जनजातीय उद्यमशीलता की एक और मिसाल के रूप में नगालैंड उभरकर सामने आया है, जिसने पूरे देश के सामने यह दिखा दिया है कि कैसे समूह विकास तथा मूल्य संवर्धन सदस्यों को ज्यादा आय अर्जित करने में मदद करते हैं। ये समूह वन धन योजना के तहत विकसित किये गये हैं। उल्लेखनीय है कि वन धन योजना की शुरूआत जनजातीय मंत्रालय के भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास महासंघ (ट्राइफेड) ने राज्य विभागों के सहयोग से की है। योजना का लक्ष्य है कि वित्तीय पूंजी, प्रशिक्षण, सलाह आदि प्रदान करके जनजातियों को शक्तिसम्पन्न बनाना, ताकि वे अपने कारोबार तथा अपनी आय को बढ़ा सकें।
नगालैंड मधुमक्खी पालन और शहद मिशन, राज्य में शहद उत्पादन की नोडल एजेंसी है। यह उपरोक्त समूहों के लिये क्रियान्वयन एजेंसी के रूप में काम करती है। मिशन ने केवल मधुमक्खी पालन के लिये वन धन योजना का क्रियान्वयन किया है। पहले चरण में यह अकेला लघु वन्य उत्पाद है, जिसे शुरू में चार जिलों के पांच वन धन विकास केंद्र समूहों ने लागू किया था। चूंकि शहद उत्पादन मौसमी गतिविधि है और मौसम खत्म होने के दौरान या उसका अभाव हो जाने पर वन धन स्वसहायता समूह के सदस्यों के पास कोई काम नहीं रहता। इसलिये वन धन विकास केंद्र समूह की गतिविधियां साल भर चलाये रखने के लिये राज्य क्रियान्वयन एजेंसी ने विचार किया कि पहाड़ी घास (झाड़ू बनाने के काम आने वाली घास), ढींगरी खुम्बी (ऑयस्टर मशरूम), अदरक और माजूफल (गॉल-नट) जैसे अन्य लघु वन्य उत्पादों के लिये कोशिश की जाये।
ढींगरी मशरूम की खेती की शुरूआत कुछ चुने हुये स्वसहायता समूहों ने महामारी के दौरान किया था। आगे चलकर राज्य क्रियान्वयन एजेंसी ने इसके भारी उत्पादन, बाजार में इसकी खपत की अपार संभावनाओं तथा इसके सकारात्मक स्वास्थ्य पक्षों को देखते हुये इसके उत्पादन में जुट गयी। वन धन विकास केंद्र समूह अब बड़े पैमाने पर ढींगरी मशरूम का उत्पादन कर रहे हैं। उनका लक्ष्य है कि आने वाले महीनों में लगभग पांच मीट्रिक टन कच्ची खुम्बी पैदा की जाये, जो “गुलाबी और सफेद” किस्मों की होंगी।
ट्राइफेड की कोशिशों से ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य और लघु वन्य उत्पाद के लिये मूल्य श्रृंखला के विकास के माध्यम से लघु वन्य उत्पादों की विपणन प्रणाली’ ने जनजातीय इको-सिस्टम को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। इसकी खरीद 30 करोड़ रुपये से बढ़कर 1853 करोड़ रुपये जा पहुंची है, जिसके लिये भारत सरकार तथा देश की राज्य सरकारों की निधियों का इस्तेमाल किया गया है। वन धन जनजातीय स्टार्ट-अप इसी योजना का घटक हैं, जो वन्य उत्पाद जमा करने वाली और जंगल में निवास करने वाली जनजातियों तथा मकानों में रहने वाले जनजातीय शिल्पकारों के लिये रोजगार पैदा करने के स्रोत के रूप में सामने आये हैं।
अकेले नगालैंड राज्य के लिये, 285 वन धन स्वसहायता समूहों को मंजूरी दी गई है, जिन्हें 19 वन धन विकास केंद्र समूहों में शामिल किया गया है। इनमें से नौ वन धन विकास केंद्र समूहों (135 वन धन स्वसहायता समूह) को संचालित कर दिया गया है। इनमें जुन्हेबोटो, वोखा, तुएनसांग, फेक और मोकोकचुंग जिले शामिल हैं। वन धन विकास केंद्र समूह मौजूदा समय में जंगली शहद, अमला, माजूफल, पहाड़ी नीम, बेलचंडा, हल्दी, पहाड़ी घास, ढींगरी खुम्बी का उत्पादन कर रहे हैं। इसके लिये अतिरिक्त लघु वन्य उत्पादों का मूल्य संवर्धन किया गया है, जिसके कारण लगभग 5700 सदस्यों को फायदा मिल रहा है। अब तक वन धन विकास केंद्र समूहों द्वारा 35.32 लाख रुपये की बिक्री हो चुकी है, जिसके आधार पर नगालैंड के जनजातीय समुदायों की आर्थिक उन्नति भी हुई है और वे शक्तिसम्पन्न भी हुये हैं।
वन धन जनजातीय स्टार्ट-अप इसी योजना का घटक हैं, जो वन्य उत्पाद जमा करने वाली और जंगल में निवास करने वाली जनजातियों तथा घरों में रहने वाले जनजातीय शिल्पकारों के लिये रोजगार पैदा करने के स्रोत के रूप में सामने आये हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 14 अप्रैल, 2018 को बीजापुर, छत्तीसगढ़ में पहले वन धन केंद्र का उद्घाटन किया था। यह जनजातीय उत्पदों के लिये मूल्य संवर्धन केंद्र के रूप में शुरू हुआ था और दो वर्ष से भी कम समय में 37,362 वन धन स्वसहायता समूहों को 2240 वन धन विकास केंद्र समूहों में समेटा गया था। इनमें से प्रत्येक में 300 वनवासी शामिल थे। इसे ट्राइफेड ने मंजूरी दी थी। वन धन योजना की शुरूआत से ही ट्राइफेड के पास यह दायित्व था कि वह इस साल मिशन मोड में कार्यक्रम के शुरू होने के बाद 50 हजार वन धन स्वसहायता समूहों को स्थापित कर दे। ट्राइफेड ने 50 हजार वन धन स्वसहायता समूहों को मंजूरी देने का कारनामा 15 अक्टूबर, 2021 को कर दिखाया। अब 52,976 वन धन स्वसहायता समूह हो गये हैं, जिन्हें 3110 वन धन विकास केंद्र समूहों में बांट दिया गया है।
यह योजना परिवर्तन के प्रकाश-स्तंभ के रूप में सामने आयी है, जिसने जनजातीय इको-सिस्टम पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है, क्योंकि यह जनजातियों के लिये रोजगार का स्रोत बनी है। कार्यक्रम की खूबी इस तथ्य में निहित है कि इससे यह सुनिश्चित होता है कि मूल्यसंवर्धित उत्पादों की बिक्री से होने वाली आय सीधे जनजातियों को प्राप्त होती है।