Wednesday, June 26, 2024
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लघु पत्रिकाओं का खज़ाना है यहाँ

लघु पत्रिका केन्द्र- जोकहरा लघु पत्रिका (लिटिल मैगजीन) आन्दोलन मुख्य रूप से पश्चिम में प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) के औजार के रूप में शुरू हुआ था. यह प्रतिरोध राज्य सत्ता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या धार्मिक वर्चस्ववाद– किसी के भी विरुद्ध हो सकता था. लिटिल मैगजीन आन्दोलन की विशेषता उससे जुडे लोगों की प्रतिबद्धता तथा सीमित आर्थिक संसाधनों में तलाशी जा सकती थी. अक्सर बिना किसी बडे औद्योगिक घराने की मदद लिये बिना, किसी व्यक्तिगत अथवा छोटे सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप निकलने वाली ये पत्रिकायें अपने समय के महत्वपूर्ण लेखकों को छापतीं रहीं हैं. 

भारत में भी सामाजिक चेतना के बढने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लघु पत्रिकायें प्रारम्भ हुयीं. 1950 से लेकर 1980 तक का दौर हिन्दी की लघु पत्रिकाओं के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण रहा. यह वह दौर था जब नई- नई मिली आजादी से मोह भंग शुरू हुआ था और बहुत बडी संख्या में लोग विश्वास करने लगे थे कि बेहतर समाज बनाने में साहित्य की निर्णायक भूमिका हो सकती है. बेनेट कोलमैन & कम्पनी तथा हिन्दुस्तान टाइम्स लिमिटेड की पत्रिकाओं-धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बनी, दिनमान, और माधुरी जैसी बडी पूंजी से निकलने वाली पत्रिकाओं के मुकाबले कल्पना, लहर, वाम, उत्तरार्ध, आलोचना, कृति, क ख ग, माध्यम, आवेश, आवेग, संबोधन, संप्रेषण, आरम्भ, ध्वज भंग , सिर्फ , हाथ, कथा, नई कहानियां, कहानी, वयं, अणिमा जैसी पत्रिकायें निकलीं जो सीमित संसाधनों , व्यक्तिगत प्रयासों या लेखक संगठनों की देन थीं. 

इन पत्रिकाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोध था और ये शोषण, धार्मिक कठमुल्लापन, लैंगिक असमानता, जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध खडी दिखायीं देतीं थीं. एक समय तो ऐसा भी आया जब मुख्य धारा के बहुत से लेखकों ने पारिश्रमिक का मोह छोडकर बडी पत्रिकाओं के लिये लिखना बन्द कर दिया और वे केवल इन लघु पत्रिकाओं के लिये ही लिखते रहे. एक दौर ऐसा भी आया जब बडे घरानों की पत्रिकाओं में छपना शर्म की बात समझा जाता था और लघु पत्रिकाओं में छपने का मतलब साहित्यिक समाज की स्वीकृति की गारंटी होता था. 

आज राष्ट्रीय एवं ग्लोबल कारणों से न तो लघु पत्रिकाएं निकालने वालों के मन में पुराना जोश बाकी है और न ही उनमें छपना पहले जैसी विशिष्टता का अहसास कराता है फिर भी लघु पत्रिकाओं में छपी सामग्री का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है . हिन्दी साहित्य के बहुत सारे विवाद, आन्दोलन, प्रवृत्तियों को निर्धारित करने वाली सामग्री और महान रचनायें इन लघु पत्रिकाओं के पुराने अंकों में समाई हुयीं हैं. इनमें से बहुत सारी सामग्री कभी पुनर्मुद्रित नहीं हुयीं. साहित्य के गंभीर पाठकों एवं शोधार्थियों के लिये इनका ऐतिहासिक महत्व है.  

श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय ने इस महत्वपूर्ण खजाने को एक साथ उपलब्ध कराने के लिये अपने प्रांगण में वर्ष 2004-2005 में लघु पत्रिका केन्द्र की स्थापना की है. इस केन्द्र में 250 से अधिक लघु पत्रिकाओं के पूरे अथवा कुछ अंक उपलब्ध हैं. कोई भी शोधार्थी यहाँ पर आकर इस संग्रह की पत्रिकाओं का अध्ययन कर सकता है और आवश्यकता पडने पर फोटोकॉपी ले जा सकता है.

पुस्तकालय शोधार्थियों के रुकने की निशुल्क व्यवस्था भी करता है. इस सम्बन्ध में कोई भी सूचना सुधीर शर्मा से टेलीफोन नम्बर- 05466-239615 अथवा 9452332073 से प्राप्त की जा सकती है.

साभार- http://sriramanandsaraswatipustkalaya.blogspot.in/ से 

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ईसाई बनाने के लिए फिल्मी चेहरों और कुप्रचार का सहारा

पिछले कुछ दिनों से ईसाई मिशनरियों की कुदृष्टि राजधानी दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों पर है।  ईसाई मिशनरियों द्वारा इन शहरों में एक बहुत बड़े षड्यंत्र के तहत मतान्तरण का प्रयास किया जा रहा है। पिछले कुछ समय से देश के महानगरों में ईसाई मिशनरियों की हरकतें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जहां ईसाई मिशनरियों ने मुंबई में स्थान-स्थान पर पोस्टर और होर्डिंग लगाए हैं साथ ही महानगर में चलने वाली बसों, रेलवे स्टेशनों, कारों और पार्कों को इसका निशाना बनाया है। मिशनरियों द्वारा उन पोस्टरों में लाइफ टू चेंज और पावर टू चंेज के नाम के नाम से हिन्दुओं को बरगलाया जा रहा है। इन पोस्टरांे पर इसाई मिशनरियों ने फिल्म अभिनेता जॉनी लीवर , फिल्म अभिनेत्री नगमा आदि को दिखाया है। साथ ही उन पोस्टरों में एक पुस्तक का भी जिक्र किया गया है।

उस पुस्तक में कथानक के माध्यम से बताने का प्रयास किया जा रहा कि कैसेसलीब की शरण में जाकर उसका भला हो गया।  ऐसे अनेक लोगों के दिग्भ्रमित करने वाले कथानक प्रस्तुत कर ईसाई मिशनरियां मत परिवर्तन के काम में लगी है। पुस्तक में इस प्रकार की 14 कथाएं हैं। वहीं इस पुस्तक में प्रकाशक का नाम नहीं दिया गया है केवल तायंडेल हाउस पब्लिशर प्रकाशन संस्थान की अनुमति है ऐसा उसमें अंकित है। सूत्रों की माने तो मुबंई में ईसाई मिशनरियों के लोग इस पुस्तक को घर- घर पहुंचाने का कार्य कर रहे हंै। इस कार्य के लिए बड़ी तादाद में युवाओं को लगाया गया है। मिशनरियों का लक्ष्य है कि वह इस वर्ष के अन्त तक 1 करोड़ लोगों तक इस पुस्तक को पहुंचाएंगे, जिसमें उन्होंने 90 प्रतिशत लोगों तक इसको पहुंचा भी दिया है ऐसा उनका दावा है।

वहीं राजधानी दिल्ली में  भी ईसाई प्रचारक लोगों को अनेक प्रकार से प्रलोभवन देने व झूठा साहित्य देने के काम में लगे हुए हैं। दिल्ली के अनेक स्थानों पर बड़ा दिन (25 दिसम्बर) को लेकर ईसाई प्रचारक ईसाइयत से जुड़ा साहित्य बांटने का कार्य खुलेआम कर रहे हैं। राजधानी में अनेक स्थानों पर इस प्रकार का कृत्य देखा जा सकता है। ईसाई मिशनरियों ने 25 दिसम्बर को लेकर राजधानी में एक बड़ी संख्या मे अपने प्रचारक लगा रखे हैं, जो कि दिल्ली के मैट्रो, बस प्रतिक्षालय , पार्कों व बाजारों में घूम-घूम कर ईसाइयत का प्रचार कर रहे हैं।
 

जब राजधानी में ऐसे ही एक ईसाई प्रचारक से इस प्रतिनिधि की मुलाकात हुई तो उसने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि पूरी राजधानी में लगभग 1000 हजार प्रचारकों को लगाया गया है जो कि 25 दिसम्बर के लिए लोगों को प्रार्थना सभा में आने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। साथ ही उनको ये प्रचारक दो पुस्तके दे रहे हैं, जिनके जरिए हिन्दुओं को बरगलाने का प्रयास किया जा रहा है। उसने यह भी बताया कि इस कार्य के लिए ईसाई मिशनरियों ने हम जैसे लोगों को नौ से दस हजार रुपये में इस कार्य के लिए लगा रखा है।  स्थिति स्पष्ट है कि ईसाई मिशनरियों को डर है कि अगर केन्द्र की कांग्रेस सरकार 2014 में सत्ता नहीं बना पाती है तो भविष्य में मतान्तरण के कार्य में बाधा आएगी, इसलिए ईसाई मिशनरियां बड़े पैमाने पर मतान्तरण के कार्य में लगी हुई हैं।

ईसाई मिशनरियों के मतान्तरण का कार्य दिल्ली,मुंबई ही नहीं बल्कि देश के सभी शहरों में फैल रहा है, जो केन्द्र की कांग्रेस सरकार की एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है।  देश को आज वेटिकन सिटी बनाने का कार्य किया जा रहा है।

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धारा 370 पर हर नेता झूठ बोलता है!

जम्मू कश्मीर राज्य के संवैधानिक प्रावधानों  में राज्य के स्थाई निवासी संबंधी परिभाषा का समावेश किया गया और इसके लिए महाराजा हरी सिंह के शासन द्वारा राज्यों  के विषयों को लेकर वर्ष 1927 और 1932 में जारी की गई सूचनाओं के कुछ प्रावधानों को आधार बनाया गया। लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 को लेकर इस प्रकार का शोर मचाना शरू कर दिया कि मानो इस अनुच्छेद के माध्यम से राज्य को कोई विशेष दर्जा दे दिया गया हो। मामला यहां तक बढ़ा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस अनुच्छेद की ढाल में एक प्रकार से तानाशाही स्थापित करने का प्रयास किया और इसकी सबसे पहली शिकार राज्य की महिलाएं हुईं।

राज्य के स्थाई निवासियों में केवल महिला के आधार पर भेदभाव करने वाली कोई व्यवस्था न तो राज्य के संविधान में है और न ही भारत के संविधान में और न ही महाराजा हरि सिंह के शासन काल में राज्यों के विषयों को लेकर जारी किए गए प्रावधानों में। लेकिन दुर्भाग्य से नेशनल  कॉन्फ्रेंस की सोच महिलाआंे को लेकर उसी मध्यकालीन अंधकार  युग में घूम रही थी, जिसमें महिलाओं को हीन समझा जाता था और उनका अस्तित्व पति के अस्तित्व में समाहित किया जाता था।

राजस्व विभाग ने एक कार्यपालिका आदेश जारी कर दिया,जिसके अनुसार राज्य की कोई भी महिला यदि राज्य के किसी बाहर के व्यक्ति के साथ शादी कर लेती है तो उसका स्थाई निवास प्रमाण पत्र रद्द कर दिया जाएगा और वह राज्य में स्थाई निवासियों को मिलने वाले सभी अधिकारों और सहूलियतों से वंचित हो जाएगी। तब वह न तो राज्य में सम्पत्ति खरीद सकेगी और न ही पैतृक सम्पत्ति में अपनी हिस्सेदारी ले सकेगी। न वह राज्य में सरकारी नौकरी कर पाएगी और न ही राज्य के किसी सरकारी व्यावसायिक शिक्षा के महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में शिक्षा हासिल कर सकेगी। उस अभागी लड़की की बात तो छोडि़ए ,उसके बच्चे भी इन सभी सहूलियतों से वंचित कर दिए जाएंगे।

मान लो किसी पिता की एक ही बेटी हो और उसने राज्य के बाहर के किसी लड़के से शादी कर ली हो तो पिता के मरने पर उसकी जायदाद लड़की नहीं ले सकेगी। आखिर राज्य की लड़कियों के साथ यह सौतेला व्यवहार करने का कारण क्या है? जिसकी इजाजत कोई भी  कानून नहीं देता क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास इसका उत्तर है? इनकी  इस हरकत से राज्य का तथाकथित विशेष दर्जा घायल होता है। इससे राज्य की जनसांख्यिकी परिवर्तित हो जायेगी । इन लड़कियों ने राज्य के बाहर के लड़कों के साथ शादी करने का जुर्म  किया है। सरकार उनके इस अपराध को किसी भी ढंग से माफ नहीं कर सकती। ऐसी बेहूदा कल्पनाएं तो वही कर सकता है जो या तो अभी भी 18 वीं शताब्दी में जी रहा हो या फिर खतरनाक किस्म का धूर्त हो । यदि किसी ने प्रदेश की लड़कियों के साथ हो रहे इस अमानवीय व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाई तो नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उनके आगे अनुच्छेद 370 की ढाल कर दी। नेशनल कॉन्फ्रेंस के  लिए तो अनुच्छेद 370 उसके सभी गुनाहों और राज्य में की जा रही लूट खसोट पर परदा डालने का माध्यम बन गया है।

सरकार की इस नीति ने जम्मू -कश्मीर की लड़कियों पर कहर ढा दिया। शादी करने पर एम़बी़बी़एस. कर रही लड़की को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, सरकारी नौकरी कर रही लड़की की तनख्वााह रोक ली गई। उसे नौकरी से निकाल दिया गया। सरकारी नौकरी के लिए लड़की का आवेदन पत्र तो ले लिया गया लेकिन साक्षात्कार के समय उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। योग्यता और परीक्षा के आधार पर विश्वविद्यालय में प्रवेश पा गई लड़की को कक्षा में से निकाल दिया गया। इन सब लड़कियों का केवल एक ही अपराध था कि उन्होंने प्रदेश के बाहर के किसी लड़के से शादी  की  थी या फिर  निकाह करवाने आए मौलवी  के पूछने पर कह दिया था कि निकाह कबूल। लेह आकाशवाणी केन्द्र की निदेशक छैरिंग अंगमो अपने तीन बच्चों समेत दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक हर दरवाजा खटखटा आईं, लेकिन सरकार ने उन्हें प्रदेश की स्थायी निवासी मानने से इनकार कर दिया,क्योंकि उन्होंने उ़.प्र. के एक युवक से शादी करने का जुर्म जो  किया था।

राज्य के न्यायालयों में इन दुखी महिलाओं के आवेदनों का अम्बार लग गया। ये लड़कियां जानती थीं कि न्याय प्रक्रिया जिस प्रकार लम्बी खिंचती जाती है, उसके चलते न्यायालय में गुहार लगाने वाली लड़की एम़बी़बी़एस़ तो नहीं कर पाएगी, क्योंकि जब तक न्याय मिलेगा, तब तक उसके बच्चे एम़बी़बी़एस. करने की उम्र तक पहुंच जाएंगे। लेकिन ये बहादुर लड़कियां इसलिए लड़ रही थीं ताकि राज्य में भविष्य में महिलाओं को नेशनल कॉन्फ्रेंस और उस जैसी मध्ययुगीन मानसिकता रखने वाली शक्तियों की दहशत का शिकार न होना पड़े।
राज्य की इन बहादुर लड़कियों की मेहनत आखिरकार रंग लाई।

जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के पास सभी लम्बित मामले निर्णय के लिए पहुंचे। लम्बे अर्से तक कानून की धाराओं में माथा पच्ची करने और अनुच्छेद 370 को अच्छी तरह जांचने, राज्य के संविधान और महाराजा हरि सिंह द्वारा निश्चित किए गए स्थाई निवासी के प्रावधानों की परख करने के उपरान्त उच्च न्यायालय ने बहुमत से अक्तूबर 2002 में ऐतिहासिक निर्णय दिया। इस निर्णय के अनुसार जम्मू-कश्मीर की लड़कियों द्वारा राज्य से बाहर के किसी युवक के साथ विवाह कर लेने के बाद भी उनका स्थायी निवासी होने का प्रमाण पत्र रद्द नहीं किया जा सकेगा।  न्यायिक इतिहास में यह फैसला सुशीला साहनी मामले के नाम से प्रसिद्घ हुआ । सारे राज्य की महिलाओं में खुशी की लहर दौड़ गई।

विरोधी बेनकाब

जिस वक्त जम्मू -कश्मीर के इतिहास में यह जलजला आया उस वक्त राज्य में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी । अत: निर्णय किया गया कि इस बीमारी का इलाज यदि अभी न किया गया तो  एक दिन यह लाइलाज हो जायेगी। बीमारी का इलाज करने में नेशनल कॉन्फ्रेंस भी उग्र हो गई । उच्च न्यायालय के इस फैसले के निरस्त करने के लिये तुरन्त एक अपील उच्चतम न्यायालय में की गई। जम्मू -कश्मीर की बेटियों को उनकी हिम्मत पर सजा सुनाने के लिये माकपा से लेकर पी. डी. पी तक अपने तमाम भेदभाव भुला कर एकजुट हो गये। प्रदेश के सब राजनैतिक  दल एक बड़ी खाप पंचायत में तब्दील हो गये। बेटियों की आनर किलिंगह्ण शुरू हो गई।

लेकिन मामला अभी उच्चतम न्यायालय में ही लम्बित था कि नेशनल कॉन्फ्रेंस  की सरकार  गिर गई। कुछ दिन बाद ही सोनिया कांग्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने मिल कर सांझा सरकार बनाई। यह नई सरकार नेशनल कान्फ्रेंस से भी आगे निकली। इस ने सोचा उच्चतम न्यायालय का क्या भरोसा राज्य की लड़कियों के बारे में क्या फैसला सुना दे। नेशनल कॉन्फ्रेंस प्रदेश उच्च न्यायालय में इसका सबूत मिल ही चुका था। इसलिये लड़कियों को सबक सिखाने का यह ऑप्रेशन सरकार को स्वयं ही अत्यन्त सावधानी से करना चाहिये था। इसलिये सरकार ने उच्चतम न्यायालय से अपनी अपील वापस ले ली और विधानसभा में उच्च न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को निरस्त करने वाला बिल विधानसभा में पेश किया और यह विधेयक बिना किसी विरोध और बहस के छह मिनट में पारित कर दिया गया।  विधि मंत्री मुज्जफर बेग ने कहा महिला की पति के अलावा क्या औकात है? विधानसभा में एक नया इतिहास रचा गया ।

उच्च न्यायालय में दो दशक से भी ज्यादा समय में लड़ कर प्राप्त किये गये जम्मू -कश्मीर की बेटियों के अधिकार केवल छह मिनट में पुन: छीन लिये गये। उसके बाद विधेयक विधान परिषद में पेश किया गया । लेकिन अब तक देश भर में हंगामा  हो गया था। सोनिया कांग्रेस के लिये कहीं भी मुंह दिखाना मुश्किल हो गया। विधान परिषद में इतना हंगामा हुआ कि कुछ भी सुनाई देना मुश्किल हो गया। नेशनल कॉन्फ्रेंस और पी. डी. पी. चाहे बाहर एक दूसरे के विरोधी थे लेकिन अब विधान परिषद के अन्दर नारी अधिकारों को छीनने के लिये एकजुट हो गये थे। सभापति के लिये सदन चलाना मुश्किल हो गया। उसने सत्र का अवसान कर दिया ।

इस प्रकार यह विधेयक अपनी मौत को प्राप्त हो गया।  लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस  का गुस्सा सातवें आसमान पर था। खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे। राज्य की पहचान को खतरा घोषित कर दिया गया।  उधर प्रदेश में ही श्रीनगर,जम्मू और लेह तक में महिला संगठनों ने प्रदेश के राजनैतिक दलों की मध्ययुगीन अरबी कबीलों जैसी सोच को धिक्कारा। कश्मीर विश्वविद्यालय में छात्राओं में आक्रोश स्पष्ट देखा जा सकता था । यह प्रश्न हिन्दू, सिख या मुसलमान होने का नहीं था। यह राज्य में नारी अस्मिता का प्रश्न था। लेकिन इससे नेशनल कॉन्फ्रेंस, पी. डी. पी. की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। यहां तक कि माकपा भी महिलओं को इस अपराध के लिये सबक सिखाने के लिये इन दोनों दलों के साथ मिल गई। लेकिन इस बार इन तीनों दलों के सांझा मोर्चा के बावजूद विधेयक पास नहीं हो पाया । प्रदेश की  महिलाओं ने राहत की सांस ली। महिलाओं  को उनके कानूनी और      प्राकृ तिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिश कितनी शिद्दत से की जा रही थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस को बीच मैदान में शक हो गया कि उनके सदस्य और विधान परिषद के सभापति अब्दुल रशीद डार इस मामले में नारी अधिकारों के पक्ष में हो रहे हैं। पार्टी ने तुरन्त उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।   इतना कुछ हो जाने के बावजूद राजस्व विभाग के अधिकारियों ने लड़कियों को स्थाई निवासी का प्रमाणपत्र जारी करते समय उसमें यह लिखना जारी रखा कि यह केवल उसकी शादी हो जाने से पूर्व तक मान्य होगा ।

इसके  खिलाफ सितम्बर  में भारतीय जनता पार्टी के प्रो. हरि ओम ने जम्मू -कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी । उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रमाण पत्र पर ये शब्द न लिखे जायें । सरकार ने ये शब्द हटा नये शब्द तैयार कर लिये । स्थाई प्रमाणपत्र लड़की की शादी हो जाने के बाद पुन: जारी किया जायेगा, जिस पर यह सूचित किया जायेगा कि लड़की ने विवाह प्रदेश के स्थाई निवासी से ही किया है या किसी गैर से प्रो.हरि ओम इसे न्यायालय की अवमानना बताते हुये फिर न्यायालय की शरण में गये । सरकार ने अपना यह बीमार मानसिकता वाला आदेश 2 अगस्त 2013 को वापिस लिया तब जाकर मामला निपटा ।

 सुशीला साहनी मामले में उच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद इतना भर हुआ कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि जो लड़की प्रदेश से बाहर के किसी लड़के से शादी करती है, वह भी पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारी हो सकती है। लेकिन वह इस सम्पत्ति का हस्तान्तरण केवल प्रदेश के स्थायी निवासी के पास ही कर सकती है। यह हस्तान्तरण वह अपनी सन्तान में भी नहीं कर सकती।  अब उस सम्पत्ति का क्या लाभ जिसका उपभोग उसका धारक अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता? इस हाथ से दिया और उस हाथ से वापस लिया। इधर प्रदेश का नारी समाज इस अन्तर्विरोध को हटाने के लिये आगामी लड़ाई की योजना बना रहा था, उधर प्रदेश की अन्धकारयुगीन ताकतें इन्हें सबक सिखाने को अपने तिकड़मों में लगी थीं। साम्प्रदायिक, महिला विरोधी और उग्रवादी सब मिल कर मोर्चा तैयार कर रहे थे।

इन साजिशों की पोल तब खुली जब अचानक 2010 में एक दिन पी. डी. पी के प्रदेश विधान परिषद में नेता मुर्तजा खान ने प्रदेश की विधान परिषद में स्थाई निवासी डिस्क्वालिफिकेशन विधेयक प्रस्तुत किया। विधेयक में प्रदेश की उन्हीं लड़कियों के अधिकार छीन लेने की बात नहीं कही गई थी जो किसी अन्य राज्य के लड़के से शादी कर लेतीं हैं बल्कि दूसरे राज्य की उन लड़कियों के अधिकारों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया गया था जो प्रदेश के किसी स्थाई निवासी से शादी करती हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब विधान परिषद के सभापति ने इस बिल को विचार हेतु स्वीकार कर लिया, जबकि उन्हें इसे स्वीकार करने का अधिकार ही नहीं था,क्योंकि ऐसे विधेयक पहले विधान सभा के पास ही जाते हैं ।

इससे ज्यादा आश्चर्य यह कि सोनिया कांग्रेस ने भी इसका विरोध नहीं किया। इन पोंगापंथियों के लिहाज से आज जम्मू -कश्मीर में अनुच्छेद 370 के लिये सबसे बड़ा खतरा वहां की महिला शक्ति ही है। यह अलग बात है कि मुर्तजा खान का यह बिल विधान परिषद में अपनी ही मौत अपने आप मर गया। चोर दरवाजे से यह सेंध , प्रदेश की जागृत नारी शक्ति के कारण असफल हो गई। परन्तु एक बात साफ हो गई कि राज्य में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पी. डी. पी दोनों ही अनुच्छेद 370 को अरबी भाषा में लिखी ऐसी इबारत समझते हैं जिसको केवल वही पढ़ सकते हैं,वही समझ सकते हैं और उन्हें ही इसकी व्याख्या का अधिकार है। ये मानवता विरोधी शक्तियां अनुच्छेद 370 से उसी प्रकार प्रदेश के लोगों को आतंकित कर रही हैं जिस प्रकार कोई नजूमी अपने विरोधियों को जिन्नों से डराने की कोशिश करता है।

साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

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ट्रैफिक जाम की समस्या से पैदा हुआ एक समाधान

काफी समय अमेरिका में बिताने के बाद जब ब्रजराज वाघानी और रवि खेमानी २००८ में भारत लौटे, तो जो बात उन्हें सबसे ज्यादा चुभी, वह थी मुंबई में सड़कों व ट्रैफिक की खस्ता हालत। साथ ही यह भी कि न तो वाहन चालकों और न ही ट्रैफिक पुलिस के जवानों को इस बात की जानकारी होती थी कि आगे रास्ता कैसा होगा। कोई तीन साल तक इन्हीं खस्ता हाल सड़कों और बेतरतीब ट्रैफिक को संघर्ष करते, बड़बड़ाते हुए झेलने के बाद २०११ में उन्होंने तय किया कि वे इस विषय में कुछ करेंगे। इस प्रकार तैयार हुआ "ट्रैफलाइन" http://www.traffline.com/ नामक ऐप।

ब्रिजराज बताते हैं,"रवि और मैं अपने इंजीनियरिंग कोर्स के सिलसिले में क्रमशः ९ और ६ साल तक अमेरिका में थे।" इन दोनों ने जब मुंबई छोड़ी थी, तब आज की तरह लगभग हर घर में बड़ी-बड़ी कारें नहीं थीं और सड़कों पर भी गड्‌ढे कम और डामर ज्यादानज़र आता था। उस समय एफएम रेडियो पर हर घंटे ट्रैफिक अपडेट नहीं दिए जाते थे और आगे डायवर्जन होने के बारे में जानकारी देने वाले इलेक्ट्रॉनिक साइन भी शुरू नहीं हुए थे। वापस आने पर दोनों दोस्तों को अचंभा हुआ कि किसी मार्ग पर ट्रैफिक की स्थिति के बारे में यहां जानकारी का पूर्णतः अभाव है।

बिकौल ब्रजराज,"अमेरिका में हमें ट्रैफिक की पल-पल सूचना की आदत पड़ गई थी। यहां आकर मैंने पाया कि मुंबई में ड्राइव करना एक विराट चुनौती है। वैसे भी, बचपन में मैं दक्षिण मुंबई में रहता था, जहां ट्रैफिक की स्थिति बहुत बुरी नहीं थी। वापसी पर अंधेरी (मुंबई का एक पश्चिमी उपनगर) शिफ्ट होने पर मैंने उपनगरों में रहने वाले लगभग एक करोड़ नागरिकों के दर्द को जाना। कभी मुझे मुंबई में ड्राइव करना पसंद था लेकिन अब इससे सख्त नफरत है।"

आखिर ट्रैफलाइन ऐप करता क्या है? सरल शब्दों में कहें, तो यह आपको बताता है कि आपके इलाके में ट्रैफिक की क्या स्थिति है, किन्हीं दो स्थानों के बीच सफर में अंदाजन कितना समय लग सकता है और साथ ही दुर्घटना, अवरोध आदि के बारे में भी लाइव जानकारी देता है। इस ऐप का पहला संस्करण अक्टूबर २०११ में जारी किया गया था। तब इसमें बहुत मूलभूत फीचर ही थे। इससे पहले दोनों मित्रों ने करीब एक वर्ष तक शोध की और मुंबई पुलिस से लेकर निजी कंपनियों तथा राज्य सरकार के अधिकारियों को अपने विचार के बारे में बताया। आज स्थिति यह है कि मात्र दो वर्ष में इस ऐप को एक लाख यूजर्स ने डाउनलोड किया है। यहां तक कि इस वर्ष गणपति विसर्जन के मौके पर ट्रैफिक को सुचारू रखने के लिए मुंबई पुलिस ने भी ट्रैफलाइन की टीम से सहायता मांगी थी। मैट्रिक्स पार्टनर्स इंडिया का ध्यान भी इस पर गया है और उसने ट्रैफलाइन में निवेश कर इसे भारत भर में ले जाने का इरादा ज़ताया है।़तिो यह ऐप काम करता कैसे है?
 

ब्रजराज बताते हैं,"जैसे ही कहीं कोई दुर्घटना होती है या ट्रैफिक जाम की स्थिति बनती है, मुझे फोन पर तथा मोबाइल ऐप्स द्वारा हमारे कंट्रोल रूम्स से जानकारी मिल जाती है। आम लोग भी हमें सूचना देते हैं। इस जानकारी को हम प्रोसेस करते हैं और हमें घटनास्थल की पूरी जानकारी अक्षांश और देशांतर सहित मिल जाती है।" इस जानकारी की पुष्टि एक मिनट से भी कम समय में हो जाती है। फिर यह जानकारी टि्‌वटर, ट्रैफलाइन की वेबसाइट और मोबाइल वेबसाइट पर डाल दी जाती है। इस जानकारी को नक्शों अथवा शब्दों की शक्ल में दिया जाता है। ट्रैफिक की स्थिति की गंभीरता के हिसाब से कलर कोड भी रखे गए हैं। जैसे, भारी अवरोध के लिए लाल, धीमे ट्रैफिक को दर्शाने के लिए गुलाबी आदि। जानकारी जुटाने के लिए टीम के स्रोत हैं जीपीएस वाले वाहन और मदद करने को आतुर आम नागरिक, जिनकी मुंबई में कोई कमी नहीं है। भविष्य में ब्रजराज और रवि अपने ऐप को देश के अन्य शहरों में भी ले जाना चाहते हैं। आखिर ट्रैफिक जाम की समस्या तो हर शहर में है। संभव है कि २०१४ में १० और शहरों में यह उपलब्ध हो जाए।

साभार-दैनिक नईदुनिया से

 

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हर दीवाल को लाँघ गए केजरीवाल

 जनलोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे के साथ संघर्ष के समय ही अरविंद केजरीवाल को राजनीतिक जगत से चुनौती मिलती रही है। पहले इनके सिविल सोसायटी आंदोलन को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया। कपिल सिब्बल जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और मंत्रियों ने इनको राजनीति में आने की चुनौती तक दी। उसके बाद जब केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी (आप) के गठन का फैसला किया तो कांग्रेस और भाजपा ने उनको कमतर आंकते हुए मखौल उड़ाया। इन सबके बीच महज डेढ़ साल के सियासी सफर में ही केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता तक पहुंचकर विरोधियों की बोलती बंद कर उनके मंसूबों को ध्वस्त कर दिया।

केजरीवाल के खिलाफ बयानबाजी:

मैं आपको आगाह करती हूं कि ये पार्टियां मानसूनी कीड़ों की तरह होती हैं। वे आती हैं, पैसे बनाती हैं और गायब हो जाती हैं। वे इसलिए नहीं टिक पाती हैं, क्योंकि उनके पास दृष्टि नहीं होती है।

-शीला दीक्षित

(22 सितंबर 2012)

जनता आप को वोट देकर अपना वोट खराब नहीं करना चाहती है।

-सुषमा स्वराज

(2 सितंबर 2013)

संविधान ने व्यवस्था दी है, जिसके तहत लोग चुनकर आते हैं..अगर कुछ व्यक्ति जिनको अपनी क्षमता पर भरोसा नहीं है और वे देश का कर्णधार बनने की कोशिश करते हैं, तो इससे बड़ी त्रासदी कोई और नहीं हो सकती है।

-मनीष तिवारी

(13 जून 2011)

आप कांग्रेस की बी टीम है..इसने हालिया स्टिंग ऑपरेशन के बाद अपनी विश्वसनीयता खो दी है।

-नितिन गडकरी

(9 सितंबर 2013)

केजरीवाल पहले एमपी, एमएलए या कम से कम म्यूनिसिपल कॉर्पोरेटर बनकर दिखाएं।

-दिग्विजय सिंह

(25 नवंबर 2012)

आप के प्रदर्शन के बाद

बेवकूफ हैं न (जब पूछा गया कि कांग्रेस दिल्ली में जनता का मूड नहीं भांप पाई) हम हार स्वीकार करते हैं और इसका विश्लेषण करेंगे कि क्या गलत हुआ।

-शीला दीक्षित

(8 दिसंबर 2013)

मैं आपको उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिए बंधाई देता हूं। -हर्षवर्धन

आप ने जिस तरह से चुनाव में प्रदर्शन किया उसकी उम्मीद नहीं थी। – नितिन गडकरी

आप ने .. शासन का हिस्सा बनने और व्यवस्था में बदलाव के लिए आम आदमी के लिए मंच तैयार किया।

-प्रिया दत्त

आप ने जिस तरह से लोगों को जोड़ा वैसा परंपरागत पार्टियां नहीं कर पाई।

-राहुल गांधी

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स्पेल चेक सॉफ्टवेयर का लोकार्पण समारोह

कम्प्यूटर पर हिन्दी लिखते समय वर्तनी की अशुद्धियों को दूर करेगा स्पेल चेक सॉफ्टवेयर

 

भोपाल/24 दिसम्बर 2013/माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आज (25 दिसम्बर 2013 को) हिन्दी के प्रथम ओपन सोर्स स्पेल चेक सॉफ्टवेयर का लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा रहा है। समारोह विश्वविद्यालय परिसर के सभागृह में प्रातः 11.00 बजे प्रारम्भ होगा। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादक श्री राहुल देव होंगे। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के पूर्व सचिव श्री उदय वर्मा होंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला करेंगे।

पत्रकारिता विश्वविद्यालय की एक महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत कम्प्यूटर में काम करते समय हिन्दी के शब्दों को लिखते समय होने वाली वर्तनी त्रुटियों को दूर करने के लिए स्पेल चेक सॉफ्टवेयर बनाने की योजना पर कार्य शुरू किया गया था। आज प्रखर वक्ता यशस्वी पत्रकार एवं शिक्षाविद् पं. मदन मोहन मालवीय की जयंती एवं हिन्दीसेवी कवि, पत्रकार, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी के जन्मदिवस के अवसर पर इस स्पेल चेक सॉफ्टवेयर लोकार्पण किया जा रहा है।

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने बताया कि कम्प्यूटर में हिन्दी लिखते समय वर्तनी की अशुद्धियाँ अक्सर हुआ करती हैं। इस स्पेल चेक सॉफ्टवेयर के माध्यम से कम्प्यूटर में हिन्दी लिखते समय वर्तनी की अशुद्धियों से बचा जा सकता है। अभी हिन्दी में जो वर्तनी परीक्षक सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, उनमें कुछ न कुछ कमियाँ हैं। इस स्पेल चेक सॉफ्टवेयर में उन कमियों को दूर करते हुए इसे मुक्तस्रोत सॉफ्टवेयर लायसेंस के तहत जारी किया गया है, अर्थात् इसका न केवल निःशुल्क उपयोग किया जा सकता है बल्कि इसमें आवश्यक सुधार, परिवर्तन आदि करते हुए इसके अन्य संस्करण भी तैयार किये जा सकते हैं। हिन्दी के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों तथा मीडिया जगत के लिए यह एक उपयोगी सॉफ्टवेयर होगा। इसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in से निःशुल्क डाउनलोड किया जा सकता है।

इस कार्यक्रम में नगर के गणमान्य नागरिक, शिक्षाकर्मी, मीडियाकर्मी, प्रबुद्धजन, हिन्दीसेवी तथा विश्वविद्यालय के शिक्षक, अधिकारी एवं कर्मचारी उपस्थित रहेंगे।

 

(डॉ. पवित्र श्रीवास्तव)
निदेशक, जनसंपर्क प्रकोष्ठ

 

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कैंसर जागरूकता हेतु कन्सर्ट फॉर होप

सोनम कालरा और सूफी गोस्पल प्रोजेक्ट का शानदार कार्यक्रम

नई दिल्ली; हाल ही में इण्डियन कैंसर सोसायटी द्वारा कैंसर की जागरूकता हेतु स्टेन ऑडिटोरियम, इण्डिया हैबीटेट सेंटर में एक संगीतमय संध्या ‘कन्सर्ट फॉर होप’ का आयोजन किया, जहां जानी-मानी कलाकार सोनम कालरा और उनके द सूफी गोस्पल प्रोजेक्ट ने लगभग दो घंटे के कार्यक्रम से उपस्थित मेहमानों एवम् अन्य श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध किया।
 
कार्यक्रम की शुरूआत पारम्परिक दीप प्रज्जवलन के साथ हुई जिसके बाद श्रीमति गुरूशरण कौर ने इंडियन कैंसर सोसायटी के वालनटीयर्स को सम्मानित किया। मौके पर प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की पत्नी श्रीमति गुरूशरण कौर बतौर मुख्यातिथि उपस्थित थीं। उनके अतिरिक्त रक्षा मंत्री की पत्नी श्रीमति एलिजाबेथ एंथोनी, प्रख्यात कलाकार श्रीमति शन्नो खुराना, कैंसर सोसायटी की सचिव श्रीमति ज्योत्सना गोविल व अन्य उपस्थित रहे।

सोनम कालरा ने अपनी साथी कलाकारों; एलेक्स फर्नांडिस (पियानो), राजेश व रितेश प्रसन्ना (बांसुरी), तरित पाल (परकशन), परवेज हुसैन (तबला), अमर संगम (गिटार) एवम् गायक अक्षय द्योधर जो कि विशेष रूप से इस कन्सर्ट के लिए मुम्बई से आये थे, ने एक के बाद एक जबरदस्त गीत प्रस्तुत करते हुए संगीतमय समां बांधा।

सोनम ने ‘इक ओंकार..’ से शुरूआत की। इसके बाद उन्होंने पारसी कविता को बतौर गीत के रूप में तैयार‘मन मनम..’, प्रस्तुत किया। बाबा बुल्ले शाह के कलाम ‘चल बुलेया..’ को श्रोताओं ने बेहद पसन्द किया। इसके बाद विशेष रूप से सोनल व अक्षय ने कन्सर्ट फॉर होप के लिए तैयार कम्पोजिशन ‘हैंडफुल ऑफ गोल्ड, हार्ट फुल ऑफ होप..’ व ‘वी ऑल नीड ए लिटिल लाइट..’ भी प्रस्तुत की।

अपने माता-पिता को समर्पित गीत ‘चल हुन सखी वहीं देस..’ और रे चाल्र्स से प्रेरित गीत ‘हलेलुजाह, आई जस्ट लव हिम सो..’ सोनम की अगली प्रस्तुति थे। श्रोताओं की डिमांड पर उन्होंने एक क्रिसमस गीत ‘हैव योरसेल्फ अ मेरी लिटिल क्रिसमस..’ भी प्रस्तुत किया।

कन्सर्ट का समापन एक ऐसी प्रस्तुति से हुआ, जो कि सर्वश्रष्ठ और शानदार थी, बाबा बुल्लेशाह का कलाम जिसे आयरिश टच दिया गया था ‘अल्फत इन बिन नुक्ता यार पढ़ाया..‘ इस प्रस्तुतिकरण में सुर-लय-ताल तो जबरदस्त थी ही, साथ ही कलाकारों के आपसी ताल-मेल और जुगलबन्दी ने श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया, जिसके उपरान्त खचाखच भरे आॅडिटोरियम में हरेक श्रोता ने खड़े होकर तालियों के साथ कलाकारों का अभिवादन किया।

कार्यक्रम के उपरान्त सोनम ने बताया कि ‘मेरी मां को भी कैंसर था, जिसे उन्होंने एक कैंसर समुराई की तरह लड़ा। यह कन्सर्ट मैंने उनके और उन सभी लोगों के लिये किया है जो इस घातक बीमारी के शिकार हैं।’

कन्सर्ट का प्रमुख उद्देश्य कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाना था और कन्सर्ट के दौरान लोगों द्वारा दी गयी डोनेशन जागरूकता और कैंसर स्क्रीनिंग हेतु इस्तेमाल की जायेगी।

मौके पर श्रीमति ज्योत्सना गोविल ने सोनम कालरा की भूरि-भूरि प्रसंशा करते हुए कहा कि हमारा उद्देश्य कैंसर रोगों में कमी लाना है और सोनम जैसे कलाकार हमारे उद्देश्य की पूर्ति हेतु विशिष्ट योगदान देते हैं। हमें लगता है कि ऐसे संगीतमय कार्यक्रम न केवल मनोरंजन कराते हैं बल्कि एक आशा भी जगाते हैं कि कैंसर का ईलाज सम्भव है अगर इसका जल्दी पता लगा लिया जाये।

अधिक जानकारी हेतु सम्पर्क सूत्रः
पंकज सुखीजा-9810123446, शैलेश नेवटिया-9716549754

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वरिष्ठ पत्रकार प्राण चोपड़ा नहीं रहे

अनुभवी पत्रकार और द स्टेट्समैन के पहले भारतीय संपादक प्राण चोपड़ा का रविवार को निधन हो गया। वह पिछले कुछ समय से बीमार थे। ऑल इंडिया रेडियो के लिए द्वितीय विश्व युद्ध और भारत-पाकिस्तान की जंग कवर करने वाले चोपड़ा 92 वर्ष के थे। उनके निधन पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने शोक जाहिर किया है। वह अपने पीछे पत्नी और दो बेटियां छोड़ गए हैं।  

उनका जन्म जनवरी 1921 में लाहौर में हुआ था। उन्होंने पत्रकारिता में अपने करियर की शुरुआत 1941 में सिविल एंड मिलिट्री गजट से की। उन्हें 60’ के दशक में स्टेट्समैन के दिल्ली एडिशन का संपादक बनाया गया और उसके बाद वह अखबार के एडिटर-इन-चीफ बने।   60’ के दशक के आखिर में वह ‘द सिटिजन’ और ‘वीकेंड रिव्यू’ जैसी मैगजीन्स के एडिटर बने। चोपड़ा ने पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की किताब ‘इफ आइ एम असैसिनेटेड’ की प्रस्तावना भी लिखी। 

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प्रसार भारती शिक्षा के 50 नए चैनल शुरु करेगी

प्रसार भारती और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संयुक्त प्रयास से  छात्रों के लिए 50  एजुकेशन चैनल शुरू किए जा रहें हैं। इन्हें अगले वर्ष एक मई से शुरू किए जाने की योजना है, जिसके तहत सेटेलाइट के जरिये शिक्षा संबंधी कंटेंट का प्रसारण किया जायेगा।  

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से उच्च शिक्षा सचिव अशोक ठाकुर और प्रसार भारती की ओर से मुख्य कार्यकारी अधिकारी जवाहर सरकार ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं। पहले चरण में 50 डीटीएच चैनल शुरू किये जायेंगे।

आईआईटी, इग्नू, राज्य मुक्त विश्वविद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय, एनआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थान शिक्षण संबंधी कंटेंट तैयार करेंगे और जिसका प्रसारण इन चैनलों पर किया जायेंगा। प्रत्ये क चैनल 9 घंटे का लाइव कार्यक्रम प्रसारित करेगा,जिसे अगले 15 घंटे दोहराया जाएगा। इसके लिए वर्ष में 1,64,250 घंटे की शैक्षणिक कंटेंट की जरूरत होगी और यह कंटेंट 16 करोड़ भारतीय परिवारों तक पहुंच सकेगी।   इन 50 डीटीएच चैनलों के लिये अगले डेढ साल के लिये250 से 300 करोड रूपये का बजट निर्धरित किया गया है। बाद में 46 अरब रूपये के खर्च से सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के जरिये शिक्षा पर राष्ट्रीय मिशन एनएमईआईसीटी के तहत 1000 डीटीएच चैनल शुरू किये जाने की योजना है।

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सांप्रदायिक हिंसा विरोधी कानून का औचित्य क्या है?

सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक संसद में लाने तथा इसे संसद में पास कराकर कानून की शक्ल दिए जाने की कवायद हालांकि सन् 2005 से चल रही है। परंतु मु य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस बिल का विरोध किए जाने के चलते इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। पिछले दिनों मुज़्ज़फरनगर व आसपास के क्षेत्रों में फैली सांप्रदायिक हिंसा व दंगों के बाद एक बार फिर न केवल इस विधेयक को संसद में मंजूरी हेतु लाए जाने का दबाव सरकार पर बढऩे लगा तथा संयुक्त प्रगतिशील सरकार इस विषय पर गंभीर नज़र आने लगी।

परिणामस्वरूप पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस विधेयक को संसद में पेश किए जाने की मंज़ूरी दे दी गई। हालांकि भारतीय जनता पार्टी द्वारा इस बिल के कई बिंदुओं पर आपत्ति उठाए जाने के बाद इसके कई प्रावधानों में फेरबदल व संशोधन भी किए जा चुके हैं। विपक्ष को आपत्तिजनक नज़र आने वाले कई प्रावधान इस विधेयक से हटा भी दिए गए हैं। इसके बावजूद भाजपा का कहना है कि इस विधेयक के कानून की शक्ल अि तयार करने के बाद देश में सांप्रदायिकता नियंत्रित होने के बजाए और बढ़ेगी तथा इससे समाज में ध्रुवीकरण हो सकता है। जबकि कांग्रेस पार्टी देश में अब तक हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच-पड़ताल तथा उससे संबंधित रिपोर्ट के अध्ययन के बाद इस विधेयक को संसद में पारित कराया जाना ज़रूरी समझती है। सवाल यह है कि क्या देश के सभी राजनैतिक दलों को सांप्रदायिकता पर नियंत्रण करने तथा इसे रोकने व इसके लिए ज़िम्मेदारलोगों को सज़ा दिलाए जाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिए? क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में कलंक रूपी सांप्रदायिकता को समाप्त किया जाना ज़रूरी नहीं है?               

सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक में जहां अन्य और कई प्रकार के बिंदु तथा प्रावधान हैं वहीं इसमें केंद्र व राज्य स्तर पर सांप्रदायिक सौहाद्र्र,न्याय तथा मुआवज़ा प्राधिकरण बनाने का भी प्रस्ताव है। इस प्राधिकरण अथवा अथॉरिटी को सिविल कोड के अधिकार प्राप्त होंगे। इस प्राधिकरण(अथॉरिटी) के पास दंगों की, दंगा प्रभावित क्षेत्रों व दंगा पीडि़तों अथवा दंगा स्थल की जांच के लिए अपनी टीम होगी। सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए केंद्र अथवा राज्य सरकार किसी भी एजेंसी की मदद ले सकेंगे। यह अथॉरिटी अथवा प्राधिकरण सांप्रदायिक हिंसा की जांच हेतु उच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश की अगुवाई में जांच कराए जाने का आदेश भी दे सकती है। प्रस्तावित विधेयक में हिंसा से प्रभावित व पीडि़त लोगों को जल्द से जल्द मुआवज़ा दिए जाने की भी व्यवस्था है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विपक्ष की आपत्ति के बाद जिन प्रावधानों में परिवर्तन किया है उन बदले हुए प्रावधानों के मुताबिक केंद्र अब राज्य के कानून व्यवस्था संबंधी मामलों में सीधे तौर पर दखल नहीं दे पाएगा। अब संशोधित विधेयक के अनुसार केंद्र सरकार राज्य के कहने के बाद ही अर्धसैनिक बलों को भेज सकेगा। और इन सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान जिसका उल्लेख इस विधेयक में किया गया है वह यह है कि  सांप्रदायिक दंगों व हिंसा के लिए ब्यूरोक्रेसी की जि़ मेदारी को और अधिक सुनिश्चित किया जाना। अर्थात् यदि कोई उच्चाधिकारी अपनी जि़ मेदारियों का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर पाता तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जाएगी।               

हमारे देश में सांप्रदायिक व लक्षित दंगों व ऐसी हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। देश में पहली संाप्रदायिक हिंसा 1892 में हुई थी। उस समय से लेकर अब तक कश्मीर से कन्याकुमारी तक होने वाली सांप्रदायिक हिंसा में यही देखा जा रहा है कि प्राय: अल्पसं यक समाज के लोगों को बहुसं य समाज के लोगों की हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह भी देखा जाता है कि ऐसे दंगों में कई आलाधिकारी अपनी पक्षपात पूर्ण तथा पूर्वाग्रही भूमिका अदा करते हैं। और इन सबसे अफसोसनाक बात यह है कि इन दंगों में विभिन्न दलों से संबंध रखने वाले राजनेता तथा सत्तारूढ़ सरकारें अपने राजनैतिक नफे-नुकसान को मद्देनज़र रखते हुए प्रशासन को व आलाधिकारियों को निर्देश जारी करते हैं तथा अपनी सोच व नीति के अनुसार अधिकारियों को दंगों व दंगाईयों से निपटने का निर्देश देते हैं।

परिणामस्वरूप कश्मीर में जब अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए जाते हैं तो वहां का राज्य प्रशासन व प्रशासनिक अधिकारी तथा पुलिस बहुसंख्यकों के तुष्टिकरण तथा उनके भयवश दंगाईयों व हिंसा फैलाने वालों के विरुद्ध स त कार्रवाई नहीं कर पाते। और इसी का परिणाम है कि आज लाखों कश्मीरी पंडित अपनी जन्मस्थली को छोड़कर अन्य स्थानों पर अभी तक शरणार्थी बनने को मजबूर हैं और अभी तक उनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा है। ऐसी ही स्थिति 1984 में भी उस समय पैदा हुई थी जबकि देश के राज्यों में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे। इन दंगों में भी राजनेताओं व प्रशासन की मिलीभगत का खमियाज़ा अल्पसं यक सिख समुदाय का भुगतना पड़ा था। और ऐसी ही स्थिति मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ अक्सर बनती रहती है। गुजरात के 2002 के दंगे हों या 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में हुई सांप्रदायिक हिंसा अथवा मुरादाबाद,मेरठ,इलाहाबाद तथा भागलपुर जैसी जगहों पर होने वाले दंगे या फिर उड़ीसा के कंधमाल में इसाई समुदाय के विरुद्ध भड़की हिंसा अथवा आसाम में अल्पसं यंकों को निशाना बनाया जाना,इन सभी जगहों पर बहुसं य लोगों के तांडव तथा इसमें प्रशासन की मिलीभगत अथवा चुप्पी को साफतौर पर देखा जा सकता है।               

ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि देश के संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के मद्देनज़र हम अपने देश में रहने वाले अल्पसं यक समुदाय के लोगों को संरक्षण देने तथा उनके जान व माल की हिफाज़त सुनिश्चित करने के उपाय करें? एक और ज़रूरी सवाल यहां यह भी है कि जब कभी देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा तथा उनके अधिकारों या संरक्षण की बात की जाती है तो केवल भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी संगठनों को ही सबसे अधिक कष्ट क्यों होता है? भारतीय जनता पार्टी की इस विधेयक को लेकर तथाकथित चिंताएं क्या इस ओर इशारा नहीं करतीं कि भाजपा देश में रह रहे अल्पसं यकों को सुरक्षा व संरक्षण प्रदान करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती? और ऐसी ही स्थिति पक्षपातपूर्ण तथा पूर्वाग्रही स्थिति कही जाती है।
 
क्या यह भाजपा के सांप्रदायिक चरित्र का प्रमाण नहीं है? क्या कारण है कि अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में जिस भाजपा के साथ 24 राजनैतिक दल वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल थे आज दो दलों के सिवा कोई भी उनके साथ नहीं है? आिखर क्यों? भाजपा के नेता प्रतिदिन कई-कई बार इस बात को दोहराते रहते हैं कि देश में सबसे अधिक दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए इसलिए कांग्रेस पार्टी को सांप्रदायिक तथा अल्पसं यक विरोधी पार्टी समझा जाना चाहिए। परंतु भाजपाई यह आंकड़ा कभी पेश नहीं करते कि देश में कहीं भी होने वाले सांप्रदायिक दंगों में अथवा सांप्रदायिक हिंसा में सबसे अधिक गिर तारियां किस पार्टी व किस संगठन के लोगों की होती हैं? माया कोडनानी जैसी दंगाई महिला जोकि आज जेल में आजीवन कारावास की सज़ा भुगत रही है उसे 2002 के गुजरात दंगों में शामिल होने तथा सामूहिक हत्याकांड करवाने हेतु पुरस्कार स्वरूप मंत्री पद कौन सी पार्टी की सरकार देती है? यहां तक कि अभी पिछले दिनों मुज़्ज़फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने में आरोपित भाजपा के दो विधायकों को आगरा में किस पार्टी ने स मानित किया? कितना हास्यासपद विषय है कि देश की धर्मनिरपेक्षता तथा भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले लोग तथा दल आज सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक को लेकर यह आपत्ति दर्ज करते सुनाई दे रहे हैं कि इस कानून से देश का संघीय ढांचा बिखर जाएगा। 6 दिसंबर के गुनहगारों तथा गुजरात दंगों को क्रिया की प्रतिक्रया बताए जाने वालों तथा दंगाईयों को पुरस्कृत व स मानित करने वालों पर ऐसी बातें कतई शोभा नहीं देती।

मुझे याद है कि एक बार महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने मुझसे वार्तालाप के दौरान स्पष्ट रूप से यह बात कही थी कि सांप्रदायिक हिंसा अथवा दंगों को रोकना अथवा न होने देना पुलिस एवं प्रशासन के बाएं हाथ का खेल है। उन्होंने बताया था कि मु यमंत्री बनते ही सर्वप्रथम उन्होंने पूरे महाराष्ट्र राज्य के जिलाधिकारियों व पुलिस अधीक्षकों को प्रथम निर्देश यही दिया था कि राज्य में कहीं सांप्रदायिक हिंसा अथवा दंगे नहीं होने चाहिएं। और यदि हुए तो स्थानीय अधिकारी इसके दोषी होंगे। परिणामस्वरूप अंतुले के शासनकाल में राज्य में एक भी दंगा नहीं हुआ। वास्तव में कोई भी ज़िम्मेदार अधिकारी मात्र दो-चार घंटों में ही बड़ी से बड़ी हिंसा को नियंत्रित कर सकता है।
 
दरअसल, प्रशासन के लोग अपने राजनैतिक आकाओं की मर्ज़ी व उसके निर्देश एवं उनकी खुशी के लिए काम करना बेहतर समझते हैं। आज आप किसी भी पूर्व अथवा वर्तमान ईमानदार अधिकारी से बात करें तो वह यही कह ता मिलेगा कि दंगे भड़कने तथा फैलने से लेकर इसके अनियंत्रित रहने तक में नेताओं की ही प्रमुख भूमिका होती है। और यदि नेता इनमें दखल न दें तो सांप्रदायिक हिंसा शुरु ही नहीं हो सकती। आज गुजरात में तमाम अधिकारी या तो जेल की सलाखों के पीछे हैं या फिर अपनी साफगोई व कर्तव्यनिष्ठा का परिणाम भुगतते हुए निलंबित हैं अथवा मुकद्दमों का सामना कर रहे हैं। यह सब राजनैतिक दखलअंदाज़ी तथा पक्षपातपूर्ण शासकीय रवैयों का ही परिणाम है। वास्तव में ऐसी स्थितियां संघीय ढांचे के लिए खतरा हैं न कि सांप्रदायिक हिंसा विरोधी कानून। लिहाज़ा देश में अमन-चैन व भाईचारा कायम रखने के लिए इस विधेयक को कानून की शक्ल देना बेहद ज़रूरी है न कि इस विधेयक को लेकर भी लोगों का गुमराह करना व सांप्रदायिकता की राजनीति करना।

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