1.एक देश -एक चुनाव की आवश्यकता क्यों है?;
2.इसकी पृष्ठभूमि क्या है;और
3.इसकी सीमाएं क्या है
जीवंत लोकतंत्र के लिए चुनाव एक अनिवार्य और आवश्यक प्रक्रिया है। स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकोन्मुखी लोकतंत्र की आधारशिला है। निर्वाचकीय इतिहास को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होता है। चुनाव की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी तरीका( मोड) में विद्यमान रहता है। इस कारण भारत की प्रशासकीय निकाय और नीतिगत निर्णय लेने वाली संस्थाएं प्रभावित होती हैं, बल्कि देश के राजकोष पर भारी बोझ भी पड़ता है। इन सब बोझिल प्रक्रिया के निवारण के लिए निर्वाचन आयोग ,नीति आयोग ,विधि आयोग, संविधान समीक्षा आयोग और नीति निर्माताओं ने लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार किया था। एक देश – एक चुनाव कोई नया वैचारिक आंदोलन नहीं है, बल्कि 1952,1957,1962 और 1967 में ऐसा हो चुका है। जब लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए थे।
एक देश – एक चुनाव कराने का विचार सर्वोत्तम है। इसके कारण लोकतंत्र में स्थायित्व प्राप्त होगा ।इस प्रक्रिया को क्रियान्वित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83( संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85( संसदीय सत्र को स्थगित करना और समाप्त करना), अनुच्छेद 172( विधानसभाओं का कार्यकाल) और अनुच्छेद174( विधानसभा सत्र को स्थगित करना और समाप्त करना) में संशोधन करना अति आवश्यक है। इसके क्रियान्वयन के लिए दो – तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी, जिसे आम सहमति के आधार पर किया जा सकता है।
संसदीय समिति ने संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में कहा था कि यदि देश में एक ही बार में सभी प्रकार के चुनाव संपन्न किए जाएंगे ,तो इससे राजकोष पर दबाव कम पड़ेगा, बल्कि राजनीतिक दलों का खर्च कम होने के साथ-साथ मानव संसाधन(HR ) का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। इससे मतदान के प्रति मतदाताओं की उदासीनता कम होगी। इस विषय पर भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी जी भी कह चुके हैं कि यह भारत की सामयिक अवस्था की मांग भी है। यह सर्वविदित है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक व्यवस्था पर भी असर पड़ता है। स्वतंत्र, स्वस्थ, टिकाऊ और विकसित लोकतंत्र के लिए एक देश – एक चुनाव अति आवश्यक है।
एक देश – एक चुनाव लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने का एक नीतिगत उपकरण है। भारत( हमारे देश) केंद्र( संघ) और सभी राज्यों , केंद्र शासित प्रदेश( राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) में जनता द्वारा चयनित सरकारें कार्य करती हैं। इन चुनी हुई सरकारों का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है (कार्यपालिका का विधायिका में विश्वास होने की स्थिति में अन्यथा अविश्वास की अवस्था में मध्यावधि चुनाव भी हो सकता है)। जब सरकार का कार्यकाल पूर्ण हो जाता है तो संवैधानिक परंपराओं के अनुसार चुनाव करवाना अनिवार्य होता है, जिससे नई सरकार गठित किया जा सके और देश एवं संबंधित प्रदेश की शासकीय व्यवस्था को संचालित किया जा सके। चुनाव को संपन्न करने के लिए बहुत बड़े तंत्र और धन की आवश्यकता होती है इस स्तर पर संघीय चुनाव और राज्य स्तरीय चुनाव के लिए बड़े तंत्र की आवश्यकता होती है।
आम चुनाव के कारण लोकसभा के निर्वाचन और राज्य विधानसभाओं के चुनाव के परिणाम स्वरुप आदर्श आचार संहिता लंबे समय तक क्रियान्वित रहते हैं और इसके कारण विकास और कल्याण परियोजनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामूहिक परिदृश्य में देखें तो हम पाएंगे कि देश का कोई ना कोई हिस्सा चुनाव में रहता है। देश के पहले चुनाव से लेकर अगले 15 सालों तक 1952, 1957, 1962 और 1967 में क्रमशः चार बार लोकसभा चुनाव हुए और संयोग से इसी क्रम में राज्यों के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा के साथ हुई, लेकिन 1968 – 69 में विचारधारात्मक विवाद और सत्ता की राजनीति के कारण कुछ राज्यों के विधानसभाओं को उनके कार्यकाल समाप्त होने के पहले ही भंग कर दिया गया तो एक देश- एक चुनाव प्रक्रिया बाधित हो गया था।
विदित हो की पहली बार लोकसभा चुनाव में निर्धारित समय से पहले करा लिए गए थे ।चौथी लोकसभा का कार्यकाल 1972 तक था, लेकिन आम चुनाव इसके पूरा होने के पहले 1971 में कर लिए गए थे।लोकसभा के चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ आयोजित होते हैं तो देश के खजाने पर दबाव नहीं पड़ता और सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं का वैकासिक अवयव प्रदान किया जाता है। इस विषय पर सरकार प्रगतिशील मुद्रा में होती है, तो विपक्ष इस पर असहयोगी नजर आता है ।भाजपा विरोधी दल इसे भाजपा का “सत्ता का केंद्रीकरण करने की योजना ” कह कर इसका विरोध करते हैं ,जबकि वास्तविकता यह है कि एक देश – एक चुनाव की अवधारणा बहुत पुरानी है ।वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता सर्वाधिक है, क्योंकि चुनाव के कारण तंत्र पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है। इस विषय पर संविधान समीक्षा आयोग, विधि आयोग, चुनाव आयोग और नीति आयोग जैसे प्रभावशाली संविधानेतर संस्थाओं की राय भी बहुत सकारात्मक है। आदरणीय मोदी जी के नेतृत्व में सरकार राष्ट्रहित में इस विचार को गत्यात्मक अवधारणा में बदलकर राष्ट्र के विकास में उपादेयता दे रही है।
विशेषज्ञ लंबे समय अंतराल से एक देश – एक चुनाव की प्रासंगिकता को बताते रहे हैं। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170 वी प्रतिवेदन में लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं को एक साथ करने की सहमत व्यक्त किया था। प्रतिवेदन का एक संपूर्ण अध्याय इसी विषय पर केंद्रित है। चुनाव सुधारो पर विधि आयोग के प्रतिवेदन को देश में सर्वाधिक अधिकृत दस्तावेज माना जाता है। संघवाद के समर्थक और अपने शासकीय उपादेयता के कारण विकास पुरुष के नाम से जाने वाले भारत सरकार के पूर्व गृह मंत्री आदरणीय लाल कृष्ण आडवाणी ने इसको राजनीतिक और लोकतांत्रिक उपादेयता के स्तर पर प्रमुखता से उठाया था। 2003 में अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई ने भी इसका पुरजोर समर्थन किया था।
एक देश – एक चुनाव का क्रियान्वयन होने से राजकोष पर पड़ने वाले चुनावी खर्च के बोझ को कम किया जाए, जो विगत कुछ दशकों में निरंतर बढ़ता ही गया है। इसके अतिरिक्त थोड़े-थोड़े अंतराल के पश्चात होने वाले चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता लागू होने से बहुत सारे विकास कार्य और जनोपयोगी/ लोकोपयोगी कार्यक्रम बाधित होते हैं, इससे भी छुटकारा मिल सकता है। प्रथम आम चुनाव 1951 – 1952हमें में जब पहला लोकसभा चुनाव हुए थे तो इनमें 53 राजनीतिक दल चुनावी दंगल में उतरे थे।
इन चुनावों में 1874 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और इन उम्मीदवारों का चुनावी खर्च 11 करोड़ आए थे। इसी प्रकार 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 9000 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और लगभग60000 करोड रुपए खर्च आए। सभी विधानसभाओं में 4000 से अधिक सीटें हैं ।एक लोकसभा सीट और इसके अंतर्गत आने वाली 8 विधानसभा सीटों के लिए दो अलग – अलग समय पर चुनाव होते हैं ऐसे में खर्च दोगुना हो जाएगा, लेकिन, अगर इन्हीं चुनाव को समवेत कराया जाए तो व्यय को काफी मात्रा में कम किया जा सकता है। इससे जो धनराशि बचेगी, इसका सदुपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण ,शुद्ध पेयजल और लोक कल्याणकारी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कर सकते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)