Saturday, April 27, 2024
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बाइबल में वर्णित सृष्टि की बचकानी कहानियाँ

बाइबल के परमेश्वर द्वारा सृष्टि रचना की कहानियाँ बाइबल की प्रथम पुस्तक ‘उत्पत्ति’ (जेनेसीस) में वर्णित की गई है। वहाँ हम पढ़ते हैं कि सृष्टि रचना का कार्य पूर्ण करने के बाद परमेश्वर ने वह सब कुछ देखा जो उसने बनाया था और उसने उसे अच्छा पाया। प्रारम्भ में यह सम्पूर्ण दुनिया एक उपजाऊ बगीचा था, लेकिन यह बिना किसी व्यक्ति के सुनसान पड़ा था। इस समस्या को दूर करने के लिए, परमेश्वर ने आदम (एडम) को बनाया। हमें बताया जाता है कि इस बगीचे का हर पेड़ देखने में सुखद और उनके फल भोजन के लिए अच्छे थे, लेकिन इन पेड़ों के साथ दो विशेष और अद्वितीय पेड़ भी वहाँ उगे हुए थे, जिनमें से एक को ‘जीवन का वृक्ष’ और दूसरे को ‘अच्छे और बुरे के ज्ञान का वृक्ष’ कहा जाता था। अदन का बाग (ईडन गार्डन) नाम से जाने जाने वाले इस बगीचे के लिए चार नदियों का पानी भी मुहैया कराया गया था। इस बगीचे में सोना, गोमेद आदि भी उपलब्ध था। हालांकि, इस बगीचे के पहले मानव निवासियों को इन मूल्यवान खजाने की क्या आवश्यकता, यह नहीं बताया गया है। परमेश्वर द्वारा आदम को इस सृष्टि की सभी चीज़ों पर शासन करने का अधिकार दिया गया था। अब तक इस दुनिया में बुराई जैसी कोई चीज नहीं थी।

जब ‘उत्पत्ति’ की पुस्तक में दी गई सृष्टि रचना की दूसरी कहानी में सृष्टि की प्रथम स्त्री हव्वा (इव) को पुरुष की पसली से बनाया गया, तब आदम के सभी चीज़ों पर शासन करने के एकाधिकार से थोड़ा सा समझौता हुआ। यह स्त्री आदम की तरह ही मानव थी, लेकिन उसे आदम के लिए एक आश्रित सहायक बनाया गया था, इसलिए उस पर आदम का अधिकार उतना पूर्ण नहीं था जितना कि अन्य सभी चीज़ों पर था। उदाहरण के लिए, यद्यपि आदम ने ही उसका नाम रखा था, जैसा कि उसने अन्य सभी प्राणियों के नाम रखे थे, फिर भी एक मानव के रूप में उस (हव्वा) के पास एक स्वतंत्रता और एक शक्ति थी जो किसी अन्य प्राणी के पास नहीं थी। इस प्रकार बाईबल के अनुसार सृष्टि की इस ‘कमजोर कड़ी’ के माध्यम से बुराई (पाप) के लिए अदन में प्रवेश का मंच तैयार किया गया। बाईबल की अन्य कहानियों की भांति यह कहानी भी कल्पना और मिथक तत्वों से भरी पड़ी है। इस कहानी में दो पैरों पर चल सकने वाले और मनुष्य समझ सके ऐसी भाषा बोलने वाले सांप को भी अहम स्थान दिया गया है।

‘उत्पत्ति’ की पुस्तक के तीसरे अध्याय में कपटी सांप और भोली स्त्री के बीच प्रतियोगिता और तनाव का वर्णन किया गया है। बगीचे में स्थित ‘अच्छे-बुरे के ज्ञान के पेड़’ का फल खाना प्रारम्भिक दोनों मनुष्यों के लिए परमेश्वर द्वारा निषिद्ध किया गया था। हम सभी जानते हैं कि ‘निषिद्ध चीज’ एक विशेष आकर्षण का केन्द्र बन जाती हैं। उस पेड़ के फल को खाना क्यों निषिद्ध किया गया? इसका स्वाद कैसा होगा? फल इतना आकर्षक था कि ऐसे कई सवाल हव्वा के मन में पैदा होने लगे। वह कई दिनों तक हर कोण से देखते हुए इस पेड़ और उसके फल का अवलोकन करती रही। इस दौरान वह सांप भी चुप नहीं बैठा था। हमें आगे पढ़ते है कि सांप इस समय किसी भी अन्य जंगली प्राणी की तुलना में अधिक सक्रिय था। उसने हव्वा और उस पेड़ के फल के बीच के आकर्षण को देखा और तुरंत ही हव्वा को अपने कपट का भोग बनाने की सोचने लगा।

हव्वा और सांप के बीच वार्तालाप की शुरुआत सांप द्वारा हव्वा को फल के निषेध की याद दिलाने के साथ होती हैं। “क्या परमेश्वर ने ऐसा कहा था कि आपको बगीचे के किसी भी पेड़ का फल नहीं खाना चाहिए?” सांप ने पूछा। उत्तर में हव्वा ने कहा, “हम बगीचे के पेड़ों के फल को काट सकते हैं, लेकिन परमेश्वर ने कहा है कि ‘तुम्हें बगीचे के बीच में स्थित पेड़ के फल को नहीं खाना हैं, न ही उसे छूना हैं।’” (उत्पत्ति 2-3) इस आज्ञा के उल्लंघन की सजा मौत थी। (हम अनुमान कर सकते हैं कि इतनी मामूली सी आज्ञा के उल्लंघन के लिए इस तरह की कठोर सजा हव्वा को अनुचित, गलत और अन्यायपूर्ण लगी होगी।) अब सांप ने हव्वा के भोलेपन का फायदा उठाना शुरू कर दिया। “तुम नहीं मरोगी,” सांप ने कहा। इस निषेध के पीछे कोई अन्य कारण होगा। फिर सांप ने यह संभावना प्रस्तुत की: “परमेश्वर जानता है कि यदि तुम इस पेड़ का फल खाओगी तो तुम भी अच्छे और बुरे का भेद जानकर परमेश्वर के समान बन जाओगी, और परमेश्वर यह बिलकुल नहीं चाहता”, सांप ने हव्वा से कहा। सांप अपने शिकार की कमजोरी पूरी तरह से जान चुका था। शिकार अब जाल में फंसने लगा था।

प्रलोभन इतना प्रचंड था कि हव्वा के लिए उसे रोक पाना असम्भव था, और इसलिए अंततः उसने निषिद्ध फल तोड़ा और इसे खाया। बाईबल कहती है कि ‘अनाज्ञाकारिता’ ने उस समय परमेश्वर के इस पूर्ण संसार में प्रथम बार प्रवेश किया! अनाज्ञाकारिता के इस कृत्य में हव्वा अकेली नहीं रहना चाहती थी, इसलिए उसने आधा फल अपने आदम को दिया और उसने भी खाया! इसका परिणाम क्या हुआ? कथा हमें आगे बताती है कि वह फल खाने से उन दोनों की आँखें खुल गई और उन्हें शर्म महसूस होने लगी; उन्होनें पहली बार जाना कि वे ‘नंगे’ थे। फिर वे अंजीर के पत्ते से अपनी शर्म को ढंकने लगे। तभी उन्हें बगीचे में पत्तों की सरसराहट सुनाई दी। परमेश्वर अपने मित्रों – आदम और हव्वा – के साथ अपनी दैनिक सैर करने के लिए शाम की ठंड में नीचे उतर आया था।

इस क्षण से पहले, आदम और हव्वा के लिए परमेश्वर की उपस्थिति हमेशा स्वागत योग्य थी, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई थी। परमेश्वर को अब एक मित्र के रूप में नहीं, बल्कि दण्ड देने वाले एक न्यायाधीश के रूप में देखा जाने लगा। इसलिए परमेश्वर की ओर से सजा से बचने के लिए आदम और हव्वा ने खुद को अदन की झाड़ियों में छिपा लिया। क्योंकि परमेश्वर आदम और हव्वा को ढूँढ नहीं पाया, इसलिए उसने उन्हें पुकारा: “आदम, तुम कहाँ हो?” आज पहली बार मानव इतिहास में लुका-छिपी का खेल खेला गया, और आदम स्पष्ट रूप से इस खेल के नियमों से अनभिज्ञ था। उसने परमेश्वर को पुकारा, “प्रभु, मैं यहाँ झाड़ियों में छिपा हुआ हूँ।” परमेश्वर ने उत्तर दिया, “तुम वहाँ झाड़ियों में क्या कर रहे हो?” आदम ने कहा, “मैं अपनी नग्नता से शर्मिंदा था। मैं नहीं चाहता था कि आप मुझे देखें, इसलिए मैं भागकर छिप गया।” परमेश्वर ने पूछा, “तुम्हें किसने बताया कि तुम नंगे हो?” आदम और हव्वा तो उत्पत्ति के क्षण से ही नग्न थे, लेकिन उन्होंने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया था। फिर आत्म-जागरूकता और शर्म की यह भावना कहां से आयी? तब जाकर परमेश्वर को पता चला कि आदम के ऐसे व्यवहार का अर्थ क्या है: “क्या तूने उस वृक्ष का फल खा लिया है जिसे न खाने की आज्ञा मैंने तुझे दी थी?” आदम अब फंस गया। अब दूसरे की ओर उंगली करने की, जवाबदेही से बचने की, बहानेबाजी, स्वबचाव की युक्ति-प्रयुक्ति आदि की पहली बार शुरुआत होती है। “मेरा कोई दोष नहीं; यह सब उस स्त्री ने किया है,” आदम ने कहा। “उसने मुझे फल दिया और हाँ, मैंने इसे खाया।” परमेश्वर अब हव्वा की ओर मुड़ा, लेकिन उसके पास भी एक बलि का बकरा था। ” मेरा कोई दोष नहीं; सांप ने मुझे प्रलोभन दिया और मैंने फल खाया”, हव्वा ने स्वबचाव में कहा।

उस क्षण, संभवतः पहली बार, आत्म-जागरूक प्राणियों को अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी, इसलिए दोषियों को इस कृत्य का दंड भी दिया गया। सांप को शाप दिया गया कि सभी प्राणियों में उससे सर्वाधिक नफरत की जाएगी और उसे अब से पेट पर रेंगकर चलना पड़ेगा। (अब तक वह परों पर चलता था!) इसके अतिरिक्त, सर्प की संतान और स्त्री की संतान के बीच हमेशा दुश्मनी रहेगी। स्त्री की सजा यह थी कि उसे प्रसव में हमेशा पीडा भुगतनी पड़ेगी, और पुरुष को ज़मीन पर खेती से अपना कष्टप्रद जीवन-यापन करना पड़ेगा। हालांकि, सबसे भयानक और अंतिम सजा यह थी कि सभी जीवितों को अब मरना होगा। (Dust you are and to dust you shall return.) चूंकि मृत्यु सार्वभौमिक थी, इसलिए मृत्यु का कारण बनने वाला ‘पाप’ भी सार्वभौमिक होना चाहिए।

तब परमेश्वर ने अवज्ञाकारी आदम और हव्वा को अदन के बगीचे से बाहर निकाल दिया। चूंकि वे ‘ज्ञान का फल’ खाकर अच्छाई और बुराई का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे, इसलिए यह जरूरी समझा गया कि उन्हें ‘जीवन के पेड़’ का फल खाने से रोका जाए और मृत्यु से बचने का कोई अवसर न दिया जाए। आदम और हव्वा अब फिर कभी अदन के बाग में परमेश्वर के पास नहीं रह सकते थे। आदम और हव्वा से उत्पन्न मनुष्यों के रूप में हमारी नियति अदन से कहीं बाहर, हमेशा के लिए परमेश्वर से अलग रहने की थी। यह सुनिश्चित करने के लिए परमेश्वर ने अदन के द्वार पर हाथ में एक तलवार लिये एक स्वर्गदूत तैनात कर दिया, ताकि पतीत आदम और हव्वा (और उनकी पापी संतान) फिर कभी उसके बाग में पुनः प्रवेश पा सके।

तो यह हैं बाईबल में वर्णित सृष्टि रचना की मिथक-कथा। यहूदीमत और ईसाईयत में इस कहानी को प्रायः शब्दश: सत्य, ईश्वरीय वचन के रूप में पढ़ा गया है। इस संसार में फैले पाप और बुराई की जड़े इसी मिथककथा में खोजी जाती रही हैं। मनुष्य ने परमेश्वर की पूर्ण सृष्टि को नष्ट कर दिया। परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन कर मनुष्य पतीत, भ्रष्ट और पापी हो गया। (आदम और हव्वा का ‘मूल पाप – Original Sin’ उनकी संतानों में संक्रमित हुआ।) जीवन और प्रेम का स्रोत परमेश्वर अब एक न्यायाधीश की भूमिका में आ गया। मनुष्य को मृत्यु की सजा दी गई। मृत्यु से अब वह कभी नहीं बच सकता। परमेश्वर की दया और मर्जी पर अपने आपको छोड़ देना ही अब हम मनुष्यों की एकमात्र आशा है।

नवजात बच्चों में (आदम और हव्वा से) संक्रमित इस मूल पाप को प्रतीकात्मक रूप से धोने के लिए बप्तिस्मा संस्कार (Baptism) का आविष्कार किया गया। यदि बप्तिस्मा लेने से पहले (आदम और हव्वा के मूल पाप के साथ) ही कोई बच्छा मर जाता तो वह बच्चा भी नर्क में जायेगा ऐसी मान्यता दृढ हुई। कहा जाता है कि आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व बाईबल के परमेश्वर ने पुनः एक बार मनुष्यों पर महती कृपा की। उसने मनुष्यों की मुक्ति के लिए अपने एकमात्र पुत्र यीशु को इस संसार में भेजा। यीशु ने मनुष्यों के पाप अपने उपर लेकर स्वयं बलीदान दिया। ईसाई मान्यता के अनुसार यीशु को इसी संदर्भ में मुक्तिदाता, उद्धारक, सेवियर, रेस्युअर, रिडीमर आदी माना गया हैं। ‘मुक्तिदाता’ यीशु और यीशु में विश्वास की कथा इसी पार्श्वभू में की जाती रही हैं।

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