Saturday, April 27, 2024
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भीटी नरेश महताब सिंहः जिनके बलिदान से राम मंदिर आंदोलन की नींव रखी गई

राम मंदिर के पुजारी श्यामानंद ने दो मुस्लिम फकीरों को मंदिर में रखा था और उन्होंने बाबर से इसकी मुखबिरी की थी। इसके बाद मीर बाकी के नेतृत्व में लाखों की मुगल फौज से लड़ाई में राजा महताब सिंह अपने सैनिकों के साथ बलिदान हो गए। राजा साहब ने अपने महल के सामने अनुसूचित जाति के लोगों की बस्ती बसाई थी। बस्ती के लोगों ने बताया कि हमल में उनके साथ कभी भेदभाव नहीं हुआ।

धर्मनगरी अयोध्या में भगवान राम अपने निर्माणाधीन मंदिर के गर्भगृह में 22 जनवरी 2024 को विराजमान हो गए। देश और दुनिया भर के हिन्दू इस अवसर पर भक्तिभाव से अपने आराध्य भगवान राम की पूजा करते हुए दीपावली जैसा पर्व मना रहे हैं। ऑपइंडिया ने इस अवसर पर अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में तमाम ऐसे बलिदानियों से देश को परिचित करवाया, जिन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा की गई फायरिंग में अपने प्राणों की आहुति दी।

ग्राउंड रिपोर्ट के दौरान हमें 4 बड़े युद्धों के बारे में जानकारी मिली। ये युद्ध उस दौरान हुए जब आक्रांता बाबर की क्रूर फ़ौज मंदिर को तोड़ रही थी और उनसे लड़ते हुए क्षत्रिय योद्धा अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे। इन सभी में सबसे पहले अपना बलिदान देने वालों में तत्कालीन भीटी नरेश महताब सिंह थे। हमने राजा महताब सिंह के महल में जाकर वर्तमान हालातों की जानकारी जुटाई।

ऑपइंडिया की टीम राजा महताब सिंह के महल पहुँची। यह महल अब अम्बेडकरनगर जिले के भीटी थाना क्षेत्र में तहसील कार्यालय के ठीक बगल है। महल अब बेहद जर्जर हालत में है। प्लास्टर उखड़ चुके हैं और छत कई जगहों से गिर चुकी है। महल के ऊपर आज भी भगवा ध्वज लहराता है। दीवालों पर भगवान गणेश और महादेव शिव के चित्र आज भी उकेरे हुए हैं।

महल को देखकर ऐसा लगता है कि इसके बाहरी और आंतरिक हिस्से की साफ़-सफाई और रंग-रोगन एक जमाने से नहीं हुई है। दरवाजे भी उखड़े हुए मिले। महल के एक हिस्से में दुधारु जानवर बँधे हुए मिले। हमें कुछ स्थानीय लोगों ने नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर यह भी बताया कि महल का अधिकतर हिस्सा अब बिक चुका है।

राजा महताब सिंह महल भीटी, अम्बेडकरनगर
महल के बाहर राजा अजय प्रताप सिंह के नाम से एक इंटर कॉलेज मौजूद है। इसका संचालन राजा महताब सिंह के वंशजों द्वारा किया जाता है। मैदान में टहल रहे लोगों ने बताया कि जहाँ आज इण्टर कॉलेज है, वहाँ कभी राजा साहब की अदालत लगा करती थी। इसमें वे जनता की समस्याओं का बेहद न्यायप्रिय ढंग से समाधान करते थे। राजा महताब सिंह के अधिकतर परिजन लखनऊ और काशी में बस चुके हैं। महज कुछ दूर के परिजन हवेली की देखरेख के लिए मौजूद मिले, जिनमें से एक थे विनय प्रताप सिंह।

महल के अंदर मौजूद धार्मिक चिन्ह
लोग भूल चुके हैं हमें
महल में मौजूद विनय प्रताप सिंह ने हमें बताया कि भले ही उनके पूर्वजों ने जन्मभूमि बचाने के लिए बाबर के खिलाफ पहला संघर्ष किया हो, लेकिन आज लोग उन्हें लोग भूल चुके हैं। उन्होंने हमें बताया कि राजा महताब सिंह के बलिदान पर पहले एक किताब भी छपी थी, लेकिन ना जाने क्यों और किसने उसने बाजार से गायब कर दिया।

विनय प्रताप सिंह का कहना है कि यह किताब कभी अयोध्या के सभी पुस्तक स्टॉल पर बिका करती थी। राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से बेहद खुश विनय प्रताप सिंह चाहते हैं कि लोग इस मौके पर राजा महताब सिंह को भी याद रखें। इसके साथ ही उनकी यह इच्छा है कि जर्जर होते जा रहे इस महल को भारत सरकार संरक्षित करे।

महल में मौजूद विनय प्रताप सिंह
दोगुने मुगलों से लड़ी थी 80 हजार की सेना
राजा महताब के एक अन्य वंशज प्रणव प्रताप सिंह ने ऑपइंडिया से बात की। प्रणव प्रताप सिंह ने हमें बताया कि सन 1527-28 के आसपास बाबर के आदेश पर उसका कमांडर मीर बाकी लाखों की मुगल फ़ौज लेकर अयोध्या के रामजन्मभूमि मंदिर पर हमला बोला था। तब भीटी नरेश राजा महताब सिंह बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा पर निकले थे।

जन्मभूमि पर हमले की खबर सुनकर वृद्ध हो चले राजा साहब ने अपनी यात्रा रद्द कर दी और अयोध्या की तरफ कूच कर गए। उन्होंने अपने राज्य में संदेश भेजवाया और खुद भी ज्यादा से ज्यादा लोगों को जमा करने में जुट गए। इस तरफ लगभग 80 हजार हिन्दुओं की फ़ौज रामजन्मभूमि को बचाने के लिए अयोध्या की तरफ निकल पड़ी।

17 दिन चली लड़ाई, राजा साहब और सैनिक सभी बलिदान हुए
प्रणव प्रताप सिंह ने हमें बताया कि मीर बाकी अयोध्या में घुसकर रामजन्मभूमि के नजदीक पहुँच चुका था। सारे सैनिकों ने जन्मभूमि पर घेरा बना लिया था। लगभग 17 दिनों तक मीरबाकी और उसकी फ़ौज मंदिर में नहीं घुस पाई। इस बीच हिन्दू सैनिक एक-एक कर के बलिदान होते गए। आखिरकार 17वें दिन की समाप्ति पर अंतिम योद्धा के तौर पर राजा महताब सिंह जन्मभूमि को बचाते हुए बलिदान हो गए।

प्रणव प्रताप सिंह के अनुसार, इसी युद्ध में राजा महताब सिंह के सहयोगी वयोवृद्ध केहरी सिंह भी बलिदान हुए थे। राजा महताब सिंह के बलिदान होने के बाद ही मुगल फ़ौज मंदिर प्रांगण में घुस पाई। तब के तमाम गायकों ने राजा महताब सिंह के बलिदान पर लोकगीत बनाए थे। इन लोकगीतों में कुछ गाने आज भी भीटी क्षेत्र के बड़े बुजुर्ग गाते हैं। राजा साहब की हार का मुख्य कारण उन्नत हथियार न होना था।

बकौल प्रणव प्रताप सिंह, राजा साहब के सैनिकों के पास भाला और तलवारें थीं, जबकि मुगलों के पास तोपें थीं। कहा जाता है कि मीर बाकी ने राजा महताब सिंह और उनकी 80 हजार फ़ौज को मारकर उनके खून का गारा बनाया था और बाबरी की पहली दीवाल उसी से तामीर की थी। इन दीवारों की तामीर करने के लिए ज्यादा से ज्यादा खून सोखने के लिए लखौरी ईंटों का इस्तेमाल किया गया था।

जिन मुगल फकीरों को दी शरण उन्होंने ही की मुखबिरी
अंबेडकरनगर के इतिहासकार बलराम मिश्रा ने ऑपइंडिया से बात करते हुए इतिहास के पन्नों को पलटा। बलराम मिश्रा ने हमें बताया कि 2 मुगल फकीरों को राम मंदिर के तत्कालीन पुजारी श्यामानन्द ने आश्रय दिया था। इनमें से पहले फकीर का नाम कज़ल अब्बास मूसा और दूसरे का नाम जलाल शाह था। इन फकीरों ने खुद को हिन्दू धर्म से प्रभावित बताया और मंदिर परिसर में ही रहने लगे थे।

इन दोनों ने मंदिर में मौजूद न सिर्फ सोने-चाँदी की जानकारी जुटाई, बल्कि उसकी सुरक्षा से संबंधित सारे राज जान गए। दोनों ने यह भी पता लगाया कि उत्तर भारत में हिन्दुओं की सबसे अधिक आस्था राम में थी। उस आस्था का केंद्र जन्मभूमि पर बना मंदिर था। बाद में इन्हीं दोनों फकीरों ने सारी मुखबिरी बाबर को की और मतान्ध बाबर ने सोमनाथ की तर्ज पर राम मंदिर को लूटने और ध्वस्त करने के लिए अपनी फ़ौज भेज दी थी।

साभार- https://hindi.opindia.com/

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