देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता का मसला बरकरार है।
बल्कि इन दिनों कुछ ज्यादा चर्चा में है। निजी प्रबंधन संस्थान और इंजीनियरिंग कॉलेज जहां-तहां उग आए हैं, नतीजतन हर वर्ष जहां इंजीनियरिंग के 4 लाख विद्यार्थी उत्तीर्ण हो रहे हैं, वहीं हर वर्ष प्रबंधन संस्थानों से निकलने वाले विद्यार्थियों की संख्या 3 लाख है। इस दौरान अधिकांश तरक्की निजी क्षेत्र (बगैर मुनाफे वाले) में हुई है, जहां आमतौर पर जमकर शुल्क वसूला जाता है और सुविधाओं तथा शिक्षण का स्तर भी खराब होता है। इस बीच रोजगार में भी एक तरह की स्थिरता है।
छात्रों और अभिभावकों को यह महसूस हो चुका है और उनका रुझान इस ओर कम हो रहा है। बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष प्रबंधन संस्थानों की प्रवेश परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों की संख्या में गिरावट आई है। जहां तक बात है इंजीनियरिंग कॉलेजों की तो कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु जैसे प्रांतों में हजारों सीटें खाली रह गईं। आप कह सकते हैं कि इस समस्या का बाजार आधारित हल हो सकता है। अगर मांग में कमी आई है तो आपूर्ति में भी गिरावट आएगी। उम्मीद करनी चाहिए कि इस लडख़ड़ाहट से होगा यह कि खराब गुणवत्ता वाले संस्थान बंद हो जाएंगे।
उच्च शिक्षा की क्षमता में लंबे समय से बनी कमी ने नई आपूर्ति में एक तरह की होड़ को जन्म दे दिया और अब इस स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। आगे यह हो सकता है कि गुणवत्ता में सुधार के लिए दबाव बने क्योंकि संस्थानों के बीच बेहतरीन विश्व स्तर के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर अच्छे विद्यार्थियों के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी। अधिक महत्त्वपूर्ण सबक यह है कि उच्च शिक्षा में आरक्षण पर जोर अब उतना प्रासंगिक नहीं रहा जितना तब था जब प्रवेश के लिए सीमित सीटें थीं। अब बेहतर विद्यार्थियों के पास विकल्प है और वंचित वर्ग के बच्चे भी पेशेवर शिक्षा हासिल कर सकते हैं। लेकिन वे शायद ऊंचे शुल्क का बोझ सहन न कर पाएं। दरअसल समय आ गया है कि अब केवल आपूर्ति से गुणवत्ता की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए।
बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल ने उच्च शिक्षा की माली हालत पर कुछ बेहद काबिले गौर बातें साझा की हैं। इससे उच्च शिक्षा की तस्वीर को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती। है इनके मुताबिक़ संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है. उनके बताये तथ्यों पर गौर फरमाइए –
तथ्य 1: स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3: हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं. (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है.
तथ्य 4: राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है.आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पाते.
तथ्य 5: भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 6: भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं.
तथ्य 7: आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.
तथ्य 8: अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है. इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था.
तथ्य 9: अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.
तथ्य 10: भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है.
डेढ़ दशक पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, “आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है.” कहिये आप आप क्या सोचते हैं ?
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प्राध्यापक, शासकीय दिग्विजय पीजी
ऑटोनॉमस कालेज, राजनांदगांव।
मो.9301054300