भगवान महावीर सदियों पहले जन्में, वे जैन धर्म के मौलिक इतिहास की परम्परा में अंतिम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर प्रभु महावीर के अनेक नाम हैं। उन्हें सन्मति, महत्ति वीर, महावीर, वर्द्धमान, प्रभृति अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है। भगवान महावीर के नामकरण संस्कार के समय राजा सिद्धार्थ द्वारा ‘वर्द्धमान’ नाम रखा गया था। कल्पसूत्र में अन्यत्र उल्लेख है कि भय-भैरव के उत्पन्न होने पर भी अचल रहने वाले, परीषह एवं उपसर्ग को शांति और क्षमा से सहन करने में सक्षम, प्रिय और अप्रिय प्रसंगों में समभावी संयम युक्त तथा अतुल पराक्रमी होने के कारण देवताओं ने ‘श्रमण-भगवान महावीर’ नाम रखा।
महावीर का संपूर्ण जीवन भी विचित्र घटनाओं से परिपूर्ण था। जन्म के समय से लेकर मुनि धर्म स्वीकार करने के तीस वर्ष में उन्होंने जिन नामों से प्रसिद्धि प्राप्त की थी, वे उनके जीवन की विशेष घटनाओं से जुड़े हुए हैं। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने मुनि धर्म अंगीकार किया एवं पूर्ण रूप से अकिंचन, अपरिग्रही एवं यथाजात रूप धारण किया और घोर तप में लीन हो गए। इसके बारह वर्ष के पश्चात् जब महावीर की आयु बयालीस वर्ष थी विहार में जृंभिका ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के तट पर अपने अत्यंत उग्र तप एवं पुरुषार्थ को कार्यान्वित करते हुए उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अरहंत बन गए। तीस वर्ष तक आत्मधर्म रूप आत्मविज्ञान का उपदेश देकर जगत के जीवों को स्वभाव रूप होने का मार्ग बताया और 72 वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्धालय में जा विराजे। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा बन गए।
भगवान महावीर एक युगद्रष्टा लोकनायक थे। दलित और पीडि़त मानवता के मसीहा, सत्य, प्रेम और अहिंसा के अग्रदूत, सामाजिक शोषण और कुरीतियों के सुधारक एवं अत्याचार, अनाचार और भ्रष्टाचार के प्रखर विरोधी एवं मानवता के दिव्यदूत थे।
महान क्रांतिकारी के रूप में भगवान महावीर सुविख्यात हैं। आज के युगों में समस्याओं का समाधान, भगवान महावीर द्वारा निर्देशित मार्ग में ही खोजा जा सकता है, दूसरा कोई विकल्प नजर नहीं आता।
महावीर ने जीवनानुभव और विवेक से सत्यानुवेषण किया। स्वयं आंखों से देखकर, अनुभवों की गहराइयों में जाकर। उनका संपूर्ण जीवन त्याग, समर्पण और निष्ठा का जीवंत उदाहरण है।
भारतीय संस्कृति के कण-कण में महावीर की अनुगूंज है। महावीर ने अहिंसा के आदर्श को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने एक संपूर्ण अहिंसक जीवनशैली प्रस्तुत की। वे युगदर्शी थे, शाश्वतदर्शी थे, वे कोरे युगद्रष्टा नहीं थे। क्योंकि युगद्रष्टा केवल सामयिक सत्य को देखता है जबकि महावीर ने शाश्वत सत्य को देखा जो त्रैकालिक सत्य होता है। यही कारण है कि उन्होंने भारतीय समाज को जिस गहराई से उपदेश दिया उसमें त्रैकालिक सत्य की सहज ही सुगंध व्याप्त थी। महावीर ने कर्मकांडों को आध्यात्मिक रूप दिया।
उन्होंने समता धर्म की स्थापना की जिसके दो मुख्य फलित हैं- अहिंसा और अपरिग्रह। उस युग की समाज-व्यवस्था में धन की भांति मनुष्य का भी परिग्रह होता था और उस पर मालिक का पूर्ण अधिकार रहता। बिका हुआ आदमी दास होता था और उस पर मालिक का पूर्ण अधिकार रहता। भगवान महावीर ने इस प्रथा को हिंसा और परिग्रह-दोनों दृष्टियों से अनुचित बताया और जनता को इसे छोड़ने के लिए प्रेरित किया। दास-प्रथा-उन्मूलन, अपरिग्रह, मानवीय एकता, स्वतंत्रता, समानता, सापेक्षता, सहअस्तित्व आदि समता के विभिन्न पहलुओं की मूलधारा भगवान महावीर के वचनों तथा प्रयत्नों में खोजी जा सकती है। उन्होंने जन-भाषा में अपनी बात कही और उनकी बात सीधी जनता तक पहुंची। जनता ने उसे अपनाया, पर कोई भी पुराना संस्कार एक साथ नहीं टूट जाता। ढाई हजार वर्षों के बाद हम अनुभव कर रहे हैं कि महावीर-वाणी के वे सारे स्फुलिंग आज महाशिखा बनकर न केवल भारतीय समाज को, किन्तु समूचे मानव-समाज को प्रकाश दे रहे हैं।
भगवान महावीर भारत-भूमि पर अवतरित ऐसे महापुरुष थे, जिनके व्यक्तित्व मंे विकास की ऊंचाई एवं विचारों की गहराई एक साथ संक्रांत थी। उनका अपार्थिव चिंतन जहां आज हिंसा से आक्रांत भूली भटकी मानवता को नया दिशा-दर्शन दे रहा है वहीं स्वस्थ समाज की संरचना का आधारभूत भी बन रहा है।
आचार्य श्रीमद् इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी म.सा. के निकट रहकर मैंने महावीर को सूक्ष्मता से समझा, अहिंसा के दर्शन को समझा और भारतीय समाज में महावीर के महत्व को आत्मसात् किया। महावीर की अहिंसा न केवल जैन इतिहास में नया चिंतन प्रस्तुत करती है, अपितु भारतीय विचारधारा में भी नई सोच पैदा करने की सामथ्र्य रखती है।
चेतना के प्रकाशपुंज चरम तीर्थंकर भगवान महावीर ने ‘अहिंसा परमोधर्मः’ कहकर सबको जीवन में हिंसा से दूर रहने एवं समता मूलक समाज की स्थापना करने का शाश्वत संदेश दिया है। अहिंसा का पालन करने पर सत्य का साक्षात्कार स्वतः ही हो जाता है। अतः यह अहिंसा हमारी मुक्ति और मोक्ष का साधन/युक्ति मानी जाती है। अहिंसा का अर्थ है- मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा न कर, सबसे साथ दया का व्यवहार करना। यह दया ही हमारे धर्म का मूल है।
आज इस भौतिकवादी दौड़ में विश्व शक्ति के पीछे पागल है। वह तृष्णा का गुलाम/दास बनकर ही रह गया है। अतः उसे आत्मिक सुख, संतोष नहीं, मानसिक शांति नहीं। उसे यह जीवन बहुत दूभर, भारयुक्त और कठिन लगने लगा है। वह ज्ञान, विवेक, संस्कार, चारित्र तथा अहिंसा का मूलमंत्र भूल गया है। संयम तथा अहिंसा की साधना उसको कठिन लगने लगी है। वह योगी नहीं, भोगी बनने पर उतारू और यही भोगलिप्सा उसे विनाश के कगार पर ले आई है। आवश्यकता है महावीर की समाज व्यवस्था को अपनाने की। उसी व्यवस्था को अपनाकर हम स्वस्थ समाज की संरचना कर सकते हैं।
मृत्यु से डरने वाला तथा कष्ट से घबराने वाला व्यक्ति थोड़ी सी यातना की संभावना से ही विचलित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हिंसात्मक परिस्थितियों के सामने घुटने टेक देते हैं, जो व्यक्ति कष्ट सहिष्णु होते हैं, वे विषम और जटिल स्थिति में भी अन्याय और असत्य के सामने झुकने की बात नहीं सोचते। ऐसे ही व्यक्ति अहिंसात्मक प्रतिकार में सफल होते हैं। ऐसे ही व्यक्ति महावीर की समाज व्यवस्था को साकार कर सकते हैं।
भगवान महावीर ने कहा-‘जीओ और जीने दो।’ जीवन में यदि मानव शान्ति चाहता है तो उसे घर-घर जाकर अहिंसा का अलख जगाना होगा, अहिंसा पालन का अभियान छेड़ना होगा। गांव-गांव में अहिंसा को स्थापित कर उसके प्रति समर्पित होना होगा, तभी हमारा जीवन सार्थक एवं सफल माना जाएगा। जन-जन में अहिंसा के प्रति आस्था पैदा करने एवं महावीर की समाज व्यवस्था को स्थापित करने के लिए ही सुखी परिवार अभियान का उपक्रम शुरू किया गया है। सुखी परिवार अभियान महावीर की समाज व्यवस्था की स्थापना का सशक्त माध्यम है। प्रस्तुति- ललित गर्ग
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