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पृथ्वी दिवस और वेदों में पृथ्वी का महत्त्व

भूमि को वेद में माता कहा गया है “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: -अथर्व० १२/१/१२”, “उपहूता पृथिवी माता -यजु० २/१०”। वेद कहता है-

यस्यामाप: परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति।
सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।। -अथर्व० १२/१/९

जिस भूमि की सेवा करनेवाली नदियां दिन-रात समान रूप से बिना प्रमाद के बहती रहती हैं वह भूरिधारा भूमिरुप गौ माता हमें अपना जलधार-रूप दूध सदा देती रहें।
भूमि की हिंसा न करें

वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है “पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी: अर्थात् तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर”। भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे। भूमि पोषकतत्त्वविहीन न हो जाये एतदर्थ एक ही भूमि में बार-बार एक ही फसल को न लगाकर विभिन्न फसलों को अदल-बदलकर लगाना, उचित विधि से पुष्टिकर खाद देना आदि उपाय हैं। आजकल कई रासायनिक खाद ऐसे चल पड़े हैं, जो भूमि की उपजाऊ-शक्ति को चूस लेते हैं या भूमि की मिट्टी को दूषित कर देते हैं।

भूमि में या भूतल की मिट्टी में यदि कोई कमी आ जाये तो उस कमी को पूर्ण किये जाने की ओर भी वेद ने ध्यान दिलाया है
“यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापति: प्रथमजा ऋतस्य अर्थात् प्रजापति राजा विभिन्न उपायों द्वारा उस कमी को पूरा करे -अथर्व० १२/१/६१”।

यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है
“सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातु उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम् अर्थात् उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय यदि क्षतिग्रस्त हो गया है तो मातरिश्वा वायु उसमें पुनः शक्ति-संधान कर दे -यजु० ११/३९”।

मातरिश्वा वायु का अर्थ है अंतरिक्षसंचारी पवन, जो जल, तेज आदि अन्य प्राकृतिक तत्त्वों का भी उपलक्षक है। परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति कैसे हो सकेगी?

साभार – https://www.facebook.com/AryaSamajMandirSitamaniKorba/ से

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