Sunday, May 5, 2024
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कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति

कांग्रेस मुसलमानो की कोर्ट के जरिए भी मदद करती थी,कांग्रेस अपने ही लोगों से कोर्ट में केस दाखिल करवाती थी और अपने ही जजों से मुसलमानो के हित में फैसला भी दिलवाती थी,जब कोई कांग्रेस पर सवाल उठाता था तो कह देती थी ये तो कोर्ट का फैसला है,कांग्रेस ने हमेशा हिंदुओं को झुनझुना थमाकर रखा था,
मिया लोर्ड ये क्या है?
“इमामी टैक्स”

*मस्जिदों के इमामों को वेतन सेक्युलर देश की सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दिया जाता है*

*क्या हम आज भी जजिया कर और खरज भुगत रहे हैं ??*

23 मई 1993 को सुप्रीम कोर्ट ने 743 वक्फों की पेटिशन पर केन्द्र सरकार को आदेश दिया कि तमाम मस्जिदों के स्थाई और अस्थायी इमामों को 1 दिसम्बर 1993 से उनकी योग्यता अनुसार वेतन दिया जाये।

योग्यता -उनकी शरीयत की, कुरान की, हदीस की जानकारी के आधार पर तय होती है।

जिसमें सबसे काबिल इमाम
( १ ) आलिम होता है
उससे नीचे इमाम
( २ ) हाफिज
उससे नीचे इमाम
( ३ ) नाजराह
और
( ४ ) मुअजिन।

मुअजिन जानते हैं न – वही जिसकी ड्यूटी सुबह सुबह और दिन में पांँच बार लाउडस्पीकर पर चिल्ला कर सबको नमाज के लिए बुलाना होता है।

*ये तनख्वाह क्यों दी जानी चाहिए इसके लिए इमामों का तर्क था कि वे एक धार्मिक कार्य कर रहे हैं और समाज के एक बड़े वर्ग का नमाज अदा करवाते हैं।*

( १ ) कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने दलील दी कि चूँकि ऐसा कोई इस्लामी कानून और परम्परा नहीं है इसलिए इनको तनख्वाह नहीं दी जा सकती।
( २ ) केंद्र और कुछ राज्यों के वक्फ बोर्डों ने दलील दी कि, चूंँकि इनके और हमारे बीच कोई मालिक और कर्मचारी वाला सम्बन्ध नहीं है इसलिए हम इन्हें तनख्वाह नहीं दे सकते।

वहीं
( ३ ) पँजाब के वक्फ बोर्ड जिसके अन्तर्गत हिमाँचल और हरियाणा की मस्जिदें भी आती हैं की दलील थी कि *हम तो पहले से ही तनख्वाह दे रहे हैं और साथ में प्रतिमाह मेडिकल एलाऊन्स भी दे रहे हैं।*
तमाम दलीलों और गवाहों के बयानों को मद्देनजर रखते हुए एक धर्म निरपेक्ष और समानता की बात करने वाले देश की काबिल अदालत ने निर्णय दिया कि केन्द्र सरकार छह महीने के अन्दर गैरसरकारी मस्जिदों के इमामों की तनख्वाह के स्केल तय करे।

और यदि इसमें छह महीने से अधिक का समय लगता है तो यह भुगतान 1 दिसम्बर 1993 से देय होगा।

*इस निर्णय को पढ़ने के बाद में मुझे पता चला कि मस्जिदें सरकारी भी होती हैं।

बात यहीं खत्म नहीं हुई
( ४ ) उत्तर प्रदेश कांँग्रेस कमेटी ने मार्च 2011 में राज्यपाल को ज्ञापन दिया कि उत्तर प्रदेश में सरकार ने अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार यहांँ के इमामों को नये वेतनमान के अनुसार वेतन देना शुरू नहीं किया है वो अभी पुराने वेतन पर ही गुजारा कर रहे हैं।

साथ ही में ( ५ ) उत्तर प्रदेश कांँग्रेस कमेटी ने राज्यपाल को ये भी बताया कि *भारत में इस समय 28 लाख मस्जिदें हैं और हर इमाम को 18000/- पगार दी जाती है मतलब 50,000 करोड़ जो आप हम देते हैं।। और उत्तर प्रदेश में 3.30 लाख मस्जिदें हैं। (ये आंँकड़े मार्च 2011 के हैं )*।।

ये तो सिर्फ इमाम की पगार है बाकी की पगार तो अलग है।।

( हज सब्सिडी के अलावा सोचिए ! कितना पैसा प्रति माह दिया जा रहा है इस मदरसों में )

2011 में वक्फ बोर्ड की सम्पत्तियों और उनसे होने वाली आय पर *जस्टिस शाश्वत कुमार कमेटी का आंँकलन था कि भारत में 30 राज्यों में 30 वक्फ बोर्डों के पास एक लाख चालीस हजार करोड़ की सम्पत्ति है जिससे 12000 करोड़ रुपये की प्रतिवर्ष आय हो सकती है*

जबकि कुप्रबन्धन के कारण इनकी अधिकतम आय 163 करोड़ ही है। यानि कि *केन्द्रीय वक्फ बोर्ड के अतिरिक्त इन 30 वक्फ बोर्डों के कर्मचारियों की तनख्वाह भी सरकार ही वहन करती है।*

गलत लिख गया मैं,…*सरकार कौन-सा अपनी जेब से देती है ये जजिया तो हम इल्तुतमिश के जमाने से देते चले आ रहे हैं।*

ये परजीवी तब भी हमारे दिये हुए जजिया और खरज पर ऐश करते थे और आज भी कर रहे हैं।

जजिया और खरज के विषय में अंँग्रेज विदेशी यात्री मानुक्की (Mannuci) लिखता है कि “शाहजहाँ और औरङ्गजेब के समय में जजिया और खरज की वसूली इतनी सख्त थी कि, न दे पाने की स्थिति में काश्तकार को उठा कर ले जाते थे और गुलामों के बाजार में बेच देते थे । उस काश्तकार के पीछे पीछे रोती बिलखती उसकी पत्नी भी होते थे जो पति के साथ ही बिक जाते थे या उनके बच्चों को उठा कर ले जाते थे। जजिया से बचने के दो ही रास्ते थे या तो इस्लाम कबूल कर लो या मौत।”

औरङ्गजेब खुद बहुत खुश होकर बताता था कि जजिया न दे पाने के कारण हजारों लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया है। एक धर्मनिरपेक्ष सम्विधान और प्रजातन्त्र के तहत आज भी हम उत्तर से लेकर दक्षिण तक के
इमामों की तनख्वाह के लिए जजिया भी दे रहे हैं

और जैसे मुगलकाल में मन्दिर लूटे जाते वैसे ही सरकारें आज भी मन्दिरों को लूट रही है। ये जजिया हम क्यों दे रहे हैं

इस लिए कि नमाज के बाद काफिरों से कैसे नफरत करनी है ये सिखाने वाले इमामों के पेट भरे रहें। ताकि कश्मीर में हुर्रियत की दुकान चलती रहे।

ताकि बङ्गाल में राज्यपाल के पैर पकड़ कोई अबला रोये किक्या जिन्दा रहने के लिए अब धर्म परिवर्तन ही एकमात्र विकल्प बचा है।

ताकि इनके बच्चों को *4800 करोड़* का *अतिरिक्त वजीफा* दिया जा सके जिससे उनके *एक हाथ में कम्प्यूटर* और *एक हाथ में नफरत फैलाने वाली कुरान* सुलभ हो सके।
ताकि वो जामिया और ए एम यू से नारे लगा सकें

भारत तेरे टुकड़े होंगे, इन्शाअल्लाह इन्शाअल्लाह।

वैसे एक बात और बता दूँ कि औरङ्गजेब कितना भी जालिम था लेकिन इस जजिया का जब दिल्ली में हिन्दुओं ने उग्र विरोध किया था तो उसने जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना छोड़ कर
लाल किले में ही नमाज पढ़ने के लिए मोती मस्जिद बनवानी पड़ गई थी ।

पर अब क्या करें…काफिरों ने तब भी सहा जब तुर्क और मुगल तलवार के दम पर वसूलते थे और आज भी सह रहे हैं जब *धर्मनिर्पेक्ष संविधान* की नज़र में कानूंनी रूप से जज़िया वसूली हो रही है
सब बराबर हैं

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