Wednesday, May 1, 2024
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भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती उत्पादों की मांग

भारत में आज भी लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है एवं अपने जीवन यापन के लिए मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र पर ही आश्रित रहती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किये जा रहे विकास कार्यों के चलते इन क्षेत्रों में विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत व्यय की जाने वाली राशि में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है। इससे, ग्रामीण क्षेत्रों में भी रोजगार के नए अवसर निर्मित होने लगे हैं एवं ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कुछ कम हुआ है। विशेष रूप से कोरोना महामारी के खंडकाल में शहरों से ग्रामीण इलाकों की ओर शिफ्ट हुए नागरिकों में से अधिकतर नागरिक अब ग्रामीण क्षेत्रों में ही बस गए हैं एवं अपने विशेष कौशल का लाभ ग्रामीण क्षेत्रों में नागरिकों को प्रदान कर रहे हैं।

हाल ही में जारी किए गए कुछ सर्वे प्रतिवेदनों के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोग की एक नई कहानी लिखी जा रही है क्योंकि अब विभिन्न उत्पादों की मांग ग्रामीण क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती दिखाई दे रही है। उपभोक्ता वस्तुओं एवं ऑटो निर्माता कम्पनियों द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में हाल ही के समय में उपभोग की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं एवं दोपहिया एवं चार पहिया वाहनों (ट्रैक्टर सहित) की मांग में तेजी दिखाई दे रही है, जो कि वर्ष 2023 में लगातार कम बनी रही थी। यह संभवत: रबी फसल के सफल होने के चलते भी सम्भव हो रहा है।

उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने भी हाल ही में सम्पन्न अपनी द्विमासिक मोनेटरी पॉलिसी की बैठक में रेपो दर में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं की है, ताकि बाजार, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के बाजार में, उत्पादों की मांग विपरीत रूप से प्रभावित नहीं हो, ताकि इससे अंततः वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश के आर्थिक विकास की दर भी अच्छी बनी रहे।

भारत में पिछले कुछ समय से ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न उत्पादों की मांग, शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध मांग की तुलना में कम ही बनी रही है। परंतु, वित्तीय वर्ष 2023-24 की तृतीय तिमाही के बाद से इसमें कुछ परिवर्तन दिखाई दिया है एवं अब ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग में तेजी दिखाई देने लगी है। यह तथ्य विकास के कुछ अन्य सूचकांकों से भी उभरकर सामने आ रहा है। जनवरी-फरवरी 2024 माह में दोपहिया वाहनों की बिक्री में, पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान की बिक्री की तुलना में, 30.3 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की गई है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान दोपहिया वाहनों की बिक्री में 9.3 प्रतिशत की वृद्धि दर रही है, जो हाल ही के कुछ वर्षों में अधिकतम वृद्धि दर मानी जा रही है। दोपहिया वाहनों की बिक्री ग्रामीण इलाकों (लगभग 10 प्रतिशत) में शहरी इलाकों (लगभग 7 प्रतिशत) की तुलना में अधिक रही है। महात्मा गांधी नरेगा योजना के अंतर्गत प्रदान किए जाने वाले रोजगार के अवसरों की मांग में भी फरवरी-मार्च 2024 माह के दौरान 9.8 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में निवासरत नागरिकों को रोजगार के अवसर अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध हो रहे हैं। इसी प्रकार, ट्रैक्टर की बिक्री में भी जनवरी-फरवरी 2024 माह के दौरान 16.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में कुल 892,313 ट्रैक्टर की बिक्री हुई है जो पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 की तुलना में 7.5 प्रतिशत अधिक है।

भारत के मौसम विभाग द्वारा जारी की गई भविष्यवाणी के अनुसार, वर्ष 2024 के मानसून मौसम के दौरान भारत में मानसून की बारिश के सामान्य से अधिक रहने की प्रबल सम्भावना है। इससे भारत के किसानों में हर्ष व्याप्त है क्योंकि मानसून के अच्छे होने से खरीफ की फसल के भी बहुत अच्छे रहने की सम्भावना बढ़ गई है। मौसम विभाग के सोचना है कि इस वर्ष अल नीनो के स्थान पर ला नीना का प्रभाव दिखाई देगा। अल नीनों के प्रभाव में देश में बारिश कम होती है एवं ला नीना के प्रभाव में देश में बारिश अधिक होती है। साथ ही, भारतीय किसान अब तिलहन, दलहन एवं बागवानी की फसलों की ओर भी आकर्षित होने लगे हैं। दालों, वनस्पति, फलों एवं सब्जियों के अधिक उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि दृष्टिगोचर है। केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न खाद्य उत्पादों की बिक्री के लिए ई-पोर्टल के बनाए जाने के बाद से तो भारतीय किसान अपनी फसलों को वैश्विक स्तर पर सीधे ही बेच रहे हैं और अपने मुनाफे में वृद्धि दर्ज कर रहे हैं। भारतीय खाद्य पदार्थों की मांग अब वैश्विक स्तर पर भी होने लगी है एवं खाद्य पदार्थों के निर्यात में भी नित नए रिकार्ड बनाए जा रहे हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग सामान्यतः अच्छे मानसून के पश्चात अच्छी फसल एवं विभिन्न सरकारों, केंद्र एवं राज्य सरकारों, द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यों पर किए जा रहे खर्चो में बढ़ौतरी के चलते ही सम्भव होती है। केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लागू की गई विकास की विभिन्न योजनाओं पर व्यय में लगातार वर्ष दर वर्ष वृद्धि की जा रही है एवं इसके लिए केंद्रीय बजट में भी बढ़े हुए व्यय का प्रावधान प्रति वर्ष किया जा रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर निर्मित हो रहे हैं एवं इन इलाकों में विभिन्न उत्पादों की मांग भी बढ़ती हुई दिखाई दे रही है।

नीलसन द्वारा किए गए एक सर्वे के यह बताया गया है कि जनवरी एवं फरवरी 2024 माह में भारत में विभिन्न उत्पादों की शहरी क्षेत्रों में मांग 1.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में मांग 2.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। विशेष रूप से फरवरी 2024 के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग में वृद्धि लगातार बढ़ती दिखाई दे रही है। रबी की फसल के भी अच्छे रहने की सम्भावना बलवती हुई है जिसके कारण किसानों की मनोदशा भी सकारात्मक बन रही है और यह वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश की आर्थिक वृद्धि दर को बलवती करने के मुख्य भूमिका निभाने जा रही है। आज देश की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है यदि ग्रामीण क्षेत्रों में निवासरत नागरिकों की मनोवृत्ति सकारात्मक हो रही है तो निश्चित ही वित्तीय वर्ष 2024-25, आर्थिक विकास की दृष्टि से अतुलनीय परिणाम देने वाला वर्ष साबित होने जा रहा है।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक हैं और विभिन्न विषयों पर लिखते रहते हैं।)

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जितेन्द्र निर्मोही को अमराव देवी पहाड़िया राजस्थानी गद्य का शीर्ष पुरस्कार

कोटा। नेम प्रकाशन डेह राजस्थानी भाषा पुरस्कार 2024 की घोषणा आज विधिवत कर दी गई है। राजस्थानी भाषा साहित्य के उन्नयन एवं संवर्धन हेतु उक्त संस्था द्वारा लगभग चौबीस पुरस्कार विभिन्न विधाओं के अंतर्गत समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के नाम से दिए जाते हैं।

इसके अंतर्गत राजस्थानी भाषा का शीर्ष गद्य पुरस्कार जो अमरा देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार के नाम से दिया जाता है। वर्ष 2024 का अमराव देवी पहाड़िया स्मृति राजस्थानी गद्य पुरस्कार 2024 कोटा के वरिष्ठ साहित्यकार जितेन्द्र निर्मोही को उनकी आलेख कृति ” राजस्थानी काव्य में सिणगार” के लिए दिया जाएगा।इस कृति में प्राचीन काल से लेकर आज़ तक के श्रृंगार काव्य की विवेचना की गई है। इसमें हाड़ौती अंचल की नई और पुरानी पीढ़ी पर भी आलेख है।

समारोह डेह नागौर में 9 जून को आयोजित किया जाना संभावित है। कार्यक्रम संयोजक पवन पहाडिया ने अवगत कराया कि उक्त पुरस्कार अंतर्गत ग्यारह हजार रुपए शाल श्रीफल और सम्मान पत्र प्रदान किया जाकर साहित्यकार को समादृत किया जाएगा। ज्ञातव्य है कि जितेन्द्र निर्मोही को इससे पूर्व उनके राजस्थानी उपन्यास ” रामजस की आतमकथा” पर रोटरी क्लब बीकानेर से खींवराज मुन्ना लाल सोनी राजस्थानी गद्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।

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फ़िल्म “प्यार के दो नाम” का ट्रेलर रिलीज़

रिलायंस एंटरटेनमेंट प्रस्तुत और दानिश जावेद द्वारा निर्देशित “प्यार के दो नाम” का ट्रेलर रिलीज़ किया गया हैं। फ़िल्म में भव्या सचदेवा और अंकिता साहू मुख्य भूमिका में हैं फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ या ‘एक दूसरे के साथ’ टैग लाइन पर आधारित हैं । इश्क़ सुभानअल्लाह, सूफियाना, प्यार मेरा एवं सन्यासी मेरा नाम जैसे रोमांटिक धारावाहिक एवं फिल्मों के लेखक दानिश जावेद द्वारा निर्देशित फ़िल्म “प्यार के दो नाम” एक आधुनिक प्रेम कहानी हैं जो युवाओं के बीच में प्यार को लेकर आधुनिक सोच को बहुत ही इमोशनल तरीके से प्रस्तुत करती हैं ।

फ़िल्म के ट्रेलर की शुरुआत मुख्य अभिनेत्री के एक संवाद से होती हैं “फ़िल्म की प्यार एक हादसा हैं जो कभी भी किसी से हो सकता हैं । बैकग्राउंड में एक अनाउंसमेंट होती हैं आज के इस मुकाबले में हमे नेल्सन मंडेला और महात्मा गांधी में से किसी एक को पीस लीडर चुनना हैं। ट्रेलर के अगले हिस्से में आर्यन खन्ना कहते हैं मंडेला जी की ज़िंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा, हिंसा के ज़रिए अपनी जंग लड़ने में गया। फिर कयारा सिंह कहती हैं महात्मा गांधी अहिंसा वादी थे उन्होंने कभी भी शांति के लिए हिंसा का समर्थन नहीं किया।

कायरा सिंह की माँ सवाल करती है “कितने सारे लड़के तेरे आगे हाथ बढ़ाते हैं मगर तू किसी का भी हाथ नहीं थामती । तो वह जवाब देती हैं कि मैं बिना सोचे समझे मैं अपना हाथ किसी लड़के नहीं सौपेंगी।

ट्रेलर के दूसरे हिस्से में आर्यन खन्ना कहता हैं “तुम्हारी खूबसूरत आँखें मुझे सोने नहीं देती तुम्हारा यह चेहरा मुझे चैन नहीं लेने देता। एक और प्रेमी जोडे के बीच बहस होती हैं हमारी शादी इम्पॉसिबल हैं कबीर, टीवी डिबेट होगी, कुछ लोग मेरे घर के सामने प्रदर्शन करेंगे और कुछ लोग तुम्हारे घर के सामने धरना देंगे। इस का जवाब देते हुए लड़का कहता हैं “हम इस समाज को छोड़ देंगे कही दूर चले जाएँगे। ट्रेलर के इस हिस्से से दो प्रेमियों के बीच मजहब की दीवार की बात होती हैं। कुछ रोमांटिक विज़ुअल्स के बाद एक संवाद आता हैं मैं तुमसे प्यार करने लगी थी आर्यन। और आर्यन कहता हैं मैं अपने पूरे साथ जन्म तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ।

ट्रेलर के आख़िरी संवाद “अब चाहे एक पाल हो या एक जिंदगी मैं तुमसे प्यार नहीं कर सकती” फ़िल्म का २ मिनट और ३७ सेकंड का ट्रेलर टाइटल ट्रैक के यह ट्रेलर एक फ्रेश लव स्टोरी का एहसास कराता हैं । ट्रेलर में दो मधुर गाने भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

रिलायंस एंटरटेनमेंट और जोकुलर एंटरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड की फ़िल्म “प्यार के दो नाम” में मुख्य भूमिका में भव्या सचदेवा , अंकिता साहू के साथ कनिका गौतम, अचल टंकवाल , दीप्ति मिश्रा , नमिता लाल प्रमुख भूमिकाओं में नज़र आएँगे । फ़िल्म के निर्माता विजय गोयल और दानिश जावेद है, और सह निर्माता शहाब इलाहाबादी है। फ़िल्म के लेखक निर्देशक दानिश जावेद हैं इस अनोखी लव स्टोरी का संगीत अंजन भट्टाचार्य और शब्बीर अहमद ने तैयार किया है और गीतों को दानिश जावेद और वसीम बरेलवी ने लिखा हैं । गीतों को जावेद अली, ऋतु पाठक, राजा हसन और स्वाति शर्मा ने गाया हैं।

फ़िल्म के लेखक निर्देशक दानिश जावेद ने कहा कि यह फ़िल्म विश्व के दो महान नेताओं के सिद्धांतों पर आधारित आज की प्रेम कहानी हैं। यह पहली प्रेम कहानी हैं जो आज के युवाओं के प्रेम की बात करती हैं ।

फ़िल्म के निर्माता विजय गोयल ने कहा कि ”इस फ़िल्म, प्यार के दो नाम महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला के प्रेम दर्शन के बीच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कैंपस में एक अनोखी लव स्टोरी हैं।

फ़िल्म की शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान के सम्मान में “विश्व शांति नेता” को चुनने के लिए एक सेमिनार की घोषणा के साथ होती हैं। कायरा सिंह और आर्यन खन्ना भी सेमिनार में भाग लेने आए हैं। पहली मुलाकात में दोनों के बीच खट्टी-मीठी लड़ाई शुरू हो जाती है, यहीं से दो विचारधाराओं का टकराव शुरू होता है। जहां कायरा इस बात पर अड़ी है कि अगर प्यार है तो हमें जिंदगी भर साथ रहना होगा, वहीं आर्यन का मानना है कि जब तक प्यार है, हम साथ रहेंगे, प्यार खत्म, साथ खत्म। ३ मई को “प्यार के दो नाम” देशभर के सिनेमागृहों में रिलीज होगी।

ट्रेलर लिंक

 

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चित्रनगरी संवाद मंच में लेखन और अभिनय की चुनौतियों पर चर्चा

चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई के सृजन संवाद में रविवार को प्रतिष्ठित कथाकार धीरेंद्र अस्थाना अपनी जीवन संगिनी ललिता अस्थाना के साथ पधारे। कथाकार सूरज प्रकाश और देवमणि पांडेय ने उनसे संवाद किया। धीरेंद्र जी ने देहरादून से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई तक के अपने पत्रकारिता कैरियर और रचनात्मक सफ़र को रोचक तरीके से बयान किया। अपनी लेखन यात्रा में उन्होंने अपनी जीवन संगिनी ललिता जी के योगदान को भी रेखांकित किया। कहानी की रचना प्रक्रिया के संदर्भ में धीरेंद्र जी ने कई महत्वपूर्ण बातें साझा कीं।

सूरज प्रकाश ने उनकी कहानी के पात्रों पर सवाल किया। धीरेंद्र जी ने बताया- “अपनी चर्चित कहानी ‘बहादुर को नींद नहीं आती’ लिख तो मैंने कुछ घंटों में ली थी। लेकिन उस पर मेरा होमवर्क पूरे दस साल चला। मैंने अपनी और अन्य अनेक सोसायटी के वाचमैनों से लगभग मित्रता जैसी की। उनके सुख-दुख में शामिल हुआ। उनसे जुड़े हर ब्यौरे का बारीकी से अध्ययन किया। उनके संघर्षों को ही नहीं, उनके सपनों को भी पकड़ा। इस सबमें पूरे दस साल निकल गए और उसके बाद जब कहानी लिखी और फिर छपी तो धमाल हो गया। कम से कम सौ लेखकों पाठकों ने फोन कर कहा कि यह तो उनकी सोसायटी के वाचमैन की कहानी है।”

धीरेंद्र जी ने कई श्रोताओं के सवालों के जवाब दिए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने ने बताया कि दिल्ली बहुत निर्मम और मुंबई बहुत दिलदार शहर है।

दूसरे सत्र में अभिनय की चुनौतियों पर चर्चा करते हुए अभिनेता शैलेंद्र गौड़ ने अपने गृहनगर मुजफ्फरनगर के शैक्षिक माहौल से लेकर दिल्ली में इब्राहिम अलकाज़ी के सानिध्य में अपनी रंगमंचीय सक्रियता को विस्तार से पेश किया। वीर सावरकर फ़िल्म में सावरकर की मुख्य भूमिका के लिए अपने संघर्ष का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अंडमान की जेल में फ़िल्माए गए फ़िल्म के उन दृश्यों को याद किया जब उन्हें सिर्फ़ चड्डी पहन कर कोल्हू चलाना पड़ता था। एक अभिनेता विभिन चरित्रों को कैसे आत्मसात करता है इस पर उन्होंने सलीक़े से अपना पक्ष रखा।

शैलेंद्र गौड़ ने श्रोताओं के कई सवालों के जवाब भी दिए। एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि सावरकर की भूमिका के कारण उन्हें एक ख़ास विचारधारा का समझ लिया गया और सिने जगत में उनके कैरियर को नुक़सान पहुंचा। शुरुआत में सविता दत्त ने शैलेंद्र गौड़ का परिचय पेश किया। अंत में लोकप्रिय उदघोषक आरजे प्रीति गौड़ ने मंटो की तीन लघुकथाओं का पाठ असरदार ढंग से किया। इस अवसर पर पत्रकारिता और लेखन जगत के कई महत्वपूर्ण क़लमकार उपस्थित थे।

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फिल्मी चकाचौंध के पीछे कला, संस्कृति और भाषा का सौंदर्य बोध

वह कौन सा साल था याद नहीं. दूरदर्शन पर ऋत्विक घटक की फिल्में दिखाई जा रही थीं. रात करीब पौने ग्यारह बजे से ‘मेघे ढाका तारा’ दिखाई जानी थी. उम्र कम थी मगर किताबों-पत्रिकाओं की बदौलत निर्देशक के बारे में थोड़ा-बहुत जान गया था. टीवी की श्वेत-श्याम छवियों की उजास और परछाइयां उस अंधेरे कमरे में फैलती-सिटमती रहती थीं. मां मेरे साथ देखते-देखते जाने कब सो गईं. मुझे फ़िल्म समझ में नहीं आ रही थी मगर जाने किस सम्मोहन में बंधा पूरी फ़िल्म देखता जा रहा था. फिर एक वक्त आया जब खुले श्यामल आकाश के नीचे फ़िल्म की नायिका नीता की आर्त पुकार सुनाई देती है, “दादा, आमी बाचते चाई…”. कुछ समझ में नहीं आया मगर उस अनजान भाषा में उफनती बेचैनी मेरे भीतर घर कर गई. उसके बाद एक लंबा अर्सा गुजर गया. फिल्म भूल गई मगर सालों तक वो आवाज़ मेरे साथ रही, “दादा, आमी बाचते चाई…”.
कुछ आवाज़ें आपका जीवन भर पीछा करती हैं…
भाषाओं से परे, इन आवाज़ों में एक संगीत होता है, एक नाद, एक रिदम… जहां से वे हमारे लिए अर्थ ग्रहण करती हैं. उन अनजान ध्वनियों में कोई नया अर्थ है. यह अर्थ शब्दातीत होता है. ठीक उसी तरह जैसे किसी परिंदे की आवाज, या बादलों की गरज, या भरी दोपहर में मक्खियों की भनभनाहट. बांग्ला भाषा के इस सौदर्य से मेरा सबसे गहरा परिचय निःसंदेह सत्यजीत रे की फिल्मों से हुआ होगा.
जब उन्हें ऑस्कर मिला था तो उनकी एक-दो छोड़कर लगभग सभी फ़िल्में दूरदर्शन पर दिखाई गई थीं. ‘चारुलता’ फिल्म में बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया गीत “फुले फुले ढोले ढोले” सुनते हैं जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के एक गीतिनाट्य ‘कालमृगोया’ से लिया गया था. दोपहर की खामोशी में झूले पर गुनगुनाती नायिका की बहुत हल्की अस्पष्ट सी आवाज, उस पंख सी हल्की, जो नीचे घास पर लेटे नायक के हाथों में है. धीरे-धीरे आवाज़ स्पष्ट होती जाती है. जिन्होंने भी ‘चारुलता’ देखी, झूले की लय के साथ वो गुनगुनाहट उन्हें हमेशा के लिए याद रह गई होगी.
इसके बिल्कुल उलट संदर्भ में याद रह जाता है फिल्म ‘प्रतिद्वंद्वी’ का वो दृश्य जब नायक इंटरव्यू देने जाता है. बहुत ही कुशलतापूर्वक संपादित दृश्यों के इस कोलाज़ में अचानक नायक से एक प्रश्न टकराता है, “व्हाट इज़ द वेट ऑफ द मून?” वह हैरत में पड़ जाता है. अंगरेज़ी की बजाय बंगाली में पूछ बैठता है कि इस सवाल का मेरी नौकरी से क्या रिश्ता? इंटरव्यू लेने वाला कहता है कि यह तय करना तुम्हारा काम नहीं है. अंत में नायक का बंगाली में थका-हारा सा जवाब “जानी ना…” भाषा की सीमाओं को तोड़ता-फोड़ता हर दर्शक को छू जाता है.
‘देवदास’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, परिणीता ‘अमानुष’, ‘आनंद आश्रम’, ‘अमर प्रेम’ जैसी सत्तर के दशक की बेहतरीन फ़िल्में बंगाल की कहानियों और वहां के परिवेश पर आधारित हैं. शरतचंद्र और बिमल मित्र तो जैसे किसी दौर में पढ़े-लिखे हिंदी भाषी मध्यवर्ग के घर-घर में पढ़े जाने वाले लेखक थे. दूरदर्शन पर आने वाले टीवी सीरियल में लंबे समय तक बंगाल की कहानियों का जादू छाया रहा. बिमल मित्र और शरत चंद्र के उपन्यासों पर आधारित ‘मुज़रिम हाजिर’ और ‘श्रीकांत’ जैसे सीरियल खूब लोकप्रिय हुए.
बंगाली सिनेमा से अलग मराठी सिनेमा सत्तर और अस्सी के दशक में बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ था. न ही हिंदी के सिनेमा प्रेमियों के बीच मराठी फ़िल्मों पर कोई बात होती थी. सन 2004 में ‘श्वास’ जैसी फिल्म से मराठी सिनेमा ने अपनी क्षेत्रीय सीमाओं से निकलकर चर्चा पाई. जबकि इसके उलट हिंदी के समानांतर सिनेमा की जड़ें हिंदी और मराठी साहित्य में नज़र आती हैं. जहां एक तरफ राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर और मन्नू भंडारी की कहानियां और उपन्यास इस पैरेलल सिनेमा के लिए कच्ची सामग्री बन रहे थे, वहीं मराठी के जयवंत दलवी, विजय तेंडुलकर और महेश एलकुंचवार जैसे नाटककार हिंदी सिनेमा को समृद्ध कर रहे थे.
श्याम बेनेगल और गोविंद निहलाणी का सिनेमा में मराठी भाषा और संस्कृति की काफी अनुगूंज होती थी. हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘भूमिका’ की सिर्फ भाषा ही हिंदी है मगर उसके सारे स्रोत मराठी भाषा और संस्कृति में मौजूद हैं. गोविंद निहलाणी की ‘अर्ध सत्य’ में मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविता का जितना प्रभावशाली इस्तेमाल हुआ है, वैसी कोई दूसरी मिसाल कम ही मिलती है. दिलचस्प बात यह है कि खुद दिलीप चित्रे ने हिंदी भाषा में ‘गोदाम’ के नाम से एक अनूठी फिल्म बनाई थी, जिसमें केके रैना ने अभिनय किया था. इसी तरह से सिर्फ एक ही फिल्म बनाने वाले रवींद्र धर्मराज ने जयवंत दलवी के नाटक पर बनी फिल्म ‘चक्र’ के जरिए झुग्गी-झोपड़ियों रहने वाले आवारा-उचक्कों के जीवन का बहुत ही यथार्थवादी चित्रण किया था.
भाषाओं ने एक-दूसरे से बहुत कुछ लिया है…
बहुभाषी सिनेमा दिखाने के लिए मुझे अस्सी के दशक के दूरदर्शन को शुक्रिया कहना होगा. किसी अन्य भाषा की पहली फिल्म देखी थी ‘निन्जरे किल्लते’, जिसे तमिल भाषा की बेस्ट फीचर फिल्म का अवार्ड मिला था. रविवार को दिखाई जाने वाली इन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों में बहुत सी बेहतरीन फ़िल्में देखने को मिलीं. इसमें एक यादगार तेलुगु फिल्म है ‘सागर संगमम’ (1983) जिसमें अद्भुत कंट्रास्ट के साथ मृत्यु और आंसुओं के बीच नृत्य की परिकल्पना की गई थी. इसे कमल हासन और जयाप्रदा के नृत्य से सजाया गया था.
कमल हासन अपनी असाधारण नृत्य प्रतिभा से यहां ‘डांस लाइक अ मैन’ की परिकल्पना साकार करते हैं. दक्षिण की फिल्में अपने परिवेश, सांस्कृतिक संदर्भों और कलात्मक आग्रह की वजह से तो ध्यान खींचती ही थीं, इनके निर्माण में एक अलग किस्म की लय होती थी. खास तौर पर दक्षिण की फिल्मों का संपादन नृत्य और तालबद्ध संगीत के प्रति उनके अनुराग से बहुत मेल खाता था. इस लिहाज से बहुत सी दक्षिण की फिल्में विश्व सिनेमा की धरोहर लगती हैं. हर भाषा के सिनेमा की अपनी एक अलग पहचान थी. मलयालम सिनेमा के पास ठहराव और कहानी कहने का धैर्य था. तमिल और तेलुगु सिनेमा अपनी कलात्मक उत्कृष्टता और सौंदर्य के कारण प्रभावित करता था. वहीं कन्नड़ सिनेमा का रवैया यथार्थवादी था.
बंगलुरु में हर शुक्रवार एक साथ छह भाषाओं में फिल्में रिलीज़ होती थीं. जिन दिनों मैं वहां नौकरी करता था विभिन्न भाषाओं के पोस्टर मेरा ध्यान खींचते थे. मेरा ऑफिस बीटीएम लेआउट में था और रास्ते में एक लंबी खाली दीवार पर उन फ़िल्मों के पोस्टर चिपके होते थे. धीरे-धीरे मैं उन पोस्टरों को देखकर यह अंदाजा लगाने लगा था कि वह किस भाषा की फ़िल्म होगी. एक बात और जो मेरा ध्यान आकर्षित करती थी, वह थी कि ये पोस्टर कहानी में आपकी रुचि जगाते थे. उत्तर
भारत में 80 और 90 के दशक वाले उबाऊ पोस्टर देखकर बड़े हुए लड़के के लिए यह सुखद आश्चर्य था. हमें तो आदत पड़ी थी हर फिल्म के पोस्टर पर चीखते हुए, थोड़ा सा खून बहाते नायकों के मुखड़े देखने की. मगर दक्षिण भारत के सिनेमा पोस्टरों कोई कहानी सी कहते नज़र आते थे. उन पोस्टरों में कुछ भी हो सकता था- तितली के पीछे भागती नायिका, पगडंडी पर साइकिल चलाते लड़का-लड़की, कार या ट्रक के बोनट पर बैठा हीरो या फिर उसके नायकत्व को ग्लोरीफाई करती उसकी कोई स्टाइल. इन सबसे बढ़कर पोस्टर पर कलात्मक शैली में लिखी गई उन भाषाओं की लिपियां…
भाषाओं का सौंदर्य उनकी ध्वनि और नाद में भी होता है…
शुरू-शुरू में सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं की ध्वनि एक सी लगती थी, मगर बंगलुरु रहने के दौरान उन ध्वनियों में फ़र्क़ समझ में आने लगा. तमिल में ऐसा लगता था कि जैसे अनुस्वार की बहुतायत है, तेलुगु जो बोलते उसकी ध्वनि में मौजूद गीतात्मक लय बहुत सुरीली मालूम पड़ती और मलयालम सबसे अलग, ऐसा लगता मानो कोई अपनी हथेली से थपकियां या हथेली से ताल दे रहा है. जाहिर है इन उपमाओं के जरिए भाषा को अनुभव कर पाना मुश्किल होगा. मगर यही आरंभिक तरीका था. इसी कॉमन सेंस की बदौलत मैं दक्षिण भारतीय भाषाओं के बीच अंतर को पहचानने लगा था.
जब हम सिनेमा की तरफ आते हैं तो यही ध्वनि और नाद काफी हद तक संगीत में सामिल हो जाता है. कर्नाटक संगीत में ताल और पैटर्न का इस्तेमाल होता है जो गणितीय संरचना पर आधारित होता है. वायलीन और मृदंगम के इस्तेमाल को दौर से सुनें तो ऐसा लगता है कि जैसे इन्हीं दोनों वाद्ययंत्रों की संरचना पूरे कर्नाटक संगीत का आधार है. वायलीन की तान और मृदंगम की थाप. इलैया राजा को सबसे पहले सुना जिनके संगीत में आधुनिकता के साथ दक्षिण के परंपरागत शास्त्रीय संगीत की अनुगूँज थी. ‘मालगुड़ी डेज़’ के जरिए देश भर को “ता ना ना ताना नाना ना” की धुन सुनाने वाले एल वैद्यनाथ भी कर्नाटक शास्त्रीय संगीत में अपनी प्रतिभा के कारण अलग से पहचाने जाते थे. आने वाले समय में एआर रहमान और एमएम क्रीम ने भी भाषाओं की सीमाएं तोड़ीं और हिंदी सिनेमा के दर्शकों को कई लोकप्रिय गीत दिए.
अपनी भाषा में रचा-बसा कोई भी सिनेमा एक अलग गंध लेकर आता है, जो कुछ-कुछ बचपन में मिट्टी या हरी दूब से उठती हुई हमने महसूस की थी. भारतीय सिनेमा में भाषाएं हमें एक गहरे जमीनी सरोकार से जोड़ती हैं. इसकी शाखाएं हर दिशा में फैली हुई हैं. हिंदी क्षेत्र की संभवतः पहली आंचलिक भाषा की फ़िल्म ‘बिदेसिया’ फिल्म में महेंद्र कपूर और मन्ना डे जब गाते हैं –
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में
दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर
इस गीत के फिल्मांकन में ऊंट पर गुजरते गवैये और उनके पीछे आकाश में उमड़ते सफेद बादल एक अलग किस्म का प्रभाव पैदा करते हैं. अगले ही दृश्य में झर-झर पानी गिरने लगता है और नायिका की आँखों से आँसू भी. आँचलिक बोली इस दृश्य में और अधिक करुणा और विश्वसनीयता का संचार करती है. मुंबई के सिनेमा ने अपनी भाषा पारसी थिएटर से उधार ली और उसी को अपना लिया क्योंकि उन फिल्मों देश के हर क्षेत्र में कारोबार करना था. मगर जब उत्तर भारत की मिट्टी से जुड़ने की बात आई तो हिंदी सिनेमा ने हर बार अवधी मिश्रित हिंदी का सहारा लिया और इसने एक ऐसी अलग भाषा रच दी जिसका अस्तित्व दरअसल सिर्फ सिनेमा के स्क्रीन तक ही सीमित है मगर उसकी मिठास ऐसी की बरसों-बरस नहीं भुलाई जाएगी. सरल शब्दों में कही गई अर्थपूर्ण और जीवन में रस घोलती बात. इसके सबसे दिलचस्प और सफल दो उदाहरण आज भी हमारे सामने हैं, ‘गंगा जमुना’ और ‘नदिया के पार’. इन दोनों फ़िल्मों के गीतों और संवादों की मिठास आज भी कायम है. ‘गंगा जमुना’ के गीतों जैसा सुंदर प्रयोग अमूमन भाषा में नहीं मिलता है, जैसे –
मोरा बाला चन्दा का जैसे हाला रे
जामें लाले लाले हाँ,
जामें लाले लाले मोतियन की
लटके माला
दुर्भाग्य से आंचलिक भाषा का सिनेमा सस्ती व्यावसायिकता और अपसंस्कृति में लिपटता-घिसटता अपनी पहचान ही खो बैठा. सिनेमा ने एक बनावटी भोजपुरी भाषा का निर्माण किया जो द्विअर्थी या सीधे कहे गए अभद्र इशारों से भरी हुई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल की सीमा तक के विशाल हरे-भरे इलाके की भाषाई विविधता कभी सिनेमा में आ ही नहीं पाई. जिसमें अवधी, भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका और मैथिली जैसी भाषाएं हैं. अभी इनमें नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुरमाली जैसी सीमित क्षेत्रों की बोलियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है, जो शायद ही कभी सिनेमा का हिस्सा बन पाएं. वहीं मुख्यधारा हिंदी सिनेमा में बीते 10 सालों में एक बड़ा बदलाव आया है कि उसने क्षेत्रीय टोन को पकड़ना आरंभ किया है. बुंदेलखंड, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, लखनऊ के आसपास की अवधी बोली के शेड्स अब सिनेमा में ध्वनित होने लगे हैं. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’, ‘साहब, बीबी और गैंगस्टर’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘गुलाबो सिताबो’, ‘राम प्रसाद की तेरहवीं’, ‘बहुत हुआ सम्मान’ जैसी कई फ़िल्मों में हिंदी की अलग-अलग ध्वनियां देखी जा सकती है.
भाषा का एक सौंदर्य उसकी ध्वनि में होता है तो एक सौंदर्य उसकी लिखावट में बसता है…
सत्यजीत रे की फिल्मों के पोस्टर और स्क्रीन पर उभरते बंगाली लिपि के शीर्षक स्मृतियों में अंकित होते चले जाते थे. सबसे पहले ‘देवी’ फिल्म में शर्मिला टैगोर की अपलक आँखों और बड़ी बिंदी वाली छवि उभरती है और उसके साथ खूबसूरत बांग्ला कैलीग्राफी में देवी का लिखा होना. इसी तरह से रे की एक अन्य फ़िल्म में कैमरा कार में बैठे कुछ दोस्तों की कैजुअल बातचीत से होते हुए बाहर भागते पेड़ों पर जा ठिठकता है और जब स्क्रीन पर ‘अरण्य दिने रात्रि’ लिखा हुआ उभरता है तो हम हतप्रभ हो जाते हैं. सत्यजीत रे खुद एक आर्टिस्ट थे और उन्हें कैलीग्राफी की भी अच्छी समझ थी. उनकी फिल्मों में लिखावट का एक दृश्यात्मक सौंदर्य अलग से उभरता है जो अन्यत्र दुर्लभ है. कुछ ऐसा ही अनुभव असमिया फ़िल्मों के साथ भी होता है. जानू बरुआ की फिल्म ‘हलोधिया चोराये बोंधन खाये’ का शीर्षक पूरी स्क्रीन पर लिखा आता है और उसके बाद नदी उभरती है. जानू बरुआ से लेकर ‘विलेज़ रॉकस्टार’ वाली रीमा दास तक- असमिया सिनेमा में वहां की जमीन, आसमान, हवा और पानी को हम साफ-साफ महसूस कर सकते हैं. यह अलग बात है कि समय के साथ भाषाओं के बीच आवाजाही और बढ़नी चाहिए थी, समय के साथ सिनेमा की आंचलिक पहचान और गहरानी चाहिए थी, अस्मिताओं का सौंदर्य और निखरना चाहिए था. मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है. सार्वजनिक जीवन में हम भले मल्टीकल्चरलिज़्म की तरफ बढ़ रहे हों, सांस्कृतिक रूप से भाषाओं के बीच दीवारें अभी भी खड़ी हैं.
भाषाएं कब हमारे जीवन दाखिल हो जाती हैं और निजी स्मृतियों का हिस्सा बन जाती हैं, हमें कभी नहीं पता चलता. सिनेमा में बहुभाषिकता हमें ‘अन्य’ के प्रति संवेदनशील होना सिखाती है. तभी हम ‘मेघे ढाका तारा’ में नीता की हृदय को बेध देने वाली पुकार सुन पाते हैं.
तभी वह पुकार हमें दिनों, महीनों, बरसों तक याद रहती है…
(लेखक कवि-कथाकार, पत्रकार तथा सिनेमा व लोकप्रिय संस्कृति के अध्येता हैं। देश की कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में फिल्मी दुनिया को लेकर उनके कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं) 
(सदानीरा के बहुभाषिकता पर केंद्रित अंक में प्रकाशित आलेख)
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जियो सिनेमा 29 रुपए प्रतिमाह में फिल्में दिखाएगा

जियो सिनेमा ने अपने ऐड-फ्री सब्सक्रिप्श प्लान में कटौती करते हुए इसे 29 रुपये प्रति माह कर दिया है। यह सुविधा एक बार में केवल एक डिवाइस के लिए है। वहीं, ‘फैमिली’ यानी 4 डिवाइसेस में एक साथ लॉगिन की सुविधा वाले प्लान के लिए यूजर्स को ₹89 प्रति महीना चुकाना होगा। इसे दुनिया का सबसे सस्ता ऐड-फ्री सब्सक्रिप्श प्लान बताया जा रहा है।
अभी तक 4  सदस्यों वाले प्लान के लिए हर महीने ₹99 और एक साल के लिए ₹999 रुपए देने होते थे। नया प्लान 25 अप्रैल 2024 से लागू है। कंपनी ने एक स्टेटमेंट जारी कर इस बात की जानकारी दी है। करीब एक साल पहले जियो सिनेमा ने प्रीमियम सब्सक्रिप्शन प्लान लॉन्च किया था।
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भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग (आईएचआरसी) का नया लोगो और आदर्श वाक्य

भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग (आईएचआरसी), अभिलेखीय मामलों पर एक शीर्ष सलाहकार निकाय है। यह अभिलेखों के प्रबंधन और ऐतिहासिक अनुसंधान के लिए उनके उपयोग पर भारत सरकार को परामर्श देने के लिए रचनाकारों, संरक्षकों और अभिलेखों के उपयोगकर्ताओं के एक अखिल भारतीय मंच के रूप में कार्य करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1919 में हुई थी। इसका नेतृत्व केंद्रीय संस्कृति मंत्री करते हैं।

आईएचआरसी की विशिष्ट पहचान और प्रस्तुत लोकाचार को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने के लिए, लोगो और आदर्श वाक्य के लिए डिज़ाइन आमंत्रित किये गये थे। इसके लिए वर्ष 2023 में MyGov पोर्टल पर एक ऑनलाइन प्रतियोगिता शुरू की गई थी। इस प्रतिक्रिया में कुल 436 प्रविष्टियां प्राप्त हुईं।

इस प्रतियोगिता में श्री शौर्य प्रताप सिंह (दिल्ली) द्वारा प्रस्तुत निम्न लोगो और आदर्श वाक्य प्रविष्टि को विजेता के रूप में चुना गया है:

यह लोगो पूरी तरह से भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग की थीम और विशिष्टता को अभिव्यक्त करता है। कमल की पंखुड़ियों के आकार के पृष्ठ भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग को ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए लचीले नोडल संस्थान के रूप में दर्शाते हैं। मध्य में सारनाथ स्तंभ भारत के गौरवशाली अतीत का प्रतिनिधित्व करता है। रंग थीम के रूप में भूरा रंग भारत के ऐतिहासिक अभिलेखों के संरक्षण, अध्ययन और सम्मान के संगठन के मिशन को सुदृढ़ करता है।

आदर्श वाक्य का अनुवाद इस प्रकार है “जहां इतिहास भविष्य के लिए संरक्षित है।” यह आदर्श वाक्य भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग और उसके कार्य के लिए बहुत महत्व रखता है। भारतीय ऐतिहासिक अभिलेख आयोग ऐतिहासिक दस्तावेजों, पांडुलिपियों, ऐतिहासिक जानकारी के अन्य स्रोतों की पहचान करने, एकत्र करने, सूचीबद्ध करने और बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसा करके आयोग यह सुनिश्चित करता है कि मूल्यवान ऐतिहासिक ज्ञान भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रहे। इसलिए, आदर्श वाक्य ऐतिहासिक दस्तावेजों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए इन्हें सुलभ बनाने की आयोग की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

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रायसीना क्रॉनिकल्स : वैश्विक संवाद का भारतीय मंच

एस जयशंकर व समीर सरन

 

भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक मुद्दों पर बहस करने का भारत का सबसे अग्रणी सम्मेलन यानी रायसीना डायलॉग अपने दसवें वर्ष में प्रवेश कर गया है। रायसीना डायलॉग अब दुनिया भर के बड़े नेताओं और अहम शख्सियतों के सालाना कैलेंडर का एक अहम हिस्सा बन गया है। हर वो महत्वपूर्ण व्यक्ति इसमें शामिल होना चाहता है, जिनका मकसद दुनिया में बदलाव लाना है। जो चाहते हैं कि वैश्विक व्यवस्था में जो यथास्थिति है, उसे तोड़ा जाए। जो अपने खुद के विश्वास और रुख का बचाव करना जानते हैं और जो एक नई व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं। भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक मुद्दों पर बहस करने का भारत का सबसे अग्रणी सम्मेलन यानी रायसीना डायलॉग अपने दसवें वर्ष में प्रवेश कर गया है।

एक ऐसे वक्त में जब दुनिया विचारधाराओं, एजेंडे और हैशटैग के इको चैंबर में उलझी हुई है, तब रायसीना डायलॉग इन सबसे आगे बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर ऐसी वैश्विक, समावेशी और विस्तृत बहस करवा रहा है और देश और काल की सीमाओं से भी परे जाती हैं। ये दिल्ली में स्थित भारत का एक ऐसा वैश्विक सार्वजनिक मंच है, जहां आकर बहस करना पूरी दुनिया के लोगों को पसंद है। रायसीना डायलॉग का मकसद बहस की उस परंपरा को संरक्षण और बढ़ावा देना है, जहां आपसी मतभेदों के बावजूद लोग एक-दूसरे से बातचीत करते हैं और उनके नज़रिए को समझने की कोशिश करते हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी ये मानना है कि किसी भी सार्वजनिक मंच या संस्था का इस्तेमाल मानवता की भलाई के लिए होना चाहिए। रायसीना डायलॉग एक ऐसा ही मंच है, जिसका काम अपने तरीके से दुनिया की सेवा करना है।

रायसीना डायलॉग वैचारिक विमर्श को आगे बढ़ाने, आपसी सहयोग और साझा जिम्मेदारी की भावना बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहा है। ये एक ऐसी जगह है, जहां विचार, नज़रिए, विश्वास और राजनीतिक विचारों की विविधता का सम्मान किया जाता है। रायसीना डायलॉग सदियों पुराने उस भारतीय दृष्टिकोण पर भरोसा करता है, जिसमें ये कहा गया है कि हर इंसान के भीतर अच्छा करने की शक्ति होती है। हम इस बात पर भरोसा करते हैं कि हर किसी का पक्ष सुना जाना चाहिए। उसके सुझावों पर विचार किया जाना चाहिए।

हम ये मानते हैं कि बहुलता, विविधता और सबको साथ लेकर चलने की सोच ही हमें मज़बूत बनाती है। इसी राह पर चलते हुए व्यक्तियों और समाज का भी विकास होता है। ये भारत की भी अपनी कहानी है। भारत भी जानता है कि विविधता के सम्मान में ही एकता की शक्ति होती है। रायसीना डायलॉग नेताओं, राजनयिकों, स्कॉलर्स, नीति निर्माताओं, पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को, छात्रों, नौजवानों, वरिष्ठ चिंतकों, बिजनेस और सिविल सोसायटी से जुड़े लोगों को एक ऐसा मंच मुहैया कराता है, जहां वो खुलकर बहस करते हैं। असहमतियों के बावजूद चर्चा और विचार-विमर्श करके बेहतर भविष्य के लिए एक साझा रास्ता खोजें।

एक ऐसे वक्त में जब दुनिया विचारधाराओं, एजेंडे और हैशटैग के इको चैंबर में उलझी हुई है, तब रायसीना डायलॉग इन सबसे आगे बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर ऐसी वैश्विक, समावेशी और विस्तृत बहस करवा रहा है और देश और काल की सीमाओं से भी परे जाती हैं।

आज हम रायसीना के एक दशक पूरा होने का जश्न मना रहे हैं तो ये मौका इस बात को भी याद करने का है कि इस एक दशक के दौरान रायसीना डायलॉग ने संवाद के ज़रिए वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए क्षेत्रीय साझेदारी और अन्तर्रमहाद्वीपीय सहयोग बनाने में मदद की। हर साल तीन दिन हम अलग-अलग ध्रुवों में बंटी दुनिया को एक साथ लाते हैं। इस लेख में हम रायसीना डायलॉग की इस एक दशक की यात्रा की खास शक्तियों और विशेषताओं को रिकॉर्ड कर रहे हैं। उसका दस्तावेज बना रहे हैं। इसे बनाने का सबसे बेहतर तरीका ये है कि हम इस बात को समझें कि रायसीना डायलॉग में शामिल होने के लिए दुनियाभर से आने वाले प्रतिष्ठित लोग इसके बारे में क्या सोचते हैं? आगे दिए गए विचार उन लोगों के हैं, जो रायसीना डायलॉग में शामिल हुए। इसका अनुभव लिया। इस मंच पर अपने विचार साझा किए और इस बात की सराहना की कि इसकी वजह से कितने बदलाव आए।

रायसीना डायलॉग कैसे स्थापित हुआ?
अलग-अलग खांचों में बंटी दुनिया में संवाद और बातचीत की अहमियत को सब स्वीकार करते हैं। इसे प्रमुखता इसलिए मिली क्योंकि वैश्विकरण के दौरान जो वादे किए गए थे, वो पूरे नहीं हुए। लोगों को लगता था कि ये एक ऐसी दुनिया है, जहां उनके रीति-रिवाज और संस्कृतियों का सम्मान किया जाएगा। अलग-अलग विचारों की तारीफ की जाएगी। लोगों के विभिन्न हितों को स्वीकार किया जाएगा, लेकिन ये सारे सपने टूट गए। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कुछ लोग, देश और संगठन वैश्विकरण की प्रक्रिया को नियंत्रित करने में सक्षम थे और उन्होंने दूसरों के हितों की कीमत पर ऐसा किया। वैश्विक हकीकतों को इस तरह तोड़ा और मरोड़ा गया कि वो कुछ लोगों के संकीर्ण हितों और ज़रूरतों को पूरा कर सकें। ये सपना एक ऐसी नई दुनिया का था, जो विविधताओं से भरी भी हो और समावेशी भी हो लेकिन इसकी बजाए ज़बरदस्ती से सहमति बनाने की कोशिशें हुईं। इसका नतीजा ये हुआ कि दूसरी तरफ से भी पलटवार हुआ। बौद्धिक तौर पर भी और राजनीतिक तौर पर भी। इसका परिणाम हम आज देख रहे हैं। दुनिया अब पहले से भी ज़्यादा गुटों में बंट गई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने सोचा कि अब समय आ गया है कि वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाया जाए। बौद्धिक विचार-विमर्श के क्षेत्र में भी निवेश किया जाए। यही वजह है कि रायसीना डायलॉग में पैनल की मेज़बानी राजनीति, उद्योग जगत, मीडिया और सिविल सोसायटी के लोगों के द्वारा की जाती है।

इस समस्या का एक और पहलू है। सारी आधुनिक तकनीक़ी अब उन्हीं देशों में केंद्रित हो गई हैं, जो दुनिया को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। ये तकनीक़ी क्षमताएं अब इन देशों के हितों को पूरा करने में साझेदार बन गई हैं। समय बीतने के साथ-साथ इस तकनीक़ी प्रभुत्व का पूरा फायदा उठाया जा रहा है। ऐसे में इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि वैश्विक स्तर पर होने वाली चर्चाओं पर भी इसका असर पड़ रहा है। वैश्विक व्यवस्था की जो श्रेणियां इतिहास के पन्नों में पीछे छूट गईं थी, वो फिर सामने आ गई हैं। इसके साथ ही बहस और उसके ज़रिए संदेश का नया रूप भी उभर रहा है।

इसका लोग के दिमाग पर गहरा असर पड़ा है। जीवन स्तर में सुधार और संसाधनों की लगातर आपूर्ति की चिंताओं ने भी समाज को अपने अंदर देखने पर मज़बूर किया है। घरेलू हितों को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के ऊपर प्राथमिकता दी जा रही है। सामूहिक हितों पर व्यक्तिगत हित भारी पड़ रहे हैं लेकिन जो देश और बहुपक्षीय संस्थाएं खुद को वैश्विक व्यवस्था का संरक्षक मानते हैं, वो अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। इसकी वजह से उन पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहा है। तथ्य तो ये है कि दुनिया के स्वयंभू ठेकेदार अब ज़मीनी हक़ीकतों से दूर हो गए हैं। वो अब अपने सभी हिस्सेदारों को एक मंच पर लाने की विश्वसनीयता भी खो चुके हैं।

इसलिए ये ज़रूरी था कि कोई नई संस्था सामने आए और सबको एक साथ लाने में योगदान दे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने सोचा कि अब समय आ गया है कि वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाया जाए। बौद्धिक विचार-विमर्श के क्षेत्र में भी निवेश किया जाए। यही वजह है कि रायसीना डायलॉग में पैनल की मेज़बानी राजनीति, उद्योग जगत, मीडिया और सिविल सोसायटी के लोगों के द्वारा की जाती है। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष और विदेश मंत्री उभरते हुए इंजीनियरों और बिजनेस की पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ बैठते हैं। रायसीना डायलॉग ऐसा सम्मेलन है, जहां पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के देश, क्षेत्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी देश एक मंच साझा करते हैं। यहां विवाद के ऊपर धैर्य को, बड़े-बड़े दावों के ऊपर बेहतर समझ को, व्यक्तिगत राय के ऊपर संतुलित दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जाती है। रायसीना डायलॉग वास्तव में वैश्विक सोच वाला भारतीय मंच है।

नीति समाधान का ‘भारतीय’ तरीका
इस साल जब दुनियाभर के प्रतिष्ठित लोग रायसीना डायलॉग-2024 के मंच पर जुटे तो भारत के वसुधैव कुटुंबकम (पूरा विश्व एक परिवार है) की सोच की अहमियत और बढ़ गई। आज जब दुनिया कई गुटों में बंट चुकी है तो ऐसे में एकता और मानवता को बढ़ावा देने के लिए वसुधैव कुटुंबकम वाली सोच की ज़्यादा ज़रूरत है। ऐसे में भारत की ये कहानी दुनिया के कई देशों में गूंजती है, क्योंकि उनकी समस्याओं और उनके समाधान का व्यवहारिक रास्ता यही है। भारत निरंतर विकास की जिन चुनौतियों से जूझ रहा है और जिस तरीके से उनका समाधान कर रहा है, वो कई देशों के सामने एक उदाहरण पेश कर रहा है, जिसे वो भी स्वीकार कर सकते हैं। ऐसे में भारत का भी ये दायित्व है कि वो अपनी अब तक की यात्रा, उसके अनुभव, संघर्ष और उनसे सीखे सबक को दुनिया के साथ साझा करने में बड़ा दिल दिखाए।

दुनिया इस वक्त अनिश्चितता के जिस दौर से गुज़र रही है, उसका सामना करते हुए भारत को अपने अनुभवों से सीखना होगा और उसी आधार पर समस्याओं को समाधान खोजना होगा। दुनिया के जो हालात हैं, उसमें कभी कोई हमें एक तरफ खींचेगा, कोई दूसरी तरफ खीचेंगा। ऐसे में हो सकता है भारत को कई बार ऐसे फैसले करने पड़ते हैं, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के हिसाब से बेहतरीन ना हो।

G-20 देशों की अध्यक्षता कर भारत ने दुनिया के सामने राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रीयवाद की विश्वसनीय मिसाल पेश की है। भारत इस बात पर भरोसा करता है जो बड़ा देश अपने लोगों की ज़रूरतों को प्रभावी तरीके से पूरा करता है, वो पूरी मानवता की सेवा करता है। इसका एक नमूना तब देखने को मिला जब पूरी दुनिया को दवाइयों की ज़रूरत पड़ी और भारत ने सबसे पहले प्रतिक्रिया दी। ये डिजिटल डिलीवरी का एक उदाहरण था। भारत प्रतिभा के स्रोत, नई खोज करने वाले, बड़े पैमाने पर निर्माण और आपूर्ति करने वाले देश के तौर पर सामने आया। घरेलू मोर्चे पर हुए विकास का असर अन्तर्राष्ट्रीय योगदान में भी दिखा। वैश्विक आर्थिक क्रम में 2028 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को जो लक्ष्य भारत ने तय किया है, उससे ना सिर्फ़ दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश यानी भारत के लोगों की तकदीर बदलेगी बल्कि इसके साथ ही वो दुनिया के आर्थिक विकास में ‘ग्रोथ इंजन’ का भी काम करेगा। आज उसकी बहुत ज़रूरत है क्योंकि निष्पक्ष वैश्विकरण के इस दौर में हर देश अपने लिए सामरिक तौर पर स्वायत्तता चाहता है। भारत ने अपनी विरासत को संभालकर रखते हुए जिस बेहतरीन तरीके से स्थानीय और वैश्विक मुद्दों में तालमेल बिठाया है, वो दुनिया के लिए एक मिसाल है।

रायसीना डायलॉग इस बात पर विश्वास करता है कि हमारी विकास यात्रा सभी के लिए खुली होनी चाहिए। ये शासन और नीतियों में पारदर्शिता की वकालत करता है। हर कामयाबी और नाकामी, हर अनुभव और खोज की दुनिया में कहीं ना कहीं और किसी ना किसी के लिए उपयोगी होती है। रायसीना डायलॉग ऐसे ही विचारों का एक मंच है, जो भारत की विविधता को दिखाता है।यही वजह है कि ये सालाना सम्मेलन अब अलग-अलग विचारों, दृष्टिकोणों और मुद्दों पर बात करने का मंच बन गया है।

भारत होने का महत्व?
पिछले एक दशक में हमने जो बदलाव देखे, उनमें सिर्फ़ मात्रात्मक विस्तार नहीं हुआ है। ये बदलाव हमारे सोचने के तरीके, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के मामले में भी देखने को मिल रहा है। हम अपनी विरासत और संस्कृति से प्रेरणा ले रहे हैं और अब अपनी पहचान को लेकर जागरूकता भी बढ़ रही है। हम अपने सपनों को आकार देने और अपने लक्ष्य हासिल करने को लेकर ज़्यादा गंभीरता दिखा रहे हैं। हम कहां जाना चाहते हैं, क्या चाहते हैं। ये जानने के लिए पहले ये समझना ज़रूरी है कि हम क्या थे और कहां थे। परंपरा और तकनीक़ी के बीच प्रभावी तालमेल बिठाकर आधुनिक विकास की चाबी है। आज हमारे अंदर ये निर्धारित करने की क्षमता है कि विकास का कौन सा स्तर छूना चाहते हैं और वहां पहुंचने के लिए कौन सा रास्ता चुनेंगे। इन सब चीजों को जोड़कर ही हम इंडिया को खुद पर भरोसा करने वाला भारत बना सकते हैं। ऐसा भारत जो आत्मनिर्भर भी हो और मज़बूत भी।

दुनिया इस वक्त अनिश्चितता के जिस दौर से गुज़र रही है, उसका सामना करते हुए भारत को अपने अनुभवों से सीखना होगा और उसी आधार पर समस्याओं को समाधान खोजना होगा। दुनिया के जो हालात हैं, उसमें कभी कोई हमें एक तरफ खींचेगा, कोई दूसरी तरफ खीचेंगा। ऐसे में हो सकता है भारत को कई बार ऐसे फैसले करने पड़ते हैं, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के हिसाब से बेहतरीन ना हो। इसे वैश्विक नियमों या स्वाभाविक विकल्प के तौर पर पेश किया जा सकता है। यहीं पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद आई हुई स्वतंत्र सोच बड़ा अंतर पैदा कर सकती है। जब इंडो-पैसेफिक क्षेत्र की बात आती है तो हम ऐसा सामरिक और रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं, जो भारत के लिए फायदेमंद होता है। अब हम ऐसी नीतियां बनाते हैं, जो विश्व कल्याण के साथ-साथ हमारे राष्ट्रीय हितों को भी बढ़ावा देती हैं।

अब हम अतीत की नीतियों से हटकर काम कर रहे हैं और इसे लेकर निराश होने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे ही जब यूक्रेन युद्ध की बात आई तो हम दुनिया के ज़्यादातर देशों के साथ इस बात पर चिंता जताते हैं इस आर्थिक परिणाम गंभीर होंगे। हालांकि इसे लेकर कुछ देश जिस तरह का नैरेटिव बनाते हैं, उसका विरोध करके हम ये भी सुनिश्चित करते हैं कि हमारे लोगों पर इसका कम असर पड़े। अब भारत होने का अर्थ ये है कि ज़रूरत पड़ने पर हम धारा के विपरीत बहने की हिम्मत दिखाएं, जब आवश्यकता हो तब योगदान दें और हर वक्त आत्मविश्वास से भरपूर रहें।

ग्लोबल साउथ के देश अब अपने हक की बात करने लगे हैं। फिर चाहे वो आत्मबोध का मसला हो या फिर आत्मविश्वास का। रायसीना डायलॉग में इन देशों की वास्तविक सच्चाइयों को दिखाता है क्योंकि हम सिर्फ़ विशेषाधिकार वालों की बात नहीं करते। इस लिहाज से देखें तो रायसीना बहस का ना सिर्फ़ सक्रिय बल्कि समसामयिक मंच भी है।

रायसीना डायलॉग ऐसा प्लेटफॉर्म है, जहां इस तरह की बहस होती हैं। ये विचार-विमर्श का एक ऐसा जीवंत मंच है, जहां दुनिया हमें समझती है और हम दुनिया से संवाद करते हैं। रायसीना डायलॉग एक ऐसी जगह है जहां दुनिया भारत को आत्मसात करती है और हम ये तय करते हैं कि दुनिया कैसी होनी चाहिए।

हर तरह के विचारों को बहस में जगह देना रायसीना डायलॉग की खासियत है। यहां हम दुनियाभर से उन लोगों को भी बुलाते हैं, जिन्हें चर्चा के पारम्परिक और पहले से स्थापित मंचों पर जगह नहीं मिलती। यहां हम अलग तरह के संवाद को इजाज़त देते हैं क्योंकि विचार अपने आप में अलग होते हैं। हम ऐसे युवाओं को मौका देते हैं, जिनके विचारों में विविधता होती है। वो ऐसी जगहों से आते हैं, जिनकी या तो उपेक्षा की जाती है या जिन्हें बड़ी संस्थाओं में बोलने का मौका नहीं दिया जाता। ये युवा देश और दुनिया के वास्तविक प्रतिनिधि होते हैं। यही वजह है कि रायसीना डायलॉग एक ऐसा मंच बन गया है, जहां नए टैलेंट, नए विचारों, नए दृष्टिकोण का मौका मिलता है। ये ऐसा मंच बन गया है, जहां वो अपनी प्रतिभा दिखाकर बहस के दूसरे पारंपरिक प्लेटफॉर्म तक आसानी से अपनी पहुंच बना सकते हैं।

रायसीना डायलॉग में सिर्फ़ संवाद नहीं होता। यहां इससे भी ज़्यादा चीजें होती हैं। सम्मलेन के तीन दिनों के दौरान चर्चाएं तो होती ही हैं, साथ ही उससे पहले और बाद में भी विचार-विमर्श होता है। ये ऐसा मंच है, जहां नए विचार आते हैं। अगर कोई समाधान सामने आता है तो उसका मूल्यांकन और पुनर्मूल्याकंन होता है। यहां अलग-अलग विचारों का टकराव, उनमें प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और फिर आखिर में सहयोग होता है। नई भावनाएं ज़ाहिर की जाती हैं, पुराने विचार को त्याग दिया जाता है। खुलकर और ईमानदारी से बहस होती है। बहस के दौरान गर्मागर्मी हो सकती है लेकिन नतीजा हमेशा सकारात्मक निकलता है। अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव की वजह से रायसीना डायलॉग में अब इस तरह की बहस सामान्य होती जा रही है।

अब जबकि रायसीना डायलॉग दसवें वर्ष में प्रवेश कर गया है तो हम ये कह सकते हैं कि इन वर्षों में हमने काफी लंबा सफर तय कर लिया है। शुरूआत में ये एक कमरे में सौ लोगों वाला सम्मेलन था लेकिन अब ये भारत में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सार्थक बहस का एक प्रतिष्ठित मंच बन चुका है। इसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है क्योंकि ये नए भारत में बहस का एक प्रमुख मंच है।

रायसीना डायलॉग के इतिहास के दस्तावेज़ की प्रस्तावना ग्रीस के प्रधानमंत्री किरियाकोस मित्सोताकिस ने लिखी है। ग्रीस और भारत लोकंतत्र के प्राचीन केंद्र रहे हैं और 21वीं सदी में ये दोनों देश दोबारा एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

रायसीना डायलॉग की सफलता में भारत सरकार के समर्थन, नेतृत्व और प्रतिबद्धता का भी हाथ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रायसीना डायलॉग के दूसरे एडिशन यानी 2017 के बाद से हर सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मौजूद रहे हैं। एक बार उन्होंने इस सम्मेलन के मंच से लोगों को संबोधित किया और एक बार वर्चुअल तरीके से अपनी बात रखी। प्रधानमंत्री 2017 से ही रायसीना डायलॉग में शामिल हो रहे हैं लेकिन उन्होंने सिर्फ़ दो बार ही इस सम्मेलन को संबोधित करके दुनिया को ये दिखाया कि कई बार बोलने से ज़्यादा अहम सुनना होता है। प्रधानमंत्री ने दर्शक के रूप में इस सम्मेलन में शामिल होकर, दूसरों के अनुभवों को सुनकर, उनके दृष्टिकोण को समझकर रायसीना डायलॉग का सम्मान बढ़ाया है।

प्रधानमंत्री ने दर्शक के रूप में इसमें शामिल होकर वक्ताओं और श्रोताओं के बीच की दूरी को कम किया है। रायसीना डायलॉग जितनी अहमियत वक्ताओं को देता है, उतनी ही श्रोताओं को भी देता है। ये हमें याद दिलाता है कि हर विचार पर सावधानी से चर्चा होनी चाहिए। वाद-विवाद और संवाद जीवन का एक अहम हिस्सा है। यहां मतभेदों को एकदम से खारिज़ नहीं किया जाता क्योंकि संवाद ही मेहनत करने और साथ आने का आधार है।

रायसीना डायलॉग के एक दशक पूरा होने के उपलक्ष्य में इस लेख के ज़रिए हम दुनियाभर की प्रतिष्ठित विद्धानों द्वारा लिखे गए निबंध और रायसीना डायलॉग में राष्ट्राध्यक्षों की तरफ से दिए गए भाषणों को एक जगह संकलित कर रहे हैं।

रायसीना डायलॉग के इतिहास के दस्तावेज़ की प्रस्तावना ग्रीस के प्रधानमंत्री किरियाकोस मित्सोताकिस ने लिखी है। ग्रीस और भारत लोकंतत्र के प्राचीन केंद्र रहे हैं और 21वीं सदी में ये दोनों देश दोबारा एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे हैं। किरियोकस मित्सोताकिस दोनों देशों के बीच खुली चर्चा की वकालत करते हैं, जिससे वैश्विक स्तर पर पैदा हुई विभाजन की खाई को पाटा जा सके। इंडो-पैसेफिक और भूमध्य सागर क्षेत्र देशों में एकता बढ़े।

डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिक्सन ने अपने लेख में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, स्वास्थ्य और सैन्य संघर्षों से इस दुनिया पर आने वाले संकट पर बात की है। संकट की इस घड़ी में भारत और डेनमार्क के बीच हुई सामरिक हरित साझेदारी एक उदाहरण पेश करती है कि आपसी सहयोग से जलवायु के लक्ष्यों को कैसे हासिल किया जा सकता है। उनका मानना है कि साझा वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए हमें अपने सहयोग की प्रतिबद्धता को फिर से दोहराना होगा। स्लोवेनिया की उप प्रधानमंत्री तांजा फजोन ने 2023 में रायसीना डायलॉग में दुनिया के सामने मौजूद चुनौतियां पर गंभीर और विविधतापूर्ण चर्चा के लिए इसकी तारीफ की थी। उन्होंने अन्तर्राष्ट्री सहयोग, बहुपक्षीय संस्थाओं और संयुक्त राष्ट्र में फौरन सुधारों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। रायसीना डायलॉग में युवाओं और महिलाओं को शामिल किए जाने की सरहाना करते हुए तांजा फजोन ने भारत और स्लोवेनिया के बीच द्विपक्षीय सहयोग बढ़ने की उम्मीद जताई।

ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वोंग ने दुनिया में बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों के बीच रायसीना डायलॉग जैसे मंच पर सामारिक नीतियों पर चर्चा की तारीफ की। उन्होंने भारत और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी, दोनों देशों के साझा इतिहास, व्यापक सामरिक साझेदारी का जिक्र किया। इसके साथ ही आर्थिक मुद्दों, जलवायु और शिक्षा के क्षेत्र में की जा रही पहलों पर बात की।

रायसीना डायलॉग के अब तक के इतिहास का समापन करते हुए कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफन जे हार्पर ने कहा कि “विकसित होती नई वैश्विक व्यवस्था में भारत अपनी सही जगह हासिल कर रहा है”। स्टीफन हार्पर ने वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती भूमिका, इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में स्थिरता, स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) हासिल करने, लोकतंत्रिक व्यवस्था की मज़बूती और जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में भारत के प्रभाव पर बात की।

सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फैसल बिन फरहान साउद ने अपने निबंध में भारत और अरब देशों के बीच गहरे सांस्कृति रिश्तों की बात की, जो अब मज़बूत सामरिक संबंधों में बदल चुके हैं। दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ रहा है। भारत अब सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है। उन्होंने उम्मीद जताई कि भारत और सऊदी अरब की साझेदारी से दोनों देशों का भविष्य समृद्ध होगा। केन्या के इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक अफेयर्स (IEA) के सीईओ क्वामे ओवाइनो और इसी इंस्टीट्यूट में संविधान, कानून और आर्थिक प्रोग्राम की प्रमुख जैकलीन कागुमे ने अफ्रीकन यूनियन (AU) को जी-20 में शामिल किए जाने को एक बड़ा कदम बताया। उन्होंने कहा कि इस वक्त डिग्लोबलाइजेशन का जो ट्रेंड चल रहा है, उसका विरोध करने और वैश्विन संस्थाओं में सुधार करने में अफ्रीकन यूनियन अहम भूमिका निभा सकती है।

जापान बैंक के चेयरमैन तादसी माइदा ने भारत के आर्थिक विकास, जापान के साथ उसकी साझेदारी और इंडो-पैसेफिक क्षेत्र के महत्व पर बात की। उन्होंने वैश्विक चुनौतियों के बीच भारत-जापान सहयोग पर ज़ोर दिया। ब्रिटेन के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ सर एंटनी रेडकिन ने 2020 के दशक में भारत और के ब्रिटेन के बीच बदलते संबंधों की बात की और इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में उनके देश के हितों की बात की। उन्होंने समुद्री, वायु और ज़मीनी सुरक्षा में साझेदारी बढ़ाने पर ज़ोर देते हुए दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग बढ़ाने की ज़रूरत पर बल दिया

PATH थिंक टैंक की डायरेक्टर और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में लेक्चरर नित्या मोहन खेमका ने खास इस तरह की रणनीति बनाने की ज़रूरत बताई, जिससे लीडरशिप की भूमिका में महिला की प्रतिनिधित्व भी बढ़े। उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में वरिष्ठ पदों में पहुंचने के लिए महिलाओं के सामने आने वाली संस्थागत बाधाओं, पूर्वाग्रहों और चुनौतियों का भी जिक्र किया। उन्होंने ये कहते हुए अपनी बात ख़त्म की थी कि विकास परियोजना को फाइनेंस करने वाले बैंकों में महिलाओं को लीडरशिप के रोल में लाने से लैंगिक समानता तो बढ़ेगी ही, साथ ही ये बैंक ज़्यादा कुशल और प्रभावी तौर पर काम कर सकेंगे। रियो डि जेनेरिया सिटी हॉल की इंटरनेशनल रिलेशन मैनेजर कैमिली डोस सांतोस ने जी-20 सम्मेलन में लैंगिक असमानता पर चर्चा की अहमियत बताई। उन्होंने खास तौर पर उन महिलाओं के मुद्दों पर ज़ोर दिया जो घरेलू और देखभाल करने के काम में शामिल हैं, लेकिन इसके बदले उन्हें पैसे नहीं मिलते। कैमिली डोस सांतोस ने कहा कि आम तौर पर कमज़ोर वर्ग से आने वाली महिलाएं ही इन अवैतनिक कामों का सारा बोझ उठाती हैं। उन्होंने कहा अब वक्त आ गया है कि देखभाल के क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के विकास के लिए भी व्यापक नीतियां बनाईं जाएं।

इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना के कमांडर एडमिरल जॉन एक्विलनो ने बहुपक्षीय वार्ता को आकार देने, खासकर भारत और अमेरिका के रिश्तों में अहम भूमिका निभाने के लिए रायसीना डायलॉग की सराहाना की। उन्होंने कहा कि रायसीना डायलॉग ने आपसी सहयोग बढ़ाने, QUAD संगठन को दोबारा खड़ा करने और दोनों देशों के बीच रक्षा समझौते बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस सम्मेलन में नियमित तौर पर आने वाले ऑस्ट्रेलिया की डिफेंस फोर्स के प्रमुख जनरल अंगुस कैंपबेल और ऑस्ट्रेलिया के रक्षा विभाग के सचिव ग्रेग मोरियार्टी ने रक्षा क्षेत्र में सहयोग और साझेदारी बढ़ाने पर ज़ोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में ऑस्ट्रेलिया के दृष्टिकोण को पूरा करने में भारत की अहम भूमिका का भी जिक्र किया। जापान की सेल्फ डिफेंस फोर्स के पूर्व चीफ ऑफ ज्वाइंट स्टाफ जनरल यामाज़ाकी कोजी ने नए विचारों और सार्थक बहस को बेहतरीन मंच मुहैया कराने के लिए रायसीना डायलॉग की तारीफ की। इसके साथ ही उन्होंने इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में भारत-जापान रक्षा सहयोग पर ज़ोर दिया

थिंक टैक कार्निज यूरोप के निदेशक और रिसर्च एनालिस्ट रोसा बाल्फोर और ज़कारिया अल शेमली ने अपने लेख में इस बात का जिक्र किया किया यूरोपीयन यूनियन (EU) के देशों के नीति दोहरे मानदंड वाली है। उन्होंने कहा कि यूरोपीयन यूनियन खुद के बारे में जो सोचता है, उसमें और ईयू को लेकर ग्लोबल साउथ के देशों के दृष्टिकोण में काफी अंतर है। ऐसे में यूरोपीयन यूनियन को अपनी नीतियों में बदलाव करना चाहिए, जिससे वो ग्लोबल साउथ के साथ बेहतर रिश्ते बना सके। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की डिप्टी डायरेक्टर अनिर्बन सरमा ने कहा कि भारत के जी-20 की अध्यक्षता करने के बाद से डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI) को लेकर दुनिया के बीच इसकी जागरूकता बढ़ी है। उन्होंने कहा कि आर्थिक क्षेत्र में समावेशी विकास और तकनीकी आधारित विकास में DPI की क्षमता को सब पहचानने लगे हैं। अनिर्बन सरमा के मुताबिक भारत के डीपीआई मॉडल की वजह से सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने के क्षेत्र में क्रांति आ गई है। ग्लोबल साउथ के देशों में भी सार्वजनिक सेवा क्षेत्र के लिए भी ये एक बेहतरीन मॉडल हो सकता है।

जर्मन इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल एंड एरिया स्टडीज की प्रमुख और प्रोफेसर अमृता नार्लिकर ने वैश्विकरण को संरक्षित करने पर तो ज़ोर दिया लेकिन साथ ही ये भी कहा कि इसकी नीतियों, दिशा और स्तर को लेकर मूलभूत तौर पर दोबारा से विचार करने की ज़रूरत है। उन्होंने वैश्विकरण और फायदों और कमियों का भी जिक्र किया। उन्होंने वैश्विकरण की सुरक्षा, स्थिरता और इसकी जिम्मेदारी लेने के मौजूदा मॉडल की आलोचना करते हुए कहा कि एक सुरक्षित, स्थिर और समावेशी वैश्विकरण के लिए ये ज़रूरी है कि हम इसके ‘भारतीय मॉडल’ को अपनाएं।

स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल ब्लिडट ने दुनिया में पैदा हुए भू-राजनीतिक संकटों पर बात की। उन्होंने वैश्विक व्यापारिक समझौते बढ़ाने पर ज़ोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने ये भी जलवायु परिवर्तन और दुनिया के सामने जो स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हुईं हैं, उससे निपटने में नई तकनीकी के प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। उन्होंने वैश्विक विचार-विमर्श में भारत की बढ़ते असर का जिक्र करते हुए कहा कि रायसीना डायलॉग ऐसी बहसों और अलग-अलग दृष्टिकोणों का पेश करने का एक शानदार मंच है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच सदाबहार दोस्ती का जिक्र किया। रायसीना डायलॉग के नज़रिए का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि ग्लोबल साउथ का अगुआ बनने के लिए भारत जिस तरह पश्चिमी देशों की सामारिक चिंताओं का ख्याल रखते हुए अपनी स्वतंत्र नीतियां बना रहा है, वो तारीफ के काबिल है। मैक्सिको के विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव मार्सेलो एबर्राड एशिया-पैसेफिक क्षेत्र, खासकर भारत की बढ़ती अहमियत का जिक्र किया। मैक्सिको के साथ भारत के राजनयिक रिश्तों को 70 साल से ज़्यादा हो चुके हैं। उन्होंने दुनिया के सामने आ रही चुनौतियों पर समावेशी संवाद को बढ़ावा देने और स्थायी समाधान तलाशने के लिए रायसीना डायलॉग की सराहना की।

मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट में सामरिक तकनीकी और साइबर सिक्योरिटी प्रोग्राम के डायरेक्टर मोहम्मद सोलीमान ने मध्य-पूर्व क्षेत्र की जटिल सुरक्षा स्थिति, इज़रायल और गाज़ा के बीच चल रहे संघर्ष और इसके समाधान के लिए अब्राहम समझौते के महत्व का जिक्र किया।

CIA के पूर्व निदेशक डेविड पेट्रोएस ने कहा कि वो रायसीना डायलॉग को भारत के प्रतिबिंब के तौर पर देखते हैं। उन्होंने कहा कि भारत जिस तरह QUAD और BRICS के सदस्य के रूप में दोनों संगठनों के बीच सफलता से संतुलन बनाकर चल रहा है, वो भारत की अनूठी भूमिका और अपनी एक स्वतंत्र पहचान को दिखाता है। उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर भारत का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे रायसीना डायलॉग भी संवाद और बहस का एक महत्वपूर्ण वैश्विक मंच बनता जा रहा है।

रायसीना डायलॉग के अब तक के इतिहास का समापन करते हुए कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफन जे हार्पर ने कहा कि “विकसित होती नई वैश्विक व्यवस्था में भारत अपनी सही जगह हासिल कर रहा है”। स्टीफन हार्पर ने वैश्विक स्तर पर भारत की बढ़ती भूमिका, इंडो-पैसेफिक क्षेत्र में स्थिरता, स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) हासिल करने, लोकतंत्रिक व्यवस्था की मज़बूती और जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में भारत के प्रभाव पर बात की। उन्होंने कहा कि नई विश्व व्यवस्था में भारत आत्मविश्वास से भरी जो महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, उसकी झलक रायसीना डायलॉग में भी दिखती है और इस बात के लिए इसकी तारीफ की जानी चाहिए।

रायसीना क्रॉनिकल्स इस सम्मेलन में आए विशिष्ट लोगों के योगदान का संकलन भर नहीं है। ये पिछले एक दशक के अन्तर्राष्ट्रीय मामलों का एक रिपोर्ट कार्ड भी है। रायसीना डायलॉग की एक दशक की यात्रा को लेकर जो दस्तावेज प्रकाशित किया गया है उसमें शामिल किए गए मूल लेख और यहां दिए गए भाषण सामूहिक तौर पर इन लोगों की अहम सोच को भी दिखाते हैं। पहली, भारत में होने वाला संवाद और बहस भी दुनियाभर में अहमियत रखी है क्योंकि इस मंच पर हम सार्थक चर्चा और विचार-विमर्श कराने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। दूसरी, रायसीना डायलॉग की एक दशक की यात्रा वैश्विक स्तर पर उभरते भारत का भी प्रतीक है। जैसे-जैसे दुनिया के साथ भारत के संबंध विकसित होंगे, वैसे-वैसे हम भी रायसीना डायलॉग में नए, अनूठे और बेहतर सुधार करेंगे। अब जबकि कई लोग ये कह चुके हैं कि यहां होने वाले संवाद दुनिया के सार्वजनिक हितों के लिए अच्छे हैं तो रायसीना डायलॉग के दूसरे दशक में प्रवेश के साथ-साथ हमें भी अपनी व्यापाक जिम्मेदारी का एहसास है। हम अब उसी हिसाब से खुद को बेहतर बनाने की कोशिश करेंगे।

साभार – https://www।orfonline।org/hindi/ से

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आर्यसमाज के भूषण पण्डित गुरुदत्तजी के अद्भुत जीवन का कारण क्या था?

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सच्चे भक्त विद्यानिधि, तर्कवाचस्पति, मुनिवर, पण्डित गुरुदत्त जी विद्यार्थी, एमए का जन्म २६ अप्रैल सन् १८६४ ई० को मुलतान नगर में और देहान्त २६ वर्ष की आयु में लाहौर नगर में १९ मार्च सन् १८९० ई को हुआ था। आर्य जगत् में कौन मनुष्य है, जो उनकी अद्भुत विद्या योग्यता, सच्ची धर्मवृत्ति और परोपकार को नहीं जानता? उनके शुद्ध जीवन, उग्र बुद्धि और दंभरहित त्याग को वह पुरुष जिसने उनको एक बेर भी देखा हो बतला सकता है। महर्षि दयानन्द के ऋषिजीवन रूपी आदर्श को धारण करने की वेगवान् इच्छा, योग समाधि से बुद्धि को निर्मल शुद्ध बनाने के उपाय, और वेदों के पढ़ने पढ़ाने में तद्रूप होने का पुरुषार्थ एक मात्र उनका आर्य्यजीवन बोधन कराता है।

अंग्रेजी पदार्थविद्या तथा फिलासोफी के वारपार होने पर उनकी पश्चिमी ज्ञानकाण्ड की सीमा का पता लग चुका था। जब वह पश्चिमी पदार्थविद्या और फिलासोफी क उत्तम से उत्तम पुस्तक पाठ करते थे, तो उनको भलीभांति विदित होता था कि संस्कृत विद्या के अथाह समुद्र के सन्मुख अंग्रेजी तथा पश्चिमी विद्या की क्या तुलना हो सकती है? एक समय लाहौर आर्य्यसमाज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अंग्रेजी में व्याख्यान देते हुए ज्योतिष शास्त्र और सूर्य्य सिद्धान्त की महिमा दर्शाते हुए, यह वचन कहे थे कि संस्कृत फिलासोफी का वहां आरम्भ होता है, जहां कि अंग्रेजी फिलासोफी समाप्त होती है।
वह कहा करते थे कि पश्चिमी विद्याओं में पदार्थविद्या उत्तम है और यह पदार्थविद्या तथा इसकी बनाई हुई कलें बुद्धि बल के महत्व को प्रकट करती हैं, इन कलों से भी अद्भुत विचारणीय पश्चिमी पदार्थविद्या के बाद हैं, परन्तु वह सर्व वाद वैशेषिक शास्त्र के आगे शान्त हो जाते हैं। वह कहते थे कि कणाद मुनि से बढ़कर कोई भी पदार्थविद्या का वेत्ता इस समय पृथिवी पर उपस्थित नहीं है। कई बेर उनको आर्य सज्जनों ने यह कहते हुए सुना कि मैं चाहता हूं कि पढ़ी हुई अंग्रेजी विद्या भूलजाऊँ, क्योंकि जो बात अंग्रेजी के महान् से महान् पुस्तक में सहस्र पृष्ठ में मिलती है, वह बात वेद के एक मन्त्र अथवा ऋषि के एक सूत्र में लिखी हुई पाई जाती है। वह कहते थे कि जो “मिल” ने अपने न्याय में सिद्धान्त रूप से लिखा है वह तो न्यायदर्शन के दो ही सूत्रों का आशय है। एक बेर उन्होंने कहा कि हम एक पुस्तक लिखने का विचार करते हैं जिसमें दर्शायेंगे कि भूत केवल पांच ही हो सकते हैं न कि ६४ जैसा कि वर्तमान समय में पश्चिमी पदार्थवेत्ता मान रहे हैं।
सन् १८८९ के शीतकाल में, मैं और लाला जगन्नाथ जी उनके दर्शनों को गये। वह उस रोग से जो अन्त को उनकी मृत्यु का कारण हुआ ग्रसे जा चुके थे। हम ने पूछा कि पण्डित जी आप प्रेम तथा विद्या की मूर्ति होने पर क्यों रोग से पकड़े गए? उत्तर में मुस्कराते हुए सौम्य दृष्टि से हम दोनों को कहने लगे कि क्या आप समझते हो कि स्वामी जी की महान् विद्या और उनका महान् बल मेरी इस मलीन बुद्धि और तुच्छ शरीर में आ सकता है, कदापि नहीं। ईश्वर मुझे इस से उत्तम बुद्धि और उत्तम शरीर देने का उपाय कर रहा है, ताकि मैं पुनर्जन्म में अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकूं। यह वचन सुनकर हम आश्चर्य सागर में डूब गए और एक एक शब्द पर विचार करने लगे। पुनर्जन्म को तो हम भी मानते थे पर पुनर्जन्म का अनुभव और उसकी महिमा उनके यह वचन सुनकर ही मन में जम गई। स्थूलदर्शी जहां रोगों से पीड़ित होने पर निराशा के समुद्र में मूर्छित डूब जाते हैं, वहां तपस्वी पण्डित जी के यह आशामय वचन कि मृत्यु के पीछे हमें स्वामी जी के ऋषिजीवन धारण करने का अवसर मिलेगा कैसे सारगर्भित और सच्चे आर्य्य जीवन के बोधक हैं।
जबकि वह रोग से निर्बल हो रहे थे तो एक दिन कहने लगे के हमारा विचार है, कि एक व्याख्यान इस विषय पर दें कि मौत क्या है? मृत्यु कोई गुप्त वस्तु नहीं है। लोग मौत से व्यर्थ भय करते हैं। यह सच है कि पण्डित जी से ईश्वर उपासक और धार्मिक, योगाभ्यासी के लिए मौत भयानक न हो, परन्तु वह मनुष्य जो ऐसी उच्च अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ वह क्योंकर अपने मुख से कह सकता है कि मौत भयानक नहीं है? पण्डित जी ने इस वाक्य को अपनी मौत पर जीवन में सिद्ध कर दिखाया। श्रीयुत लाला जयचन्द्र जी तथा भक्त श्री पण्डित रैमलजी, जो बहुधा उनके पास रोग की अवस्था में रहते थे वह उनकी मृत्यु से निर्भय होने की साक्षी भली प्रकार दे सकते हैं।
एक बार लाहौर समाज की धर्मचर्चा सभा में “वर्तमान समय की विद्या प्रणाली” के विषय में विचार होना था। इस वाद में कई बीए, एमए भाई अंग्रेजी विद्या तथा वर्तमान समय की विद्या प्रणाली की उत्तमता दर्शाने का यत्न करते रहे। अन्त को पण्डित जी ने “मातृमान् पितृमानाचार्य्यमान् पुरुषो वेद” की प्रतीक रखकर एक अद्भुत और सारगर्भित रीति से उक्त वचन की व्याख्या करते हुए लोगों को निश्चय करा दिया कि अंग्रेजी विद्या भ्रान्ति युक्त होने से विद्या ही कहलाने के योग्य नहीं है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली शिर से पग तक छिद्रों से भरपूर है। उनका एक वचन कुछ ऐसा था कि “Modern System of Education is rotten from top to bottom.” एक समय इसी प्रकार धर्मचर्चा के अन्त में जबकि लोग “वक्तृता” के विषय में वाद विवाद कर चुके तो पण्डित जी ने अपने व्याख्यान में यह सिद्ध किया कि सत्य कथन ही का दूसरा नाम अद्भुत वक्तृता है।
जब कभी वह आर्य्य सभासदों को अपने नाम के पीछे अपनी ज्ञाति लिखते हुए देखते तो वह रोक देते थे, यह कहते हुए कि यह ज्ञाति की उपाधि किसी गुण कर्म की बोधक नहीं किन्तु रूढ़ी है और साथ ही कहते थे कि वर्ण तो गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल चार हो सकती हैं।
जब कभी वह हमें सुनाते कि यूरोप में अमुक नवीन वाद किसी विद्या विषय में निकला है, तो अत्यन्त प्रसन्न होकर साथ ही कहते कि यूरोप सत्य के निकट आ रहा है यदि कोई उनको ही कहता कि पण्डित जी यूरोप तो उन्नति कर रहा है, तो कहते कि भाई वेद के निकट आ रहा है। सत्य नियम की उन्नति कोई क्या कर सकता है? क्या दो और दो चार का कोई नवीन वाद उल्लंघन कर सकता है, कदापि नहीं। वह कहते थे कि वर्तमान यूरोप योगविद्या से शून्य होने के कारण सत्य नियमों को निर्भ्रान्त रीति से नहीं जान सकता। इसीलिए यूरोप में एक वाद आज स्थापित किया जाता और दश वर्ष के पीछे उसको खण्डन करना पड़ता है।
यदि योगदृष्टि से यूरोप के विद्वान् युक्त होते, तो जो वाद आज निकालते वह कभी परसों खण्डन न होते। उनका कथन था कि विद्या बिना योग के अधूरी रहा करती है। आर्ष ग्रन्थ इसीलिए पूर्ण हैं, कि उनके कर्त्ता योगी थे। अष्टाध्यायी इसीलिए उत्तम है कि महर्षि पाणिनि योगी थे। दर्शन शास्त्र के कर्त्ता अपने अपने विषय का इसलिए उत्तम वर्णन करते हैं कि वह योगी थे। कई मित्र उनके यह वचन सुन कर कह देते कि योगी तो किसी काम करने के योग्य नहीं रहते। इस शंका के उत्तर में वह कहते कि यह सत्य नहीं है, देखो महर्षि पतञ्जलि ने योगी होने पर योग शास्त्र और शब्द शास्त्र अर्थात् महाभाष्य लिखा, कृष्ण देव ने योगी होने पर कितना परोपकार किया था? प्राचीन समय में कोई ऋषि मुनि योग से रहित न था और सब ही उत्तम वैदिक कर्म्म करते थे। वर्तमान समय में क्या स्वामी जी ने योगी होने पर थोड़ा काम किया है? हां यह तो सत्य है कि योग व्यर्थ पुरुषार्थ नहीं करते।
पण्डित जी कहा करते थे कि वर्तमान पश्चिमी आयुर्वेद योग के ही न होने के कारण अधूरा बन रहा है। टूटी हुई अङ्गहीन कला से उसकी क्रियामान उत्तम दशा का पूर्ण अनुमान जैसे नहीं हो सकता, वैसे ही मृत शरीर के केवल चीरने फाड़ने से जीते हुए क्रियामान शरीर का पूर्ण ज्ञान नहीं मिल सकता। एक योगी जीते जागते शरीर की कला को योग दृष्टि से देखता हुआ उसके रोग के कारण को यथार्थ जान सकता और पूर्ण औषधी बतला सकता है परन्तु प्रत्यक्षप्रिय पश्चिमी वैद्यक विद्या यह नहीं कर सकती। जब कोई विद्यार्थी उनसे प्रश्न किया करता कि मैं आत्मोन्नति के लिए क्या करूँ, तो वह उत्तर में कहते कि अष्टाध्यायी से लेकर वेद पर्य्यन्त पढ़ो और अष्टांग योग के साधन करो। विवाह की बात करते हुए एक समय वह कहने लगे कि हम अपने लड़के को जब वह स्वयं विवाह करना चाहेगा तो यह प्रेरणा कर देंगे कि पाताल देश में जाकर वहां किसी योग्य स्त्री को आर्य्य बनाओ और उससे विवाह करो।
वह अष्टाध्यायी श्रेणी के सर्व विद्यार्थियों को उपदेश किया करते थे कि प्रातः काल सन्ध्या के पश्चात् एक घण्टा सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा करो, वह कहते थे कि मैंने ११ बेर सत्यार्थ प्रकाश को विचार पूर्वक पढ़ा है, और जब जब पढ़ा नए से नए अर्थों का भान मेरे मन में हुआ है। वह कहते थे कि शोक की बात है कि लोग सत्यार्थ प्रकाश को कई बेर नहीं पढ़ते। एक अवसर पर प्राणायाम का वर्णन करते हुए वह कहने लगे कि असाध्य रोगों को यही प्राणायाम दूर कर सकता है। उन्होंने बतलाया कि कभी कभी एक हृष्ट पुष्ट मनुष्य को प्राणायाम निर्बल कर देता है, परन्तु थोड़े ही काल के पश्चात् वह मनुष्य बलवान् और पुष्ट हो जाता है। उनका कथन था कि सृष्टि में सबसे उपयोगी वस्तु बिन मोल मिला करती है, इसलिए सबसे उत्तम औषधी असाध्य रोगों के लिए वायु ही है, और यह वायु प्राणायाम की रीति से हमें औषधी का काम दे सकती है।
एक बार लाला शिवनारायण अपने पुत्र को पण्डित जी के पास ले गये और कहने लगे कि पण्डितजी इसको मैं अष्टाध्यायी पढ़ाता हूं और मेरा विचार है कि इसको अंग्रेजी न पढ़ाऊं आपकी क्या सम्मति है? पण्डित जी बोले हमारी आपके अनुकूल सम्मति है, जब सौ में ९५ पुरुष बिना अंग्रेजी पढ़े के रोटी कमा सकते हैं तो आपको रोटी के लिए भी इसको अंग्रेजी नहीं पढ़ानी चाहिए।
एक बार मेरे साथ पण्डित जी ने प्रातः काल भ्रमण करने का विचार किया। मैं प्रातः काल ही उनके गृह पर गया और सब से ऊपर के कोठे पर उनको एक टूटी सी खाट पर बिना बिछोने और सिरहाने के सोता पाया। मैंने एक ही आवाज दी तुरन्त उठ कर मेरे साथ हो लिए। मैंने पूछा पण्डित जी आपको ऐसी खाट पर नींद आ गई, कहने लगे कि टूटी खाट क्या निद्रा को रोक सकती है? मैंने कहा कि आपको ऐसी खाट पर सोना शोभा देता है, कहने लगे कि सोना ही है कहीं सो रहे, बहुधा कंगाल लोग भी जब ऐसी खाटों पर सोते हैं तो हम क्या निराले हैं?
इस प्रकार बात चीत करते हुए मैं और लाला जगन्नाथ जी पण्डित जी के साथ नगर से दूर निकल गये। रास्ते में उन्होंने छोटे-छोटे ग्रामों में रहने के लाभ दर्शाये, फिर घोड़ों की कथाऐं वर्णन करते हुए हमें निश्चय करा दिया कि पशुओं में भी हमारे जैसा आत्मा है और यह भी सुख दुःख को अनुभव करते हैं। गोल बाग में आकर उन्होंने हमें बतलाया कि वनस्पति में भी आत्मा मूर्छित अवस्था में है और एक फूल को तोड़कर बहुत कुछ विद्या विषयक बातें वनस्पतियों की सुनाते रहे। इतने में लाला गणपतराय जी भी आ मिले और हम सब एकत्र होकर पण्डित जी की उत्तम शिक्षाएं ग्रहण करने लगे। उन्होंने गन्दे विषयासक्ति के दर्शाने वाले कल्पित ग्रन्थों के पढ़ने का खण्डन किया और पश्चिमी देशों के बड़े बड़े इन्द्रियाराम धनी पुरुषों के पापमय जीवनों का वर्णन करते हुए कहा कि निर्वाह मात्र के लिए धर्म से धन प्राप्त करना साहूकारी है न कि पाप से रुपया कमा कर विषय भोग करना अमीरी है।
अन्त में उन्होंने कहा कि पूर्ण उन्नत मनुष्य का दृष्टान्त ऋषि जीवन है। फिर उन्होंने कहा कि वह प्राचीन ऋषि, नहीं जान पड़ता कि कैसे अद्भुत विद्वान् होंगे जो अपने हाथों से, अनुभव करते हुए यह लिख गए कि संसार में ईश्वर इस प्रकार प्रतीत हो रहा है जैसा कि खारे जल में लवण विद्यमान् है।
एक समय लाहौर में ईसाइयों के स्थान में एक अंग्रेज ने व्याख्यान दिया जिसमें उसने मैक्समूलर आदि के प्रमाणों से वैदिक धर्म को दूषित बतलाया। पण्डित जी भी वहां गए हुए थे। आते हुए रास्ते में कहने लगे कि हम इसके कथन से सम्मत नहीं हैं। क्या यह हो सकता है कि हम भारतवर्ष के निवासी लण्डन में जाकर अंग्रेजी के प्रोफैसरों के सन्मुख “शेक्सपीअर” और “मैकाले” की अशुद्धियां निकालें और अंग्रेजी शब्दों के अपने अर्थ अंग्रेजों को सुनाकर कहें, कि तुम “शेक्सपीअर” नहीं जानते हमसे अर्थ सीखो। क्या “मैक्समूलर” वेदों के अर्थ अधिक जान सकता है अथवा प्राचीन ऋषि मुनि? निरुक्त आदि में वेद के अर्थ मिल सकते हैं न किसी विदेशी की कल्पना वेद के अर्थ को जान सकती है।
जब कोई उनसे स्वामी दयानन्द जी के जीवन चरित्र के विषय में प्रश्न करता तो वह सब काम छोड़कर उसके प्रश्न को सुनते और उत्तर देने को प्रस्तुत हो जाते। एक बेर किसी भद्रपुरुष ने उनको कहा कि पण्डित जी आप तो स्वामी जी के योगी होने के विषय में इतनी बातें विदित हैं, आप क्यों नहीं उनका जीवन चरित्र लिखते? उत्तर में बड़ी गम्भीरता से कहने लगे, कि हां, यत्न तो कर रहा हूं कि स्वामी जी का जीवन चरित्र लिखा जावे, कुछ कुछ आरम्भ तो कर दिया है। उसने कहा कि कब छपेगा, बोले कि आप पत्र पर जीवन चरित्र समझ रहे हो, हमारे विचार में स्वामी दयानन्द का जीवन चरित्र जीवन में लिखना चाहिए। मैं यत्न तो कर रहा हूं कि अपने जीवन में उनके जीवन को लिख सकूं।
एक बार अमृतसर समाज के उत्सव पर व्याख्यान देते हुए, उन्होंने दर्शाया कि स्वामी जी के महत्व का लोगों को २०० वर्ष के पीछे बोधन होगा जब कि विद्वान् पक्षपात् से रहित हो कर उनके ग्रन्थों को विचारेंगे। अभी लोगों की यह दशा नहीं कि योगी की बातों को जान सकें। वह कहा करते थे कि जैसे पांच सहस्र वर्ष व्यतीत हुए कि एक महाभारत युद्ध पृथिवी पर हुआ था, जिसके कारण वेदादि शास्त्रों का पठन पाठन पृथिवी पर से नष्ट होता गया, वैसे ही अब एक और विद्यारूपी महाभारत युद्ध की पृथिवी पर सामग्री एकत्र हो रही है, जब कि पूर्व और पश्चिम के मध्य में विद्या युद्ध होगा और जिसके कारण फिर वेदों का पठन पाठन संसार में फैलेगा और इस आत्मिक युद्ध का बीज स्वामी दयानन्द ने आर्य्यसमाज रूपी साधन द्वारा भूगोल में डाल दिया है।
एक अवसर पर किसी पुरूष के उत्तर में उन्होंने बतलाया कि स्वामी जी ने अजमेर में कहा था कि महाराजा युद्धिष्ठिर के राज से पहले चूहड़े अर्थात् भंगी आर्य्यावर्त्त में नहीं होते थे। आर्ष ग्रन्थों में भंगियों के लिए कोई शब्द नहीं है।
एक बेर, लाहौर में जब कि लोग अष्टाध्यायी पढ़ने के विपरीत युक्तियां घड़ रहे थे, तो उन्होंने समाज में एक व्याख्यान इस विषय पर दिया कि “लोग क्या कहेंगे” जिसमें उन्होंने सिद्ध किया कि जब कोई नया शुभ काम आरम्भ किया जाता है तब ही करने वालों के मन में उक्त प्रकार प्रश्न उठा करते हैं, परन्तु दृढ़ता के आगे ऐसे ऐसे प्रश्न स्वयं ही शान्त हो जाया करते हैं।
आरोग्यता सम्बन्धी बहुत सी बातें वह हमको बतलाया करते थे। उनका कथन था कि प्रातः काल भ्रमण करने के पीछे पांच वा सात मिनट आते ही लेट जाना चाहिए, इससे मल उतर आता है यदि रास्ते में भ्रमण करते समय एक संतरा खा लिया जाए तो और भी हितकारी है। वह मद्य, मांस, तमाकू, भंग आदि का खाना पीना सबको वर्जन करते थे रोटी के संग जल पान करने को अहित दर्शाते थे। वह स्वयं, जल रोटी खाने के कुछ काल पीछे पान करते थे। एक बेर स्वामी स्वात्मानन्द जी ने उनसे प्रश्न किया, कि वीर क्षत्रियों को मांस खाने की आवश्यकता है वा नहीं? इसके उत्तर में उन्होंने यूनान देश के योद्धाओं, नामधारी सिक्खों और ग्राम निवासी वीरों के दृष्टान्तों से सिद्ध कर दिया कि क्षत्री को मांस खाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, उन्होंने अर्जुन के दृष्टान्त से विदित किया कि वीरता का एक कारण आत्मिक संकल्प आदि है। क्योंकि जिस समय अर्जुन ने विचार किया था कि मुझको नहीं लड़ना चाहिए वह कायर हो गया, परन्तु जब कृष्णदेव के उपदेश ने उसके मनोभाव पलट दिए तो वही अर्जुन फिर वीर हो कर लड़ने लगा। अन्त में उन्होंने कहा कि अखण्ड ब्रह्मचर्य वीरता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। स्वात्मानन्द जी मान गये कि बिना मांस भक्षण किये क्षत्री वीर हो सकते हैं।
एक बार उन्होंने लाला केदारनाथजी को उपदेश किया कि जल की नवसार चढ़ाया करो और “ऐनक” लगाना आंखों पर से छोड़ दो। उन्होंने मुझे तथा अन्य भाईयों को बिच्छु काटने, स्मृति के बढ़ाने और शीतला के रोकने की औषधियाँ बतलाईं थीं।
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फुटपाथ पर रहने वाले बेघरों की कमाल की फोटोग्राफी

मुंबई। आज तक आपने कैमरे से फोटो क्लिक करते हुए बहुत से लोगों को देखा होगा, लेकिन फुटपाथ पर रहने वाले ऐसे बेघर नागरिकों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनके कैमरे से क्लिक हुए 13 फोटो को चयनित कर माई मुंबई कॅलेंडर 2024 का आकर्षक कैलेंडर बन पाया। 1350 फ़ोटो का इसे ज़खीरा ही कहा जा सकता है जो मुंबई को अपने नजरिए से न सिर्फ़ देख रहा है बल्कि उसके बदलते स्वरुप को बयां भी करता है।

‘पहचान’ संस्था के अध्यक्ष बृजेश आर्य की पहल पर मुंबई के फुटपाथ पर रहने वाले उन बेघरों को अपनी कला का आविष्कार करने का मौका मिला। जिनके फ़ोटो कैलेंडर में चयनित हुए उन्हें मेडल देकर आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने पुरस्कृत किया। आर्य बताते है कि माई वर्ल्ड लंडन के पॉल रायन की मदद से फुजि फ़िल्म के 50 कैमरे मुफ्त में उपलब्ध हुए। कुल 1350 फोटो निकाले गए जिनमें से 105 कैलेंडर के लिए मंजूर हुए। मुंबई के 4 जज पेररी सुब्रमण्यम, इयान पेरेरा, राजीव आसगावकर, राजन नंदवाना एवं सेंट झेवियर्स में इन फोटो को प्रदर्शित आम राय लेने के बाद 13 फ़ोटो बेस्ट पाए गए। कैफ़े आर्ट लंदन में उन फ़ोटो और बेहतर बनाकर कैलेंडर बना जिसका लोकार्पण महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कर बेघरों की कला की सराहना की।

इस कैलेंडर में जिनकी फोटो प्रकाशित हुई है उनमें आरती खारवा (मुख पृष्ठ), नितीन खारवा (जनवरी), फिरोज शाह (फरवरी), सुनील खारवा (मार्च), नितीन खारवा (अप्रैल), राहुल परमार (मई), सिकंदर मंसूरी (जून), शीला पवार (जुलाई), सुरेश पवार (अगस्त), आकाश खारवा (सितंबर), सुनंदा गायकवाड़ (अक्टूबर), शोभा खारवा (नवंबर) एवं अनिल बूटिया ( दिसंबर ) शामिल है। सुभाष रोकड़े एवं छात्र स्वयंसेवक द्वन्शित, अशल्यन एवं श्रेय ने इनसे फ़ोटो खिंचवाने से लेकर संकलित करने का काम किया।

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