Saturday, April 27, 2024
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गांधी की अहिंसा के पहले राजनीतिक शिकार-स्वामी श्रद्धानंद

जिन्होंने इतिहास के उन पन्नो को पलटा है, जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, तब उन्होंने आर्थिक सहायता के लिए अभ्यर्थना भारत से की। उन दिनों गुरुकुल कांगड़ी में 2-3 अंग्रेजी अख़बार आते थे। स्वामी श्रद्धानंद ने उन अखबारों के आधार पर गांधीजी की सहायता करने की सोची। गुरुकुल के छात्रों ने दिसम्बर की ठंड में गंगा किनारे कुछ श्रम कर कुछ रुपए इकठ्ठे करके ‘गुरुकुल सहायता’ के नाम से उनको भेजे।

स्वामी श्रद्धानंद आयु, ज्ञान, अनुभव तथा सेवा में गांधी से श्रेष्ठ और ज्येष्ठ तो थे ही। इस कारण गांधी उन्हें बड़े आदर से ‘बड़े भाईजी’ शब्द से संबोधित किया करते थे। स्वामी श्रद्धानंद कांग्रेस में देश सेवा हेतु शामिल हुए थे, परंतु हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुसलमानों की चापलूसी, हिंदू हितो की अपेक्षा, खिलाफत आंदोलन को समर्थन, दंगों की निंदा तक न करना, अछूतों (दलित) कहे जाने वाले ८ करोड़ हिंदुओं के हित में कोई कदम न उठाना जैसे अनेक विषय थे जिनके कारण स्वामीजी को कांग्रेस से अलग होना पड़ा। भारतीय आश्रम-व्यवस्था में वानप्रस्थी को ‘महात्मा’ शब्द से ही सम्बोधित किया जाता है।

उन दिनों जब गुरुकुल का वार्षिकोत्सव था, गांधी स्वामीजी से मिलने पहुंचे थे। स्वामीजी उनको कोई उपहार या भेंट देना चाहते थे। ऋषि-मुनियों की परम्परा को मानते हुए स्वामीजी ने वार्षिकोत्सव के अंतिम दिन लाखों दर्शकों की उपस्थिथि में गांधी से कहा “आप मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं, इस बड़े भाई के पास तुम्हे देने के लिए के लिए एक ही वस्तु है। मैं अपना महात्मा (तब स्वामीजी महात्मा मुंशीराम के नाम से जाने जाते थे) उपाख्य इस अवसर पर आपको सादर भेंट करता हूँ। इसे अभी स्वीकार करलो। फिर क्या था, लाखों लोगों ने करतल ध्वनि की। कुछ लोग जानबूझकर इस घटना छिपाते हैं और मिथ्या घटना तक बुनते हैं की ये उपाधि गांधी को रविन्द्रनाथ टैगोर ने दी थी। यह प्रयास गुरुकुल और स्वामी श्रद्धानंद, आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के ओर से ध्यान हटाने के लिए किया जाता है जो की एक अक्षम्य अपराध है।

1919 में हुए जलियांवाला कांड के कारण भयभीत जनता ने एक जुलूस निकला जिसका नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद कर रहे थे। जब जुलूस चांदनी चौक पहुंचा तो वहां मौजूद सेना की टुकड़ी में एक सिपाही ने बंदूक स्वामीजी के सीने पर तान दी। स्वामीजी ने सिंह गर्जना करते हुए अपने छाती पर पड़ी चादर हटा दी और कहा “साहस है तो चलाओ गोली” लाखों की भीड़ का नेतृत्व करने वाले संन्यासी दुनिया को गरजते देख रही थी| कहते हैं इस घटना के पश्चात 3 दिनों तक पूरे दिल्ली प्रदेश में स्वामीजी का अघोषित राज कायम रहा। हिंदू ही नही सैकड़ो मुस्लिम इस वीतराग संन्यासी के पास आते और अपनी समस्यायों का समाधान पाकर संतुष्ट होकर जाते।

स्वामी श्रद्धानंद की अद्वितीय प्रभाव की खबर गांधी के कान तक पहुंचायी गयी| गांधी अपने प्रभाव की बागडोर फिसलते देखने लगे। उनमें ईर्ष्या की आग भड़क उठी। जिन्होंने गांधी के राजनीतिक क्रियाकलापों को नजदीक से देखा है, उनका स्पष्ट कथन है कि गांधी अपने बराबर किसी अन्य नेता को उठते नहीं देख सकते थे। उन्होंने अपने मार्ग में आने वाले हर नेता को चाहे वो नरम दल का रहा हो या गरम दल का, उसे किसी भी प्रकार हटाकर अपना मार्ग प्रशस्त किया। और ये एक कटु सत्य है कि उनकी इस राजनीति का पहला शिकार स्वामी श्रद्धानंद ही बने थे।

दिल्ली की जामा मस्जिद के गुम्बद से स्वामीजी ने यह वेदमंत्र पढ़ा था- “त्वं हि पिता वसो त्वं माता सखा त्वमेव। शतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमी महे।।”

संसार के इतिहास की ये इकलौती घटना है जब ‘एक काफ़िर’ मस्जिद के मिंबर से वेद मंत्र का उच्चारण कर रहा था। इसके बाद मुसलमानों ने अन्य मस्जिदों में भी उनके व्याख्यान करवाए। मुसलमानों पर स्वामीजी के अमिट प्रभाव की खबर गांधी को लगी। अपनी लोकप्रियता के आड़े आते श्रद्धानंद उनको अपनी व्यक्तिगत पूजा में बाधा लगे। टर्की के बादशाह और अंग्रेजों का संघर्ष को लेकर ‘खिलाफत आन्दोलन’ जो की भारत के लिए निरर्थक था, गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए अकारण ही ये आंदोलन छेड़ जन शक्ति को भ्रमित किया। इससे कई नेता गांधी से असंतुष्ट होकर संगठन से अलग होने लगे। इनमें स्वामीजी भी थे। काकीनाडा कांग्रेस सम्मेलन में देश के 8 करोड़ अछूतों के उद्धार की जो घृणित योजना बनी, उसके कारण भी काफी असंतोष फैला।

योजना के मुताबिक अछूतों को हिंदू और मुसलमानों में बराबर बांटने की बात कही गयी। यानी हिंदू समाज के अभिन्न अंग करीब ४ करोड़ लोगों को सीधे सीधे इस्लाम की गोदी में सौंपने का षड़यंत्र था। ये बात स्वामीजी के लिए असहनीय थी क्योंकि उन्होंने तो अपना जीवन ही अछूतों के उद्धार को समर्पित कर दिया था। वे कांग्रेस से सदा के लिए अलग हो गए। उनके पीछे पीछे सेठ बिड़ला और मदन मोहन मालवीय जी ने भी कांग्रेस छोड़ दी। इस घटना ने गांधी की ईर्ष्या की आग को और भड़का दिया। उन्होंने अपने पत्रों में आर्यसमाज और स्वामीजी के विरुद्ध विष वमन किया और उनके फैलाए सांप्रदायिक जाल ने आखिर अपना रंग दिखाया और 23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद की हत्या एक मुस्लिम के हाथों करा दी गयी। स्वामीजी की शहादत पर गांधी ने भी ऐसी वीरोचित मृत्यु की कामना की थी। वैसी मृत्यु तो खैर उनको नहीं मिली पर भारत के बंटवारे के कारण लाखों-करोड़ों हिंदुओं की आहों से भरी मृत्यु अवश्य मिली। भगवान सब की इच्छा पूर्ण नहीं करता। पर स्वामीजी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। लाखों आर्यसमाजी सदा के लिए कांग्रेस से अलग हो गए और कांग्रेस मात्र एक सांप्रदायिक पार्टी बनकर रह गयी।
महान संन्यासी को नमन।

(राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख पत्र “राष्ट्र धर्म के जनवरी 2016 विशेषांक से साभार)

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