गिल एक ऐसे अधिकारी थे जिन्होंने छड़ी के अलावा कभी कोई हथियार नहीं रखा। लेकिन उनमें जूझने का जज्बा आखिर तक बरकरार रहा….
अपनी जिंदगी की तरह ही कंवर पाल सिंह (केपीएस) गिल निधन के बाद भी हमारी स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहे हैं। पत्रकारिता के किसी भी विद्यालय में पढ़ाया जाता है कि किसी के श्रद्घांजलि लेख में क्रमबद्घ ब्योरों से बचना चाहिए। मुझे नहीं पता कि गिल साहब के बारे में लिखते समय इसका अनुसरण कैसे किया जाएगा।
यह सन 1981 के शुरुआती दिनों की बात है। मैं पूर्वोत्तर को कवर करने पहुंचा ही था। कहा जा रहा था कि पूर्वोत्तर जल रहा है। वह असम पुलिस में महानिरीक्षक थे। मैं उनसे मिलने उनके पुराने असमिया शैली में बने बंगले में पहुंचा जो ब्रह्मïपुत्र नदी के किनारे था। वह वर्दी में थे। उन्होंने मुझे आंकते हुए कहा, ‘तो आप हैं शेखर गुप्ता? बैठिए आप।’ इसके बाद उन्होंने कहा, ‘सुना है बहुत घूमते हैं आप अपनी एनफील्ड बाइक पर।’ इससे पहले कि मैं जरा भी सहज हो पाता, उन्होंने मुझसे कहा, ‘लाइसेंस है।’ अगले 36 साल तक मैं उस नजर का सामना करता रहा।
एक क्षण के लिए तो मैं हतप्रभ रह गया लेकिन इसके बाद वह हंस पड़े। उनके और मेरे पेशेवर रिश्ते संकटग्रस्त असम और पंजाब में समांतर चले। मेरा जन्म 1957 में हुआ जबकि उसी साल उन्होंने आईपीएस की परीक्षा पास की थी। वह असम काडर में अधिकारी बने। वह हमेशा हम सबसे अधिक फिट रहे और पता नहीं वह जितनी शराब पीते थे उसे संभालते कैसे थे।
सन 1995 में सेवानिवृत्ति के बाद हमारे रिश्ते दोस्ती में बदल गए। हमने एक दूसरे से अच्छी बातें कीं और उनके भारतीय हॉकी महासंघ का अध्यक्ष बनने पर हमारी लड़ाई भी हुई। उनके पद से हटने के बाद हॉकी की स्थिति बेहतर हुई। लेकिन महज दो सप्ताह पहले जब हम ‘वॉक द टॉक’ कार्यक्रम में मिले तो उन्होंने यह लिखने के लिए मेरी आलोचना की थी कि हॉकी अपने उभार पर है। तब भी हमारी मित्रतापूर्ण नोकझोंक हुई।
असम में उनके बारे में कई किस्से कहानियां हैं। कुछ अच्छी तो कई बुरी। उन पर आरोप था कि वह असम के शुरुआती विद्रोहियों में से एक खडगेश्वर तालुकदार की मौत के जिम्मेदार थे। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनको बरी कर दिया था। मामला दिल्ली की अदालत में भेज दिया गया था क्योंकि उन दिनों असम में कोई गवाह या वकील सामने नहीं आता था। बाद के दिनों में मैं इतना तो समझ ही गया कि वह किसी पर हँसा नहीं करते थे। वह कभी कोई हथियार लेकर नहीं चलते थे। उनके पास केवल पारंपरिक छड़ी हुआ करती थी।
फरवरी 1983 में असम चुनाव में मंगलदोई उपखंड में जातीय नरसंहार की खबरें सामने आईं। यह जगह गुवाहाटी से 70 किलोमीटर दूर ब्रह्मपुत्र के पार थी। वह सेना के एक मेजर जनरल के साथ समीक्षा कर रहे थे और मैं अपनी साथी पत्रकार सीमा गुहा के साथ बंद किए गए राजमार्ग को पार करता हुआ अपनी एनफील्ड पर वहां पहुंचा। असम में सूरज जल्दी डूब जाता है। जब तक हमारी मुलाकात खत्म हुई धुंधलका छाने लगा था। गिल और सैन्य अधिकारी वहां से निकल गए और हम उनके पीछे।
आखिरकार हमें नदी पर बने लकड़ी के पुल पर ठहरना पड़ा क्योंकि विरोध प्रदर्शन करने वालों ने उस पर आग लगा दी थी। दूसरे किनारे पर लोगों का शोर बढ़ता जा रहा था। ढलते सूरज के बीच उनकी तलवारें चमक रही थीं। जनरल महोदय अपने साथ सीमित सुरक्षाकर्मी देखकर चिंतित थे। गिल शांत थे। उन्होंने जनरल से कहा कि वह अपनी एलएमजी के साथ मोर्चा संभाल लें। उनके पास केवल छड़ी थी। मैं भयभीत हो चला था। मैंने पूछा कि क्या समस्या है। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘समस्या यह है कि आप लोग यहां हो।’ उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा। मैं आज भी नहीं कह सकता कि मजाक कर रहे थे या गंभीर थे।
गिल ने सुलगते हुए पुल को देखा। वह अपनी जीप पर बैठे और चालक से चलने को कहा। उन्होंने पुल को सुरक्षित ढंग से पार कर लिया। हम भी उनके पीछे गए। जनरल सबसे पहले और मैं सबसे आखिर में। शाम को हम गिल के घर पर पहुंचे। वहां उनकी प्रिय ओल्ड मॉन्क रम पीते हुए चर्चा हुई लेकिन तब भी उन्होंने मुझे नहीं बताया कि हमारी मौजूदगी वहां दिक्कत क्यों पैदा कर रही थी।
बहुत बाद में जब वह सीआरपीएफ के महानिरीक्षक के रूप में पंजाब आए तो उन्होंने मुझे इस बारे में बताया। मैं उनसे मिलने अमृतसर सर्किट हाउस गया था। वहां उन्होंने मुझसे कहा, ‘हजारों लोगों की हथियारबंद भीड़ हमारी ओर आ रही थी। हमारे पास केवल सात राइफल और एक एलएमजी थी। अगर हमें गोलीबारी करनी पड़ती तो लोग मरते। क्या तुमको लगता है मैं चाहता कि दो संवाददाता यह सब देखें।’ कुछ दिन पहले जब हम ‘वॉक द टॉक’ के लिए मिले, उससे ऐन पहले वह इस बात की आलोचना कर रहे थे कि सीआरपीएफ कश्मीर में पत्थरबाजों से ठीक से नहीं निपट रही। उन्होंने मुझसे कहा, ‘आप पथराव करने वालों पर गोली नहीं चला सकते।’ आपको नए तरीके से सोचना होगा। आप सहमत हों या नहीं लेकिन वह कभी पारंपरिक तरीके नहीं अपनाते थे।
उनके आलोचक आरोप लगाते हैं कि उन्होंने सिखों की जान लीं। यह गिल की शैली नहीं थी। बल्कि सन 1991 से 1994 के बीच की बात है जब उनको निर्णायक जीत मिली। यह इसलिए हुआ कि उन्होंने नए तरीके अपनाए। उन्होंने नई पहचान दी और ट्रक जैसे विभिन्न कारोबार में शामिल होकर अलग-अलग राज्यों में बसने का अवसर दिया। यह मदद तभी मिलती थी जब वे नौजवान पुलिस को अपने कमांडरों तक पहुंचने में मदद करती थी। उनकी पुलिस ने आतंकवादियों को ए से डी तक श्रेणीबद्घ किया। तब उन्होंने मुझसे सार्वजनिक रूप से कहा था कि एक बार किसी आतंकी को यह यकीन हो गया कि वह हमारी ‘ए’ सूची में आने के बाद छह महीने से अधिक नहीं बच पाएगा तो आतंकवाद खत्म हो जाएगा। ऐसा ही हुआ भी। उस वक्त का एक किस्सा यह भी है सन 1984 से 1995 के बीच, गिल चार बार पंजाब गए। हर बार राजनेताओं की असहजता के चलते उनको हटाया गया। ये वे राजनेता थे जिन्होंने आतंकियों के साथ गठजोड़ बना रखा था। सन 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर (जब एनएसजी के जवान पहली बार सामने आए) का नेतृत्व उन्होंने ही किया और उसे जबरदस्त सफलता हासिल हुई।
ऑपरेशन ब्लूस्टार के उलट उन्होंने कम से कम 100 पत्रकारों को इजाजत दी कि हम पूरी कार्रवाई पर नजर रखें। हम एनएसजी कमांडो के ठीक बगल में बैठकर उनको कार्रवाई करते देख सकते थे। केंद्र में वीपी सिंह की सरकार आते ही गिल को हटा दिया गया। सन 1992 में नरसिंह राव उनको वापस लाए। मगर तब तक यह लड़ाई एकतरफा हो चुकी थी। उस वक्त 5,000 लोग मारे गए। घटना ने दो वर्ष पहले के कश्मीरी पंडितों के पलायन की याद ताजा करा दी और लाखों हिंदू और समृद्घ सिख पंजाब छोडऩे पर मजबूर हुए। लेकिन सन 1993 तक संतुलन कायम हो गया। असम के उलट पंजाब में उनका कार्यकाल बेहतर दर्ज किया गया है। वह कहते थे कि केवल स्थानीय पुलिस ही आतंक से लड़ सकती है। सेना, केंद्रीय बल मदद कर सकते हैं लेकिन तब तक जीत नहीं मिल सकती है जब तक अच्छे लोग बुरे लोगों से लड़ते नहीं हैं और हमारी पुलिस में ज्यादातर अच्छे लोग हैं। राव सरकार ने तत्कालीन आंतरिक सुरक्षा मंत्री राजेश पायलट की मदद से संसाधनों का ध्यान रखा। गिल ने सैकड़ो लोगों का पुनर्वास कराया और अपने अधिकारियों को मानवाधिकार के मामलों से बचाने का बंदोबस्त किया। उन्होंने कंडोम थ्योरी पेश करते हुए कहा, ‘देखो भाई, हम सरकार के लिए कंडोम की तरह उपयोगी हैं। एक बार इस्तेमाल के बाद काम खत्म।’ वह खुद उस समय दिक्कत में आ गए थे जब उनको आईपीसी की धारा 354 के तहत शराब के नशे में एक महिला आईएएस अधिकारी के साथ अनुचित व्यवहार करने का दोषी ठहराया गया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दया दिखाई और उनकी सजा को जुर्माने में तब्दील कर दिया। उनसे यह वादा लिया गया कि वह पार्टियों में शराब नहीं पिएंगे।
क्या उन्होंने इस बात का पालन किया? मैं यही कहूंगा कि अगर मुझसे यह प्रश्न किसी अदालत में शपथ के अधीन पूछा गया होता तो शायद दुविधा होती। मैं उनके आमंत्रण को याद करता हूं जब उन्होंने शराब पीते हुए गंभीरता से मुझसे कहा था, ‘तुम्हारे सारे संदेह, भय, दुविधाएं खत्म हो जाएंगी जब तुम अपनी पसंदीदा प्रार्थना दोहराओगे और बूढ़े संत की एक चुस्की लोगे।’ यह शायद आखिरी मुलाकात थी जब गिल ने ओल्ड मॉन्क रम का जिक्र किया।
साभार-बिज़नेस http://hindi.business-standard.com/ से