Saturday, November 23, 2024
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राजेश खन्ना का भी एक दौर था

राजेश खन्ना का फ़िल्मों का चयन बहुत ‘अंडररेटेड’ है। इस पर ज़्यादा बात नहीं हुई। जबकि उन्होंने हमेशा अच्छी और लीक से हटकर कहानियाँ चुनी थीं। शिखर के दिनों में जब कोई सितारा अपनी छवि को लेकर बहुत सतर्क हो जाता है और फ़ॉर्मूला फ़िल्मों तक ख़ुद को सीमित कर लेता है- जैसे कि अमिताभ बच्चन ने 80 के दशक में किया- उससे राजेश खन्ना अधिक समय तक मुक्त रहे थे। उन्होंने कई अप्रचलित रोल बड़े सहज ढंग से निभाए।

1969 से 1971 तक राजेश खन्ना की लगातार 17 फ़िल्में सुपरहिट रही थीं। यह अकल्पनीय कीर्तिमान है। एक समय था, जब 1969 में एक सिनेमाघर में ‘आराधना’ और दूसरे में ‘दो रास्ते’ लगी थी, दोनों एक साथ गोल्डन जुबली मना रही थीं। यानी वो फ़िल्में एक ही टॉकिज़ में सालभर चलती रही थीं। जब ‘आन मिलो सजना’ का ट्रेलर आया, तब घर-घर टीवी नहीं थे। किसी अन्य फ़िल्म के इंटरवल में उसका ट्रेलर दिखाया जाता। वह ट्रेलर देखने के लिए लोग बार-बार उस फ़िल्म को देखते। शम्मी कपूर की ‘अंदाज़’ में राजेश का दस मिनट का कैमियो था। उस दस मिनट के रोल ने फ़िल्म को हिट करा दिया और शम्मी का डूबता कॅरियर बचाया। ‘सच्चा-झूठा’ ने उन्हें उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर दिलाया। इन तमाम फ़िल्मों में से कोई भी फूहड़ नहीं थी। राजेश मध्यवर्गीय फ़ैमिली ड्रामा में रचे-बसे थे। उनका व्यक्तित्व ही उसके अनुरूप था।

जब वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे, तब 1971 में उन्होंने ‘आनंद’ की। एक असाध्य रोग से दिन-दिन मर रहे ज़िंदादिल युवक की कहानी। फ़िल्म में उनके साथ कोई नायिका नहीं थी। कोई प्रेम-प्रसंग नहीं था। पर राजेश ने उस भूमिका में प्राण फूँक दिए। अगले साल उन्होंने ‘बावर्ची’ की। इस फ़िल्म में भी उनकी कोई नायिका न थी। हाफ़ निकर पहनने वाले हरफ़नमौला रसोइये की भूमिका उन्होंने निभाई, जो कलहग्रस्त घरों में सामंजस्य क़ायम करता है। वैसे रोल भला कौन सुपर सितारा करता है?

‘दुश्मन’ की कहानी तो एकदम ही अलग थी। ‘ख़ामोशी’, ‘कटी पतंग’, ‘अमर प्रेम’, ‘मेहबूबा’ : इनमें से किसी की प्रेम कथाएँ प्रचलित मानदंडों के अनुरूप नहीं थीं। ‘हाथी मेरे साथी’ में तो नायिका से अधिक महत्व एक भले प्राणी का था। यह फ़िल्म इतनी चली कि इसने सबको पीछे छोड़ दिया। ऑलटाइम ब्लॉकबस्टर अपने ज़माने में थी। कर्णप्रिय संगीत से सजी इन मनभावन फ़िल्मों को परिवार के परिवार देखने जाते, कभी हँसते तो कभी रोते सिनेमाघर से लौटते। मन ही मन राजेश खन्ना को दुआएँ देते।

‘अमर प्रेम’ के बाद राजेश की फ़िल्में चलना बंद हो गई थीं। एक-एक कर छह-सात फ़िल्में पिट गईं। सबसे बड़ा झटका ‘मेरे जीवन साथी’ की नाक़ामयाबी से लगा। एक ‘दाग़’ ही थोड़ी-बहुत चली। 1973 में राजेश का सिंहासन डोल गया था। मई में ‘ज़ंजीर’ आई, सितम्बर में ‘बॉबी’। अमिताभ और ऋषि कपूर ने राजेश को अपदस्थ कर दिया। पतंग कट गई!

नवम्बर में आई ‘नमक हराम’ को भी अपेक्षित दर्शक नहीं मिले। जिन्होंने उसे सराहा, उन्होंने भी कहा कि “इस बार लम्बू ने बाज़ी मार ली है!” इशारा उभरते हुए सितारे अमिताभ बच्चन की ओर था, जो ‘आनंद’ में उनसे उन्नीस थे, पर अब बराबरी की पाँत से जीमने को तैयार थे। ‘नमक हराम’ में राजेश ने एक फ़ैक्टरी मज़दूर की भूमिका निभाई थी। लेकिन जब राजेश की प्रतिष्ठा दाँव पर थी और सितारा हैसियत पर सवालिया निशान थे, तब भी उन्होंने भूमिकाओं से समझौते नहीं किए। उस कठिन दौर में उन्होंने ‘आविष्कार’ और ‘आप की क़सम’ चुनी।

‘आविष्कार’ में दाम्पत्य जीवन के तनावों के अभूतपूर्व दृश्य मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उभरे हैं। यह फ़िल्म कभी चल नहीं सकती थी, पर राजेश का सर्वश्रेष्ठ अभिनय उसमें है। ‘आप की क़सम’ ज़रूर अच्छी चली। “जय-जय शिव शंकर” गली-गली में गूँज गया। इसमें राजेश ने एक शंकालु पति की भूमिका निभाई थी। फ़िल्म के उत्तरार्ध में दर-दर की ठोकरें खाते बूढ़े भिखारी का रोल था। सुपर सितारे को वैसी भूमिकाएँ करने से कोई हर्ज़ नहीं था, क्योंकि कहानी बहुत अच्छी थी। वास्तव में राजेश अच्छी कहानी को तुरंत परख लेते थे। वो अच्छी कहानियों का बेसब्री से इंतज़ार करते थे।

बहुत बाद में राजेश ने कहा था कि मेरी फ़िल्में इसलिए नहीं पिटीं कि दर्शकों ने मुझे पसंद करना बंद कर दिया या दूसरे नए सितारे आ गए। वो इसलिए नहीं चलीं क्योंकि मुझे अच्छी कहानियाँ मिलना बंद हो गई थीं। यही कारण था कि बहुत सालों बाद जब उन्हें ‘सौतन’ मिली तो बड़े ख़ुश हुए। कहा अरसे बाद बढ़िया कहानी मिली, जिसे निभाने में मज़ा आएगा। फ़िल्म ख़ूब चली। ‘अवतार’ में बूढ़े बेघर बाप का रोल उन्होंने भर जवानी में ही निभाया। ‘आख़िर क्यों’ में अवसाद से टूटी नायिका का हौसला बढ़ाने वाले ख़ुशगवार साथी बने। “साला, यहीं पर तो मात खा गया इंडिया”- तक़िया कलाम दोहराने वाले दोस्त। ‘पलको की छाँव में’ में डाकिया बने। ‘नौकरी’ में पैरों से लाचार बेरोज़गार। ‘जनता हवलदार’ में कांस्टेबल। ‘आज का एमएलए’ में नेता। कितने रंग, कितनी भूमिकाएँ, कितने किरदार! जब चुक ही गए, तब गोविंदा और मिठुन के बड़े भाई के रोल में दिखने लगे, लेकिन फ़ैमिली ड्रामा नहीं छोड़ा।

वो अमिताभ और विनोद खन्ना की तरह मार-धाड़ नहीं कर सकते थे, न ही जीतेन्द्र और ऋषि कपूर की तरह नाच सकते थे। वे शुरू से ही ‘बॉय नेक्स्ट डोर’ थे, वही बने रहे। मासूमियत और कोमलता को व्यक्त करने वाले कलाकार थे। ‘सौतन’ फ़िल्म का गाना है- “इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पर बुलाया है।” आप कह सकते हैं, राजेश खन्ना वैसे युवकों में से थे, जिन्हें लड़कियाँ बड़े सहज ढंग से अपने घर पर माँ-पिता से मिलाने ले जा सकती थीं। ज़हीन, सुसंस्कृत, मिलनसार लड़का। आप निश्चित हो सकते थे कि पहली ही भेंट में वो लड़की के माँ-बाप से बड़ी अच्छी दोस्ती गाँठ लेंगे! जब वे नायिकाओं को बड़ी मिठास से ‘ऐsss’ कहकर बुलाते थे तो उसे सुनकर उस ज़माने की स्त्रियों का मन कैसे तो भीग जाता होगा। उन्हें ख़ून से ख़त लिखने वाली लड़कियाँ आज पता नहीं किस जीवन में, कैसी होंगी। क्या अपनी उम्र की पहली करवट को आज भी भूले से याद करती होंगी? राजेश खन्ना आज भी उनकी कल्पनाओं में कहीं मुस्कराते तो होंगे- पलकें झपकाते हुए!

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