कश्मीर की आदि सन्त कवयित्री ललद्यद (१४वीं शताब्दी) संसार की महानतम आध्यात्मिक विभूतियों में से एक थीं जिसने अपने जीवनकाल में ही परमविभु का मार्ग खोज लिया था और ईश्वर के धाम/प्रकाशस्थान में प्रवेश कर लिया था। वह जीवनमुक्त थी तथा उसके लिए जीवन अपनी सार्थकता एवं मृत्यु अपनी भयंकरता खो चुके थे ।उसने ईश्वर से एकनिष्ठ होकर प्रेम किया था और उसे अपने में स्थित पाया था (खुछुम पंडित पननि गरे)।
प्रायः ऎसी पूतात्माओं/योगिनियों को अज्ञानी जनता के उपहास का भाजन/पात्र भी बनना पड़ता है। उन्हें ‘अर्द्धविक्षिप्त’ समझा जाता है और बावली, पगली, गेली आदि नामों से पुकारा जाता है।) ललद्यद को भी ‘ललमअच’ यानी ‘लल-पगली’ समझा जाता था।मगर उस देवीस्वरूपा योगिनी ने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया। यों ज्ञानीजन उसे आदर और श्रद्धावश ललमोज (लल-माता) के नाम से भी संबोधित करते थे।
एक किंवदंती के अनुसार ललद्यद कपड़े की दुकान करने वाले एक दुकानदार के पास गई और उस दुकानदार से ललद्यद ने कपड़े का एक लम्बा टुकड़ा माँगा और उसका वज़न कराया। तत्पश्चात उसे दो बराबर भागों में मोड़कर उसने अपने कंधों पर डाला और चल दी। इसके पश्चात् जितने श्रद्धालु व्यक्तियों ने जितनी बार उसको प्रणाम किया, वह उतनी ही बार कपड़े के एक भाग में उतनी ही गाँठे लगाती गयी। मजाक उड़ाने वालों,लल-पगली आदि कहने वालों ने जितनी बार फब्तियाँ कसीं, उतनी ही बार कपड़े के दूसरे भाग में गाँठे लगायीं। थोड़ी देर बाद वह पुनः उसी दुकानदार के पास गयी और उसे कहा कि वह कपड़े का वजन करे। वज़न गाँठों के कम या ज्यादा होने पर भी बराबर निकला। तब ललद्यद ने मुस्कराकर कहा:”चाहे कोई मुझे हज़ार गालियाँ भी दे, मैं मन में उसका कभी बुरा नहीं मानूंगी।” पूरा वाख/पद इस तरह से है:
“युस हो मालि हेड्येम, गेलम तअ मसखरअ करेम सु हो मनस खरेय्म नअ जांह,
शिव पनुन येलि अनुग्रह करेम
लुकहुन्द असुन करेम क्याह?”
(चाहे कोई मेरी निंदा करे, नकल उतारे या फिर मसखरी करे, वह मेरे मन को कभी बुरा लगेगा नहीं।शिव यानी प्रभु का यदि मुझ पर अनुग्रह है, तो लोगों का मुझ पर हँसना या मसखरी करना मेरा भला क्या (बिगाड़) सकता है?
ललद्यद, दरअसल, ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुईं और उसके फरमान/आदेश को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गईं, जीवन-मरण के लौकिक बंधनों से ऊपर उठ कर-
‘मेरे लिए जन्म-मरण हैं एक समान/ न मरेगा कोई मेरे लिए/ और न ही/ मरूंगी मैं किसी के लिए! (न मरअ कां’सी तअ न मरेम कांह.)
साहित्य अकेडमी, दिल्ली के लिए (Lal Ded) अंग्रेज़ी से हिंदी में किये गए मेरे अनुवाद को खूब सराहा गया।यह काम मैं ने तब हाथ में लिया था जब स्व. विष्णु खरे अकेडमी के उपसचिव हुआ करते थे।उनका विशेष अनुरोध था कि यह काम मैं करूं।
भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ और वनिका प्रकाशन से भी ललद्यद पर मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
कश्मीरी भाषा-साहित्य की इस महान कवयित्री ललद्यद को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर कोटि-कोटि प्रणाम!