Friday, May 3, 2024
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सर्वसेवा संघ: सत्य और झूठ

महात्मा गांधी की मृत्यु के तत्काल बाद गांधी जी के प्रति श्रद्धाभाव रखने वाले और उनके आंदोलन से जुड़े सभी लोगों की एक बैठक हुई जिसमें स्वयं जवाहरलाल नेहरू, यू.एन. ढेबर, आचार्य विनोबा भावे आदि शामिल थे। इसमें गांधीजी की स्मृति में रचनात्मक कार्य जारी रखने के लिये एक गांधी स्मारक निधि के संग्रह का निर्णय लिया गया। वह निधि शासन में विराजमान श्ीार्ष लोगों की प्रेरणा से समाज से संचित हुई और वह एक बड़ी रकम हो गई। उससे गांधी स्मारक निधि एवं गांधी शांति प्रतिष्ठान नामक शोध केन्द्र का संचालन प्रारंभ हुआ। बाद में निधि की देशभर में लगभग 12 प्रमुख शाखायें हो गईं। जो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई सहित अनेक महत्वपूर्ण नगरांे में हैं। शासन ने सब जगह उनके लिये भूमि एवं भवन सुलभ कराये। जो आज भी चल रहे हैं।

इन्हीं लोगों ने निर्णय लिया कि रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक अलग संगठन बने जिसे सर्वसेवा संघ कहा गया। इस संगठन का आध्यात्मिक एवं वैचारिक मार्गदर्शन आचार्य विनोबा भावे करेंगे, यह निर्णय हुआ। श्री धीरेन्द्र मजूमदार सर्वसेवा संघ के पहले अध्यक्ष बने। ठाकुर दास बंग इसके अंतिम अध्यक्ष हुये। उनके नहीं रहने के बाद से संस्था में विवाद शुरू हो गये हैं।

सर्वसेवा संघ का मुख्यालय यानी प्रधान कार्यालय महादेव भाई भवन, सेवाग्राम वर्धा में है। सर्वसेवा संघ का मुख्य काम लोेकसेवा है। यह सेवा के लिये ही बना संगठन है। जब नेहरू जी को ग्राम विकास की अपनी योजनाओं में बड़े किसानों की भूमि लेने में कुछ कठिनाइयाँ हुईं तो उन्होंने आचार्य विनोबा भावे से मिलकर शांतिपूर्ण भूमिदान की प्रेरणा बड़े किसानों को देने के लिये भूदान आंदोलन प्रारंभ करने की योजना रची। भारत सरकार के ग्राम विकास के सहयोग से सभी प्रखंड विकास अधिकारियों से लेकर ग्रामीण विकास के शीर्ष अधिकारियों एवं मंत्रियों तक ने भूदान आंदोलन में अत्यधिक सहयोग किया। भूदान आंदोलन के क्रम में 1960 ईस्वी में जब आचार्य विनोबा भावे काशी आये तो राजघाट में काशी रेल्वे स्टेशन के एक भवन में ठहरे। रेल्वे अधिकारियों ने एवं जिला प्रशासन ने उनका भरपूर सहयोग किया। विनोबा जी के जाने के बाद कुछ कार्यकर्ता राजघाट काशी में ही ठहर गये और रेल्वे के उस भवन का उपयोग करते रहे।

इस बीच काशी रेल्वे स्टेशन के आसपास बहुत सी अवैध झुग्गी झोपड़ियाँ बन गईं और एक मस्जिद भी बन गई तथा एक मनमाना कब्रिस्तान भी बनाया जाने लगा। तब उस कब्रिस्तान को उजाड़ कर सर्वोदय कार्यकर्ता जो रेल्वे भवन में रह रहे थे, उन्होंने वहाँ एक कच्चा ऑफिस सा बना लिया जो बाद में प्रकाशन का भवन बना। यह प्रकाशन भवन कब्रिस्तान वाली भूमि के ऊपर ही अवस्थित है।

जैसा देश भर में होता है, रेल्वे की भूमि पर बड़े स्तर पर अवैध भवन बन जाते हैं जो वर्षों बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में प्रकाशन भवन को भी रेल्वे अधिकारियों ने चलने दिया। प्रकाशन का सारा कार्य काशी नगर में होता था क्यांेकि काशी साहित्य और प्रकाशन का बहुत बड़ा केन्द्र है और इसलिये सर्वसेवा संघ का केवल प्रकाशन कार्यालय काशी में घोषित किया गया।

समय बीतते-बीतते रेल्वे के लगभग 16 भवनों पर सर्वसेवा संघ के ही कार्यकर्ता रहने लगे। स्पष्ट है कि रेल्वे अधिकारियों की इसमें सहमति थी। काशी स्टेशन के पास बनी रेल्वे की टंकी से ही इन सब भवनों को जल की आपूर्ति भी होती थी। इनमंे गांधी विद्या संस्थान के भी तृतीय श्रेणी कर्मचारी रहते थे। जब मैं गांधी विद्या संस्थान वाराणसी में शोध कार्य के लिये गया, तब तक 2000 ईस्वी तक यहाँ रेल्वे के नलों से पानी आता था यद्यपि प्रकाशन विभाग ने अपना एक बड़ा पम्प स्थापित कर लिया था और उससे भी पानी की आपूर्ति होती थी।

प्रारंभ में इस उजाड़ पड़े क्षेत्र में सर्वसेवा संघ वालों ने कच्ची तेल घानी तथा महिला उद्योग प्रशिक्षण आदि के भी कार्य किये परन्तु भूमि पर स्वामित्व असंभव मानकर 1964-65 के बाद वे सब काम समेट लिये गये और वे काम वर्धा ले जाये गये। यहाँ केवल प्रकाशन का कार्यालय बचा। प्रकाशन में कार्यरत प्रूफ रीडर एवं बाइंडर आदि रेल्वे के भवनों में रहने लगे।

ठाकुरदास बंग जी के अध्यक्ष नहीं रहने पर सर्वसेवा संघ में भीषण बिखराव आया और सर्वोदय आंदोलन तब तक नई पीढ़ी में अलोकप्रिय हो गया। अतः काशी में सर्वसेवा संघ के प्रकाशन के जो प्रूफ रीडर, बाइंडर आदि थे, वे अब तक सर्वसेवा संघ के नाम के महत्व से परिचित हो चुके थे, अतः उन्होंने स्वयं को सर्वसेवा संघ के पदाधिकारी भी घोषित कर लिया। सर्वसेवा संघ के वास्तविक पदाधिकारी यदाकदा सेवाग्राम से यहाँ साल में एक-दो बार आते थे।

कुछ वर्षों तक यही स्थिति रही और आपातकाल में कई बार यहाँ सर्वोदय के लोग तथा अन्य लोग भी रेल्वे के इन भवनों में आकर रूके जो अब सर्वोदय कार्यकर्ताओं के आवास थे। इस बीच सभी महत्वपूर्ण लोग वर्धा में रह रहे थे। अतः परिसर में भांति-भांति के स्वयंसेवी संगठन और विशेषकर ईसाई एवं कम्युनिस्ट संगठन तथा मदरसों से जुड़े भी कुछ संगठन फैल गये। यहाँ भारत विरोधी बहुत सी गतिविधियाँ होने लगीं और साथ ही अवैधानिक, असामाजिक एवं अनैतिक अनेक कार्य होने लगे। अनाचार का परिवेश बन गया। सर्वसेवा संघ के मुख्य लोग यहाँ से उदासीन हो गये। अतः स्थानीय राजनैतिक समूहों के सहयोग से यहाँ रामधीरज जैसे स्थानीय नेता सक्रिय हुये और एक समानान्तर सर्वसेवा संघ ही बना डाला।

इसी समूह ने 7 वर्षों से सरकारी ताले में बंद गांधी विद्या संस्थान परिसर के पुनः प्रारंभ होने पर कष्ट का अनुभव किया और हास्यास्पद किस्म के आंदोलन शुरू कर दिये। जिससे रेल्वे प्रशासन को सजग होना पड़ा और अपनी भूमि और भवनों को अपने नियंत्रण में रखते हुये इन लोगों को वहाँ से हटाना पड़ा। इसी बात का संचार माध्यमों में अनाप शनाप प्रचार चल रहा है और उच्च स्तरीय राजनैतिक गतिविधियों का क, ख, ग भी नहीं जानने के कारण स्थानीय छुटभैये समूह कतिपय प्रभावशाली स्वयंसेवी और विदेशी सहायता से संचालित समूहों की सहायता से प्रचार को हवा दे रहे हैं। जिसका कोई विधिक आधार अस्तित्व में नहीं है। इसीलिये जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय तक सर्वत्र ये कथित आंदोलनकारी रंगरूट हारते चले गये। यही है इस विषय का सत्य ।

– प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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