सौर पंपों के इस्तेमाल से देश की सिंचाई की समस्या दूर करने में मदद मिल सकती है। लेकिन इमसें समुचित वित्तीय लाभों को जोडऩा होगा और इन पर नजर रखनी होगी। बता रहे हैं अरुणाभ घोष और शालू अग्रवाल
इस वर्ष के आरंभ में महाराष्ट्र ने प्रदेश में बिजली से चलने वाले करीब 5 लाख कृषि पंपों को अगले पांच साल में सौर ऊर्जा चालित पंपों से बदलने की घोषणा की। इसकी शुरुआत आगामी दिसंबर से होगी। अन्य राज्यों की बात करें तो आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और तेलंगाना में या तो ऐसी पहल हो चुकी है या ऐसी योजना बन रही है। केंद्र सरकार अगले पांच साल के दौरान एक लाख सौर ऊर्जा पंपों को पूंजीगत सब्सिडी देना चाहती है। ऐसे में जबकि देश कृषि के सौर ऊर्जाकरण की ओर बढ़ रहा है तो तीन अहम सवालों के जवाब देने जरूरी हैं। सौर ऊर्जा आधारित सिंचाई की क्या संभावना है? क्या ऐसे पंप लगाने के किफायती तरीके हैं? और इस क्रम में किन कमियों से निपटने की जरूरत है?
देश की कृषि अल्प सिंचित (विशुद्घ रूप से केवल 45 फीसदी सिंचित क्षेत्र) भी है और अतिसिंचित (60 फीसदी सिंचाई भूजल से) भी। ऐसे में देश के कई राज्यों में भूजल संकट का खतरा मंडरा रहा है। जबकि कई अन्य राज्यों में लाखों की संख्या में किसान मॉनसून के रहमोकरम पर खेती करते हैं। हाल ही में शुरू की गई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) के जरिये तमाम कृषि योग्य क्षेत्रों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है। बहरहाल, पारंपरिक तरीकों से किफायती सिंचाई सुविधा मुहैया करा पाना खासा चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। यह चुनौती आर्थिक भी है और पर्यावरण संबंधी भी।
देश में बिजली से चलने वाले 1.9 करोड़ पंप हैं जो कुल बिजली खपत में 22 फीसदी हिस्सेदारी रखने के बावजूद राजस्व में महज 8 फीसदी का ही योगदान कर पाते हैं। वर्ष 2013-14 में कृषि क्षेत्र में बिजली सब्सिडी का बोझ करीब 67,000 करोड़ रुपये था और तब से अब तक वह लगातार बढ़ता ही रहा है। भारी भरकम सरकारी खर्च के बावजूद किसानों को खराब गुणवत्ता वाली और अविश्वसनीय बिजली आपूर्ति मिलती है। इस वजह के चलते और नए कनेक्शन के लिए लंबी प्रतीक्षा सूची के चलते 90 लाख से भी अधिक डीजल पंप भी प्रयोग किए जा रहे हैं। उनको चलाना तो महंगा होता ही है, साथ ही वे पर्यावरण के लिए भी अत्यंत नुकसानदेह साबित होते हैं।
सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप सिंचाई की कमियों को दूर कर सकते हैं, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर सकते हैं और किसानों की मदद कर सकते हैं कि वे जलवायु परिवर्तन से बचाव वाले तौर तरीके अपनाएं। खेत के आकार, फसल चक्र और भूजल स्तर को ध्यान में रखते हुए आधा हॉर्स पॉवर से लेकर 20 हॉर्स पॉवर तक के पंप सिंचाई के काम में इस्तेमाल हो सकते हैं।
इस क्षेत्र में संभावनाओं का कोई पारावार नहीं। अगर देश के केवल 15 फीसदी पंप सेट सौर पंपों में बदल जाएं तो (औसतन प्रति पंप 5 हॉर्स पॉवर मानें) यह सौर ऊर्जा में करीब 20 गीगावॉट के इजाफे के समान होगा। 50 लाख पंप देश की 23 अरब यूनिट बिजली अथवा 10 अरब लीटर डीजल और 260 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड सालाना बचा सकते हैं। लागत इनकी स्थापना में रोड़ा है। सौर ऊर्जा चालित पंप प्रति हॉर्स पॉवर औसतन 100,000 रुपये लागत वाले हैं जो डीजल या बिजली पंप से 10 गुना महंगा है। केंद्र और राज्य इनके लिए 90 फीसदी तक की सब्सिडी की पेशकश कर रही हैं। अगर बहुत बड़े पैमाने पर ऐसे पंप लगाए गए तो यह सब्सिडी आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं रह जाएगी। क्या कोई ऐसी नीति बन सकती है जिसमें बजट की समस्या न रहे?
राज्य सरकारें कृषि कार्य के लिए दिए जाने वाले बिजली कनेक्शन का काफी खर्च वहन करती हैं। जमीनी अनुभव बताते हैं कि एक सौर पैनल 15 साल तक कारगर ढंग से काम कर सकता है। इस अवधि में बिजली से चलने वाले पांच हॉर्स पावर के हर नए पंप पर करीब 230,000 की सब्सिडी दी जाएगी। इस खर्च में शुरुआती कनेक्शन लागत और बाद में दी जाने वाली बिजली सब्सिडी शामिल है।
यह राशि किसी सौर पंप की लागत के 45 फीसदी तक की सब्सिडी के लिए पर्याप्त है। लगभग शून्य के करीब बिजली टैरिफ वाले राज्य और / अथवा बढ़ी हुई कनेक्शन लागत वाले राज्यों में करीब 60 फीसदी तक की पूंजीगत सब्सिडी दी जा सकती है। ऐसे में बिजली के पंप को सब्सिडी देने के बजाय राज्य सरकारें उन्हीं संसाधनों का इस्तेमाल सौर ऊर्जा पंपों को सब्सिडी देने में कर सकती हैं। वे ब्याज दर में सब्सिडी या पूंजीगत राहत प्रदान कर सकती हैं या फिर दोनों। ऐसा करने से सौर पंपों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा सकता है।
सरकार के समर्थन के बावजूद क्या किसान सौर पंपों में निवेश करेंगे? यह तो उन विकल्पों की लागत पर निर्भर करता है जिनका प्रयोग वे नए कनेक्शन में होने वाली देरी के दौरान करते हैं। विकल्प में तत्काल कनेक्शन शामिल हैं जिनके लिए 1-1.5 लाख रुपये खर्च करने होते हैं। या फिर डीजल पंप (सालाना लागत 70,000 रुपये) या फिर वे बारिश पर निर्भर रहते हैं जिससे उनकी उत्पादकता प्रभावित होती है। ये बातें हमें निश्चित सिंचाई के लाभ से वंचित करती हैं। यह बात सौर पंपों को और अधिक आकर्षक बनाती है।
लेकिन इसके बावजूद बाधाओं की कोई कमी नहीं है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि सौर पंपों को वित्तीय रूप से छोटे और मझोले किसानों के लिए व्यवहार्य कैसे बनाया जाए? इसके लिए उन्नत वित्तीय योजनाएं और नए बिजनेस मॉडल जरूरी हैं। उदाहरण के लिए क्लेरो एनर्जी किसानों को मोबाइल सौर पंप के जरिये किराये पर सिंचाई की सुविधा मुहैया करा रही है। इसके अलावा सौर पंपों को सूक्ष्म सिंचाई से जोड़कर कुल लागत को काफी कम किया जा सकता है। लेकिन पंप की लागत कम होने पर भूजल के अत्यधिक दोहन की आशंका है। ऐसे में सिंचाई पर दूर से नजर रखने और पंप को नियंत्रित करने के लिए तकनीकी हल तलाश करने होंगे। इसके लिए मोबाइल ऐप्लीकेशन विकसित की जा रही है। एक अन्य उपाय जिस पर विचार किया जा सकता है वह यह कि सौर पंप के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को सूक्ष्म सिंचाई और जल संरक्षण से जोड़ दिया जाए या फिर उसे ग्रिड से संबद्घ कर दिया जाए। ऐसे उपाय पानी की खपत कम कर सकते हैं या किसानों को अतिरिक्त आय का जरिया दे सकते हैं। चूंकि फिलहाल इसका दखल बहुत सीमित है इसलिए खराब गुणवत्ता वाले उत्पाद ग्राहकों को हताश कर सकते हैं। गुणवत्ता नियंत्रण और प्रदर्शन के मानक तय करना अत्यंत आवश्यक हैं।
उपरोक्त तमाम उपायों में आगे और शोध तथा परीक्षण की आवश्यकता है। लेकिन फिर भी सौर पंप तीन प्रमुख योजनाओं पीएमएसकेवाई,100 गीगावाट सौर ऊर्जा और मेक इंडिया के लिए लाभदायक नजर आते हैं। अगर इनको बड़े पैमाने पर लागू किया गया और उस दौरान वित्तीय प्रोत्साहन, किसान प्रशिक्षण, बेहतर सिंचाई के तौर तरीके अपनाए गए और भूजल की निगरानी की गई तो यह देश में सिंचाई का सतत और स्थायित्व वाला तरीका बन सकता है।
साभार- http://hindi.business-standard.com/ से