Thursday, January 16, 2025
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इस्लाम, आतंकवाद और 1450 साल का इतिहास

इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना अर्थात् मोहर्रम शुरु होते ही पूरे विश्व में क़रबला की वह दास्तां दोहाराई जाती है जो लगभग 1450 वर्ष पूर्व इराक के करबला नामक स्थान में पेश आई थी। यानी हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के सदस्यों का तत्कालीन मुस्लिम सीरियाई शासक की सेना के हाथों मैदान-ए-करबला में बेरहमी से कत्ल किये जाने की दास्तां।

हालांकि इस घटना को 14 सदियां बीत चुकी हैं परंतु उसके बावजूद आज के दौर में जैसे-जैसे पूरे विश्व में इस्लाम रुसवा और बदनाम होता जा रहा है, जैसे-जैसे इस्लाम पर कट्टरपंथियों, आतंकवादियों, गैरइस्लामी व गैर इंसानी हरकतें अंजाम देने वालों का शिकंजा कसता जा रहा है वैसे-वैसे बार-बार पूरी दुनिया के गैर मुस्लिम समुदायों में खासतौर पर यह सवाल उठ रहा है कि वास्तव में इस्लामी शिक्षा है क्या? क्या इस्लाम इसी प्रकार आत्मघाती हमलावर तैयार करने, मस्जिदों, दरगाहों, स्कूलों, जुलूसों, भीड़ भरे बाज़ार तथा अन्य सार्वजनिक स्थलों पर बेगुनाह लोगों की हत्याएं करने की शिक्षा देता है? यह सवाल भी उठता है कि हज़रत मोहम्मद उनके परिवार के सदस्यों व सहयोगियों ने क्या भविष्य में ऐसे ही इस्लाम की कल्पना की थी? आज दुनिया के मुसलमानों से प्रत्येक गैर मुस्लिम यह सवाल करता दिखाई देता है कि इस्लाम के नाम पर प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की दुनिया में कहीं न कहीं हत्याएं करने वाले लोग यदि मुसलमान नहीं तो आिखर वे किस विचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं और यदि स्वयं को न केवल मुसलमान बल्कि 'सच्चा मुसलमान’ कहने वाले यह लोग मुसलमान नहीं फिर आिखर यह लोग हैं कौन? सवाल यह भी है कि इस्लाम की वास्तविक शिक्षा हमें इस्लामी इतिहास की किन घटनाओं से और किन चरित्रों से लेनी चाहिए?       

          

इसमें कोई दो राय नहीं कि मोहर्रम का महीना तथा इसी माह में दसवीं मोहर्रम को करबला में घटी घटना इस्लामी इतिहास की एक ऐसी घटना है जोकि इस्लाम के दोनों पहलुओं को पेश करती है। हज़रत इमाम हुसैन व उनका परिवार उस इस्लामी पक्ष का दर्पण है जिसे वास्तविक इस्लाम कहा जा सकता है। यानी त्याग, बलिदान, उदारवाद, सहनशीलता, समानता, भाईचारा, ज़ुल्म और असत्य के आगे सर न झुकाने व सर्वशक्तिमान ईश्वर के अतिरिक्त संसार में किसी को सर्वशक्तिमान न समझने जैसी शिक्षाओं को पेश करता है।

 

वहीं दूसरी ओर उसी दौर का सीरिया का शासक यज़ीद है जोकि इस्लाम का वह क्रूर व ज़ालिम चेहरा है जिसका अनुसरण करने वाले तथाकथित मुसलमान आज भी पूरे संसार में ज़ुल्म,अत्याचार तथा बेगुनाह व मासूम लोगों की हत्याएं करते आ रहे हैं। यज़ीद की सेना ने भी हज़रत इमाम हुसैन के सहयोगी व हज़रत मोहम्मदके 80 वर्षीय मित्र हबीब इब्रे मज़ाहिर से लेकर इमाम हुसैन के 6 महीने के दूध पीते बच्चे अली असगर तक को कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी।

मुसलमान पिता की संतान होने के बावजूद ज़ालिम यज़ीद ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि क़रबला में जिन लोगों को कत्ल करने की उस ज़ालिम ने ठानी है वह इस्लाम धर्म के पैगंबर हज़रत मोहम्मद का ही परिवार है। और स्वयं यज़ीद भी हज़रत मोहम्मद के नाम का कलमा पढ़ता है। परंतु ज़ालिम यज़ीद ने इन बातों का लिहाज़ किए बिना तीन दिन के भूखे और प्यासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के पुरुष सदस्यों को बड़ी ही निर्दयता से करबला के तपते हुए रेतीले मैदान में कत्ल कर दिया। और परिवार की महिला सदस्यों को रस्सियों से बांधकर मुख्य मार्गों से पैदल अपने सीरियाई दरबार तक ले गया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़ी किसी भी अत्याचार संबंधी घटना में ज़ुल्म व अत्याचार की वह इंतेहा नहीं देखी गई जोकि करबला के मैदान में देखी गई थी।

 

इतिहासकारों के अनुसार हज़रत हुसैन के 72 साथियों का कत्ल करने के लिए यज़ीद ने अपनी लाखों सिपाहियों की सेना करबला में फुरात नदी के किनारे तैनात कर दी थी। करबला की घटना क्यों घटी और किस प्रकार करबला की घटना से हम वास्तविक इस्लाम और अपहृत किए गए इस्लाम के दोनों चेहरों को बखूबी समझ सकते हैं, आईए संक्षेप में यह समझने की कोशिश करते हैं। हज़रत इमाम हुसैन जहां अपने समय में हज़रत मोहम्मदद्वारा निर्देशित इस्लामी सिद्धांतों का पालन करते हुए मानवतावादी इस्लाम को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे वहीं यज़ीद इत्तेफाक़ से सीरियाई शासक मुआविया के घर में पैदा होने वाला एक ऐसा दुष्ट शहज़ादा था जो व्यक्तिगत् तौर पर प्रत्येक इस्लामी शिक्षाओं का उल्लंघन करता था। उसमें शासक बनने के कोई गुण नहीं थे। वह निहायत क्रूर, दुष्ट, चरित्रहीन, बदचलन तथा अहंकारी प्रवृति का राक्षसरूपी मानव था। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह सीरिया की गद्दी पर बैठा तो उसने हज़रत मोहम्मदके नवासे इमाम हुसैन से बैअत तलब की यानी यज़ीद ने हज़रत मोहम्मदके परिवार से इस्लामी शासक के रूप में मान्यता प्राप्त करने का प्रमाण पत्र हासिल करना चाहा। इमाम हुसैन ने यज़ीद की गैर इस्लामी आदतों के चलते उसको इस्लामी राज्य का राजा स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

 

इमाम हुसैन ने साफतौर पर यह बात कही कि यज़ीद जैसे बदकिरदार व्यक्ति को किसी इस्लामी राज्य का बादशाह स्वीकार नहीं किया जा सकता। हज़रत हुसैन यह बात भली-भांति जानते थे कि यदि उन्होंने यज़ीद के शासन को इस्लामी मान्यता दे दी और उसके हाथों पर बैअत कर उसे इस्लामी राज्य का शासक स्वीकार कर लिया तो भविष्य में इतिहास यज़ीद का चरित्र-चित्रण करते हुए यह ज़रूर लिखेगा कि यज़ीद सीरिया (शाम)का वह राजा था जिसे हज़रत मोहम्मदके नवासे और हज़रत अली व फातिमा के बेटे हज़रत हुसैन की ओर से मान्यता प्राप्त थी। और हज़रत इमाम हुसैन इन्हीं काले शब्दों का उल्लेख इस्लाम संबंधी इतिहास में नहीं होने देना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि यज़ीद को इस्लामी मान्यता प्राप्त राजा स्वीकार कर इस्लाम धर्म को बदनाम व कलंकित होने दिया जाए।

 

वे इस्लाम की साफ-सुथरी, चरित्रपूर्ण व उदार छवि दुनिया में पेश करना चाहते थे। वे हज़रत मोह मद, फातिमा तथा हज़रत अली द्वारा बताए गए इस्लामी सिद्धांतों का अनुसरण करते थे तथा स्वयं इन्हीं से प्राप्त इस्लामी शिक्षाओं के पैरोकार थे। दूसरी ओर ज़ालिम यज़ीद सत्ता और ताकत के नशे में चूर शराबी, जुआरी, व्याभिचारी तथा अय्याश प्रवृति का वह शासक था जो अपनी सत्ता शक्ति के नशे में इस कद्र चूर था कि उसे दो ही बातें स्वीकार थीं। या तो हज़रत हुसैन उसके हाथों पर बैअत कर उसे सीरिया के इस्लामी शासक के रूप में मान्यता दें अन्यथा उसके हाथों शहीद होने के लिए तैयार हो जाएं।

 

हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद का बैअत संबंधी पहला संदेश आने के बाद कई स्तर पर वार्ताओं का दौर चलाकर उसे हर प्रकार से यह समझाने की कोशिश की कि वह इस्लामी राज्य का शासक बनने की अपनी जि़द छोड़ दे क्योंकि उसमें ऐसी योग्यता हरगिज़ नहीं है। परंतु यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन की एक भी बात नहीं सुनी। और वह अपनी एक ही जि़द पर अड़ा रहा कि या तो हुसैन मेरे हाथों पर बैअत करें या फिर सपरिवार कत्ल होने के लिए तैयार हो जाएं। हिंसा को रोकने के लिए हज़रत इमाम हुसैन ने यज़ीद के समक्ष एक अंतिम प्रस्ताव यह भी रखा था कि वह अपने परिजनों के साथ मदीना छोड़कर हिंदुस्तान चले जाना चाहते हैं। परंतु यज़ीद जैसे दुष्चरित्र व्यक्ति को इस्लामी बादशाह के रूप में मान्यता देकर खुद जीवित रहना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं था। यज़ीद ने हुसैन का यह प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं किया। उसकी बार-बार एक ही रट थी या तो इस्लामी स्वीकृति या फिर हुसैन की शहादत। और आिखरकार हुसैन ने असत्य के समक्ष घुटने न टेकते हुए अपनी व अपने पूरे परिवार की कुर्बानी देने का फैसला किया।                 

 

हज़रत इमाम हुसैन अपना पुश्तैनी घर मदीना छोड़कर इराक के करबला शहर में फुरात नदी के किनारे पहुंच गए। और दस मोहर्रम के दिन वे स्वयं, उनके भाई-बेटे, भतीजे, कई मित्र व सहयोगी यहां तक कि मात्र एक दिन पूर्व ही यज़ीद की सेना को छोड़कर हज़रत हुसैन की शरण में आया यज़ीद का ही सेनापति हुर व उसका पुत्र व गुलाम सभी शहीद कर दिए गए। परंतु दस मोहर्रम को दिन भर चलने वाले शहादत के सिलसिले के बावजूद तथा यजी़द की सेना द्वारा ज़ुल्म पर ज़ुल्म ढाने के बाद भी हज़रत इमाम हुसैन ने इस्लामी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुस्लिम समुदाय में आज भी कोई श स अपने बच्चों का नाम यज़ीद नहीं रखता। इतिहास आज भी करबला की घटना को मोहर्रम का महीना आने पर बार-बार दोहराता है जो इस्लाम के दोनों पहलुओं पर रोशनी डालता है। हिंदुस्तान के मशहूर शायर कुंवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर’ के शब्दों में

ज़िंदा इस्लाम को किया तूने। हक्क-ओ-बातिल दिखा दिया तूने।।

जी के मरना तो सबको आता है। मर के जीना सिखा दिया तूने।।

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गोआ के मुख्यमंत्री का आरोप, नाईजिराया के राजनायिक ने कूटनीति की हदें तोड़ दी

गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने गुरुवार को आरोप लगाया कि एक नाइजीरियाई राजनयिक ने यहां हुई एक नाइजीरियाई नागरिक की हत्या के सिलसिले में पुलिस अधीक्षक को आक्रामक एसएमएस भेजे थे।    पर्रिकर ने वास्को नगर में पत्रकारों से बातचीत में राजनयिक का नाम लिए बगैर कहा कि उन्हें (राजनयिक को) गलत सूचना दी गई और वह हमारे पुलिस अधीक्षक को आक्रामक एसएमएस भेजने की हद तक गए।

एक नाइजीरियाई राजनयिक हाल में गोवा में थे और उन्होंने कथित रूप से धमकी दी थी कि अगर उनके हमवतन लोगों को गोवा में परेशान किया गया तो नाइजीरिया में रहने वाले भारतीयों को उसकी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ेगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि गोवा पहुंचे राजनयिक उचित चैनल से नहीं आए थे। उन्होंने कहा कि किसी विदेशी राजनयिक के बतौर, उन्हें विदेश मंत्रालय के माध्यम से आना चाहिए था। मुझे कभी कोई सूचना नहीं मिली कि कोई आ रहा है।

पर्रिकर ने कहा कि नाइजीरिया और भारत के बीच गलतफहमी मीडिया की गलत रिपोर्टिंग का नतीजा है। उन्होंने कहा कि मैंने कभी नहीं कहा था कि नाइजीरियाइयों को स्वदेश भेजा जाएगा, बल्कि मैंने कहा था कि नाइजीरियाई समेत अवैध रूप से रह रहे विदेशियों को स्वदेश भेजा जाएगा। इससे पहले, नाइजीरिया ने भारत को एक कूटनीतिक संदेश जारी किया, जिसमें अपने नागरिकों की सुरक्षा पर चिंता जताई और गोवा में पिछले हफ्ते मारे गए एक नाइजीरियाई के हत्यारों की तत्काल गिरफ्तारी की मांग की गई। इसके बाद सरकार ने नाइजीरिया को आश्वासन दिया कि सहयोगात्मक तरीके से सभी मुद्दों का समाधान किया जाएगा।

केन्द्र ने कल कहा था गोवा में एक नाइजीरियाई की हत्या का मामला बुलंद किए जाने के बाद वह नाइजीरिया के साथ कूटनीतिक संवाद में है। उसने रेखांकित किया कि वह इस मामले में राज्य सरकार से एक रिपोर्ट की अपेक्षा कर रहा है। इस बीच, विशेष जांच दस्ते ने उत्तर गोवा के चपोरा में ओबोदो उजोमा सिमयन की हत्या के सिलसिले में मंगलवार की रात को सुरेन्द्र पाल नामक एक युवक को गिरफ्तार किया। पर्रिकर ने पहले दावा किया था कि यह नशीले पदार्थ की तस्करी से जुड़ा एक अपराध है।

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राजस्थानी लोक साहित्य को एक नई आभा देने वाले विजयदान देथा नहीं रहे

राजस्थानी भाषा के जानेमाने साहित्यकार  विजयदान देथा उर्फ बिज्जी का निधन हो गया है. वो 87 साल के थे. बिज्जी के नाम से मशहूर विजयदान देथा अपनी कहानियों के लिए देश-विदेश में मशहूर थे. राजस्थान के पाली ज़िले के रहने वाले विजयदान देथा ने राजस्थानी में करीब 800 छोटी-बड़ी कहानियां लिखीं. जिनका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है.

उनकी कहानियों में राजस्थानी लोक संस्कृति, आम जीवन की झलक मिलती है. विजयदान देथा को साहित्य अकादमी और पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.  उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था.

नाटक और फिल्में भी बनीं :

देथा की कई कहानियों और उपन्यासों पर कई नाटक और फिल्में बन चुकी हैं. इनमें हबीब तनवीर द्वारा निर्देशित नाटक चरणदास चोर और अमोल पालेकर के द्वारा बनाई गई फिल्म पहेली प्रमुख है. पहेली को भारत की ओर से ऑस्कर में भी भेजा गया था.

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नैत्रहीन मतदाता भी मत दे सकेंगे

दृष्टिहीन मतदाता भी अब चुनावों में अपने अधिकार का उपयोग कर पाएंगे। निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों के बाद दृष्टिहीन मतदाता ब्रेललिपि के माध्यम से अपना मत डाल सकेंगे। निर्वाचन विभाग ने बैलेट यूनिट पर लगाये जाने वाले न्यूमैरिक स्टिकर उपलब्ध करवा दिए हैं। इसके अलावा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की अंतिम सूची तैयार होने के बाद डमी बैलेट शीट का मुद्रण किया जाएगा।

मतदान केन्द्र पर पीठासीन अधिकारी द्वारा की जाने वाली कार्रवाई संबंधी तथा अन्य निर्देश जारी किए जा चुके हैं। मतदान केन्द्र के लिए नियुक्त पीठासीन अधिकारी द्वारा दृष्टिहीन मतदाताओं द्वारा डाले गये मतों का लेखा निश्चित प्रपत्र में संबंधित रिटर्निग अधिकारी को मतदान के बाद जमा कराई जाने वाली अन्य सामग्री के साथ प्रेषित किया जाएगा।

संबंधित रिटर्निग अधिकारी चुनाव की घोषणा करने के बाद यह सूचना उप मुख्य निर्वाचन अधिकारी को प्रेषित करेंगे। दृष्टिहीन मतदाताओं के लिए तैयार की जाने वाली डमी बैलेटशीट का मुद्रण ब्रेललिपि में किया जाएगा। इस पर ऊपर की ओर हिन्दी भाषा में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के नम्बर व नाम का भी अंकन किया जाएगा जो रबड़ की मुहर लगाकर सम्बंधित रिटर्निग अधिकारी के अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा बैलेट शीट के मुद्रण के बाद किया जाएगा। यह डमी बैलेटशीट केवल हिन्दी भाषा में होगी। इस पर शब्द हिन्दी साधारण लिपि में ऊपर लिखा जाएगा।

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विजयदान देथा का यादगार साक्षात्कार इंडिया टुडे की मनीषा पांडेय के साथ

उस दिन सुबह बिज्जी इंटरव्यू के नाम से ऐसे घबरा रहे थे, जैसे मां की गोद से उतरकर पहले दिन स्कूल जा रहा कोई बच्चा. साथ रहने वाले राजस्थानी लेखक मालचंद तिवाड़ी से वे बोले, ‘‘एक काम कर, तू ही विजयदान देथा बनकर बैठ जा और इंटरव्यू दे दे.’’ लेकिन फिर जब सफेद धोती, कुर्ता और जैकेट पहनकर तैयार हो गए तो पूछते हैं, ‘‘क्यो, लग रहा हूं न दूल्हे जैसा?’’

बच्चों जैसी निश्छलता और हास्य बोध से भरे ये शख्स हैं राजस्थानी के प्रसिद्घ लेखक विजयदान देथा. जोधपुर से तकरीबन 100 किमी दूर एक कस्बेनुमा छोटे-से गांव बोरूंदा में उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी. उन्हें लोग प्यार से बिज्जी कहते हैं. चार साल की उम्र में पिता को खो देने वाले बिज्जी ने न कभी अपना गांव छोड़ा, न अपनी भाषा. ताउम्र राजस्थानी में लिखते रहे और लिखने के सिवा कोई और काम नहीं किया.

दो जोड़ी कपड़ों में संतोषी जीवन जिया. बहुत चाह भी नहीं थी. बोरूंदा के रास्ते में साइकिल की दुकान पर पंचर बनाने वाले से लेकर गायों को हंकाकर ले जा रहा किसान तक बिज्जी के घर का पता जानते हैं. जो पढ़ भी नहीं सकता, उसने उनकी कहानियां सुनी हैं. राजस्थान के गांवों में घर-घर में लोग बिज्जी की कहानियां सुनते-सुनाते हैं. राजस्थान की लोककथाओं को मौजूदा समाज, राजनीति और बदलाव के औजारों से लैस कर उन्होंने कथाओं की ऐसी फुलवारी रची है कि जिसकी सुगंध दूर-दूर तक महसूस की जा सकती है.

बिज्जी बड़े ही दिल से वह किस्सा सुनाते हैं, जब मैक्सिको के एक लेखक ने दूर अर्जेंटीना के एक गांव में कुछ मछुआरों को एक गीत गाते सुना. वे जाल डालते और गीत गाते जाते थे. आश्चर्य से भरकर लेखक ने मछुआरों से पूछा, ‘‘तुम्हें पता है यह गीत किसका है? क्या तुम पाब्लो नेरुदा को जानते हो?’’ अनपढ़ मछुआरे बोले, ‘‘कौन नेरुदा? हम तो बस इस गीत को जानते हैं.’’

बिज्जी धीरे से अपनी आंखों के कोर पोंछते हैं, ‘‘कितना महान था वह कवि कि जिसके गीत दूर देश के मछुआरे गाते थे.’’ ऐसी ही हैं बिज्जी की कहानियां. उनकी पहचान से भी बड़ी हो गईं. हवाओं में घुली हुईं, खेतों में समाई हुईं.

उनका तकरीबन पूरा साहित्य हिंदी में अनूदित हो चुका है. उनकी कहानियों पर दुविधा और परिणति जैसी फिल्में बनीं. हबीब तनवीर का प्रसिद्घ नाटक चरणदास चोर  उन्हीं की कहानी पर आधारित है. दुविधा  कहानी पर 2005 में अमोल पालेकर ने शाहरुख खान-रानी मुखर्जी को लेकर पहेली  फिल्म बनाई थी. कहानियों के इतने अकूत खजाने में से बिज्जी की कहानी पर ही फिल्म क्यों बनाई? यह सवाल पूछने पर अमोल पालेकर कहते हैं, ‘‘मुझे कोई दूसरी कहानी बताइए, जिसमें इतना रहस्य,रोमांच और रोमांस हो और साथ ही वह इतनी देशज भी हो.’’ इस फिल्म को फाइनेंस करने के अपने फैसले के बारे में शाहरुख खान कहते हैं, ‘‘मैं कहानी के जादू में बंध गया था.’’ बिज्जी को रानी मुखर्जी पसंद हैं. सचमुच किसी जवान दूल्हे जैसे मुस्कराते हुए वे कहते हैं, ‘‘गले लगाकर रानी ने कहा था,‘थैंक  यू सो मच.’’

बिज्जी की पूरी मौजूदगी अथाह प्रेम से भरी है. लेकिन जिस प्रेम को वे आज तक भुला नहीं पाए, वह हैं उनकी पत्नी सायर कंवर. वे कहते हैं, ‘‘हमेशा मुझसे लड़ती रहती थी. मैं लिखने में लगा रहता और उसकी तो बस एक ही रट, ‘‘खाना खा लो, खाना खा लो.’’ पता नहीं यह बुढ़ापे की कमजोरी है या कुछ और. सचमुच सायर का जिक्र करते ही बिज्जी की आंखें भर आई हैं. वे चुपके से आंखों के कोर पोंछते हैं. उनके बेटे ने शानदार घर बनवाया है. हर ओर समृद्घि की चमक है. मोजैक की फर्श, सागौन के दरवाजे, शीशम का फर्नीचर, खूबसूरत रंग-रोगन.

लेकिन बिज्जी आज भी घर के पिछवाड़े लोहे की सांकल, लकड़ी की खिड़की और दीवार में बने आले वाले उसी मामूली-से कमरे में रहते हैं, जिसमें अपनी पत्नी के साथ उन्होंने जिंदगी के 47 बरस गुजारे. कहते हैं, ‘‘कैसे भूल जाऊं, उसने किन तकलीफों में मेरा साथ दिया? धूप, गर्मी, बारिश और ठिठुरन में पास रही. और अब वह नहीं तो मैं अकेले सुंदर घर का सुख भोगूं? ये कैसे होगा?’’ बिज्जी तो उस दुनिया के वासी हैं, जहां जंगल में आग लगने पर हंस पेड़ों से कहते हैं, ‘‘हम तुम्हें छोड़कर क्यों उड़ जाएं? तुम्हारी छांह में हमने सुख पाया,फल खाया, जीवन पाया और अब जब संकट आया तो तुम्हें अकेला छोड़कर उड़ जाएं? ये न होगा.’’

एक बार बिज्जी की कहानियों से गुजरिए, फिर उनके व्यक्तित्व से. मामूली-सी फांस भी नहीं दिखती. राजा-रानी, राजकुमार, घोड़ा, चिडिय़ा, पेड़ उनकी कहानियों के पात्र हैं. उन्होंने 14 भागों में राजस्थानी लोककथाओं को संकलित किया है. लेकिन कहते हैं, ‘‘यह तो उस समुद्र की एक बूंद भी नहीं है.’’ चर्चित कथाकार राजेंद्र यादव बिज्जी के बारे में कहते हैं, ‘‘उनकी कहानियां हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं. वे आजीवन शोरगुल से दूर किसी साधक की तरह सृजन के काम में लगे रहे. बिज्जी जैसा कोई दूसरा नहीं.’’ टैगोर के बाद बिज्जी ही भारतीय उपमहाद्वीप के एकमात्र ऐसे लेखक हैं,जिनका नाम 2011 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ.

86 साल के बिज्जी बूढ़े और कमजोर हो गए हैं, मुश्किल से बोल पाते हैं. पढ़ भी नहीं सकते. किताबों को घंटों हाथ में लिए उसके अक्षरों पर उंगलियां फिराते रहते हैं. दुख में कहते हैं, ‘‘बिना इनके क्या जीवन?’’ मालचंद तिवाड़ी इन दिनों बिज्जी के साथ रहकर 14 भागों में फैली उनकी किताब बातां री फुलवारी का हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं और उनकी रोजमर्रा की बातों को एक डायरी में दर्ज भी कर रहे हैं. उनकी डायरी में लिखा है, ‘‘एक दिन अचानक बिज्जी बोले, ‘‘मृत्यु तो जीवन का शृंगार है. ये न हो तो कैसे काम चले? सोच, मेरे सारे पुरखे आज जिंदा होते तो क्या होता?’’ एक दिन बीकानेर के हरीश भादानी की मृत्यु पर तिवाड़ी की लिखी श्रद्घांजलि पढ़कर बोल उठे, ‘‘मुझ पर भी लिखकर पढ़ा दे मुझे. मरने के बाद तो दूसरे ही पढ़ेंगे, मैं कैसे पढूंगा?’’

ऐसे हैं बिज्जी. वे न होंगे तब भी हम उन्हें पढ़ेंगे. दुनिया उन्हें पढ़ेगी. अपनी बातों की फुलवारी में बिज्जी हमेशा रहेंगे.

 

साभार- इंडिया टुडे से

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स्टार प्लस पर नच बलिये 9 नवंबर से

स्टार प्लस अपने दर्शकों के लिये डांसिंग रीएल्टी शो नच बलिये सीजन 6 लेकर आ रहा है।    9 नवंबर से स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाले नच बलिये सीजन 6 में शिल्पा शेट्टी, साजिद खान और टेरेंस लुइस अपनी कसौटी पर प्रतियोगियों के डांस को परखेंगे।

 

इस शो में इस बार 11 सेलेबेट्री जोड़ी हिस्सा ले रही हैं। इन 11 जोड़ियों में अपनी नृत्य प्रतिभा लोगों के सामने रख सकेंगे। नच बलिये सीजन 6 को करण वाही और गौतम रोड़े होस्ट करने जा रहे हैं। यह शो लोकप्रिय मनोरंजक चैनल स्टार प्लस पर 9 नवंबर से शुरू किया जायेगा जो शनिवार और रविवार को प्राइम टाइम 9 बजे दिखाया जायेगा।

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शल्य चिकित्सा के पितामह थे आचार्य सुश्रुत

शल्य चिकित्सा (सर्जरी) के पितामह और सुश्रुतसंहिता के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में हुआ था। सुश्रुत का जन्म विश्वामित्र के वंश में हुआ था। इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की थी।

सुश्रुतसंहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे। ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे। इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। आठवीं शताब्दी में सुश्रुतसंहिता का अरबी अनुवाद किताब-इ-सुश्रुत के रूप में हुआ।
सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी। एक बार आधी रात के समय सुश्रुत को दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। उन्होंने दीपक हाथ में लिया और दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही उनकी नजर एक व्यक्ति पर पड़ी। उस व्यक्ति की आंखों से अश्रु-धारा  बह रही थी और नाक कटी हुई थी। उसकी नाक से तीव्र रक्त-स्राव हो रहा था। व्यक्ति ने आचार्य सुश्रुत से सहायता के लिए विनती की। सुश्रुत ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। उन्होंने उसे शांत रहने को कहा और दिलासा दिया कि सब ठीक हो जायेगा। वे अजनबी व्यक्ति को एक साफ और स्वच्छ कमरे में ले गए। कमरे की दीवार पर शल्य क्रिया के लिए आवश्यक उपकरण टंगे थे। उन्होंने अजनबी के चेहरे को औषधीय रस से धोया और उसे एक आसन पर बैठाया। उसको एक गिलास में मद्य भरकर सेवन करने को कहा और स्वयं शल्य क्रिया की तैयारी में लग गए। उन्होंने एक पत्ते द्वारा जख्मी व्यक्ति की नाक का नाप लिया और दीवार से एक चाकू व चिमटी उतारी। चाकू और चिमटी की मदद से व्यक्ति के गाल से एक मांस का टुकड़ा काटकर उसे उसकी नाक पर प्रत्यारोपित कर दिया। इस क्रिया में व्यक्ति को हुए दर्द का मद्यपान  ने महसूस नहीं होने दिया। इसके बाद उन्होंने नाक पर टांके लगाकर औषधियों का लेप कर दिया। व्यक्ति को नियमित रूप से औषाधियां लेने का निर्देश देकर सुश्रुत ने उसे घर जाने के लिए कहा।

सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ऑपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था।  सुश्रुत को टूटी हुई हड्डी का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी। शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियां देते थे।

सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया। प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे। मानव शरीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे।

सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया। उन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काया-चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी

कई लोग प्लास्टिक सर्जरी को अपेक्षाकृत एक नई विधा के रूप में मानते हैं। प्लास्टिक सर्जरी की उत्पत्ति की जड़ें भारत की सिंधु नदी सभ्यता से 4000 से अधिक साल से जुड़ी हैं।

इस सभ्यता से जुड़े श्लोकों को 3000 और 1000 ई.पू. के बीच संस्कृत भाषा में वेदों के रूप में संकलित किया गया है, जो हिन्दू धर्म की सबसे पुरानी पवित्र पुस्तकों में में से हैं। इस युग को भारतीय इतिहास में वैदिक काल के रूप में जाना जाता है, जिस अवधि के दौरान चारों वेदों अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को संकलित किया गया। चारों वेद श्लोक, छंद, मंत्र के रूप में संस्कृत भाषा में संकलित किए गए हैं और सुश्रुत संहिता को अथर्ववेद का एक हिस्सा माना जाता है।

सुश्रुत संहिता, जो भारतीय चिकित्सा में सर्जरी की प्राचीन परंपरा का वर्णन करता है, उसे भारतीय चिकित्सा साहित्य के सबसे शानदार रत्नों में से एक के रूप में माना जाता है। इस ग्रंथ में महान प्राचीन सर्जन सुश्रुत की शिक्षाओं और अभ्यास का विस्तृत विवरण है, जो आज भी महत्वपूर्ण व प्रासंगिक शल्य चिकित्सा ज्ञान है।

प्लास्टिक सर्जरी का मतलब है- शरीर के किसी हिस्से की रचना ठीक करना। प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक का उपयोग नहीं होता है। सर्जरी के पहले जुड़ा प्लास्टिक ग्रीक शब्द प्लास्टिको से आया है। ग्रीक में प्लास्टिको का अर्थ होता है बनाना, रोपना या तैयार करना। प्लास्टिक सर्जरी में सर्जन शरीर के किसी हिस्से के उत्तकों को लेकर दूसरे हिस्से में जोड़ता है। भारत में सुश्रुत को पहला सर्जन माना जाता है। आज से करीब 2500 साल पहले युद्ध या प्राकृतिक विपदाओं में जिनकी नाक खराब हो जाती थी, आचार्य सुश्रुत उन्हें ठीक करने का काम करते थे।   

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मूवीज नॉऊ पर शानदार फिल्में, एक नए अंदाज़ में, हर शनिवार रात 11 बजे

इस नवंबर, मूवीज नॉऊ प्रस्तुत करता है एक्स-मैन की असीम ताकत को! 9 नवंबर से शुरू हो रही है ये सीरिज, हर शनिवार को रात 11 बजे दिखाई जाएगी, और सर्वाधिक लोकप्रिय म्यूटेंट्स अपनी सशक्त ताकतों से आपको स्तब्ध कर देंगे! सर्वाधिक लोकप्रिय सुपरहीरो फ्रैंचाइज में से एक की पूरी सीरिज को देखने के लिए तैयार रहें।

रोचक तथ्य

रिबेका रोमीजिन (मिस्टिक) के प्रोस्थेटिक मैकअप में 9 घंटे लगते थे। वे वाइन नहीं पी पाती थी और स्किन क्रीम्स का इस्तेमाल करती थी या शूटिंग से पहले दिन फ्लाइट पकड़ती थीं क्योंकि इससे इससे उनके शरीर की कैमिस्ट्री में हल्के बदलाव आते थे, इसके चलते उनकी त्वचा पर करीब 110 प्रोस्थेटिक्स का उपयोग किया गया।

एक्स-मैन लास्ट स्टैंड के विस्तृत विशेष प्रभावों के लिए 11 अलग अलग कंपनियों ने काम किया। इस सीरिज में ये फिल्म वित्तीय तौर पर सर्वाधिक सफल फिल्म भी रही।

तीन प्रकार के वुल्वरीन ब्लेड्स का उपयोग किया गया-प्लास्टिक, लकड़ी और स्टील, वहीं ह्यूग जैकमैन और उनके चार स्टंट डबल्स ने 700 से अधिक व्यक्तिगत क्लाउव ब्लेड्स का इस्तेमाल किया।

शानदार कॉमिक सीरिज, एक्स-मैन पर आधारित ये सीरिज ना सिर्फ सभी का मनोरंजन करती है बल्कि इस फिल्म ने दर्षकों के दिल में एक खास जगा अर्जित की है। इनोवेटिव चरित्र, विज्ञान फंतासी पर आधारित कहानी और म्यूटेंट्स की असीमित सुपर पॉवर्स के साथ ये मूवी आपके दिल की धड़कन को तेज करने में पूरी तरह से समर्थ है।

क्या आपने कभी सोचा है कि अगर आपके पास वुल्वरीन, साइक्लोपस और स्टोर्म जैसी “ाक्तियां होती तो आप क्या करते? मिस्टिक या फीनिक्स ज्यादा दमदार है, इस पर आपने कभी लड़ाई की? क्या आपने कभी उत्तेजित होकर अपने दोस्त को ताली दी जब मैगनेटो और प्रोफेसर एक्स की जंग चल रही थी? आपके हर वीकएंड को रोमांचक बनाने के लिए देखिए अल्टीमेट एक्समैन हर शनिवार को रात 11 बजे से।

एक्स-मैन के सफर की शुरुआत से ही इसका हिस्सा बने। उन्हें अपनी क्षमताओं के विस्तार के लिए प्रशिक्षण लेते हुए देखें और आखिर में अपने दल को चुनते देखिए। देखिए कैसे एक्स-मैन अपना सब कुछ न्यौछावर करके, अपनी ही जाति-ब्रदरहुड से लड़ बैठता है जब म्यूटेंटस और मानवजाति के बीच की लड़ाई बढ़ जाती है। इस संपूर्ण सीरिज को चूकिए मत जिसमें शामिल हैं-एक्स-मैन, एक्स2-एक्स-मैन यूनाइटेड, एक्स-मैन लास्ट स्टैंड, एक्स-मैन ओरिजंसरू वुल्वरीन, एक्स-मैन फस्र्ट क्लास।

बेहद रोमांचक कहानी के अलावा इस सीरिज को और भी मजेदार बनाती है इसकी स्टार कास्ट जिनमें हयू जैकमैन, हैली बेरी, ईयन मैक्कलेन, जेम्स मार्सडेन, पैट्रिक स्टुअर्ट, रिबेका रोमीजिन, फामक जनसेन, जेम्स मैक्एवॉय, जैनिफिर लॉरेंस, माइकल फासबेंडर और भी बहुत सारे शामिल हैं। तो तैयार रहें मूवीज नॉऊ पर म्यूटेंट मूवमेंट पर सुपर ताकतों को देखने के लिए, जिन पर बनी सीरिज ने पूरे विश्व में 2 बिलियन डॉलर से अधिक की कमाई की है।

तो अपना पूरा गैंग बना कर मूवीज नॉऊ पर हर शनिवार रात 11 बजे अपने पसंदीदा म्यूटेंट् को समर्थन देंगे!

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भारतीय फौजियों को मारने वाले फौजी का बेटा अदनान सामी भारत का मेहमान कैसे?

1965 और 1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी वायुसेना से लड़े फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी के पुत्र हैं अदनाम सामी।  अदनान एक अर्से से भारत में वीसा की तिथि बढ़वाकर रह रहे हैं और पैसा बना रहे हैं।  भारत के किसी गायक को पाकिस्तान सरकार अपने यहां आकर गाने का मौका नहीं देती

पहले एक सवाल। क्या कारगिल या उससे पहले 1965 या 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग के नायक के पुत्र या पुत्री को पाकिस्तान में 'सेलिब्रिटी' का दर्जा मिल सकता है ? जरा सोचिए। सोचने के बाद आप कहेंगे ह्य कतई नहीं।' जाहिर है,आप इस तरह की उम्मीद नहीं कर सकते कि पाकिस्तान के साथ हुई जंग के किसी भारतीय नायक को या उसकी संतान को पाकिस्तान में कोई सम्मानजनक स्थान मिलेगा। ये भी लगभग नामुमकिन है कि भारतीय सेना के किसी योद्घा का अस्वस्थ होने पर पाकिस्तान में इलाज हो। पर यह सब भारत में हुआ और हो रहा है। बरसों से हो रहा है।

अब असली मुद्घे पर आते हैं। फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान को पाकिस्तान अपने सबसे आदरणीय योद्घाओं की श्रेणी में रखता है। वे उन्हीं अदनान सामी के पिता थे, जो गीत-संगीत से ज्यादा घरेलू पचड़ों में फंसे रहते हैं। हाल ही में अदनान सामी को भारत छोड़ने के लिए भी कहा गया था। उनका भारत में प्रवास का वीजा समाप्त हो गया था। उसका नवीनीकरण नहीं हुआ था। बाद में उन्होंने अपील की तो मामला सुलझता नजर आ रहा है। यानी वे भारत में आगे भी रहते रहेंगे।

अब फिर फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान पर लौटते हैं। उनका खास तौर पर उल्लेख पाकिस्तानी वायुसेना के संग्रहालय और वेबसाइट में किया गया है। उनके चित्र के साथ उनकी बहादुरी का बखान करते हुए कहा गया है, ह्यफ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान ने भारत के खिलाफ 1965 की जंग में शत्रु (भारत) के एक लड़ाकू विमान,15 टैंकों और 12 वाहनों को नष्ट किया। वे रणभूमि में विपरीत हालतों के बावजूद शत्रु की सेना का बहादुरी से मुकाबला करते रहे। फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान को उनकी बहादुरी के लिए सितारा-ए-जुर्रत से नवाजा जाता है।ह्ण स्वाभाविक रूप से फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान के संबंध में किए गए इस दावे की जांच की जरूरत नहीं है। सभी देश अपने योद्घाओं के रणभूमि के कारनामों को महिमामंडित करते हैं। पाकिस्तान तो इस तरह के दावों को करने में बहुत आगे रहा है।

फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान वायुसेना से रिटायर होने के बाद भी पाकिस्तान के सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे। डेनमार्क और नार्वे में राजदूत भी रहे। वे पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों क्रमश:  गुलाम इसहाक खान, फारुख लेगारी और प्रधानमंत्रियों, बेनजीर भुट्टो,गुलाम मुस्तफा जोतोई और नवाज शरीफ के निजी स्टाफ में भी रहे। यानी पाकिस्तान में उनका एक अहम रुतबा रहा। उन्हें 14 अगस्त, 2012 में मरणोपरांत सितारा-ए-इम्तियाज से भी सम्मानित किया गया। बहरहाल, फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान को अपने मुल्क में जितना भी सम्मान मिले, इससे हमें क्या फर्क पड़ता है।

पर आप हैरान होंगे कि उसी फ्लाइट लेफ्टिनेंट सामी की किताब का विमोचन राजधानी नई दिल्ली में होता है। ये बात है 28 फरवरी,2008 की। पुस्तक का नाम था- थ्री प्रेसिडेंट एंड… लाइफ पवर एंड पलिटिक्स।

उस विमोचन के मौके पर पूर्व प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल और पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह समेत राजधानी के सेमिनार सर्किट के तमाम नामी-गिरामी लोग मौजूद थे। गुजराल ने किताब का विमोचन किया। उन्होंने भारत-पाकिस्तान संबंधों पर अपने ख्यालात रखे। सामी अपनी किताब पर बोले। कुछ लोगों ने भारत-पाक संबंधों पर सवाल पूछे। उन्होंने अमन और बातचीत की वकालत की। पर, वे 1965 की जंग से जुड़े किसी भी मसले पर बात करने के लिए तैयार नहीं थे। वे अंग्रेजी,उर्दू और पंजाबी में गुफ्तुगू कर रहे थे। वहां पर ही पता चला कि सामी कौन हैं और अदनान सामी का उनसे क्या संबंध है। अदनान सामी उस कार्यक्रम में मौजूद नहीं थे।

 उसके बाद एक रोज खबर आई कि फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान का मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में निधन हो गया। वे केंसर से पीडि़त थे। पाकिस्तान और कुछ और देशों में इलाज चला था। उसके बाद अदनान सामी उन्हें इलाज के लिए मुंबई ले आए। तब ये बात काफी दिनों तक दिल के किसी कोने में चलती रही कि क्या हमारा दिल इतना विशाल है, कि हम उसे भी अपना अतिथि बनाने-मानने के लिए तैयार हो जाते हैं, जिसने हमारे खिलाफ जंग लड़ी हो? क्या 1971 की जंग के भारतीय नायक सैम मानेकशाह को पाकिस्तान में अपनी पुस्तक विमोचित करने का मौका मिलता?  क्या उनके या उनके जैसे किसी भारतीय योद्घा की संतान को पाकिस्तान में वही दर्जा मिल सकता था,जो हमने अदनान सामी को अपने यहां दिया है?

फ्लाइट लेफ्टिनेंट अरशद सामी खान की पुस्तक के विमोचन से लेकर उनका भारत में अपना इलाज करवाना और भारत की सरजमीं पर अंतिम सांसें लेना इस बात की गवाही हैं कि हम अलग हैं। क्या ये कोई मामूली बात है।  इसलिए हम चाहें तो अपने इन्क्रेडिबल इंडिया का नागरिक होने का दावा कर सकते हैं।

पिछले दिनों जब पाकिस्तान के गायक अदनान सामी के भारत छोड़ने संबंधी खबरें आईं तो उनके अब्बा का ख्याल बरबस ही तैर आ गया। उस कार्यक्रम का सारा माहौल भी दिमाग में फिर से जीवंत होने लगा। तब लगा कि जिस शख्स को भारत के खिलाफ बहादुरी से जंग लड़ने पर सम्मानित किया गया हो, उसके पुत्र को देश छोड़ने के लिए कहना कितना उचित है। वह तो करीब डेढ़ दशक से भारत में रह रहा है। यहां पर गीत-संगीत की दुनिया में अपने लिए एक मुकाम बना भी चुका है। मतलब यह कि अदनान सामी को तो अब हम अपना ही मानते हैं।  

सबसे आश्चर्य और क्षोभ इस बात का है कि जो शिव सेना और मनसे केंद्रीय सरकार की नौकरी के लिए आए दिन मुंबई से बाहर से आने वाले गरीब उत्तर भारतीयों और बिहारी छात्रों पर डंडेलेकर कूद पड़ती है वही शिव सेना और मनसे अदनान सामी को लेकर रहस्यमीय रूप से चुप बैठी है, और अदनान सामी भीरतीय टीवी चैनलो से लेकर देश भर में जगह-जगह कार्यक्रम देकर करोड़ों रूपये की कमाई कर रहा है। अदनान सामी ने लोखंडवाला की जिस बिल्डिंग में पूरा फ्लौर खरीद रखा है उसकी कीमत ही 100 करोड़ से कम नहीं होगी और उसका हर महीना का मैंटेनेंस ही 5 लाख रु. होता है। तो सवाल है कि अखिर अदनान सामी के हाथ ऐसा कौनसा खजाना लगा है कि उसने कुछ ही सालों में हमारे देश में करोड़ों की जायदाद बना ली और लाखों रुपये महीना सोसायट को मैंटेनेंस के नाम से देता है।

साभारः साप्ताहिक पाञ्जन्य से

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शाकाहारी व्यंजंनों की महारानी तरला दलाल नहीं रही

देश की जानी-मानी सेलेब्रिटी शेफ और खानपान पर लिखने वाली तरला दलाल का बुधवार को निधन हो गया। वह कुछ दिन से बीमार थीं। देश के कई हिस्सों में जब टेलीविजन नहीं पहुंचा था, तरला दलाल अपनी रेसिपी से पहुंची। उन्होंने कुकिंग पर 100 से ज्यादा किताबें लिखी हैं और 2007 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।

देश की पहली मास्टरशेफ तरला ने कुकरी शो के जरिए लोगों के दिलों में जगह बनाई। तरला दलाल के फेसबुक पर यह मैसे‌ज लिखा गया था, "हम तरला दलाल के करियर के तमाम सालों में आपसे मिली मोहब्बत और सहयोग के लिए धन्यवाद देते हैं। वह अब हमारे बीच नहीं रही हैं और सवेरे उनका देहांत हुआ। हम उन तमाम खुशियों के लिए उनका शुक्रिया अदा करते हैं, जो उनके टैलेंट ने हमें और हमारे परिवारों को दीं।"

'खाना खजाना' वाले संजीव कपूर ने इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहा, "तरला दलाल पहली शख्स थीं, जिन्होंने कुकिंग की कला को सामने रखा। उनका जाना बड़ा नुकसान है।"

दलाल की कुल 30 लाख से ज्यादा किताबें बिकी हैं और उनकी रसोई की वजह से देश को कई नए स्वाद, व्यंजन और खुशबू का अहसास हुआ। वह खास तौर से अपने शाकाहारी व्यंजनों के लिए जानी जाती हैं।

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