पटना। भारतीय जनतंत्र आज अत्यंत ही नाजुक मोड़ पर खड़ा है और उसे अपनी आबादी के बड़े हिस्से को यकीन दिलाना है कि उसने उसके साथ बराबरी का जो वादा किया था, उसे लेकर वह ईमानदार और गंभीर है। यह आबादी आदिवासियों, मुसलमानों की है जो लगभग सत्तर साल के जनतांत्रिक अनुभव के बावजूद एक असमान स्थिति यापन करने को बाध्य हैं.
आज 'भारतीय जनतंत्र का जायज़ा' पर केंद्रित 'आलोचना'त्रैमासिक के दो अंकों के प्रकाशन के उपलक्ष्य बिहार इंडस्ट्रीज असोसिएशन हॉल, पटना में आयोजित एक परिचर्चा में वक्ताओं ने ये विचार व्यक्त किए। परिचर्चा में इनके अतिरिक्त भारतीय जनतंत्र में जन की पहचान और उसकी सत्ता पर भी सवाल उठे। सामाजिक कार्यकर्ता आशीष रंजन ने गाँवो में जातिगत भेदभाव और गरीबी से संघर्ष के अनुभवों से शहरी मध्यवर्ग की दूरी पर चिंता जाहिर की।
राजनीति विज्ञान के अध्यापक प्रणव कुमार ने जनतंत्र की वैचारिक यात्रा परिप्रेक्ष्य में सवाल किया कि क्या उदार लोकतंत्र की एक मात्र रास्ता है। दैनिक इंक़लाब के, संपादक अहमद जावेद ने जनतंत्र की सामाजिक शिक्षा के अभाव की ओर संकेत किया. उन्होंने कहा कि प्रतीकों की राजनीति के समय में आक्रामक प्रतीकों का सहारा लेना खतरनाक हो सकता है।
तरुण कुमार ने बढ़ती लफ्फाजी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बढ़ते असर को ध्यान से देखने की ज़रूरत बताते हुए कहा कि फूहड़पन और आक्रामकता जनतंत्र के लिए घातक हैं। उन्होंने पूंजी के बढ़ते असर का अध्ययन करने की आवश्यकता भी महसूस की।
आज हुई जीवंत चर्चा में जनतंत्र की कमी का उत्तर जनतंत्र से देने की बात के साथ अल्पसंख्यकों की बढ़ती असुरक्षा को चिन्हित किया गया। संयोजन 'आलोचना' त्रैमासिक के संपादक अपूर्वानंद ने किया। राजकमल प्रकाशन समूह, पटना शाखा द्वारा आयोजित इस परिचर्चा में पटना शहर के अनेक बुद्धिजीवी शामिल हुए। ज्ञात हो कि राजकमल प्रकाशन की विमर्शपरक पत्रिका के नए संपादक अपूर्वानंद के संपादन में जो पहले दो अंक (अंक 53-54) आए हैं, ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केन्द्रित हैं।
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