स्वामी ओमानन्द (आचार्य भगवान देव) जी ने संस्कृत भाषा की महती सेवा की है । आपके दोनों गुरुकुलों – गुरुकुल झज्जर व कन्या गुरुकुल नरेला से संस्कृत के हजारों विद्वान स्नातक- स्नातिकायें बनकर देश के विभिन्न भागों में संस्कृत तथा राष्ट्रभाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं । स्वामी जी ने इन दोनों संस्थाओं के प्रकाशन विभागों की ओर से महाभाष्य और काशिका तथा छन्दःशास्त्र आदि दर्जनों संस्कृत के बड़े ग्रन्थों का प्रकाशन करवाया है । पुरातत्त्व तथा इतिहास के क्षेत्र में तो आपकी सेवायें बेजोड़ हैं । आपकी इन्हीं सेवाओं के कारण हरयाणा सरकार के भाषा विभाग की ओर से १९६८-६९ ई० में चण्डीगढ़ में एक भव्य समारोह में आपका राजकीय सम्मान किया गया । हरयाणा सरकार की ओर से दिया गया यह पहला राजकीय सम्मान था । आपके साथ इस वर्ष हिन्दी के लिये पं. मौलीचन्द्र शर्मा तथा उर्दू के लिये श्री ख्वाजा अहमद अब्बास को राजकीय सम्मान मिला । समारोह में आपको हरयाणा के राज्यपाल श्री बी. एन. चक्रवर्ती ने एक प्रशस्ति पत्र, एक शाल तथा पाँच सौ रुपये भेंट किये ।
इसके बाद दिल्ली अलीपुर के श्रद्धानन्द कालेज में चौ. हीरासिंह जी की अध्यक्षता में २८ अगस्त १९६९ को एक भव्य स्वागत समारोह का आयोजन हुआ जिसमें दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल श्री आदित्यनाथ झा ने इनके संस्कृत पांडित्य का सम्मान करने हेतु एक ताम्रपत्र भेंट कर दिल्ली राज्य की ओर से आचार्य जी का सम्मान किया । इस अवसर पर उप-राज्यपाल महोदय ने आचार्य (स्वामी) जी की प्रशस्ति में स्वयं बनाया हुआ श्लोक सुनाया ।
इस प्रकार हरयाणा और दिल्ली राज्यों की ओर से स्वामी जी महाराज की सेवाओं का आदर किया गया ।
राष्ट्रपति वी.वी. गिरि द्वारा राष्ट्रीय पण्डित की उपाधि से विभूषित करने के उपरान्त आचार्य भगवानदेव जी
इससे पूर्व आपकी सेवाओं का मूल्यांकन करते हुये भारत सरकार के शिक्षा-मंत्रालय की संस्तुति पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम श्री वाराहगिरि वेंकटगिरि ने आचार्य जी को भारत के स्वतन्त्रता दिवस (१५ अगस्त १९६९) पर राष्ट्रीय-पण्डित की उपाधि से विभूषित किया । आपको यह अलंकरण राष्ट्रपति भवन में एक भव्य स्वागत समारोह में दिया गया और राष्ट्र ने आपकी सेवाओं को राजकीय आदर प्रदान किया । यद्यपि आपका कार्य इन सम्मानों से कहीं अधिक है तथापि शासन की ओर से इस कार्य को मान्यता मिल जाना आपके लिये नहीं, राष्ट्र के लिये गौरव की बात है ।
साहित्य और जीवन दोनों ‘सत्’ हैं । जब-जब भौतिक सत्य और चेतन सत्य का संयोग हुआ तब-तब साहित्य का सृजन हुआ है । मम्मट साहित्य के आनन्द को ब्रह्मानन्द रस सहोदर कहता है । साहित्य शब्द के भावों में बहकर समुद्र में जाना और क्षाररूप में परिवर्तित हो जाना असत्य तो नहीं, किन्तु भाप बनकर बरसना क्या वाल्मीकि को ही अभिप्रेत था ? इसलिये कहा है –
आह ! दीन-दुःखियों के कष्ट से या परपीड़ा के परिताप से अथवा समाज के अधःपतन के दुःख को देखकर प्रकट हुई हो, कोई भिन्नता नहीं है ।
साहित्य की स्थिति चेतनसत्य के अनुभव एवं व्यवहार के पश्चात् दृष्ट सत्य को सुरक्षित रखने में होती है । उस सुरक्षित सत्य से ही समाज अनुप्राणित होकर अपना लक्षय प्राप्त करता है । यदि ‘साहित्य’ शब्द को लोभी वैश्यों के सदृश वैयाकरणों की तुला पर तोलें (जो कि अपने पक्ष को प्रबल रखकर विजयी मुद्रा में ग्राहक या भाषा का गला घोटे रखता है) तो पायेंगे कि वे भी हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग कर रहे हैं । सहितस्य भावः साहित्यम् – जिसमें हित की भावना निहित हो । व्यवहार के पश्चात् साहित्य का निर्माण होता है अतःएव उसमें परोपकार की भावना विद्यमान होनी ही चाहिये । जिससे कष्ट का निवारण हो गया हो वह हित है । कष्ट, दुःख, पीड़ा आदि का तिरोहित कर देना जिस साहित्य का उद्देश्य हो वह ही साहित्य कहलाता है ।
साहित्य की अबाध गति मनुष्यों को बाँध लेती है । ऐसे बन्धन में कौन नहीं बंधना चाहता जिस के बंधनों में तो सुख मिले ही, बन्धनोपरान्त भी सुख मिलता रहे । प्रगति को गति मिले, विचार-तरंगें अपने किनारों को तोड़ डालें, नये आयाम स्थापित हों और बार-बार परीक्षण में नई ईक्षण शक्ति को जन्म मिले । ऐसा अमर साहित्य युगों तक युगान्तकारी कहकर स्मरण किया जाता है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा आर्यसमाज नामक समाज-सुधारक संस्था ने १९वीं शताब्दी में जन्म लेकर पराधीन भारत में नये खून का संचार किया । आर्यसमाज तथा स्वामी दयानन्द के द्वारा शिक्षा और साहित्य के रूप में मानव समाज की जो सेवा की गई है, वह इतिहास का एक स्वर्णिम और क्रान्तिकारी परिच्छेद है किन्तु स्वर्णिम परिच्छेद को शिक्षा के क्षेत्र में स्वार्थ के राजनीतिक धुंए ने काला कर दिया और साहित्य सेवा की भावना को क्षुद्र, संकीर्ण भावों के बाजार में नीलामी में भी बोली न पाकर लावारिस होना पड़ा । इसी लावारिस साहित्य सेवा के यत्किंचित् वारिस बिना बोली दिये ही परोपकार भावना से प्रेरित स्वामी ओमानन्द सरस्वती हैं । यह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थ है । व्यापारिक लाभ के बिना साहित्य प्रकाशन, सामान्य जनता के लिये साहित्य का सृजन एवं अध्ययन अध्यापन की आर्ष-प्रणाली को इस अर्थ प्रधान युग में भी अपनाकर साहित्य की जो सजीव सुरक्षा स्वामी जी ने की है वह अन्यत्र दुर्लभ है । भौतिक रूप में साहित्य की सुरक्षा का भी कार्य उपरोक्त तीनों प्रकारों के साथ-साथ किया है । कभी मनुष्य साहित्य का सृजन मात्र ही करता है । कभी अर्थ-लाभ की दृष्टि से प्रकाशन मात्र एवं कभी परोपकार भावना से उसको प्रचारित करने का उपक्रम मात्र करता है किन्तु स्वामी जी ने परोपकार भावना से इनका समन्वय अपने जीवन में करके एक अनुपम साहित्य-सेवा का रूप हमारे सामने रक्खा है जिसके सामने हमारा सिर श्रद्धावनत है और रहेगा ।
जहां श्री स्वामी ओमानन्द जी महाराज भाषण और उपदेश द्वारा जन-सुधार और जन-जागृति करते हैं वहां प्रचार को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अपने ज्ञान को लिपिबद्ध करके नये साहित्य का सृजन, प्रकाशन और प्रसारण भी करते हैं । इनके द्वारा विरचित साहित्य में चार प्रकार के ग्रन्थ हैं ।
१. कुरीति निवारण और समाज-सुधार सम्बंध ग्रन्थ
१. बाल विवाह से हानियां
२. पापों की जड़ शराब
३. शराब से सर्वनाश
४. हमारा शत्रु तम्बाकू
५. मांस मनुष्य का भोजन नहीं
६. ब्रह्मचर्यामृत
७. ब्रह्मचर्य के साथन (१-११ भाग)
८. व्यायाम का महत्त्व
९. रामराज्य कैसे हो
२. आयुर्वेद विषयक ग्रन्थ
भारतीय जड़ी-बूटी – आक
२. भारतीय जड़ी-बूटी – नीम
३. भारतीय जड़ी-बूटी – पीपल
४. भारतीय जड़ी-बूटी – बड़
५. भारतीय जड़ी-बूटी – जामुन
६. सिरस
७. घरेलू औषध मधु
८. घरेलू औषध हल्दी
९. लवण
१०. मिर्च
११. अदरक
१२. सोंठ
१३. गोदुग्ध अमृत है
१४. शाकभाजी द्वारा चिकित्सा
१५. सर्पविष चिकित्सा
१६. बिच्छू विष चिकित्सा
१७. नेत्ररक्षा
१८. स्वप्नदोष चिकित्सा
१९. श्लीपद चिकित्सा
३. इतिहास परक ग्रन्थ
१. भारत के प्राचीन मुद्रांक
२. भारत के प्राचीन लक्षणस्थान
३. हरयाणा का संक्षिप्त इतिहास
४. हरयाणा के वीर यौधेय
५. वीरभूमि हरयाणा
६. हरयाणा की संस्कृति
७. भारत के प्राचीन शस्त्रास्त्र
८. वीर हेमू
९. शेरशाह सूरी
१०. आर्यसमाज के बलिदान
११. महारानी सीता (अप्रकाशित)
४. यात्रा संस्मरण
१. कालापानी यात्रा
२. रूस में १५ दिन
३. जापान यात्रा
४. मेरी विदेश यात्रा
५. नैरोबी यात्रा
६. विदेश यात्रा – “मैंने इंगलैंड में क्या देखा”
७. यूरोप यात्रा (अप्रकाशित)
स्वामी जी द्वारा प्रकाशित विशिष्ट साहित्य
जहां स्वामी जी ने अपना साहित्य प्रकाशित किया है, वहां ‘हरयाणा साहित्य संस्थान’ प्रकाशन विभाग की स्थापना करके सैकड़ों अन्य पुस्तकों का प्रकाशन भी किया है ।
. सामवेदसंहिता २. सामपदसंहिता ३. उपनिषत्समुच्चय ४. षड्दर्शन आर्यभाष्य (८ जिल्द) ५ निरुक्तभाष्य (२ जिल्द) ६. छन्दःशास्त्रम् ७. काव्यालंकारशास्त्रम् ८. अष्टाध्यायी सूत्रपाठ ९. व्याकरण महाभाष्य (५ जिल्द) १०. काशिका ११. लिंगानुशासनवृत्ति १२. फिट्सूत्रप्रदीप १३. सत्यार्थप्रकाश १४. संस्कारविधि १५. कुलियात आर्य मुसाफिर ।
१. आचार्य मेधाव्रत कविरत्न द्वारा विरचित संस्कृत साहित्य
२. पण्डित बस्तीराम कृत भजन साहित्य ।
३. स्वामी वेदानन्द वेदवागीश कृत रचनायें ।
४. वैद्य बलवन्तसिंह विरचित चिकित्सा साहित्य ।
५. मुनि देवराज विद्यावाचस्पति कृत पुस्तकें ।
इस प्रकाशन संस्था का कार्य करते हुये अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित साहित्य का भी बहुत प्रचार प्रसार किया है । इनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं –
१. सार्वदेशिक सभा दिल्ली ।
२. गोविन्दराम हासानन्द दिल्ली ।
३. राजपाल एन्ड सन्स दिल्ली ।
४. दयानन्द संस्थान दिल्ली ।
५. आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली ।
६. द्राक्षादेवी प्यारेलाल परोपकारी ट्रस्ट दिल्ली ।
७. परोपकारिणी सभा अजमेर ।
८. आर्य साहित्य मण्डल अजमेर ।
९. विरजानन्द शोध संस्थान गाजियाबाद ।
१०. समर्पणानन्द शोध संस्थान दिल्ली ।
११. आचार्य प्रकाशन रोहतक ।
१२. रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ ।
१३. आर्यसमाज चौक प्रयाग ।
१४. चौखम्भा प्रकाशन वाराणसी ।
१५. तारा पब्लिकेशंस वाराणसी ।
१६. सत्य प्रकाशन मथुरा ।
१७. गुरुकुल प्रभात आश्रम टीकरी (मेरठ)।
१७. गुरुकुल कांगड़ी हरद्वार ।
१८. उपदेशक विद्यालय यमुनानगर ।
इसके अतिरिक्त जयपुर, जोधपुर, आगरा आदि के अनेक प्रकाशकों से भी विशेष साहित्य का आदान प्रदान चलता रहता है ।
शिक्षा के द्वारा साहित्य की सुरक्षा के रूप में श्री स्वामी जी द्वारा किया गया कार्य आश्चर्य जनक परिणामों का देने वाला है । गुरुकुल झज्जर और कन्या गुरुकुल नरेला के सैकड़ों स्नातक स्नातिकाओं ने अपने अध्ययन अध्यापन के द्वारा नवचेतना पाकर भावी समाज के लिये जो मार्ग प्रशस्त किया है वह साहित्य की गतिशीलता को ही नहीं बनाये रखेगा अपितु उसे और भी विस्तृत एवं सुरक्षित करेगा ।
श्री स्वामी जी ने प्राचीन संस्कृत और उड़िया साहित्य की ४०० से अधिक हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह करके उनकी जो भौतिक सुरक्षा की है, वह भी साहित्य के प्रति इनकी गहरी निष्ठा एवं श्रद्धा की परिचायिका है । साहित्य की गरिमा को दृष्टिगत रखकर ही स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश जैसे अद्भुत ग्रन्थ को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराने का गुरुतर कार्यभार सिर पर ले रखा है । यह भी भावी पीढ़ी के लिये साहित्य को दीर्घकाल तक सुरक्षित और चिरस्थायी रखने का अर्थसाध्य एक विशिष्ट साधन है