Saturday, April 27, 2024
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तीन दिसंबर की भोपाल की उस काली रात की भयावह यादें

तीन दिसंबर, कहने के लिए यह वो तारीख है जो हर माह कैलेंडर के पन्ने पर आती है और कभी तीस और कभी इकतीस दिन बाद फिर यह तारीख नुमाया होती है। हर तारीख का अपना वजूद होता है और तीन दिसंबर की तारीख तो जैसे कफन ओढ़े हर वर्ष हमारे सामने से गुजर जाती है। तारीख अपनी चाल से गुजरती है लेकिन भीतर तक हम सिहर उठते हैं, उस बीते रात की तबाही को याद करके। कोई अठतीस बरस पहले तीन दिसंबर की तारीख महज एक तारीख हुआ करती थी लेकिन अब यह तारीख मौत की तारीख के तौर पर याद आ जाया करती हैं। कहते हैं कि समय बड़े से बड़े जख्म को भर देता है लेकिन तीन दिसंबर को मिला जख्म आज तक नहीं भरा गया। बेबसी और आंसुओं से भीगी यह तारीख को हम भोपाल गैस त्रासदी के रूप में जानते हैं। कहते हैं कि यह गैस त्रासदी दुनिया के भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना के रूप में इतिहास में अंकित हो गया है।

कभी भोपाल जर्दा, पर्दा और मर्दा की कहावत के लिए जाना जाता था। झीलों की नगरी भोपाल का अपना मिजाज था। यह शहर कभी भागता नहीं था। हौले-हौले जिंदगी यहां बसर होती थी। कभी पटियों पर शहर से जो बात शुरू होती तो देश-दुनिया पर खत्म हो जाती। भोपाली हमेशा थोड़ा है और थोड़े की जरूरत है कि फलसफा पर जिंदा रहते थे। तेज रफ्तार वाली गाड़ी की सवारी करना या जहाज में उड़ जाने का उन्हें कभी सोचा भी नहीं। भोपाल भाग रहा था। फैल रहा था। जहां कभी जाने में डर लगता था, वहां ऊंची इमारतों ने जगह बना ली थी। यह बदलती सूरत नए भोपाल की थी। कह सकते हैं कि यह नया भोपाल राजधानी वाला भोपाल है। पुराना भोपाल जिसके हिस्से में दुनिया की सबसे बड़ी ताजुल मस्जिद थी और दुनिया की सबसे छोटी ढाई सीढ़ी वाली मस्जिद, उल्टे मुंह उतरने वाले दरवाजे वाला पुराना रेल्वे स्टेशन था, माई की बगिया और हमाम भी इनके हिस्से में था लेकिन रिवाज था तो जर्दा और पर्दा का।

एक नवम्बर, उन्नीस सौ छप्पन को जब भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बना तब पुराने भोपाल में कोई हलचल नहीं थी। खरामा-खरामा उनकी जिंदगी बसर हो रही थी। साल चौरासी गुजरने को था लेकिन कोई अठ्ठाईस दिन महीने में बाकी थे। ईद हुई, दीवाली हुई। साल चौरासी का नवम्बर माह गुजर गया। दिसंबर ने आहट दी। सर्दी परवान चढ़ रही थी। एक और दो दिसंबर का दिन और दिनों की तरह गुजर गया। रात वैसे भी डरावनी और भयानक होती है लेकिन 2-3 दिसंबर की दरम्यानी रात दबे पांव मौत का पैगाम लेकर आ रही है, इसे तो किसी ने सोचा भी नहीं था। इस रात जो जहां था ठहर गया। ठहरा क्या, दुनिया को अलविदा कह गया। घरों में, सडक़ों पर मौत जैसे झूम-झूम कर नाच रही थी। लोग बेतहाशा भाग रहे थे। एक-दूसरे पर गिरते और कुचलते हुए। रिश्ते तार-तार हो चुके थे। सब अपनी फिक्र में थे। एक-एक सांस कीमती था। नए भोपाल में जब खबर पहुंची तो ऐसे अनेक लोग थे जो अपनी जान हथेली पर लिये लोगों को बचाने के लिए घरों से निकल पड़े। कुछ को बचा सके तो खुद बचाने वाले दम तोड़ रहे थे।

यह भयावह हादसा हुआ था उस मनहूस यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस जिसे मिक कहा गया। साइंस से ताल्लुक रखने वालों ने बताया था कि इसे मिक का अर्थ मिथाइल आइसोसाइनाट है जो जहरीला होता है। भोपाल के लिए जो सर्दी कभी वरदान हुआ करती थी, उस रात विभीषिका बन गई थी। ठंड में गैस जमने लगी थी और लिहाफ में कैद लोगों का लिहाज नहीं कर पायी। एक के बाद एक ना जाने कितनी जानें गई। इस एक हादसे ने जैसे भोपाल की सूरत और सीरत दोनों बदल कर रख दी। जान की कीमत लगायी जाने लगी। लोगों को जिंदगी तो दे नहीं सकते थे तो राहत के तौर पर रकम दी गई। दुख में डूबे लोगों के लिए यह नेमत थी। पहले इसे जरूरत समझा गया लेकिन बाद में यही उनकी बेताबी बन गई।

बाजार कैसे बेरहम होता है, यह भी इसी मौके पर देखने और समझने को मिला। जिनके अपनों का इंतकाल हो गया था, उन्हें राहत राशि मिली। यहां पर पुरानी रवायत टूट गयी।।थोड़ा है,थोड़े की जरूरत है को बदलकर जितना मिला, वह कम है जैसे रूख देखने को मिला। इफराद पैसा आते ही बाजार की सूरत बदल गई। लोगों ने काम-धाम छोडक़र इसी राहत से जीवन गुजारने लगे। आहिस्ता आहिस्ता राहत राशि का सिलसिला खत्म होने लगा तो जिंदगी पुरानी पटरी पर वापस आने लगी।

एक रिपोर्टर के नाते मैं लगातार गैस त्रासदी को कव्हर करने जाता रहा। बेबसी और मजबूरी का आलम यह था कि जिस यूनियन कार्बाइड ने हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला दी, उसके गेस्ट हाऊस की कांच में दरार भी नहीं पड़ा। कल्पना कीजिए कि एक सडक़ हादसे में किसी कार या ट्रक का भीड़ क्या हाल कर देती है लेकिन यहां ऐसा नहीं हो सका। होता भी कैसे जिन्हें गुस्सा करना था, वे खौ$फजदा थे और जिन्हें गुस्सा करना था वे राजधानी भोपाल के वाशिंदे थे। जिस तारीख को यह मनहूस हादसा हुआ तब सुनील राजपूत नाम का बच्चा 9 बरस का था। तीन बरस बाद जब उससे सामना हुआ तब तक वह अमेरिका जाकर गवाही दे आया था। परिवार के कोई ग्यारह जिंदगी का वह, उसका छोटा भाई और छोटी बहन हकदार थे। सुनील इनमें बड़ा था सो सब पर उसका हक बन गया था। वह जिस तरह से मुझ जैसे रिपोर्टर को बताया और तब की गैस राहत आयुक्त ने उसके उलट बताया तो बेसाख्ता मैं शीर्षक लगा बैठा-सुनील तीन बरस में सयाना हो गया। बाद में उसने जिम्मेदारी पूरी की। भाई को पढ़ाया, बहन की शादी और खुद मानसिक विकार का शिकार होकर दम तोड़ दिया। ऐसी अनेक दर्दनाक अनकही कहानियां हैं जो पता ही नहीं चली। अफवाहों का दौर भी खूब चला और इन अफवाहों ने कई रिश्तों को तार-तार कर दिया।

इस दुखद वाकये का एक और दुखद पहलू है राजनीति। चौरासी से नब्बे तक हर साल वहां सभा होती थी। लोगों को ढाढस दिलाया जाता था। आहिस्ता-आहिस्ता जयप्रकाशनगर को राजनीतिक दल भूलते गए। किसी के एजेंडा में शायद ही कभी गैस त्रासदी का उल्लेख हुआ हो। राजनीति का यह बेरहम चेहरा किसी एक दल का नहीं बल्कि सब एक जैसे थे। कैलेंडर के पन्ने पर फिर तीन दिसंबर की तारीख नुमाया होगी। इस तारीख पर राजनीतिक दलों से लेकर आम आदमी टकटकी लगाये देख रहा होगा। यकिन मानिये इस तारीख पर किसी को उस भयानक मंजर की याद भी नहीं आएगी क्योंकि सबके  इंतजार में होगा कि नयी सरकार किसकी होगी? कौन होगा नया निजाम? याद आता है उस भयानक मंजर के दौर में आले पद पर रहे उस अफसर का जिनका बयान था-भूल जाइए गैस त्रासदी को, आइए बनारस की बात करें तो दूसरे एक बड़े नौकरशाह ने फरमाया था-मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता है। सही है, आइए नए निजाम का इस्तकबाल करें।

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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