Saturday, November 23, 2024
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Homeविश्व मैत्री मंचएक चर्चा ऐसी भी, जिस पर हर कोई बात नहीं करना चाहता

एक चर्चा ऐसी भी, जिस पर हर कोई बात नहीं करना चाहता

सभ्यता में कई ऐसे मुद्दे है जिस पर नैतिकता के इस उस प्रकार के हवाले से सभ्य लोगों को परहेज है। इन में, समलैंगिकता भी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सभ्य लोगों का तबका बात करने से कतराता है। असल में समलैंगिकता पर ही नहीं लैंगिकता पर बात करने को भी लज्जास्पद माना जाता है। इस पर बात की जानी चाहिए।
कोई भी स्त्री पूरी तरह से न तो स्त्री होती है और न कोई पुरुष ही पूरी तरह से पुरुष होता है। मात्रा और तीव्रता की गुणात्मक भिन्नता के साथ यह मानवीय प्रवृत्ति है। हमारे समाज का नैतिक ढोंग इस प्रवृत्ति को दबाने, मोड़ने की प्रक्रिया में अपने को झोंक देता है।
आज की परिचर्चा अत्यंत जोखिम भरी, परंतु सार्थक रही। इस चर्चा में बड़ी बेबाकी से महिलाओं ने हिस्सा लिया। वरिष्ठ आलोचक प्रफुल्ल जी ने बड़ी गंभीरता से विषय को प्रस्तावित किया। समलैंगिकता के सभी पहलू सामने लाए गए। बीमारी, अनुवांशिकता, परिस्थितिजन्य आदत, यौन दुराचार, आदि आदि। सुरभिजी आशाजी, एडमिन महोदया, हनुमंत जी, सरस जी, दिनेश भैया,कुमार सुशांत, प्रभाजी रूपेंद्र जी, सहित सभी ने बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार रखे।

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समलैंगिकता को अक्सर अनिवार्य मैथुन के संदर्भ से सीमित कर दिया जाता है। मैथुन समलैंगिकता की शर्त नहीं होती। कुछ पुरुषों को पुरुष महिला से अधिक आकर्षक लगता है और इस तरह अंतरंग होने का मन करता है जिस तरह कि सामान्यतः विपरीत लिंगियों में होता है। यह आकर्षण भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कारणों से पनपता और बढता है। मनोशारीरिक कारण जिस में हार्मोनल स्वीचिंग भी शामिल है। सामाजिक कारण जिसमें वर्जित के वरण की प्रवृत्ति शामिल है। पारिस्थितिकी जिसमें लंबे समय तक एक साथ रहते हुए पुरुष समलैंगिकता के अनजान रास्ते पर कदम बढ़ा लेता है और फिर बढता चला जाता है। अपने अंतर्मन के सहवासी की तलाश में स्त्री खुद पुरुष बन जाती है और कब पुरुष स्त्री बन जाता है उसे खुद भी पता नहीं होता। सेक्स और जेंडर की कॉनटेक्स्ट स्वीचिंग इतनी महीन होती है कि व्यक्तित्वांतरण की इस प्रक्रिया के सम्मोहक व्यक्ति आनंद विभोर होता रहता है। महाकवि सूरदास जानते थे कि कैसे और क्यों माधव-माधव रटते-रटते राधा मधाई हो जाती है! इसका विपरीत भी सच है। कई बार प्रथम संघात, हीट या एप्रोच आकस्मिक या बलपूर्वक होता है और फिर वह चर्या में शामिल होकर कई बार आदत और आनंद में बदल जाता है, कई बार यह बदलाव नहीं भी होता है। खासकर बचपन को इसका अनुभव होता है। आत्मीय संबंध के पुरुष के साथ आलिंगन ,चुम्बन खैंचतान में बच्चों को डाल देता है। इस खैंचतान से वह राह भी निकल आती है जो समलैंगिकता की तरफ जाती है। मैं जानता हूँ कि एक बारह साल के एक छात्र को उसके शिक्षक ने समलैंगिकता की ओर खींच लिया। शुरुआती कष्ट और आपत्ति या विरोध के बाद वह बच्चा उस आनंद का हिस्सेदार और हमसफर बन गया। शिक्षक के संसर्ग के अभाव में वह हद से अधिक विचलित होता था। इस विचलन को दूर करने के लिए एक दो और साथी मिल गये फिर वह लैंगिकता की तथाकथित मुख्यधारा में शामिल हो गया। सवाल है, समलैंगिकों के प्रति हमारे सामाजिक व्यवहार की अनैतिकता की जो नैतिकता के पोशाक में हाजिर तो होता है लेकिन भीतर से खुद नंगा होता है। सच पूछिए तो अपने अनुभव का कसैलापन भी कई बार हमारे नैतिक ढोंग को आक्रामक बनाता है।

समलैंगिकता के प्रति भिन्न और स्वस्थ मानवीय दृष्टि विकसित हो रही है। समलैंगिकों के प्रति सामाजिक आचरण संयमित हो रहे हैं। कानून बन रहे हैं। सामूहिक नजरिया बदलने की प्रतीक्षा किये बिना हमें अपने नजरिए को इस नजर से खंगालने की जरूरत है। हम जितनी सफाई से खंगालने में कामयाब होंगे उतने ही सचेतन मानवता के करीब होंगे। कहा स्त्रियाँ के लिए गया था कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है। सच तो यह है कि स्त्री ही नहीं पुरुष भी पैदा नहीं होते बनाये जाते हैं। क्या कहते हैं आप ?
– प्रफुल्ल कोलख्यान

– सुरभि पांडे: आप सभी जानते ही होंगे, आप प्रफुल्ल जी हैं, हमारे सम्मानीय सदस्य, कोलकाता से

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– सुरभि पांडे: पोस्टर संयोजना कस्तूरी मणिकान्त
-सुरभि पांडे: नमस्कार
लम्बे समय से मेरा मन है कि समलैंगिकता जैसे लज्जास्पद समझे जाने वाले मुद्दे पर बात होनी चाहिए।मैंने अपनी ओर से जो समझा वो मनुष्य को बड़ा भयावह अकेला करने वाला मामला है मतलब कि असामाजिक ।
सब समलैंगिक हों ऐसा कोई नियम नहीं है और न ही कोई चलन या फैशन, इसी तरह से सब विपरीत लैंगिक हों, ये भी नियम नहीं है, क़ुदरत का।
मुझे एक बात याद आ गयी, पहले मैं वो बताऊंगी, लेकिन मुझे बहुत अफ़सोस है कि ये लिखा किसने था मैं उसका नाम भूल गयी हूँ, कि किसी हिंदुस्तानी ने विदेश में किसी से पूछा कि आप लोग इतना सैक्स को लेकर लिबरल क्यों हैं, उस विदेशी ने जवाब दिय , जैसे आप लोग नहीं हैं
तो उसी तर्ज पर कहना चाहूँगी कि जो हम हैं, ज़रूरी नहीं सब हो जाएं, ठीक इसी तरह से जो हम नहीं हैं, तो इसका मतलब ये नहीं कि वैसा होता नहीं है/ है नहीं या होना नहीं चाहिए।
किसी के होने पर हमारा कुयश्चन मार्क वैसा ही है जैसा हमारे होने पर कोई लगाये!!!!!
इस बीच कुछ समलैंगिक लोग देखे, उलझनों में फँसे हुए, सामाजिक ताड़ना का शिकार और ज़िन्दगी के हाशिये पर पड़े हुए।
उसकी लम्बी बात है, आगे ज़रूर करूँगी, मगर इतना कहना चाहूँगी, सितारों से आगे जहाँ और भी है।
मैंने प्रफुल्ल जी से रिक्वेस्ट की कृपया इस विषय पर परिचर्चा /आलेख लिखें, उन्होंने तत्काल हामी भरी और भेज दिया।मैंने मोहतरमा को भेजा , उनकी स्वीकृति मिलते ही मैंने अपने vmm के दोस्तों को भेजा, सबका सहयोग पूर्ण रवैया रहा।
अब आइये प्रफुल्ल जी के लिखे विषय पर हम लोग बात करें।
दोस्तों संवाद का मतलब हमेशा सहमति नहीं होता, असहमति का भी स्वागत है

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ज्योति गजभिए: देश में समलैंगिकों की संख्या पच्चीस लाख से भी ज्यादा है, ऐसा कहा जाता है कि यह विदेशों द्वारा आई विकृति है, पर हमारे देश में मिले प्राचीनतम शिल्प में समलैंगिकता पर कई मूर्तियाँ इस बात की साक्षी हैं कि देश में समलैंगिकता पुरातन काल से है, कामसूत्र में इस पर पूरा एक अध्याय है, जिसमें विस्तार से इस पर लिखा गया है. २०१६ के मि. गे अन्वेष साहू का कथन है जब तक वे लोगों को बता नहीं पाते वे गे हैं, भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं, परिणाम स्वरूप गहन अवसाद में घिर जाते हैं और कभी कभी आत्महत्या भी कर बैठते हैं, स्वतंत्र भारत में अपनी लैंगिकता पर भी स्त्री पुरुष स्वतंत्र होते हैं, अत:यह अधिकार की बात है न कि शर्मिंदगी की।

नीलम दुग्गल: चंद वर्ष पूर्व बाबा रामदेव ने समलैंगिकता को बीमारी कहा और उपचार का सुझाव दिया। आप सब को याद होगा कैसे तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने उनका उपहास किया। यह वर्ग इसे समस्या न मान कर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ जोड़ कर देखता है। जिस प्रवृत्ति का असर समाज पर आता है उसे व्यक्तिगत च्वाइस कहना सही नहीं। विशेषतः आज के उन्मुक्त माहौल में जहां प्रेम की अभिव्यक्ति खुलेआम होती है।
शबाना आजमी की एक मूवी में (क्षमा करें नाम भूल गयी हूँ) देवरानी जेठानी अपने अपने पति के नाकारा रवैये के चलते समलैंगिक हो जाती हैं। पर क्या यह समाधान है? और है तो क्या सही है? अपने साथी से सुख न मिले तो प्राथमिकता बदल ली? यह तो escape route हुआ न। जो परिस्थितिवश समलैंगिकता की ओर उन्मुख हुए उनके लिए मेरे मन में कोई सहानुभूति नहीं। यह वेश्यागमन के जितना ही बुरा है।
जो जन्मतः इस विकृति के शिकार हैं अर्थात हार्मोन असंतुलन… सरकार को तीसरे जेंडर का प्रावधान उनके लिए रखना था पर LGBT सभी इसमें आ गये। यह अस्वाभाविक और अप्राकृतिक है। इसे प्रदर्शन का मुद्दा बना कर हम मूल समस्या को नजरअंदाज कर मात्र अधिकारों की बात करते हैं। समलैंगिकता ने incurable sexual diseases को जन्म दिया है। ऐसे लोगों को दिव्यांगों की श्रेणी में रख यथासंभव उपचार करवाना चाहिए या उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। वे अस्पृश्य नहीं पर उन्हें glorify करना भी उचित नहीं।

निरुपमा वर्मा: प्रश्न यही उठता है कि क्या देश में बढ़ती बलात्कार की घटनाएँ समलैगिंक संबंधो को अनुमती देने पर नहीं बढ़ेगी ? क्या देश तब शर्म महसूस नहीं करेगा जब समलैगिंता का समर्थन करने वाले समाचार चैनलो पर ये खबर आएगी कि एक बहन ने दुसरी बहन का यौन शोषण किया अथवा किसी भाई ने अपने ही छोटे भाई को अपनी हवस का शिकार बना लिया ।आज जहाँ पर कई महिलाओं को अपना पेट पालने के लिए जिस्म फरोशी का धंधा करने पर मजबुर होना पड़ता है ऐसे देश में इस प्रकार के संबंधो को मान्यता मिलने के बाद क्या कोई ये गारंटी दे सकता है कि भूख से बेहाल कोई बच्चा किसी समलैंगिक का शिकार नहीं बनेगा ? कोई पुरूष इस प्रकार के कार्य को अंजाम नहीं देगा ? बचपन से किसी विषमलिंगी का पर्याप्त सहयोग न मिलना समलैंगिकता का वातावरण निर्मित करता है. माता-पिता का व्यवहार, पति-पत्नी की आपसी सेक्स लाइफ, लम्बे समय तक घर से बाहर रहने की स्थिति, समागम की अनुकूलता न होना आदि बहुत हद तक समलैंगिकता को जन्म देती है. जेल के कैदी, ट्रक के ड्राइवर, सुरूर क्षेत्रों में तैनात जवान, लम्बी आयु के अविवाहित स्त्री-पुरुष में इस तरह की स्थिति को देखा जा सकता है. ये कई अनुसंधानों से स्पष्ट हुआ है कि समलैंगिकता आनुवांशिक नहीं, सीखी हुई आदत है और इसे चाहने पर छोड़ा भी जा सकता है.
“ये मानवाधिकार की मुद्दा है — ये आपसी सहमति है –दो लोग अपने आचरण से किसी अन्य को कोई भी नुक्सान नहीं पहुँचा रहे –तो फिर यह अपराध कैसे हुआ?” यह लिखने के बाद आप नैतिक रूप से इस प्रश्न का जवाब देने के लिए बाध्य हैं कि यदि दो इंसान आपस में शांतिपूर्वक सहमती से ड्रग्स आदि मादक पदार्थों का सेवन करते हैं या अन्य कोई गैर-कानूनी कार्य संपादित करते है और किसी को हानि नहीं पहुंचाते तो क्या वे भी क्षम्य होने चाहिए ??? क्या विधि द्वारा ऐसी बातों को नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिए ???
फिर क्या कारण है कि समलैंगिकता को मात्र अपने ढंग से जीने की आजादी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है ???
अगर विधि द्वारा इसे मान्यता दे दी जाती है तो बहुत अल्प मात्रा में प्राकृतिक रूप से समलैंगिक लोगों को संतुष्ट करने की कीमत पर ऐसा विधान समाज में क्या-क्या असमानताएं पैदा कर सकता है इसे भी इसी तराजू पर तौलना होगा. इसलिए मेरी नजर में यह अपराध है और रहना भी चाहिए ।
संस्थात्मक प्रतिमान (पैटर्न), जिसके कारण किसी समूह के सदस्य एक दूसरे से अंतःसंबंध के कारण संपर्क में आते हैं। इन अंतःसंबंधों का संस्थात्मक स्वरूप – ये सभी प्रतिमान व नियम व्यक्ति की स्थिति और भूमिका को निर्धारित करते हैं। यही है सामाजिक सरंचना । किसी भी बनावट से हमारा तात्पर्य उस बनावट को बनाने वाले उन अंगों से हैं जो स्थायी रूप से उस बनावट को बनाये रखने में अपना महत्व रखते है । –नियंत्रात्मक प्रतिमान के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार नियंत्रित होते हैं। ….इस लिए बात नैतिकता ,संस्कृति से ऊपर उठ कर सामाजिक संरचना और मूल्यों ,प्रतिमान की है । क्या हम समाज को पशु समाज की ओर लेजाना चाहते है ??? सहमति में क्या आप पिता बेटे , माँ बेटी -भाई – भाई और बहन के आपसी रिश्तों को भी मान्यता दे सकते है ???यदि हां तो कानून -नियम की जरुरत नहीं । और यदि नहीं —तो अधिकार की बात न करें ..

निरुपमा वर्मा: सरस जी , ये मर्यादा किसने बनाई ??? यही कह रही हूँ । समाज पर नियंत्रण तो तरीके से होता है । प्रयत्क्ष नियंत्रण ..जिसमे कानून .संविधान ,राज्य के नियम आते है । और अप्रत्यक्ष नियंत्रण में प्रतिमान । जो व्यक्ति की भूमिका तय करते है । परिवार में किस की क्या भूमिका है यह प्रतिमान ही तय करते है । ….इसलिए हम बंधे है । यहाँ अधिकार की बात नहीं होती । भूमिका की बात होती है । यही कहना चाहती हूँ मैं

संतोष श्रीवास्तव: कुछ खबरें समलैंगिक सेलेब्रिटीज की
1 अमेरिकन राष्ट्रपति डिक चेनी की बेटी मेरी ने अपनी फ्रेंड हीथर पोए से शादी कर ली और इस समलैंगिक विवाह को डिक चैनी ने मान्यता प्रदान की।
2 समलैंगिक मुद्दे पर बनी फिल्म’ न जाने क्यों” के सीक्वल में पाकिस्तानी लेस्बियन महिला किरदार की भूमिका गुजरे जमाने की अभिनेत्री जीनत अमान अदा करेंगी ।
3 लंदन की गायिका चेरिल कोल का मानना है कि विवाह जीवन भर का बंधन होता है और समलैंगिको को लोगों की परवाह किए बिना रिश्ता बना लेना चाहिए ।
4 लंदन की गायिका कैली रोलैंड बताती हैं कि वह जब भी समलैंगिक समुदाय से मिलती हैं तो उन्हें गायन की शक्ति मिलती है।और उन की पॉपुलैरिटी की वजह समलैंगिक हैं।
5 बिहार में दो महिला पुलिसकर्मियो ने सात फेरे लिए ।
6 सनी लियोन और मिनीषा लांबा लेसबियन बनेंगी फिल्म टीना एंड लोलो में
अमर उजाला और एनडीटीवी इंडिया से साभार
सुधीर शर्मा: समाज का दायित्व
भारत में प्रदर्शित यह शायद पहली फ़िल्म है जो पुरुष समलैंगिगता पर इतनी सजींदगी से कई मज़बूत सवाल उठाती है। जैसे कि- क्या समलैंगिगता अपराध है? क्या समाज किसी व्यक्ति के समलैंगिक होने पर उसको तिरस्कृत करने का अधिकार रखता है? और क्या यह करना सही है? क्या हमारा संविधान किसी भी व्यक्ति की निजी ज़िंदगी की प्राइवेसी को भंग करने की आज़ादी देता है?समलैंगिगता के मामले में नैतिक-अनैतिक बातों का बोझ ढ़ो रहे समाज में धीमी गति से चलती यह फिल्म अंत तक आते -आते आपको झकझोर कर रख देती है ।
नज़रिया बदलने की ज़रुरत
प्रोफेसर श्रीनिवास रामचन्द्र सिरस के जीवन पर आधारित यह फिल्म 6 साल पुरानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। अलीगढ़ की एक मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी पढ़ाने वाले 64 वर्ष के समलेंगिक प्रोफेसर सिरस का किरदार मनोज वाजपयी ने बहुत ही शानदार तरीके से निभाया है। यूनिवर्सिटी द्वारा समलैंगिक सम्बन्ध उजागर होने पर प्रोफेसर सिरस को सस्पेंड कर दिया गया थाI उसके बाद अपने फ्लैट में अकेलेपन के साथ घुट-घुट कर और डर-डर कर जीने के दृश्यों को वाजपेयी ने अपनी अदाकारी से स्क्रीन पर जीवंत कर दिया हैI लोगों द्वारा दी जा रही मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को झेलते हुए रियल प्रोफेसर सिरस पर क्या बीती होगी इस कश्मकश को वाजपेयी ने बखूबी दिखाया है।
यह सभी दृश्य दर्शकों में गहरी उदासी भर देते हैं, हाँ यह अलग बात है कि सिनेमाहॉल में मौजूद कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके लिए यह फ़िल्म और यह मुद्दा दोनों ही हास्यपद थेI शायद यही वजह थी कि जहाँ कुछ दृश्यों को देखकर मैं सिहर उठी थी वो उनके लिए एक फूहड़ मज़ाक थेI फ़िल्म के दौरान कई बार मेरा रोम-रोम रो पड़ा था और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह फ़िल्म कि वजह से हो रहा है या उन कुछ दर्शकों के भद्दे कमेंट्स सुनकरI
सेक्स स्कैंडल नहीं सच्ची कहानी
अंग्रेजी न्यूज़ पेपर के रिपोर्टर दीपू के रूप में राजकुमार राव बहुत ही सेंसिबली अपनी बात अपनी रिर्पोटिंग हेड से कहते हैं कि “यह घटना कोई सेक्स स्कैंडल नहीं बल्कि एक आदमी की कहानी है और इतनी ही बखूबी से वह इस केस और प्रोफेसर सिरस से पेश आते हैं।
मनोज वाजपयी फिल्म के एक सीन में बड़ी ही मासूमियत के साथ एक डॉयलोग रखते हैं की “कोई मेरी फीलिंग्स को केवल तीन अक्षरों (GAY) में कैसे समझ सकता है? एक कविता की तरह से भावनात्मकI”
377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ की मदद से इलाहाबाद हाई कोर्ट से जीत मिलने के बाद कहानी का अंत दर्शकों को एक सन्नाटी सोच में छोड़ देता है।
कस्तूरी मणिकांत: इस विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, क्योंकि किसी ने कहा नहीं तो एकत्र हो गया।
घृणा जिज्ञासा की साथी है, बहुत सालों तक मेरे मन में जिज्ञासा रही और घृणा भी, कि ऐसे लोग देश भर में फ़ैल जायेंगे, और ऐसे लोग जब बच्चे गोद लेंगे तो क्या उनमें यह मनोवृति नहीं आएगी।यह प्रश्न तो आज भी है, बना रहेगा, बच्चा देखकर सीखता है सिग्मंड फ़्रायड जैसे कई साइकोलोजिस्ट बोल चुके हैं।
अतः जिज्ञासा पर वापस, जब जिज्ञासा छंटी तो घृणा भी परिवर्तित हो गयी। जब आप ऐसे लोगों के करीब आते हैं तो जान पाते हैं यह उनका सेक्सुअल ओरिएंटेशन है इसके अलावा वे वैसे ही दोस्त है, वैसे ही आदमी। उनके लिए उनके पिता या भाई वैसे ही हैं जैसे स्ट्रैट के लिए।उनकी चॉइस भी है, उसूल भी।
जैसे आप स्ट्रेट हैं पर आपके पिता पिता ही हैं ।
और अपवाद के लिए तो यहाँ पिता के बेटी के साथ संबंध की कितनी ख़बरें आती ही रहतीं हैं।
सेक्सुअल ओरिएंटेशन होमोसेक्सउल होना प्राकृतिक है और हमेशा से है! कुछ भी नया नहीं।
राजे महाराजे के समय की भी कभी रानियों की तो राजाओं की अद्भुत कहानियां सुनने को मिलती हैं और पढ़कर ऐसा लगता है यह तब ज़्यादा स्वीकृत था।
सुनने सुनाने की बात छोड़िये, इंसानों की भी। मैंने खुद अपनी आँखों से दो मेल कुत्तों को संबंध बनाते देखा।
जानवर तो इंसान की तुलना में मासूम होते हैं ,इसके प्राकृतिक होने का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है?
स्वास्थ्य की ऒर से गे सेक्स में एड्स होने की संभावनाएं 40 से 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती हैं।
एक्चुअल में गे सेक्स का जो तरीका है वो स्ट्रेट में भी प्रचलित सा ही है, हमेशा से था या अब होने लगा है मुझे पता नहीं। मुझे उम्मीद है सब जानते ही होंगे। ऐनल सेक्स की बात हो रही है यहाँ। पर उनको भी प्रेकौशन्स (कॉन्डोम) यूज़ करने को कहा जाता है,जैसे स्ट्रेट को कहा जाता एसटीडी के लिए। उसके बाद बीमारी की संभावना नहीं।
साइकोलॉजिकल रिपोर्ट्स तो यहाँ तक कहती हैं होमोसेक्सउअल लोग आईक्यू लेवल में बेहद हाई होते हैं।
उनका बौद्धिक स्तर ऊँचा होता है और अधिकतर भौतिक रूप से सफ़ल भी होते हैं।
वर्ष 2014 में दुनिया को आघात ही पहुँचा था जब एप्पल कम्पनी के सीईओ टिम कुक ने एकाएक खुद को होमोसेक्सुल घोषित किया।
उन्होंने कहा “यह मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं सब को बताऊँ मैं होमो हूँ, मेरे एप्पल के कॉलीग्स हमेशा से इस बात से वाकिफ़ हैं पर उन्होंने कभी कोई भेदभाव नहीं किया। यह भगवान का दिया हुआ उपहार है।”
इस मुद्दे पर एक और घृणित गाथा है जिससे मुझे निज़ी तौर से घृणा है। दुसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के क्रिप्टएनालिस्ट एलन ट्यूरिंग ने जर्मन कोड को डिक्रिप्ट करने का महान काम किया जिससे उनके देश में लाखों लोगों की जान बच पायी, जिसके लिए बाद में उन्हें कई अवार्ड्स से भी नवाज़ा गया। किंतु बाद में उनके गे होने का पता पड़ने पर पहले उन्हें बीमार करार दिया गया, मानसिक रूप से उन्हें तोड़ा, अंत में ब्रिटेन की कोर्ट ने उन्हें केमिकल कैस्ट्रेशन की सज़ा सुनाई। उनके अवार्ड्स छीन लिए गए। केमिकल दवाइयों से उन्हें नपुंसक बनाने का लीगल आर्डर था,
अंत में लाखों लोगों को बचाने वाला एक मासूम ह्रदय दवाइयों से जर्जर, तानों से, समाज से मानसिक रूप से टूटा हुआ अकेले अँधेरे कमरे में मृत पाया गया। जिसका पता भी बदबू आने के बाद ही चला, क्योंकि उनके सेक्सुअल ओरिएंटीशन पता पड़ने के बाद से उसका कोई मित्र रहा नहीं। समाज ने कन्नी काट ली।
क्या वे गे लेस्बियन होने के लिये नर्क में जायेंगे?? जो उन्हें भगवान् ने ही दिया क्या उसके लिए वो जहन्नुम में जायेंगे,
पर उनसे घृणा कर के हम ज़रूर जायेंगे।
इस पर मूवी भी बनी हैं और किताबें भी, होल्डिंग अ मैन टिमोथी नामक आदमी का खुद का जर्नल है, उन्होंने अपने साथी जॉन को एड्स से खोया और अपनी ज़िन्दगी पर किताब लिखी। अलीगढ़ मूवी में मनोज वाजपेयी का ग़ज़ब प्रदर्शन। द् इमीटेशन गेम में एलन ट्यूरिंग की कहानी।
जिसे कुदरत ने नैतिक करार दे दिया उसे हम अनैतिक कहने वाले कौन??
“सर्वाइवल ऑफ़ थ फिटेस्ट” अगर ऐसे लोग अभी भी हैं तो फिर उनका होना वाजिब है।
आदमी औरत को दबायेगा, औरत आदमी हिजड़े को दबाएंगे, स्ट्रेट होमो को दबाएंगे। अरे छोड़िये भी।
प्यार कीजिये, प्यार होने दीजिए।
वर्षा रावल: सचमुच आज से पहले इस विषय में इतना ज़्यादा कुछ न सोचा था , न ही सोचने जैसा कुछ था , शायद बहुत सामान्य तरीके से लिया होगा मैंने जब पहली बार सुना होगा तभी कोई जिज्ञासा नही हुई । लेकिन अब जब बहुत लोगों के विचार पढ़ रही हूँ तब लग रहा है हाँ ये कोई मुद्दा है ,विषय है। मै इतना तो नही जानती कि दो एक जैसे जेंडर को रिश्ते कायम करने चाहिए या नही । अस्वास्थ्य , मनोरोगी या क्या कुछ है बस इतना समझ सकती हूँ कि इंसान होने के नाते उसे भी अपने शरीर, अपने जीवन, अपना भविष्य ,अपना वर्तमान तय करने का हक है । कोई भी हो वो इंसान पहले है ।
दूसरी बात ये जो पहली बात होनी थी ,कि इस बहस का उद्देश्य क्या है । किसी भी विषय में लेखकीय चर्चा स्त्री या पुरुष लेखक द्वारा नही होता , केवल उस बुद्दिजीवी वर्ग द्वारा होता है जो समाज को आइना दिखाते हैं, प्रश्न ये उठता है कि क्या केवल आइना दिखाने का काम हम करें, लेख लिख कर पल्ला झाड़ लें, क्या हम लेखक होने के साथ इस समाज का हिस्सा नही , क्या हम वाकई स्वीकार कर पाते हैं इस तरह के जोड़ों को , यदि हमारे घर में कोई ऐसा करे तो क्या हम सहज स्वीकारेंगे ????जवाब अधिकतर ना में होगा । इसलिए कि हम आधे लेखक हैं आधे सामाजिक । जब लेखक और समाज के व्यक्ति, दोनों एक ही व्यक्तित्व बन जाए तो निश्चित ही सब कुछ सामान्य होगा क्योंकि तब विस्तृत सोचेंगे ,विस्तृत लिखेंगे, विस्तृत स्वीकारेंगे …..

सतीश कुमार सिंह: कुछ चीजें बेहद वैयक्तिक होती हैं । समलैंगिक आकर्षण और विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण शरीर और मन के तल पर है । प्रेम प्रकृतिगत है इसे दैहिक क्रिया में बांधना उचित नहीं । यहाँ भावात्मक संवेग की जगह उसके क्रियागत रूप पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है । एक स्त्री दूसरी स्त्री के प्रति सख्य भाव रखती है या एक पुरूष दूसरे पुरूष के प्रति तो जरूरी नहीं कि वे क्रियागत रूप से एक हों । इसे सहज स्वीकार मिलनी चाहिए ।
जहाँ तक नैसर्गिक इच्छाओं की बात है उसे प्रकृति के अनुरूप ही मान्यता दी गई है । मुंह से भोजन लेना जीभ से स्वाद और मलद्वार से विसर्जन करना ही प्रकृतिगत है । इसे बौद्धिकता में उलझाकर तरह तरह के उदाहरणों और मानवीय संवेदनाओं का वितण्डा खड़ा कर सही नहीं ठहराया जा सकता । मानसिक रोग और विकृति को मान्यता प्रदान करने के लिए तरह-तरह के तर्क गढ़ना उचित नहीं है । आहार , निद्रा और मैथुन प्राणीजगत की आवश्यकता है । इसके पथ्य अपथ्य भी हैं जो हमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रखते हैं । यदि कोई जबरदस्ती विष का सेवन करना चाहे तो वह स्वतंत्र है लेकिन स्वस्थ रहने के लिए स्वास्थगत नियमों का पालन करना जरूरी है । मैं पोंगापंथी अवधारणाओं को नहीं मानता केवल प्रकृतिजन्य जीवनचर्या का सम्मान करता हूँ । इस चर्चा का जरूरी पक्ष यह है कि हम साफगोई से इस पर बातचीत कर पा रहे हैं । यह होना ही चाहिए । यौन समस्याओं पर भी खुलकर बातचीत और विमर्श जरूरी है अन्यथा मर्ज के ठीक होने की संभावना नहीं ।
जहाँ तक सामाजिक मूल्यों की बात है तो वह परिवर्तनशील है । आज का समाज बेहद खुला खुला है लेकिन नैतिकता की उम्मीद हर जगह एक मूल्यवान सोच है । इसका सम्मान होना चाहिए ।
सुधीर शर्मा: 50 किलो चावल का हौसला
यह खांड़ा गांव के लिए अनूठी बात है. इस तरह का ब्याह न तो गांव वालों ने कभी देखा और न ही सुना. आख़िर दो लड़कियों के बीच भला ब्याह कैसे हो सकता है ? गांव और आसपास के इलाके में इस ब्याह को लेकर कौतुक है, उत्सुकता है, महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों की भी खुसुर-फुसुर है और इन सब के साथ थोड़े बनावटी आक्रोश के साथ एक फिसफिसाती-सी हंसी है.
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर से लगभग 18 किलोमीटर दूर है ग्राम खांड़ा. सीपत के थानेदार कहते हैं- “ अच्छा-अच्छा खांड़ा ! वही लड़की-लड़का-लड़की वाला मामला ? ”
हम साथ-साथ हैं
उर्वशी और सरस्वती मानती हैं कि उन्होंने आपस में ब्याह करके कोई गलती नहीं की है.
थानेदार फिर विस्तार से बताते हैं कि खांड़ा की दो लड़कियों घर से भाग गईं और एक मंदिर में जा कर ब्याह रचा लिया. उनके परिजन उन्हें थाने तक लेकर आए लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि दोनों साथ-साथ रहेंगी.
थानेदार इसे “ लड़की-लड़का-लड़की” वाला मामला कहते हैं.
खांड़ा की गलियों में किसी अनजान आदमी को देख कर ही गांव के लोग समझ जाते हैं कि ये “ उसी ब्याह ” के सिलसिले में आए होंगे. बड़े और बच्चों की भीड़ इकट्ठी होने लग जाती है. इस ब्याह को गांव वाले किस तरह देखते हैं ?
गांव के गलियारे में पानी ले कर जाती हुई एक बुजुर्ग महिला बार-बार पूछने पर शब्दों को लगभग चबाते हुए कहती हैं- “ ये लड़कियां गांव की दूसरी लड़कियों को बिगाड़ देंगी.”
लेकिन गांव के किनारे एक तालाब के पास झोपड़ीनुमा घर में रहने वाली उर्वशी और सरस्वती ऐसा नहीं मानतीं. मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहने सरस्वती कहती हैं- “ हमने रतनपुर में देवता के सामने आपस में ब्याह किया है. किसी लड़के के साथ ब्याह हो सकता है तो किसी लड़की के साथ क्यों नहीं ? ”
लड़कों की तरह छोटे बाल रखने और पैंट-शर्ट पहनने वाली उर्वशी कहती हैं- “ मैं सरस्वती का पति हूं. मैं अगर इसे पत्नी के रुप में ब्याह कर लाया हूं तो किसी को क्या दिक्कत है ? ”
“ लाया हूं या लाई हूं ? ”
इस सवाल पर उर्वशी हंसने लगती है. फिर हंसते-हंसते कहती हैं- “ लाया हूं.” और फिर हंसी…!
हम साथ-साथ हैं
दो लड़कियों का आपस में ब्याह करने का ख्याल कैसे आया ?
उर्वशी बताती हैं कि दोनों बचपन से ही साथ-साथ पढ़ती-खेलती रही हैं. पिछले साल लगा कि उन्हें अब साथ-साथ रहना है, सो ब्याह रचा लिया. अब अपने परिवार से अलग एक कमरे वाली झोपड़ी में दोनों रहती हैं.
उर्वशी बचपन से ही लड़कों की तरह रहती आई है. लड़कों की तरह कपड़े पहनना और उनकी ही तरह बाल. चाल-ढाल और बोलने का तरीका भी लड़कों जैसा. उर्वशी को ड्राइविंग का भी शौक है. ड्राइवर के बतौर उसने कुछ जगहों में काम भी किया है. इलाके के एक नेताजी के यहां वह उनकी गाड़ी चलाया करती थी किसी लड़के के नाम से और नेता जी को कभी पता नहीं चला कि उर्वशी लड़का नहीं लड़की है. एक दिन जाने कैसे यह राज खुल गया और फिर उर्वशी ने वह नौकरी छोड़ दी.
अब उर्वशी मज़दूरी करती हैं.
लेकिन ब्याह के बाद से वह काम भी छुटा हुआ है. फिर घर कैसे चल रहा है ?
सरस्वती अपने पैर के अंगूठे से ज़मीन को खुरचती हुई कहती है- “ 50 किलो चावल ले कर आए थे. वही खा-पका रहे हैं.”
लेकिन चावल तो एक दिन खत्म होगा ही. फिर ? इसका जवाब उर्वशी देती हैं- “ नहीं पता. आगे क्या होगा .”
किस्से और भी हैं
छत्तीसगढ़ में समलैगिक ब्याह का यह कोई पहला मामला नहीं है. हां, इस तरह के ब्याह के भविष्य को लेकर जवाब लगभग एक जैसे हैं-“ नहीं पता. आगे क्या होगा .”
छत्तीसगढ़ में संभवतः पहला समलैंगिक ब्याह सरगुजा में ज़िला अस्पताल की नर्स तनूजा चौहान और जया वर्मा ने रचाया था. इसे देश में समारोहपूर्वक समलैंगिक विवाह का पहला मामला बताया जाता है.
27 मार्च 2001 को दोनों ने वैदिक रीति से विवाह किया था. पंडित जी के सामने 35 वर्षीय तनूजा ने पति के रुप में और 25 वर्षीय जया ने पत्नी के रुप में सात फेरे लिए. इस ब्याह के अवसर पर शानदार दावत दी गई थी और ब्याह को लेकर खूब हंगामा भी मचा.
दुर्ग ज़िले में तो डॉक्टर नीरा रजक और नर्स अंजनी निषाद ने समलैंगिक विवाह के लिए जिला प्रशासन को आवेदन भी दिया लेकिन ज़िला प्रशासन ने इस आवेदन को ठुकरा कर अपना पल्ला झाड़ लिया. हालांकि दोनों के जीवन पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा.
रायगढ़ से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव में रहने वाली 20 साल की रासमति और 13 साल की रुक्मणी ने भी ब्याह रचाया लेकिन गांव में इस पर खूब हंगामा मचा और आखिर में दोनों को अलग-अलग रहने के लिए बाध्य कर दिया गया. बाद में इनमें से एक का ब्याह भी हुआ लेकिन जल्दी ही तलाक भी हो गया

स्नेहलता पाठक – सेक्स या समलैंगिकता श्रका ज्ञान या भाव हमारे जीवन की अन्य जरूरतों की तरह ही हमसे अलग नहीं होता ।ये बात अलग है कि
हमारे समाज या संस्कारों ने इसे रख दिया है।लेकिन बात जब घृणा की हो तो मेरा विचार यह है कि भोजन की तरह ही यह भी एक जरूरत ही है। क्योंकि सृष्टि की संरचना का आदि स्रोत काम ही है। बलात्कार में घृणा का भाव है पर दाम्पत्य में नहीं। अत:मेरे विचार से सयलैगिकता या सेक्स पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए। आज के हालातों मे यह जरूरी भी है। रही बात समलैंगिक की तो वे समाज से हटकर नहीं मैन्यूफैक्चरिग डिफेक्ट है। कुछ दिनो पहले रायपुर में समलैंगिको का कार्यक्रम हुआथा।अद्भुत था ।तबला वादन संगीत संचालन आदि।पहली बार मुझे लगा कि हमसे अलग नहीं हैं।
आज क की चर्चा के विषय के लिये बधाई।
यहाँ भी एक ऐसा जोडा है दोनो हलडकियाँ हैं।लगभग बीस सालो से ब्याह रचाकर रह रहीं हैं।एक वकील और एक सरकारी कर्मचारी है।घरवालों ने आपत्ति की पर दोनो स्वावलम्बी हैं।अब समाज भी चुप हो गया ।दोनो हर जगह आते जाते हैं ।तात्पर्य यह है कि हम जितना डरते हैं समाज उतना ही डराता है। अपनी खुशियाँ हासिल करने का हक सबको है।

लता तेजेश्वर: बस वही तो बात है, हम चाहे लेखक बन कुछ भी कहे पर हम खुद कभी अपने पर आती है तो कभी सहज नहीं ले सकते इसी को दृष्टि में रखकर ही हमको आगे बढ़ना होगा और चाहे जितना भी हम सपोर्ट करें तो हम खुद को या खुद के परिवार को भी खड़ा करके हम को सोचना होगा तब जाकर हम समाज में कुछ बदलाव ला सकते हैं या समाज को सही दिशा दे सकते हैं या तो हमको खुद का सोच बदलना पड़ेगा या हम उन परिस्थितियों को अपनाना पड़ेगा और यह कितने लोग कर सकते हैं यही सोचने की बात है

आशा सिंह गौर: मुझे समझ नहीं आता कि भारतीय समाज जिसके खुलेपन के हस्ताक्षर बने खजुराहो के मंदिर और अजंता एलोरा की गुफाएँ विश्व भर को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, वहीं लोग जीवन की इस मूलभूत आवश्यकता के बारे में बात करने से भी कतराते हैं। इस पर सेक्शन 377 के अंतरगत समलैंगिकता एक दंडनीय अपराध माना गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में दोबारा संशोधित करने के लिए एक बेंच का गठन करने का आदेश दिया।
एक पुरुष और स्त्री का एक दूसरे की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है क्योंकि हमने हमेशा वही देखा है और वही पढ़ा है पर क्या इसका मतलब ये है कि जो हम नहीं जानते या मानते वो है ही नहीं। समलैंगिकता समाज की वो सच्चाई है जिसके बारे में लोग अपना मुंह बंद रखना ही पसंद करते हैं।
समलैंगिकता रिसर्चर्ज़ के लिए हमेशा एक अनसुल्झी गुत्थी ही रहा पर ये सिद्ध हो चुका है कि ये किसी के रहन सहन का चुनाव नहीं बल्कि मनुष्य की जैविक बनावट की देन है। मैं स्वयं भी कुछ समलैंगिकों से मिली हूँ और कुछ से जान पहचान भी रही है। इस अनुभव से भी मैं ये कह सकती हूँ कि समलैंगिकों का ये एक दूसरे के प्रति आकर्षन प्राकृतिक होता है। सोचने की बात ये है कि दो वयस्क लोग अगर एक दूसरे की सहमती से रुमानी रिश्ते में बंधते हैं तो उसमें किसीको क्या तकलीफ होनी चाहिए? इसके अलावा एक पुरुष जो पुरुष की तरफ ही आकर्षित है वो स्त्री के साथ अपना रिश्ता कैसे निभा सकता है और इसी तरह एक स्त्री जो पुरुष को पसंद नहीं करती और स्त्री से संबंध बनाना चाहती है वो एक साधारण वैवाहिक संबंध में कैसे खुश रह सकती है।
कई बार इस चुनाव का कारण विपरीत लिंग से घृणा भी हो सकता है जिसका कारण अक्सर यौन शोषण होता है। इंसान मानसिक रूप से इतना टूट जाता है कि विपरीत लिंग से खुद को पूरी तरह दूर कर लेता है।
हमें अपने इतिहास से मनुष्य की नीजी ज़रूरतों को समझना और उन्हें सम्मान देना होगा। तभी हम एक सुरक्षित और स्वस्थ्य समाज की रचना कर पाएँगे। भावनाओं पर किसी का ज़ोर नहीं और उन्हें बाँधने की कोशिश करना गलत होगा।

रूपेंद्र राज तिवारी: इस विषय पर मैं भी अपने कुछ विचार रखना चाहूँगी।हांलाकी मै इन विषयों पर कहने के लिए स्वयं को सहज नहीं मानती हूं कारण मेरी अल्पबुद्धि है।फिर भी आज आप सबको इस विचार हवन मे शब्दों व विचारों की आहुति देते देखकर कुछ शब्द व विचारों की समीधा मै भी लाई हूँ।
आज जिस विषय पर परिचर्चा हो रही है न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है।माना प्रकृति में कुछ ऐसे जीव हैं जो
उभयलिंगी है जैसे पैंग्विन,डालफिन,चिंपाज़ी आदि।
धार्मिक मान्यताओं को देखें तो विश्व के लगभग सभी धर्मों में यह वर्जित है।इस्लाम में भी इसकी वर्जना है जिसके चलते ईरान में 1971 के बाद लगभग 4000 समलैंगिकों को फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी।बहुत से धार्मिक समुदाय इसे भटकाव मानते हैं तथा इसके उपचार हेतु प्रयासों में संलग्न हैं।
चिकित्सा जगत में भी इसे मानसिक रोग माना गया है तथा इसका उपचार करने की पद्धति को रैपेरेटिव ट्रीटमेंट का नाम दे कर उन्हें विषमलिंगी बनाया जाता है।
क्यो और कैसे ?? पनपती है यह प्रवृत्ति बहुत से सदस्यों ने स्पष्ट कर दिया है।
विदेशों में पश्चिमी देशो में इसे स्वीकार किया गया है किन्तु भारत में यह कानून अपराध है।तथा इसकी सजा आई पी सी
की धारा 377 के तहत 10 साल तक तय की गई है।
उच्च न्यायालय के एक निर्णय जिसमें समलैंगिकताको अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था उसे उच्चतम न्यायालय ने 2013 मे निर्णय पटल कर इसे पुनः अपराध की श्रेणी में मानय किया है।
जो मानते हैं कि भारतीय प्राचीन मंदिरों में जैसे अभी उल्लेख किया गया था गजुराहो ,कोणार्क,भुवनेश्वर के प्राचीन मंदिर आदि जहाँ की मूर्तियों में समलैंगिकता के प्रमाण मिले हैं तथा जिन्हें भारतीय संस्कृति की समृद्ध एवं मुखर समलैंगिक प्रवृत्ति की पैरवी करता हुआ माना है यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह उदारीकरण के नहीं है वरन् मानसिक प्रताड़ना का परिणाम है।क्योंकि कई कई वर्षों तक कर्मियों तथा क्रमिकों को अपने परिवारो से दूर रह कर निर्माण कार्य में संलग्न होने के कारण इस प्रवृत्ति का उत्पन्न होना तथा काल के आखिरी पहर पर उकेरी गई इन मूर्तियों में वही मानसिकता परिलक्षित हुई है।
मानव स्वभाव रहा है विपरीत लिंगाकर्षण का तथा यह नैसर्गिक प्रकृति प्रदत है।समलैंगिकता, उभयलिंगी अथवा जो भी नाम हो स्थिति जन्य है एवं इसे स्थिति जन्य ही मानना चाहिए न कि इसकी पैरवी कर के कानूनन इसे अधिकार दिलाना चाहिए।सभ्यता के इस दौर मे भी हम जानवरों तक के व्यवहार में परिवर्तन नहीं पाते हैं तो फिर मनुष्य क्यों ऐसी मानसिकता से अनैसर्गिगता को अधिकार मानने तूल दे रहा है।अभी कस्तूरी जी ने भी यह बात कही है कि हमारे भविष्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा हमारे ही बच्चे आज बाहर निकल रहे हैं उच्च शिक्षा पाने के लिए जहाँ हम नहीं हो सकते उनके साथ ऐसी परिस्थिति में समलैंगिकों अधिकार प्राप्ति के लिए आंदोलन करना क्या असर दिखाएगा उनके मानस पटल पर।अच्छी आदते सीखने के लिए वर्ष लग जाती है किन्तु बुरी लत अथव व्यवहार को समय नहीं लगता और जो खुलापन प्रदर्शित हो रहा है क्या वह भी मानसिक विकृति नहीं।चर्चा दोनो पक्षों की हो मै मानती हूं किन्तु क्या हम अपने घरों में ऐसा वातावरण अपनाएँगे? मुझे नहीं लगता इस उदारीकरण के लिए अभी कुछ शतकों तक हम मानसिक रूप से तैयार हैं।

स्नेहलता पाठक : ये बात बिल्कुल सही है तेजिंदर जी कि मंचो पर तो बहुत उदारतावादी बनते हैं हम मगर खुद पर बीतती है तो डटकर सामने भी नहीं आते ।अगर समाज की सोच बदलना है तो हमे कथनी करनी का भेद सामने आकर मिटाना होगा ।
सदियो से यह वर्ग समाज से बहिष्कृत होकर नाच गाने तक सीमित होकर रह गया है ।उन्हे भी पढलिखकर नौकरी करके अपने माता पिता के साथ रहकर सामान्य जिंदगी जीने का हक होना चाहिए।ताकि ये भी मिली जिदगी को इज्जतदार बना सके ।मगर ऐसा हो नहीं पाता ।क्यो जबरन उन्हे धकेल दिया जाता है क्यो कोई मनो वैज्ञानिक कारण है?यदि हाँ तो क्या ?

सुरभि पांडे: आशा जी अभी मैंने आपका आलेख पढ़ा, बताना चाहूँगी कि इसी बारे में अभी एक केस चल रहा है अदालत में किसी समलैंगिक लड़के का, घरवालों ने अंट शन्ट गालियाँ देकर गवाँर पन से उसकी शादी करा दी, वो चीखता रह गया, उसने अपने होने वाले ससुर से कहा, ससुर ने कहा, अरे लड़की मिलेगी, तो साले तू लड़के को भूल जायेगा।मां मरने दौड़ी, बाप ने कुफर गालियां बरसाईं, घर में दुल्हन आ गयी।फिर चली भी गयी, घरवालों को जेल में ठूँसकर।मर गिर के जमानतें हुईं, अब केस लड़ा जा रहा है, दहेज , प्रताड़ना, और छोटी बड़ी मिलाकर 8-10 धाराएं।
आपने बिलकुल सही लिखा है जब दो लड़कियाँ साथ रह रहीं हैं तो तीसरे ग़रीब को पति बनाकर क्यों फँसाना?????

प्रफुल्ल कोलख्यान – आपकी अति मार्मिक टिप्पणी को यथावत स्वीकार करते हुए इस संदर्भ में कुछ कहना जरूरी है।
मोटे तौर पर, राज कानूनों से चलता है, समाज मान्यताओं से और व्यक्ति अपने मनोवृत्तियों से। इन तीनों में रस्साकशी चलती रहती है। इन में संतुलन की जरूरत होती है। इनके बीच टकराव का समंजन प्रत्येक सचेतन व्यक्ति की चिंता के केंद्र में होता है। इन में राज और समाज की तुलना में व्यक्ति अधिक मूर्त्त होता है और हम जो इस पर विचार कर रहे हैं, न राज हैं और न ही समाज हैं, व्यक्ति हैं। जाहिर है हमारी टकराव के ऐसे परिवेश में हमारी प्राथमिकता व्यक्ति से जुड़ी होती है। प्रकृति वह और वैसा कुछ करने ही नहीं देती जो प्राकृतिक नहीं है। हम पत्थर को खारिज कर और लकड़ी पी नहीं सकते। यह सच है कि हम प्रकृति से इतर मानव विकसित संदर्भों का सम्मान करते हुए ही मनुष्य की जिंदगी अपनाते हैं। मेरी एक कविता के प्रसंग में एक संदर्भ है कि प्रकृति ही पर्दा है। मनुष्य के अलावा कोई प्राणी कपड़े नहीं पहनता यह सच है लेकिन यह भी सच है कि मनुष्य के अलावा कोई अन्य प्राणी नंगा भी नहीं होता। मनुष्य बहुत जटिल प्राणी है जैविक रूप से भी और सांस्कृतिक या सभ्यतागत रूप से भी, जटिल ही नहीं विचित्र भी है। इसलिए व्यक्ति मनुष्य पर टिप्पणी बहुत संवेदनशील मामला है। इस तरह की परिचर्चा का एक मकसद होता है लोगों के लिए मन खोलने का स्पेस मिले। मन खुले तो मनोविकार हो या मनोस्वीकार सभी सामने आते हैं और मनोवृत्तियों की गुंजलक के खुलने की गुंजाइश बनती है। एक बात गुंजलक खुल जाये तो आगे का काम आसान होता है, व्यक्ति के लिए भी और समाज तथा राज के लिए भी। यहाँ इस मुद्दे से संदर्भित कई सार्थक और प्रयोजनीय बात रखी गई। मैं समझता हूं, न पूरा थोड़ा भी हम ने खुद को बिना खरोचे खंगाला तो संतोष के लिए पर्याप्त है। आगे और चर्चा हो।
आशा सिंह गौर – जी सुरभि जी मैंने भी ऐसे केस के बारे में सुना है जहाँ माता-पिता ने जबर्दस्ती अपने बेटे की शादी कर दी और जब लड़की को पता चला तो उसने पूरे परिवार पर मुकदमा ठोक दिया। लड़के ने यही कहा कि उसकी शादी जबर्दस्ती की गई है और सादर लड़की को तलाख दे दिया पर उस लड़की की मनःस्थिती का क्या जिसने अपनी नई ज़िंदगी के कतरा कतरा सपने संजोए होंगे।

ज्योति गजभिए: चर्चा अच्छी चल रही हा पर यह ध्यान रहे कि हम आज समलैंगिकता पर बात कर रहे हैं जिनमें हिजड़े और हेट्रोसेक्सुअल को सम्मिलित नहीं करना है, कुछ बातें समक्ष आई कि हम इस पर चर्चा तो कर सकते हैं पर अपने परिवार में कोई हो तो स्वीकार नहीं कर सकते यही कारण है कि कई बार गे और लेस्बियन का विवाह सामान्य रीति से अपोजिट सेक्स से करवा दिया जाता है फिर विवाह के बाद परेशानियाँ आती हैं, सामान्य स्त्री या पुरुष की जिंदगी बरबाद हो जाती है, कोई जानबूझ कर समलैंगिक नहीं बनना चाहता पर वह वैसा ही पैदा हुआ है तब सत्य को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं होता.
मानवेंद्र सिंह गोहिल समलैंगिकों की समस्या पर वे सशक्त कार्य कर रहे हैं वे स्वयं “गे प्रिंस के नाम से जाने जाते हैं, कहते हैं कि जो समलैंगिकता से डरता है वह होमोफोबिक है, वह अपने को लैंगिकता की बातों से बचाये चलता है और इसे आप्राकृतिक मानता है,
मैं Women playwright’s international में जब स्वीडन और केपटाउन गई तब औरतों के ऐसे कई कपल्स मिले वे शान से कहते थे We are together पर भारत में शायद ही कोई ऐसा कह पाये, हमारे यहां सब विद्मान है पर सात पर्दों के भीतर हमारे चेहरों पर मुखौटे होते हैं समाज में वही पहनकर सामने जाना पड़ता है जो गलत है वह सही कभी नहीं हो सकता, और इस गलत की परिभाषा भी समाज ही तय करता है.

रूपेंद्र राज तिवारी: प्रफुल्ल जी इसे प्रकृति प्रदत्त मान लेना कहाँ तक उचित है कैसे कह सकते हैं कि फलाँ व्यक्ति हर्मोनल प्रभाव से ऐसी प्रवृत्ति रखता है तथा स्थिति जन्य नहीं है।जिस वातावरण में हम रहते हैं उसकी वर्जनाएँ बेमानी तो नहीं हो सकती।यदि हैं तो खुलापन स्वीकारने में झिझक क्यो हो रही है क्यों इन्हें चर्चा का विषय बनाया जा रहा है।किसी की मानसिकता पर कोई विचार थोपे नहीं जा सकते।कानून यदि राज सत्ता से आदेश पारित करता है तो समाज का उस पर वर्चस्व होता है।बगावत की स्थिति में सब जायज है लेकिन वर्जनाओ के भी अपने कारण है।जिस परिवेश में हम हैं उसके पीछे भी तर्क ही रहे होगें ।इतने सालों बाद कानून ने अपना रवैया नहीं बदला तो उसके पीछे भी कारण रहे होगे।क्या मापक है जिसके चलते यह अपराध नहीं है तय किया जा सके।क्या पैमाना है कि इसे मापा जा सके कि यह जैविक है स्थिति जन्य नहीं।बहुत से प्रश्न कौंधते है जब हम किसी भी विषय के प्रति गंभीर होते हैं केवल वहाँ मान्यता है इसलिए मान लो से तो नहीं चल सकता न।

गीता भट्टाचार्य: समलैंगिकता अस्वस्थ मनोमस्तिष्क का परिचायक है। स्थिति जन्य व्यवहार मे मानसिक संतुलन का बने रहना ,सामाजिक प्रतिमानो का ध्यान रखना ,नैतिकता का पालन करना आवश्यक है।सामाजिक बदलाव के नाम पर उलजुलुल हरकत करना गलत है । इस प्रकार की विकृति कामानसिक एवम् सामाजिक रूप से इलाज होना चाहिए ताकि स्वस्थ शरीर मे स्वस्थ मन का विकास हो और स्वस्थ मनोमस्तिष्क के लोगों के संतुलित व्यवहार से स्वस्थ ,उज्जवल समाज का निर्माण हो।

सुरभि पांडे: मैं आपसे बहुत प्रभावित हुई प्रफुल्ल जी।विषय कठिन भी था और कॉम्प्लिकेटेड भी, लेकिन मेरा तपा हुआ था।बरसों का विचारा हुआ। करीब 8 -10 लोग मुझसे काफ़ी करीब हैं, तो मैं उनकी बातों से मुतमुईन हूँ, जिनमें औरतें भी शामिल हैं और आदमी भी, तो मुझे कयास हुआ आप बैटर सर्व करेंगे, और वही हुआ भी, क्योंकि मै भावना के आधार पर सोच सकती थी, मगर उसे ऐसा रूप नहीं दे सकती थी, जैसी सरलता और आत्मीय भाव से आपने उसे धरा।हम सही आदमी का सही काम के लिए चयन करें तो आधी जीत तो तभी तय हो जाती है जब हम इनिशिएटिव लेते हैं।
आपने मनुष्य के मन की तहों में झाँका और लेखक होने के अहंकार को ताक पर रखकर, मनुष्य होने की एकदम कच्ची ज़मीन से।आपको धन्यवाद।रूपेंद्र जी की टिप्पणी पर बहुत डर गयी थी मैं, लेकिन आपकी ओर से आये जवाब ने मंच पर सादगी और सहजता बनाये रखते हुए जिस आँख से विवेचना की निश्चित ही उसमें सबके विकास का स्वप्न छुपा हुआ है।आपको मेरा व्यक्तिगत धन्यवाद।मैंने इस क्रूशियल पॉइंट पर सही शख्स चुना था

वृंदा पंचभाई: समलैंगिकता सामाजिक परिवेश के संदर्भ में विकृत मानसिकता का द्योतक है इसका मेरे विचार से समर्थन नहो बल्कि उपचार होना चाहिए ताकिस्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा और मानव प्रकृति की चिरकाल से प्रतिस्थापित प्रकृति और पुरुष की योजना को स्वीकार करना होगा,

प्रभा शर्मा: समलैंगिकता स्थिति जन्य होता है,या कभी कभी जेनेटिक::: इसे साइंस भी प्रमाणित कर चुका है।येएक विकृति है इसका इलाज किया जा सकता है।परकुछ लोग इसे अपनी प्रकृतिक भावना के तहत अपना कर उसी राह पर निकल पड़े।आज इनकी संख्या लाखों में है। स्थिति तब भयावह हो जाती है जब गे या लेस्बियन को न समझते हुए उनकी शादी जबरन माता पिता सामान्य से करा देते हैं।नतीजा वही तलाक कोर्ट कचहरी साथसमाज की निगाहों से दो चार होना।कोई जानकार इस स्थिति में नहीं आया, अब समस्या है तो स्वीकारना ही होगा।वैचारिक स्वतंत्रता एवं जीने का अधिकार सभी को है।किसी पर थोपा नहीं जाना चाहिए। – प्रभा शर्मा “सागर”

कुमार सुशांत : आज समलैंगिकता की आवाज क्यों उठ रही है सबसे पहले इसपर विचार रखूँगा फिर आगे की बात करूँगा। उत्तर आधुनिकता विकेंद्रियता को महत्व देता है ।यह अपना ध्यान केंद्रीक,चर्चित और मुखर मुद्दों से हटाकर उस अन्य पक्ष की ओर केंद्रित करता है जो सामजिक एवं साहित्यिक विमर्श में अबतक अनुपस्थित, उपेक्षित, और अवमूल्यित था ।जिसने हासिये पर पड़ी ‘अन्य आवाज’ (औरतों, अश्वेतों, औपनिवेशिक लोगों,दलितों,समलैंगिकों ) को अपनी आवाज दी।इसके परिणामस्वरूप आज सारी दुनिया में औरतों, अश्वेतों, ऑप्निवेशोक लोगों, दलितों, और समलैंगिकों की अस्मिता अधिकारों के आंदोलन की अनुगूंजें सुनाई पड़ रही है ।फुकों ने प्रभुत्ववादी विमर्शों,तकनीकों और संस्थानों के प्रति स्थानीय प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए समलैंगिकों और कैदियों के साथ काम किया।
अब प्रश्न उठता है इन्हें अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करने की जरुरत क्यों लगी।इसका उत्तर है समाज द्वारा स्वीकृति न मिलने के कारण। अगर समाज इन्हें स्वीकार ले तो ये आंदोलन करना छोड़ देंगे।समाज में सभी को जीने का अधिकार है । उन्हें भी इनका मौलिक अधिकार दे दिया जाय तो वे भी आंदोलन करना छोड़ देंगे।इन्हें समाज को अपनाना चाहिए।

अब प्रश्न है कि हमारा समाज इन्हें क्यों नहीं अपना रहा है जबकि विदेशों में कई देशों ने इन्हें अपना लिया है।इसका कारण है हमारा समाज आज भी पिछड़ा और अशिक्षित है।जब तक शिक्षित नहीं होगा तब तक इन्हें नहीं अपनाएगा।

मानक शाह : व्यक्तिगत रूप से में समलैंगिकता के विरोध में हूँ,क्योकि यह भारतीय संस्कृति की उपज नही है। यह तो पाश्चात्य संस्कृति का हिन्दुस्थान में अनाधिकृत प्रवेश है। पारस्परिक विपरीत लिंगी सम्बन्ध एक अलग मसला है। उनके कारण कुछ भी हो सकते है। पर-स्त्री या पर-पुरुष से अंतरंग सम्बन्ध उन पुरुषो व् स्त्रीयो के मापदंड पर छोड़ दिये जाना चाहिए जो परिस्थिति वश इनमे शरीक हो जाते है। लेकिन समलैगिक परस्पर सम्बन्ध विकृत मानसिकता का परिचायक है। कदापि इसका समर्थन नही किया जाना चाहिए।

सरस दरबारी: आपकी बात से सहमत कुमार सुशांत जी , दुनिया 25 लाख समलैंगिक हैं, जो कि आबादी की एक बहुत बड़ी मात्रा है, और जो निरंतर बढ़ती जा रही है । यह भी देश के नागरिक हैं , जिनके प्रति समाज की जवाब देही है । आपके विचारों का पटल पर स्वागत है । मानक शाह जी हमारी पुरातन मूर्तियाँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह विषय भारत के लिए नया नहीं है । यह बात और है कि हमारे देश में समाज कि एक महत्वपूर्ण इकाई परिवार है, और समलैंगिकता इसके जड़ों पर प्रहार है । पर यह भी सच है , कि जीवन अपनी व्यक्तिगत मिल्कियत है , इसपर दूसरों का अंकुश हो , यह कहाँ तक उचित है। आपने अपने विचार पटल पर रखे , इसके लिए हार्दिक आभार ….

दिनेश गौतम : हनुमंत किशोर जी से सहमत होते हुए कुछ ही बातें रखना चाहूँगा। पहली बात तो यह कि यह प्राकृतिक नहीं है हालाँकि बहुत से लोग प्रकृति में इसके कुछ उदाहरण ढूँढकर इसे प्राकृतिक सिद्ध करने की भूल कर सकते हैं । समलैंगिकता वाकई एक डिसऑर्डर है। कुछ लोगों में अगर ये दिख जाती है तो यह वाक़ई ‘सॉफ्टवेयर प्रॉब्लम’ है। प्रकृति की अपनी व्यवस्था है और उसने पूरे प्राणी जगत् को नर मादा के जोड़ों के रूप में ही बना रखा है।और उनकी संतति चलती रहे इसलिए इसी तरह का आकर्षण भी उन दोनों के बीच बना रखा है। ताकि वे इस आकर्षण के चलते एक दूसरे के संपर्क में आएँ और उनका वंश चलता रहे। प्राकृतिक तौर पर भी वे दोनों न केवल एक दूसरे से और एक दूसरे को संतुष्ट होते और करते हुए संतानोत्पत्ति में समर्थ हो पाते हैं। समान लिंगी चाहे कथित तौर पर थोड़ा बहुत संतुष्ट हो भी जाएँ पर इन यौन संबंधों से संतानोत्पत्ति संभव ही नहीं है। प्रकृति ने नर नारी को शारीरिक रूप से बनाया ही ऐसा है कि वे अपने अंगों से एक दूसरे के लिए स्वीकार्य हैं। यह समलिंगियों में कहाँ ? समाज में विषमताएँ विद्यमान रहेंगी ही इसलिए उनका अस्तित्व तो हर समय संभव है ही । उन्हें अग़र कुछ लोग अप्राकृतिक कहते हैं तो यह उनका अपमान नहीं है।हाँ गे और लेस्बियन लोगों के साथ मिलकर उन्हें संगठित कर उनके लिए व्यवस्था बनाने का प्रयत्न करने वाले भी ऐसा करने को स्वतंत्र हैं पर वे स्वयं जानते हैं की कि नैसर्गिकता और सहजता किसमें है।

सुधीर शर्मा – सहमत हूं। समलैंगिकता का पक्षधर मैं भी नहीं हूं। परंतु जो समाज में घटिया रहा है, उस पर हमारी पैनी नजर होनी चाहिए । एक बडे समुदाय को हम यूं ही नहीं छोड सकते । समाज ने तो कुष्ठ रोगियों को गांव बाहर कर दिया था। जिस तरह मासिक धर्म पर बहस हुई थी, वैसी बहस आज भी हो रही है।
जहां तक प्रफुल्ल जी की बात है, ये हमारा सौभाग्य है कि वे हमारे अतिथि हैं। वे भारतीयता, अस्मिता और अनेक गंभीर विषयों के आलोचक हैं।
हनुमंत जी का यह तेवर समझ से परे है।
आज की बहस ने एक शोधार्थी को बीस पेज के ऐसी सामग्री भी उपलब्ध करा दी जो कहीं नहीं मिल पाती।
बधाई ।
बहस जारी रहे।
यह बीमारी है तो उपचार हो, मनोविकार है तो जांचा परखा जाए, प्राकृतिक या अप्राकृतिक जो भी हो, इससे बने समुदाय की कौंसलिंग की जाए।
हीनता, घृणा और उपेक्षित व्यवहार कोई उपचार नहीं है ।
जो बिंदु छूट गए वे हैं यौन सुख, वैकल्पिक मनोरंजन, आर्थिक पहलू, टूटते घरेलू रिश्तेदार, परंपरा से विद्रोह और दोस्ती की सीमाएं लांघना आदि आदि।
जो दर्शक दीर्घा में मजा लेते रहे, उनको भी प्रणाम।
अतिथि आमंत्रण की शुरूआत भी बनी रहे।
एडमिन के इस आजाद लोक को नमन
सरस दरबारी – आज का विषय बहुत ही विवादास्पद था । शुरुआत प्रफुल जी के बेहतरीन लेख से हुई , जिसमें उन्होने अवगत कराया कि अंतरंगता का मापदंड व्यक्ति स्वयं निर्धारित करता है , और यह अधिकार सर्वथा उसीका होना चाहिए ।
संतोष दी ने कई सारे वाजिब प्रश्न उठाए जिनका उत्तर हमें एक एककर परिचर्चा में मिलता गया ।
मधुजी ने लेसबियनिस्म कि एक बड़ी वजह पर प्रकाश डाला । बेटियाँ जब बचपन में पिता का माँ की तरफ वहशियाना बर्ताव देखती हैं, तो उनमें पूरे पुरुष समाज से एक वितृष्णा और असुरक्षा का भाव पनपने लगता है और उनका झुकाव इस ओर हो जाता है । पर चूंकि यह समाज की एक बहुत ही महत्वपूर्ण इकाई परिवार पर एक गहरा प्रहार था इसलिए अनैतिक था वर्ज्य था ।
दुष्यंत कुमार जी के अनुसार हम उसे रोक नहीं सकते तो उसपर परिचर्चा कर उसका महिमा मंडन तो न करें । पर चूंकि यह एक सामाजिक समस्या जिसका निर्मूलन संभव नहीं, इसलिए यह परिचर्चा केवल उसे समझने की एक कोशिश थी ।
सुधीरजी ने इसे एक मनोविकार माना है । जहाँ तक नैतिक अनैतिक का प्रश्न है तो इसके मापदंड समय के साथ बदले हैं । 5000 साल पहले समलैंगिकता समाज में व्याप्त थी, उसके कई उदाहरण भी उन्होने दिये ।
कस्तूरी जी अपने विस्तृत लेख में इस बात पर प्रकाश डाला कि ऐसे कई बुद्धजीवी हुए हैं जिन्हें समाज ने सिर्फ इसलिए नकार दिया कि वे होमोसेक्सुयल थे । उनका सामाजिक बहिष्कार कर उन्हें तड़पा तड़पा कर मारा । ऐसे में गलत कौन है , वे या हम । उन्होने सिर्फ प्रेम ही तो किया था, यह बात और थी कि यह प्रेम अप्राकृतिकता की श्रेणी में आता था । पर हमें यह अधिकार किसने दिया ।
सुरभि दी ने एक और मित्र का उल्लेख किया जो स्वभाव से बहुत अच्छे हैं करुणा की मूर्ति हैं , भले सज्जन हैं पर बस उनकी इसी एक कमी ने उनकी सारी अच्छाइयों पर ग्रहण लगा दिया है ।
वर्षा जी ने बहुत ही सुंदर बात कही। अपनी ज़िंदगी अपनी खुशी पर हर किसी को इख्तियार है, यह उसकी निजी मिल्कियत हैं, उसमें हस्तक्षेप करने वाले हम कौन होते हैं। उन्होने इस परिचर्चा के उद्देश्य पर प्रश्न उठाया , क्या केवल दोषारोपण ही हमारा उद्देश्य है या उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश भी हमारी परिचर्चा में शामिल है । वर्षा जी इस विस्तृत परिचर्चा में हम सभी को अपने सारे प्रश्नों का उत्तर लगभग मिल ही गया होगा ।
हनुमंत किशोर जी की बात बहुत सही लगी । विषय जितना बोल्ड हो , ज़िम्मेदारी उतनी अधिक बढ़ जाती है । यकीनन …!!!
ज्योतिजी ने कहा कि हमारी पुरातन मूर्तियों में जब समलैंगिकता दर्शाई गई है, तो इसका अर्थ यही है कि यह प्राचीन काल से प्रचलित है । कामसूत्र में एक पूरा अध्याय इसी पर केन्द्रित है । पर यह सच है ज्योतिजी कि बावजूद इसके अपने आपको संभ्रांत लोगों में शुमार करने वाले इन विषयों से जी चुराते हैं ।
नीलम जी कहा यह अप्राकृतिक अवश्य है, पर अगर आम लोग इसे एक विकल्प के रूप में अपनाने लगें तो यह घृणित है । उसे महिमामंडित करना हुआ। जी बिलकुल सहमत ।
कई मित्रों ने अपनी मूक उपस्थिती भी दर्ज की जिसके लिए आपके आभारी है राज बोहारे जी, अपर्णा अनेकवर्णा, सुनीता माहेश्वरी जी ,
अमरजी का इंतज़ार करते रह गए, वे अपनी झलक दिखा दिखाकर चले गए ।
आजकी इस परिचर्चा में कई मित्रों का योगदान रहा जिनमें लता जी और रुपेन्द्र जी का खास तौर पर उल्लेख करना चाहेंगे।
गीता जी, स्नेहलता जी , नीलम दुग्गल जी , अवधेश प्रीत जी, पूर्ति खरे जी , आशा जी , गीता भट्टाचार्य जी ,वृन्दा पंचभाई जी , प्रभा शर्मा जी , मानक शाह जी एवं दिनेश गौतम जी , आप सभी मित्रों का हृदय तलसे आभार प्रकट करना चाहेंगे। आप सबने अपना अनमोल समय देकर इस परिचर्चा को सफल बनाया । सुरभि दी का विशेष रूप से आभार जिन्होने, पटल पर साथ रहकर मार्गदर्शन किया चूंकि संचालन का यह हमारा पहला अनुभव था ।
हमारे आजके विशेष अतिथि, आशा जी और सुधीर जी को विशेष रूप से धन्यवाद जिनहोने पटल पर अपने विचार रखे ।
संतोष दी शुक्रिया इस अवसर के लिए ।
…एक बार सबका धन्यवाद । शुभ रात्रि ।

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