �कतिपय सूचना की मांग की थी| किन्तु प्रत्यर्थी -पंकज श्रेयस्कर के पत्र दिनांक 20.11.13 द्वारा कोई भी सूचना देने से छद्म आधार पर इन्कार कर दिया है| 

2. प्रत्यर्थी/अपचारी ने यह कहते हुए समस्त सूचना से इन्कार किया है कि आयोग के डाटाबेस में कुछ तकनीकी खामी के कारण वांछित सूचना दिया जाना संभव नहीं है जबकि समस्त रिकार्ड को अद्यतन रखना लोक प्राधिकारी का दायित्व है और ऐसे किसी अनुचित आधार को अधिनियम में मान्यता नहीं है| 

3. अपीलार्थी ने मात्र बिंदु संख्या 7 में कम्प्यूटर में संधारित सूचना मांगी है, शेष सूचना का किसी प्रकार से डाटाबेस से कोई सम्बन्ध नहीं है| बिंदु 7 में भी प्रार्थी ने मात्र “आयोग के सचिव व उनके सहायक/स्टेनो के पास संधारित कम्प्यूटर” से सम्बंधित सूचना ही मांगी है और प्रत्यर्थी ने अपने प्रत्युतर में यह नहीं कहा है कि उक्त कम्प्यूटरों के डाटाबेस में खामी है| अत: प्रत्यर्थी ने जानबूझकर और बनावटी आधार पर सूचना तक प्रार्थी की पहुँच से मना किया है| 

4. संख्या 7 के अतिरिक्त समस्त सूचना कंप्यूटर के अलावा भौतिक/मुद्रित/अन्य इलेक्ट्रोनिक रूप में मौजूद है जिसका कंप्यूटर डाटाबेस से कोई सम्बन्ध नहीं है और दी जा सकती है| बिंदु संख्या 4 व 5 की प्रतियां तो स्वयं प्रार्थी ने आवेदन के साथ उपलब्ध करवाई हैं ऐसी स्थिति में इन पर जवाब नहीं देने का कोई न्यायोचित कारण स्थापित नहीं हो सकता|

5.आयोग, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत है अत: विभाग से आयोग में सैंकड़ों पत्र प्रति वर्ष प्राप्त होते हैं जिनमें प्रशासनिक स्वीकृतियां, निर्देश, शिकायतें आदि शामिल हैं किन्तु आयोग की डायरी के अवलोकन से परिलक्षित होता है कि विभाग से आने वाले चुनिन्दा पत्राचार को सुविधानुसार ही इस डायरी में दर्ज किया जाता है| विभाग से आने वाले वर्ष 2013 में मात्र 41 व 2012 में मात्र 6 दर्ज पत्रों को देखते हुए एक आम नागरिक को भी विश्वास नहीं हो सकता कि विभाग से आने वाले समस्त पत्रों को आयोग में दर्ज भी किया जाता होगा जबकि वर्ष 2013 में विभाग द्वारा आयोग को लिखे गए 5 से ज्यादा पत्रों की प्रतियां तो स्वयं प्रार्थी के ही पास हैं जिन्हें आयोग के रिकार्ड में दर्ज तक नहीं किया गया है| 

6.आयोग की कार्यप्रणाली में गंभीर खामियां हैं और आयोग में कुछ दुश्चरित्र सक्रिय हैं जो उक्त पैरा 5 में वर्णित भूमिका निभा रहे हैं| मैंने अपने आवेदन के बिंदु 2 से 5 में भी शिकायतों पर की गयी कार्यवाहियों की सूचना चाही है जो इसी अनुचित आधार पर मना की गयी है| ऐसा प्रतीत होता है कि विभाग से प्राप्त समस्त शिकायती पत्रों को या तो आयोग में दर्ज ही नहीं किया जाता या गायब कर दिया जाता है और कार्यवाही को दबा दिया जाता है| वास्तव में आयोग के डाटाबेस में खामी की बजाय रिकार्ड में जानबूझकर हेराफेरी की ज्यादा संभावना परिलक्षित होती है| परिणामत: पारदर्शिता के अभाव में आयोग स्वयम अस्वच्छता के संक्रमण का �केंद्र बन गया है- डाक्टर खुद बीमार है |
अत: निवेदन है कि आयोग की कार्यप्रणाली �में वांछित सुधार किये जाएँ और दोषी लोगों को चिन्हित कर उन्हें स्थानांतरित कर बाद में दण्डित किया जाए अन्यथा आयोग में रहते हुए वे निष्पक्ष जांच भी संपन्न नहीं होने देंगे|

संपर्क
मनीराम शर्मा 
अध्यक्ष, इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन ( चुरू जिला),
नकुल निवास, रोडवेज डिपो के पीछे
सरदारशहर 331 403-7 जिला-चूरू (राज.)
ई-मेल [email protected] 

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राजस्थान में दागी कांग्रेसियों के रिश्तेदार हारे

राजस्थान में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो चुका है। भाजपा की आंधी में|� कांग्रेस के कई दिग्गज धराशायी हो गए। जनता ने दागी नेताओं के रिश्तेदारों को नकार दिया है।� ओसियां से कांग्रेस उम्मीदवार और पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा,लूणी से मलखान विश्नोई की मां अमरी देवी, दूदू से पूर्व मंत्री बाबूलाल नागर के भाई हजारीलाल नागर को भारी पराजय का सामना करना पड़ा

भंवरी देवी हत्याकांड में आरोपी महिपाल मदेरणा और मलखान विश्नोई जेल की हवा खा रहे हैं। बलात्कार के केस में आरोपी बाबूलाल नागर भी सलाखों के पीछे है। ओसियां से भाजपा प्रत्याशी भैराराम चौधरी ने लीला मदेरणा को 15,396 वोटों से� शिकस्त दी। भैराराम को 75,363 वोट मिले जबकि लीला मदेरणा को सिर्फ 59,967 वोट ही मिले।

लूणी से भाजपा प्रत्याशी जोगाराम पटेल ने अमरी देवी को 35,940 वोटों से हरा दिया। अमरी देवी को 60,446 और जोगाराम पटेल को 96,386 वोट मिले। दूदू से भाजपा उम्मीदवार प्रेमचंद बैरवा चुनाव जीत गए हैं। उन्होंने कांग्रेस के हजारीलाल नागर को 32,729 वोटों से हराया। नागर को 51,864 जबकि बैरवा को 84,543 वोट मिले।

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क्लब सिक्सटी [हिंदी कामेडी ] कथा

दो टूक : जो लोग उम्र को सुख और रिश्तों की सीमा मानते हैं या सोचते हैं कि सिर्फ गम उनके हिस्से हैं तो उनके लिए संजय त्रिपाठी की सतीश शाह, टीनू आनंद, रघुवीर यादव और फारुख शेख के  वाली फ़िल्म कल्ब सिक्सटी एक देखने लायक फ़िल्म है जो कहती हैं कि हंसी जो दिखती है कई बार वो हंसी तो  है पर उसके अंदर का दर्द किसी को नहीं दीखता क्योंकि उसकी कोई शकल नहीं होती .

कहानी : फ़िल्म की कहानी एक टेनिस कोर्ट में मिलने वाले रघुवीर यादव , सतीश शाह, तीनूं आनंद , शरत  सक्सेना , और विनीत कुमार की है  जो एक  खुशाल जोड़े तारिक और सायरा [ फारुख शेख और सारिक असारिका ] से बहुत  प्रभावित हैं .लेकिन वो नहीं जानते कि उनके जीवन में एक बहुत बड़ा खालीपन हैं  धीरे-धीरे पता चलता है कि सभी की जिंदगी में गम हैं और वे अपने-अपने गमों को धकेल कर खुश रहने की कोशिश करते हैं।

गीत संगीत : फ़िल्म में प्रणीत गेडाम गेडाम का संगीत है और गीत नजीर अकबरा बादी  के हैं लकिन वो ऐसे नहीं कि याद रखे जा  सके.

अभिनय   : फ़िल्म में  फारुख शेख और सारिका फिल्म के आधार हैं तो रघुवीर यादव सभी को जोड़ने की महत्वपूर्ण कड़ी। हालांकि उन्होंने गुजराती मनुभाई की भूमिका को  अतिरिक्त  लाउड रखा है। शरत सक्सेना, टीनू आनंद, सतीश शाह और विनीत कुमार ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। लेकिन हिमानी शिवपुरी और दुसरे कई छोटे बड़े चरित्र भी  फ़िल्म में हैं जिन्हे कुछ और नया विस्तार दिया जा सकता  था.

निर्देशन : फ़िल्म बुजुर्गो के जीवन में आने वाली एकरसता और अकेलेपन को संवेदन शीलता से छूती है . संजय त्रिपाठी ने  खबरों से बाहर कर दिए गए बुजुर्गो की  स्थिति को गहराई से बुना है हाँ उसकी पटकथा में कुछ चूक हो गयी हैं .लेकिन फ़िल्म को  छोड़ियेगा नहीं.

फ़िल्म क्यों देखें : बुजुर्गों की एकांतता को दिखाने  की  कोशिश है.
फ़िल्म क्यों न देखें : मैं ऐसा नहीं  कहूंगा .

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नोटा के बटन का भरपूर उपयोग किया मतदाताओं ने

चुनाव आयोग ने पहली बार मतदाताओं को सारे उम्मीदवारों को खारिज करने का विकल्प दिया। ईवीएम में जिसे नन ऑफ द एबव (नोटा) के रूप में दर्ज किया गया था। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित चित्रकोट सीट पर सर्वाधिक 10848 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया, जो कि तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक सबक की तरह है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में� जिले की 7 विधानसभाओं में सबसे ज्यादा मरवाही के वोटरों ने नोटा, यानी इनमें से कोई नहीं का बटन दबाया है। यहां 7 हजार 115 मतदाताओं ने 10 में से किसी एक प्रत्याशी को भी योग्य नहीं माना। दिलचस्प है कि भाजपा, कांग्रेस को छोड़कर शेष आठ प्रत्याशियों ने नोटा जितने वोट भी हासिल नहीं कर सके। मरवाही में नोटा तीसरे नंबर पर रहा। बिलासपुर में भी नोटा का बटन 3669 बार दबा। यहां भी यह तीसरे स्थान पर था।

1 लाख 33 हजार 875 वेलिड वोट वाली विधानसभा के 7 115 मतदाताओं ने हरेक प्रत्याशी को नापसंद किया। यहां भाजपा, कांग्रेस जैसी दो बड़ी पार्टियों के प्रत्याशियों के अलावा 8 अन्य उम्मीदवार भी मैदान में थे। सबसे अहम यही है कि इनमें से किसी एक प्रत्याशी ने भी नोटा के आंकड़े को पार नहीं किया। नोटा के सबसे करीब सुमन सिंह रहे हैं, जिन्हें 6 259 वोट मिले। नोटा ने यहां 8 प्रत्याशियों को पछाड़ते हुए 5 फीसदी मत हासिल किया और तीसरा स्थान हासिल किया।������� �

छत्तीसगढ़ में कुल 5,88,411 मतदाताओं ने यह बटन दबाया। यह कुल पड़े वोट का 1.92 फीसदी हिस्सा है, यानी तकरीबन हर 50 मतदाता में से एक ने नोटा का इस्तेमाल किया। इसका सबसे अधिक प्रयोग पंचायतराज मंत्री महेन्द्रजीत सिंह मालवीय की सीट बागीदौरा में 7259 लोगों ने किया। इसके अलावा पिड़वाड़ा आबू में 7,253 मतदाताओं ने "उपरोक्त में से कोई नहीं" पर अपनी मुहर लगाई।
सबसे रोचक दांतारामगढ़ सीट का मामला है। यहां से कांग्रेस के प्रत्याशी नारायणसिंह महज 210 वोटों से चुनाव जीते है, जबकि इस सीट पर 1999 लोगों ने नोटा का प्रयोग किया है। इसी तरह कोलायत से कांग्रेस के भंवरसिंह भाटी 1134 वोटों से चुनाव जीते, जबकि यहां 2,951 ने नोटा का प्रयोग किया।

दंतेवाड़ा में भाजपा के मौजूदा विधायक भीमा मंडावी का कड़ा मुकाबला दर्भा घाटी में हुए माओवादी हमले में मारे गए कांग्रेस के वरिष्ट नेता और सलवा जुडूम के जन्मदाता महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा से था.

राजस्थान में पहली बार ईवीएम में नोटा के बटन का लोगों ने जमकर इस्तेमाल किया। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भाजपा से इस पद की प्रत्याशी वसुंधरा राजे के क्षेत्र में भी नोटा का जादू चला। अशोक गहलोत की सीट सरदारपुरा में 1,779 और वसुंधरा की सीट झालरापाटन में 3,729 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया। इसी तरह भंवरी देवी कांड में फंसे मलखान सिंह विश्नोई की मां अमरीदेवी के क्षेत्र लूणी में 3,322 और महिपाल मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा के क्षेत्र ओसियां में 2597 लोगों ने नोटा का बटन दबाया।

राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य इलाके डूंगरपुर जिले में सबसे अधिक 4.50 फीसद तथा दूसरे नम्बर पर बांसवाडा जिले में 3.42 फीसद मतदाताओं ने किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देने के लिए नोटा का इस्तमाल किया।

राजस्थान में सबसे ज्यादा करीब 87,609 मतदाओं ने सभी उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने वाले नोटा विकल्प चुना। मध्य प्रदेश में 43,851 मतदाताओं ने इनमें से कोई नहीं विकल्प आजमाया। शाहपुरा विधानसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा 7,929 लोगों ने नोटा बटन दबाया।

एसी के लिए आरक्षित राजस्थान के केशोराय पाटन विधानसभा क्षेत्र में 7,230,दिल्ली की बवाना सीट पर 1,217 मतदाताओं ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया। दिल्ली में करीब 21,808 लोगों ने नोटा इस्तेमाल किया।

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के विधानसभा क्षेत्र विदिशा में 1,368 मतदाताओं ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया। राजस्थान में वसुंधरा राजे के निर्वाचन क्षेत्र झालरापाटन में 940 नोटा वोट पड़े। छत्तीसगढ़ में 67,222 नोटा वोटर्स थे। एसी के लिए सुरक्षित चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा 6,460 मतदाताओं ने नोटा विकल्प चुना।

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संस्कृत के छात्रों ने धोती-कुर्ता पहना तो दीक्षात समारोह में अपमानित किया

उत्तरप्रदेश में वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के 31वें दीक्षांत समारोह में रविवार की दोपहर गाउन पहनकर मेडल न लेने की जिद पर अड़े छात्रों को मंडप से निकाले जाने के बाद जमकर हंगामा हुआ।  प्रशासन की सख्ती से नाराज सर्वाधिक नौ स्वर्ण पदक अपने नाम करने वाले मेधावी सुमन चंद्र पंत समेत बड़ी संख्या में छात्रों ने दीक्षांत समारोह का बहिष्कार कर नारेबाजी शुरू कर दी।  मुख्य भवन के सामने कुछ छात्र धरने पर बैठ गए। उन्होंने महामहिम की फ्लीट के आगे लेटने की कोशिश की तो पुलिस ने रस्सा तानकर उन्हें पुस्तकालय भवन की ओर खदेड़ दिया। अंतत: चार छात्रों ने मेडल नहीं लिया।

इस मामले में छात्रसंघ अध्यक्ष और पुस्तकालय मंत्री को पुलिस थाने ले गई। बाद में चेतावनी देकर उन्हें छोड़ दिया गया।  कुलपति आवास के पास पत्थरबाजी के आरोप में पकड़े गए छात्र से पूछताछ की जा रही है। समारोह में महामहिम के आगमन से पहले ही संचालन कर रहे तुलनात्मक धर्म दर्शन के विभागाध्यक्ष डॉ. रजनीश शुक्ल ने चेताया कि निर्धारित दीक्षांत परिधान में जो छात्र नहीं होंगे, उन्हें स्वर्ण पदक के लिए मंच पर आमंत्रित करना संभव नहीं हो सकेगा।

नौ स्वर्ण पदक जीतने वाले सुमन चंद पंत और रजत पदक की सूची में शुमार विपिन कुमार द्विवेदी के अलावा डिग्री लेने आए उमेश चंद्र शुक्ल, साकेत शुक्ल धोती-कुर्ता में आए थे।  उन्होंने गाउन पहनने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि गुलामी के प्रतीक परिधान को पहनकर वे पदक नहीं लेंगे। पारंपरिक परिधान धोती-कुर्ता में ही उन्हें पदक दिया जाए।  इन छात्रों की जिद तोड़वाने के लिए कुलसचिव राकेश मालापाणि, चीफ प्राक्टर केदारनाथ त्रिपाठी, निदेशक प्रकाशन पद्माकर मिश्र समेत कई अधिकारियों की कोशिश बेकार गई।  

अंतत: एडीएम सिटी मंगला प्रसाद मिश्र और एसपी सिटी राहुल राज जब गाउन न पहनने वाले छात्रों को दीक्षांत मंडप से बाहर करने लगे तब छात्र समारोह का बहिष्कार करते हुए मुख्य भवन के पास नारेबाजी करने लगे।   मुख्य भवन के सेफ रूम में जब महामहिम राज्यभपाल और मुख्य अतिथि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मुकुंद काम शर्मा शिष्ट यात्रा में शामिल होने के लिए गाउन पहन रहे थे तब भी नारेबाजी होती रही।  इस दौरान पत्थर चलने से एक दारोगा के चोटिल होने की बात समाने आई। राज्यपाल जब कुलपति आवास में प्रीतिभोज पर जाने लगे, तभी एसपी सिटी के निर्देश पर छात्रों को पुलिस ने पकड़ लिया।

 

साभार- अमर उजाला से

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