Saturday, April 27, 2024
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Homeपुस्तक चर्चाश्री राम जी और मांसाहार का मिथ्या आक्षेप

श्री राम जी और मांसाहार का मिथ्या आक्षेप

श्रीराम मांस खाते थे अथवा नहीं – यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है। कुछ लोगों की धारणा है कि वे क्षत्रिय वे अत: मांस खाते थे, परन्तु हमारे विचार में यह धारणा अशुद्ध है। यहां हम रामायण के कुछ स्थलों पर विचार करेंगे। जब श्रीराम को वन-गमन की आज्ञा हुई तब वे अपनी माता कौसल्या से आज्ञा लेने के लिए राजप्रासाद मे आये। माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन और खाने के लिए कुछ वस्तुएँ दीं, उस समय श्रीराम ने कहा –

चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजले वने।
मधुमूलफलैर्जीवन् हित्वा युनिवदामिषम्॥
– अयो. 20.29-30

माता अब तो मुझे चौदह वर्ष तक घोर वन में वास करना पड़ेगा। अत: मैं आमिष भोजन को छोड़कर मुनिजन-कथित कन्द-मूल, फल आदि खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह करूंगा।

इस श्लोक में ‘आामिष’ शब्द को देखकर मांस-भक्षण करने वाले कहते हैं कि श्रीराम मांस-भक्षण करते थे तभी तो उन्होंने कहा- “मैं आमिष को छोड़कर कन्दमूल-फलों से निर्वाह करूंगा।” यदि इस श्लोक का ऐसा ही अर्थ माना जाय तो रामायण में आगे चलकर मांस-भक्षण के जितने प्रसंग आते हैं वे सब प्रक्षिप्त सिद्ध हो जाते हैं। फिर महलों में मांस खाने का प्रसंग सम्पूर्ण रामायण में कहीं भी नहीं है, अतः इस श्लोक से ही श्रीराम के मांसाहार का निषेध हो जाता है।

कोश में आमिष का एक अर्थ ‘प्रिय वा मनोहर वस्तु’ भी है, अत: उपर्युक्त श्लोक का ठीक अर्थ यह होगा कि मैं मिष्ठान्न आदि प्रिय वा मनोहर वस्तुओं को छोड़कर मुनियों जैसा आहार करूंगा। यही अर्थ ठीक एवं श्रीराम की भावना के अनुकूल है। इसके लिए एक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत है। पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित रामायण के पश्चिमोत्तरीय संस्करण में यह श्लोक इस प्रकार है –

स्वादूनि हित्सा भोज्यानि फलमूलकृताशनः॥
– अयो. 20.21

यहाँ स्पष्ट ही स्वादु पदार्थों को छोड़कर फल-मूल खाने का वर्णन है। “छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।” मूल के कट जाने पर वृक्ष में न शाखा ही उग सकती है और न पत्ते ही आ सकते हैं। इस श्लोक से तो श्रीराम के मांस-भक्षण की जड़ ही कट गई है।

रामायण में सीताजी द्वारा गंगा पर सुरा के घड़े और मांस-युक्त भात चढ़ाने का वर्णन आता है, परन्तु यह प्रकरण वाममार्गियों द्वारा मिलाया गया है। सीताजी द्वारा गंगा पर शराब और मांस-युक्त भात की बलि देना सीताजी की भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है। सीताजी वन जाने के लिए श्रीराम से प्रार्थना करते हुए कहती हैं –

फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः।
– अयो. 27.15

मैं वन में उत्पन्न फलों और मूलों को खाकर अपना निर्वाह कर लूंगी इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम्।
धर्ममेव चरिष्यामस्तत्र मूलफलाशना:।
– अयो. 54.16

जब श्रीराम महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे तो उन्होंने अपना परिचय देकर और वनवास की बात बताकर कहा –

भगवन्! हम लोग पिता के आदेशानुसार तपोवन में प्रवेश करेंगे और वहां फलमूल खाकर धर्माचरण करेंगे।

श्रीराम ने अपने मित्र गुह से भी कहा था –

कुशचीराजिनधरं फलमूलाशिनं च माम्।
विद्धि प्राणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम्।
– अयो. 50.44-45

मैं तो कुश, चीर और मृगचर्म धारण करता हूं और फल तथा कन्दमूल खाता हूं। आप मुझे पिता की आज्ञा से धर्म-पालन में सावधान एवं वन में विचरनेवाला तपस्वी समझें।

श्रीराम की दो प्रतिज्ञाएँ प्रसिद्ध हैं। एक तो उन्होंने अपनी माता कैकेयी के समक्ष प्रकट की थी –

रामो द्विर्नाभिभाषते ।
– अयो. 18.30

राम दो प्रकार की बात नहीं करता, जो कहता है वही करता है।

दूसरी प्रतिज्ञा उन्होंने सीताजी के समक्ष इस रूप में रक्खी थी –

अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणम्।
न तु प्रतिज्ञां संश्रृत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषत:॥
– अर. 10.19

मुझे भले ही अपने प्राण त्यागने पड़ें अथवा लक्ष्मण सहित तुम्हें ही क्यों न छोड़ना पड़े, किन्तु मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता, विशेषकर उस प्रतिज्ञा को जो ब्राह्मणों के सामने की जाए।

श्रीराम ने फलमूल आदि खाने की प्रतिज्ञा न केवल अपनी माता और गुह के समक्ष की है अपितु महर्षि भरद्वाज के समक्ष भी अपनी प्रतिज्ञा को दोहराया है जो ब्राह्मण ही नहीं, ऋषि हैं, अतः स्पष्ट सिद्ध है कि श्रीराम मांस नहीं खाते थे।

वन को चलते समय श्रीलक्ष्मण जी ने भी अपनी उपयोगिता बताते हुए कहा था –

आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च।
वन्यानि यानि स्वाहार्हाणि तपस्विनाम्॥
– अयो. 31.26

मैं आपके लिए कन्दमूल-फल और तपस्वियों के भोजन करने योग्य वन में उत्पन्न होनेवाले शाक-पात आदि वस्तुएँ नित्य ला दिया करूँगा।

इस प्रकार श्रीराम आदि की प्रतिज्ञाओं को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे मांस नहीं खाते थे। जहां उनके मांस खाने का उल्लेख है वह स्थल निश्चितरूप से प्रक्षेप है।

(संदर्भ पुस्तक : मर्यादापुरुषोत्तम राम लेखक स्वामी जगदीश्वरानंद जी, पृ. 128-131)

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