Tuesday, July 2, 2024
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देवभाषा व राष्ट्रभाषा के प्रति क्रान्तिकारी वीर सावरकर के अमूल्य विचार

“संस्कृतनिष्ठ हिंदी जो संस्कृत से बनायी गयी है और जिसका पोषण संस्कृत भाषा से हो, वह हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा होगी। संस्कृत भाषा संसार की समस्त प्राचीन भाषाओं में सब से अधिक संस्कृत और सब से अधिक सम्पन्न होने के अतिरिक्त हम हिंदुओं के लिए सब से अधिक पवित्र भी है। हमारे धर्म ग्रन्थ, इतिहास, तत्वज्ञान और संस्कृति, संस्कृत भाषा से इतनी अधिक परस्पर मिली हुई है और इसके अंतर्भूत है कि यही हमारी हिंदू जाति का वास्तविक मस्तिष्क है। हमारी अधिकांश मातृ-भाषाओं की यह माता है, इस ने उन्हें अपने वक्ष का दूध पिलाया है।

आज हिंदुओं की समस्त भाषाएं जो या तो संस्कृत से ही निकली हैं या उसमें दूसरी भाषा मिला कर बनायी गयी हैं, वे सब तभी उन्नत और संवृद्ध हो सकती हैं जब वे संस्कृत-भाषा से पोषित की जायें। इसलिये प्रत्येक हिंदू युवक के प्राचीन भाषा के पाठ्यक्रम में संस्कृत भाषा आवश्यक रूप से रहनी चाहिये। संस्कृत हमारी देव भाषा है और हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा।

हिंदी को राष्ट्रीय भाषा स्वीकार करने में अन्य प्रांतों की भाषा के सम्बन्ध में कोई अपमान की भावना या ईर्ष्यालु भावना नहीं है। हमें अपनी प्रांतीय भाषाओं से भी उतना ही अधिक प्रेम है जितना कि हिंदी से। ये सब भाषाएं अपने अपने क्षेत्र में उन्नत होती रहेंगी। वास्तव में कुछ प्रांतीय भाषाएं हिंदी भाषा की अपेक्षा साहित्य में अधिक उन्नत और अधिक सम्पन्न हैं परंतु फिर भी हिंदी अखिल हिंदुत्व की राष्ट्रभाषा होने के लिये सब प्रकार से सर्वश्रेष्ठ है। यह बात भी ध्यान में रखने की है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा-व्यवस्था के लिये नहीं बनाया गया है।

वास्तविक बात यह है कि मुसलमान और अंग्रेजों के आने के बहुत पहले से ही हिंदी ने समस्त हिंदुस्थान में राष्ट्रीय भाषा का स्थान ग्रहण कर लिया था। हिंदू तीर्थ यात्री, व्यापारी और यात्रा करनेवाले देश के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमते थे- बंगाल से सिंधु तक और काश्मीर से लेकर रामेश्वर तक वे जाया करते थे और वे अपना मनोगत भाव प्रत्येक स्थान में हिंदी में ही व्यक्त कर अपना काम चलाते थे। जिस भांति संसार के बुद्धिमान हिंदुओं की भाषा संस्कृत थी, उसी भांति कम से कम एक हजार वर्षों से साधारण हिंदुओं की राष्ट्रीय भाषा हिंदी रही है। इसके अतिरिक्त आज भी हम यह देखते हैं कि भारत में जितने लोग हिंदी समझ सकते हैं या जितने लोग हिंदी को मातृभाषा के रूप में बोलते हैं, उतनी अन्य किसी भाषा को न तो समझते हैं और न बोलते हैं। इसलिये प्रत्येक हिंदू विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक कर दिया जाये कि सेकेण्डरी स्कूलों में प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी प्रांतीय भाषा की शिक्षा के साथ साथ हिंदी भी आवश्यक रूप से पढ़ाई जाये।

हिंदी से हमारा अभिप्राय शुद्ध ‘संस्कृतनिष्ठ’ हिंदी से है; उदाहरण के लिये महर्षि दयानंद सरस्वती ने जैसी हिंदी अपने सत्यार्थप्रकाश में लिखी है। सत्यार्थ-प्रकाश की हिंदी कितनी सरल है, उस में अनावश्यक रूप से एक भी विदेशी भाषा का शब्द नहीं डाला गया और साथ ही उस में अपनी भावना को कितने सुन्दर रूप से स्पष्ट किया गया है। यहां यह बता देना ठीक होगा कि स्वामी दयानंद सरस्वती ऐसे पहले हिंदू नेता हुए हैं जिन्होंने पहले-पहल यह बात कही थी कि अखिल हिंदुत्व की राष्ट्र-भाषा हिंदी होनी चाहिये।

हमारी इस ‘संस्कृतनिष्ठ’ हिंदी का सम्बन्ध उस हिंदुस्तानी से कुछ भी नहीं है जो वर्धा की योजना के अनुसार ज़बरदस्ती दूसरी भाषा के शब्द ठूंस कर बनायी गयी है। यह नीति भाषा को दलदल में फँसाने से कुछ भी कम नहीं और हमें इस आंदोलन को दृढ़तापूर्वक दबा देनी चाहिये। इतना ही नहीं, हमारा यह भी अनिवार्य कर्तव्य है कि हम अपनी प्रांतीय भाषाओं में से और बोलचाल की भाषा में से भी वे सब विदेशी शब्द बीन डालें जो उनमें अंग्रेजी अथवा अरबी के हैं।

हम अंग्रेजी भाषा के विरोधी नहीं हैं, इस के विपरीत हमारा आग्रह है कि अंग्रेजी भाषा नितांत आवश्यक है और विश्व-साहित्य में प्रवेश करने के लिए यह एक पासपोर्ट या साधन है। परंतु हम अपनी देशी भाषाओं में विदेशी भाषाओं के बढ़न्त हुए प्रवाह को बिना आवश्यकता और बिना रोकटोक के नहीं होने देंगे। इस के लिए हमें अपने बंगाली बन्धुओं को विशेष रूप से बधाई देना चाहिये कि उन्होंने अपनी भाषा को अनावश्यक विदेशी शब्दों से बिलकुल स्वच्छ रखा है। हमारी अन्य प्रान्त की भाषाओं के सम्बन्ध में यह बात नहीं कही जा सकती।

हिंदूडम की राष्ट्रीय लिपि नागरी होगी:- हमारी संस्कृत की वर्ण माला ध्वनि की दृष्टि से संसार की समस्त वर्ण-मालाओं में सबसे अधिक परिपूर्ण है और हमारी भारतीय लिपिओं ने इस का अनुकरण पहले ही से कर लिया है। नागरी लिपि भी उसी क्रम में है। हिंदी की भांति नागरी लिपि भी समस्त भारत में गत दो हजार वर्षों से साहित्यिक लोगों में प्रचलित है। इसे “शास्त्री लिपि” के नाम से भी पुकारते हैं क्योंकि इस में हमारे धर्म-शास्त्र लिखे गये हैं। थोड़ा सा इधर उधर फेर फार करने से यह लिपि छपाई इत्यादि के लिए रोमन लिपि के समान सरल हो सकती है।

इस प्रकार का लिपि-सुधार का आंदोलन महाराष्ट्र में गत ४० वर्षों से प्रचलित है। इसे श्री वैद्य तथा अन्य लोगों ने प्रचलित किया था। बाद में मेरी अध्यक्षता में यह संघटित रूप से चला और क्रियात्मक रूप से इस में हमें बड़ी सफलता प्राप्त हुई। नागरी लिपि को राष्ट्रीय लिपि बनाने के लिये मैं समस्त प्रान्तों के हिन्दू पत्रों से ज़ोरदार सिफ़ारिश करता हूँ कि वे अपने पत्रों में कम से कम एक या दो कालम अपनी प्रान्तीय भाषा के नागरी लिपि में प्रकाशित किया करें।

यह बात सब लोग जानते हैं कि यदि गुजराती, बंगला भाषा भी नागरी लिपि में प्रकाशित हो तो उसे अन्य प्रान्त के लोग भी समझ सकते हैं। समस्त हिन्दुस्थान में एक भाषा तुरंत कर देना अक्रियात्मक और मूर्खतापूर्ण है। परन्तु समस्त हिन्दूडम में नागरी लिपि कर देना बहुत सरल और संभव है। फिर भी यह बात तो ध्यान में रखनी ही होगी, कि विभिन्न प्रान्तों में हिन्दुओं के धर्म ग्रन्थ विभिन्न हिन्दू लिपियों में लिखे गये हैं और प्रचलित हैं, इसलिये इन लिपियों का अपना भविष्य है और नागरी लिपि के साथ साथ इन की उन्नति भी होनी चाहिये। इस समय तुरंत आवश्यकता इस बात की है कि समस्त हिन्दू विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा के साथ नागरी लिपि की अनिवार्य्य रूप से शिक्षा दी जाया करे।

यहां आप को यह बताना भी बड़ा रोचक होगा कि कांग्रेस के पूर्व दो प्रेसिडेंटों ने राष्ट्र भाषा और राष्ट्र लिपि की समस्या को किस प्रकार हल करने का यत्न किया था। मौलाना अबुलकलाम आज़ाद कहते हैं कि राष्ट्रीय भाषा हिन्दुस्थानी ऐसी हो जो उर्दू के समान हो; परन्तु पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे भी आगे बढ़ कर कहते हैं कि राष्ट्र भाषा अलीगढ़ स्कूल की या उस्मानिया युनिवर्सिटी की हो- वही २८ करोड़ हिन्दुओं के लिये भी सब से अधिक उपयुक्त होगी।

देश गौरव श्री सुभाष बाबू अपने पूर्वाधिकारी पण्डित जवाहरलाल नेहरू से भी बुद्धि मत्ता में बाजी ले गये हैं। वे कांग्रेस के सभापति पद से कहते हैं कि भारत के लिये सब से उपयुक्त राष्ट्र-लिपि रोमन लिपि होगी। इस प्रकार से कांग्रेस की विचार धारा राष्ट्रीय बातों का विचार करती है। यह कितनी क्रियात्मक हो सकती है, इसके सम्बन्ध में जितना थोड़ा कहा जाये उतना ही अच्छा है।

आपके वसुमती, आनंद बाज़ार पत्रिका और समस्त बंगाली पत्र अब प्रतिदिन रोमन लिपि में प्रकाशित होंगे। इस नई लिपि में ‘वंदेमातरम्’ इस प्रकार लिखा जायेगा:-
“ट्रोमारॉ प्रटिमा घडिबे मण्डिरे मण्डिरे”। और फिर गीता किस बढ़िया रूप में लिखी जायेगी-

“ढर्म क्षेट्रे कुरु क्षेट्रे, शमवेटा युयुट्वा”। बस इसी प्रकार समझ लीजिये। यह ठीक है कि मुस्तफा कमाल पाशा ने अरबिक लिपि को छापने के अयोग्य समझ कर उसके स्थान में रोमन-लिपि स्वीकार की है। परंतु इस बात से हमारे उन भारतीय मुसलमानों को पाठ सीखना चाहिये जो भारत में उर्दू लिपि को [जो अरबी लिपि के ही समान है] हम हिन्दुओं पर यह कह कर जबरदस्ती ठोंकना चाहते हैं, कि यह लिपि आधुनिक रूप की है और इस का हिन्दुओं से कोई सम्बन्ध नहीं है?

कमाल पाशा को इसलिये रोमन लिपि का आश्रय लेना पड़ा क्योंकि उन की अपनी लिपि इस से अच्छी नहीं थी। अण्डमान द्वीप में वहां के निवासी कौड़ियों का हार बना कर पहनते हैं- इसलिए क्या धन-कुबेरों को भी कौड़ियों का हार पहनना चाहिये। हम हिन्दुओं को तो यूरोप और अरबिया के लोगों को भी नागरी लिपि हिन्दी भाषा स्वीकार करने के लिये कहना चाहिये। हमारा यह प्रस्ताव वे हठी और आशावादी लोग तो असंभवनीय नहीं समझ सकते जो उर्दू को राष्ट्र भाषा बनाने की कल्पना कर यह संभवनीय समझते हैं कि मरहठे उर्दू पढ़ेंगे और आर्य समाज के गुरुकुलों में वेदों को रोमन लिपि में पढ़ाया जायेगा!

[सन्दर्भ- हमारी समस्याएं; लेखक- वीर सावरकर; प्रकाशक- राजपाल एण्ड सन्स, नई सड़क, दिल्ली; आवृत्ति- प्रथम; पृष्ठ- ३०-३४]

हिन्दुत्व के पुरोधा इतिहास पुरुष वीर सावरकर को लगभग भुला दिया गया। सोशल मीडिया के कारण जब सावरकर का जीवन और दर्शन जनसमूह के विमर्श में प्रचलित हुआ तो अन्ध विरोध होने लगा। इस विरोध को अन्ध विरोध इसलिए कहा गया क्योंकि ये विरोध तथ्यों पर नहीं था। महान शोधकर्ता और विश्लेषक विक्रम सम्पत जी ने वर्षों के अध्ययन के बाद सावरकर के इतिहास को 2 खण्डों में सँवारा सँजोया।

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फिल्म तीसरी कसम बनने के कुछ रोमांचक किस्से

मुंबई। मोहन राकेश द्वारा संपादित कहानी संग्रह “पांच लंबी कहानियां” में फणीश्वर नाथ रेणु की “तीसरी क़सम अर्थात मारे गए गुलफ़ाम” कहानी पढ़कर गीतकार शैलेंद्र की आंखें छलछला उठीं। उन्होंने 23 अक्टूबर 1960 को रेणु जी को पत्र लिखकर ‘तीसरी क़सम’ कहानी पर फ़िल्म बनाने की अनुमति मांगी और रेणु जी से उन्हें तत्काल अनुमति मिल गई।

14 जनवरी 1961 को पूर्णिया (बिहार) में ‘तीसरी क़सम’का मुहूर्त हुआ। गीतकार शैलेंद्र, निर्देशक बासु भट्टाचार्य और सहायक निर्देशक बासु चटर्जी के साथ जाने-माने छायाकार सुब्रत मित्र इस अवसर पर मौजूद थे। प्रायः नायक और नायिका के चयन के बाद ही फ़िल्म का मुहूर्त होता है। दिलचस्प बात यह है कि उस वक़्त किसी को भी यह पता नहीं था कि हिरामन और हीराबाई के चरित्र को कौन अभिनीत करेगा। यह रोचक क़िस्सा बयान किया वड़ोदरा से पधारे लेखक इंद्रजीत सिंह ने जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व और रचनाकर्म पर तीन पुस्तकों का संपादन कर चुके हैं।

रविवार 23 जून 2024 को चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई की ओर से मृणालताई गोरे हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव में आयोजित सिने सम्वाद में इंद्रजीत सिंह ने बताया कि हिरामन की भूमिका के लिए सर्वप्रथम शैलेंद्र ने अभिनेता महमूद को लेने का मन बनाया था। एक दिन उन्होंने अपने मित्र राज कपूर को ‘तीसरी क़सम’ की कहानी सुनाई और हिरामन की भूमिका के लिए महमूद को लेने की बात की। राज कपूर को यह बात रास नहीं आई। तब शैलेंद्र ने कहा- आप ही हिरामन बन जाइए। राज कपूर तैयार हो गए मगर गम्भीर होकर बोले- मेरा सारा पेमेंट एडवांस देना होगा। शैलेंद्र सन्नाटे में आ गए। राज कपूर ने मुस्कुराते हुए कहा- निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक पूरा एडवांस। यानी राज कपूर ने ‘तीसरी क़सम’ में अभिनय के लिए अपने मित्र शैलेंद्र से सिर्फ एक रूपया लिया था।

‘तीसरी क़सम’ की पटकथा जाने माने पटकथाकार नवेंदु घोष ने लिखी है। रेणु की सहमति से पटकथा में कुछ नए पात्र जोड़े गए। ठाकुर विक्रम सिंह (अभिनेता इफ़्तिख़ार) मूल कहानी में नहीं है। लेकिन पटकथा में यह पात्र जोड़ा गया। इस पात्र के ज़रिए खलनायक का जो चरित्र निर्मित हुआ उसने फ़िल्म कथा को गतिशील बना दिया। इंद्रजीत जी ने फ़िल्म के गीत संगीत पर भी विस्तार से चर्चा की।

‘तीसरी क़सम’ को पूरा होने में लगभग साढे 5 साल लग गए। 14 जनवरी 1961 को फ़िल्म का मुहूर्त हुआ और आखिरकार जुलाई 1965 में फ़िल्म पूरी हुई। 15 सितंबर 1966 को बिना प्रचार के दिल्ली में फ़िल्म का प्रीमियर हुआ। फ़िल्म को दर्शक नहीं मिले और चौथे दिन ही उसे सिनेमा हॉल से उतार लिया गया। दो-ढाई लाख में बनने वाली फ़िल्म का बजट बीस-बाइस लाख पहुंच गया।

आगे जो कुछ हुआ आप सब जानते हैं। क़र्ज़ दाताओं ने शैलेंद्र के घर के चक्कर लगा लगा कर उनका जीना मुश्किल कर दिया। आख़िरकार शैलेंद्र को अपनी जान देकर इस सपने की क़ीमत चुकानी पड़ी। 14 दिसंबर 1966 को शैलेंद्र जी इस दुनिया से रुख़सत हो गए। सन् 1967 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई। ‘तीसरी क़सम’ को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का स्वर्ण कमल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये सारा क़िस्सा इंद्रजीत सिंह ने बहुत आत्मीयता से और विस्तार से बयान किया। श्रोताओं ने उनसे कई सवाल भी पूछे। उन्होंने सबके संतोषजनक जवाब दिए।

कार्यक्रम की शुरुआत में ‘धरोहर’ के अंतर्गत सुप्रसिद्ध कवि वीरेंद्र डंगवाल की एक महत्वपूर्ण कविता का पाठ कवि हरि मृदुल ने किया। दूसरे सत्र में कथाकार सूरज प्रकाश के नेतृत्व में क़िस्सागोई की एक खुली चर्चा रखी गई जिसमें सुबोध मोरे, विवेक अग्रवाल, दीनदयाल मुरारका आदि कई मित्रों ने भागीदारी की।
#चित्रनगरी_संवाद_मंच_में_फ़िल्म_तीसरी_क़सम_के_क़िस्से

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भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने पर हो रहा है विचार

वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग पर कार्य कर रही संस्था स्टैंडर्ड एंड पूअर ने हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था का आंकलन करते हुए भारत के सम्बंध में अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक किया है एवं कहा है कि वह भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने के उद्देश्य से भारत के आर्थिक विकास सम्बंधी विभिन्न पैमानों का एवं भारत के राजकोषीय घाटे से सम्बंधित आंकड़ों का लगातार अध्ययन एवं विश्लेषण कर रहा है। यदि उक्त दोनों क्षेत्रों में लगातार सुधार दिखाई देता है तो भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड किया जा सकता है। वर्तमान में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है, जो निवेश के लिए सबसे कम रेटिंग की श्रेणी में गिनी जाती है।

किसी भी देश की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को यदि अपग्रेड किया जाता है तो इससे उस देश में विदेशी निवेश बढ़ने लगते हैं क्योंकि निवेशकों का इन देशों में पूंजी निवेश तुलनात्मक रूप से सुरक्षित माना जाता है। साथ ही, अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग प्राप्त देशों की कम्पनियों को अन्य देशों में पूंजी उगाहना न केवल आसान होता है बल्कि इस प्रकार लिए जाने वाले ऋण पर ब्याज की राशि भी कम देनी होती है। किसी भी देश की जितनी अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग होती है उस देश की कम्पनियों को कम से कम ब्याज दरों पर ऋण उगाहने में आसानी होती है।

भारत में हाल ही में केंद्र में नई सरकार के गठन सम्बंधी प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद मोदी सहित केंद्रीय मंत्रीमंडल के समस्त सदस्यों को विभागों का आबंटन भी किया जा चुका है। केंद्र सरकार द्वारा पिछले दस वर्षों के दौरान लिए गए आर्थिक निर्णयों का भरपूर लाभ देश को मिला है। इससे देश के आर्थिक विकास को गति मिली है एवं आज भारत, विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में अपार कमी दृष्टिगोचर है। देश में बहुत बड़े स्तर पर वित्तीय समावेशन हुआ है, जनधन योजना के अंतर्गत 50 करोड़ से अधिक बैंक बचत खाते खोले जा चुके हैं एवं इन बचत खातों में आज लगभग 2.50 लाख करोड़ रुपए की राशि जमा है, इस राशि का उपयोग देश के आर्थिक विकास के लिए किया जा रहा है।

रोजगार के नए अवसर भारी संख्या में निर्मित हुए हैं। देश में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़कर लगभग 2200 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष तक पहुंच गई है। देश के कुछ राज्यों में तो किसानों की आय दुगने से भी अधिक हो गई है। भारत में विदेशी निवेश भारी मात्रा में होने लगा है एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना भारत में ही करने लगी हैं। इससे देश में विनिर्माण इकाईयों (उद्योग क्षेत्र) की विकास दर 8-9 प्रतिशत के पास पहुंच गई है। मंदिर की अर्थव्यवस्था एवं लगातार तेज गति से आगे बढ़ रहे धार्मिक पर्यटन के चलते भारत में आर्थिक विकास की दर वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8 प्रतिशत से भी अधिक रही है।

भारत, अपने आर्थिक विकास की गति को और अधिक तेज करने के उद्देश्य से आधारभूत ढांचें को विकसित करने के लगातार प्रयास कर रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट में 7.5 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान देश के आधारभूत ढांचे को विकसित करने हेतु किया गया था, जिसे वित्तीय वर्ष 2023-24 में 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया था एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए इसे और अधिक बढ़ाकर 11.11 लाख करोड़ रुपए का कर दिया गया है। आधारभूत ढांचे को विकसित करने से देश में उत्पादकता में सुधार हुआ है एवं विभिन्न उत्पादों की उत्पादन लागत में कमी आई है। जिससे, कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों को भारत में स्थापित करने हेतु आकर्षित हुई हैं। स्टैंडर्ड एंड पूअर का तो यह भी कहना है कि भारत जिस प्रकार की आर्थिक नीतियों को लागू करते हुए आगे बढ़ रहा है और केंद्र में नई सरकार के आने के बाद से अब सम्भावनाएं बढ़ गई हैं कि भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम बहुत तेजी के साथ किए जाएंगे इससे कुल मिलाकर भारत की आर्थिक विकास दर को लम्बे समय तक 8 प्रतिशत से ऊपर बनाए रखा जा सकता है।

भारत ने अपने आर्थिक विकास की गति को तेज रखते हुए अपने राजकोषीय घाटे पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत का राजकोषीय घाटा 17 लाख 74 हजार करोड़ रुपए का रहा था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 16 लाख 54 हजार करोड़ रुपए का रह गया है। यह राजकोषीय घाटा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 5.8 प्रतिशत था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 5.6 प्रतिशत रह गया है। भारत के राजकोषीय घाटे को वित्तीय वर्ष 2024-25 में 5.1 प्रतिशत एवं वित्तीय वर्ष 2025-26 में 4.5 प्रतिशत तक नीचे लाने के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा सफलता पूर्वक किए जा रहे हैं।

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी जैसे विकसित देश भी अपने राजकोषीय घाटे को कम नहीं कर पा रहे हैं परंतु भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान यह बहुत बड़ी सफलता हासिल की है। सरकार का खर्च उसकी आय से अधिक होने पर इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। केंद्र सरकार ने खर्च पर नियंत्रण किया है एवं अपनी आय के साधनों में अधिक वृद्धि की है। यह लम्बे समय में देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आया है।

भारत के कुछ राज्यों (पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल, आदि) में राजकोषीय घाटे को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है, परंतु केंद्र सरकार एवं कुछ अन्य राज्य (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु आदि) जरूर अपने राजकोषीय घाटे को सफलता पूर्वक नियंत्रित कर पा रहे हैं। राजकोषीय घाटा मलेशिया, फिलिपीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम जैसे देशों में 4 प्रतिशत से कम है जबकि भारत में केंद्र सरकार एवं समस्त राज्यों का कुल मिलाकर राजकोषीय घाटा 7.9 प्रतिशत है। उक्त वर्णित समस्त देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB है जबकि भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है। अतः भारत के कुछ राज्यों को तो अपने राजकोषीय घाटे को कम करने हेतु बहुत मेहनत करने की आवश्यकता है।

राजकोषीय घाटे को कम करने में भारत को सफलता इसलिए भी मिली है कि देश 20 से अधिक करों को मिलाकर केवल एक कर प्रणाली, वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली, को सफलता पूर्वक लागू किया गया है। आज वस्तु एवं सेवा कर के रूप में भारत को औसत 1.75 लाख करोड़ रुपए की राशि प्रतिमाह अप्रत्यक्ष कर के रूप में प्राप्त हो रही है। साथ ही, प्रत्यक्ष कर के संग्रहण में भी 20 प्रतिशत की भारी भरकम वृद्धि परिलक्षित हुई है।

भारत में बैकिंग व्यवस्थाओं के डिजिटलीकरण को ग्रामीण इलाकों तक में लागू करने से भारतीय अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण बहुत तेज गति से हुआ है, जिससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर संग्रहण में भारी भरकम वृद्धि हुई है। जबकि केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों ने अपने गैर योजना खर्च की मदों पर किए जाने वाले व्यय पर नियंत्रण करने में सफलता भी पाई है। इसके कारण राजकोषीय घाटे को लगातार प्रति वर्ष कम करने में सफलता मिलती दिखाई दे रही है।

कुल मिलाकर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग का आंकलन करने वाले विभिन्न संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर बहुत उत्साहित हैं एवं आर्थिक प्रगति के साथ साथ राजकोषीय घाटे को कम करते हुए भारत द्वारा जिस प्रकार अपनी वित्त व्यवस्था को नियंत्रण में रखने का काम सफलता पूर्वक किया जा रहा है, इससे यह संस्थान भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने हेतु गम्भीरता से विचार करते हुए दिखाई दे रहे हैं। स्टैंडर्ड एंड पूअर ने तो घोषणा भी कर दी है कि आगे आने वाले दो वर्षों तक वह भारत की आर्थिक प्रगति, आधारभूत ढांचे को विकसित करने एवं राजकोषीय घाटे को कम करने सम्बंधी प्रयासों का गम्भीरता से विवेचन कर रहा है और बहुत सम्भव है कि वह आगामी दो वर्षों में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड कर सकने की स्थिति में आ जाए।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940

ई-मेल – [email protected]

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ज्योतिष के वैज्ञानिक पहलू को जानना समझना जरुरी

आधुनिक युवाओं के मन में ज्योतिष के प्रति सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है, क्योंकि आधुनिक युग की युवा पीढ़ी वैज्ञानिक आधारों पर ही विश्वास करती है। ज्योतिष विद्या है,कला है, विज्ञान है या फिर कुछ और.. इस पर तर्क वितर्क करके अपनी बात को सिद्ध करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इसके लिए वृहद स्तर पर चर्चा होती रहनी चाहिए। मैं तो ज्योतिष का एक साधारण जानकार हूं। लेकिन इतना अवश्य जानता हूं कि ज्योतिष का भारतीय दर्शन,संस्कृति और जनजीवन में स्वीकार्यता हमेशा ही रही है। किसी भी शास्त्र , विज्ञान या विद्या को मानने या ना मानने का प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये जानना जरूरी है कि कोई विधा या विज्ञान सामाजिक जीवन में कितना उपयोगी व प्रभावशाली है। वैसे तो ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वालों की भी कमी नहीं है। लेकिन इससे ईश्वर के ईश्वरत्व में कोई फर्क नहीं पड़ता।

इस संसार में कर्मवाद तथा भाग्यवाद दोनों ही प्रकार की आस्थाओं वाले लोग हैं। कट्टर से कट्टर कर्मवादी भी अपना भविष्य जानने को उत्सुक हो सकता है। वैसे भी ज्योतिष हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए भाग्यवादियों के लिए नहीं है। ज्योतिष किसी भी रूप में कर्म को नहीं नकारता है। सामान्य मनुष्य के लिए ये जीवन अनिश्चिताओं का खेल है। वहीं ज्योतिष एक ऐसा प्रकाश है जो हमारे जीवन पथ की संभावनाओं पर रोशनी डालता है। ये हमारे लिए गूगल मैप की तरह काम करता है,जो जिंदगी के हर मोड़ पर दिशा निर्देशक की भूमिका निभाता है।ज्योतिष उन पुरुषार्थी कर्मवीरों के लिए ही है जो ज्योतिष को मार्गदर्शक बनाकर कर्म करते हैं और अपना भाग्य बदलते हैं।

तो आइए ज्योतिष की मदद लेकर अपने कर्मों के परिणामों को और अधिक बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं।

प्राचीनकाल से ही हमारे पूर्वजों को सिर्फ सूर्य चंद्रमा सम्बन्धी ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड की जानकारी थी। इस बात का प्रमाण हमारे सभी प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ देते हैं। विशेषकर अपने सौरमंडल की जो सटीक जानकारी लिखी है वो आधुनिक विज्ञान भी सत्य साबित कर रहा है। भारत ऋषियों की भूमि है। मुझे तो अंग्रेजी का “रिसर्च”शब्द भी “ऋषि” शब्द से निर्गत प्रतीत होता है। आखिर हमारे ऋषि शोधकार्य ( रिसर्च) ही तो करते थे।

कुछ विद्वानों का तो ये मानना है कि उन्होंने योग के माध्यम से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचना और उसकी प्रकृति का सटीक विश्लेषण किया है। क्योंकि यत् पिण्डे, तत् ब्रह्मांडे । लेकिन ये तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि ज्योतिष शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए रिसर्च सेंटर वेधशालाएं थीं। उनके गुरु आकाश देखकर नक्षत्रों का प्रैक्टिकल नॉलेज करवाते थे। पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति से अक्षांश और देशांतर का मान, ग्रहों की गति, उनकी दूरी, परिभ्रमण काल, नक्षत्रों एवं राशियों की प्रकृति और प्रभाव का सटीक विश्लेषण सिर्फ भारत मे ही किया गया।

आज भी पूरे वर्ष के प्रत्येक दिन के सूर्योदय और सूर्यास्त की सटीक गणना,या फिर किसी भी समय की सौरमंडल में सभी ग्रह नक्षत्रों की स्थिति की गणना हमारा ₹10 का पंचांग दे देता है। बस आपको पंचांग के सभी पांच अंगों ( तिथि, नक्षत्र, योग,करण,वार) के साधन करने की विधियों का ज्ञान होना चाहिए। हम गणित ज्योतिष के माध्यम से बिना घड़ी देखे धरती के किसी कोने का सटीक समय बता सकते हैं,या अभीष्ट समय पर ग्रहों नक्षत्रों की स्थिति की सटीक गणना बता सकते हैं। करोड़ों रुपए के उपग्रहों की गणना धोखा खा सकती है पर हमारी गणित ज्योतिष नहीं। ये भी यथार्थ सत्य है कि आधुनिक विज्ञान जितना आगे बढ़ेगा, हमारे पूर्वजों के ज्ञान की प्रमाणिकता भी सिद्ध होती चली जायेगी।

मित्रों बड़े हर्ष का विषय है कि आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत की धाक बढ़ती जा रही है। हमारे वैज्ञानिक आधुनिक काल के ऋषि ही तो हैं। वे दिन दूर नहीं जब हमारे पास प्राचीन बौद्धिक संपदा और आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषण का अनमोल खजाना होगा। अगर हम दोनों को साथ लेकर परिणाम प्राप्त करना सीख जायेंगे तो विज्ञान जगत के बादशाह सिर्फ और सिर्फ हम ही कहलाएंगे।

सौरभ दुबे ( Astrological Consultant )
काशी/ बनारस/ वाराणसी
Watsaap- 9198818164

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पश्चिम रेलवे ने मनाया गया अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस

मुंबई। पश्चिम रेलवे पर शुक्रवार, 21 जून, 2024 को अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस मनाया गया। पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक श्री अशोक कुमार मिश्र की अध्यक्षता में इस कार्यक्रम का आयोजन मुंबई के बधवार पार्क के उत्सव हॉल में किया गया। इस वर्ष का थीम – “स्वयं और समाज के लिए योग” था।

पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी श्री विनीत अभिषेक द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार सामान्य योग प्रोटोकॉल के अंतर्गत योग आसनों का प्रदर्शन महाप्रबंधक श्री अशोक कुमार मिश्र, प्रमुख विभागाध्यक्ष, विभिन्न विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों, पश्चिम रेलवे महिला कल्याण संगठन की अध्यक्षा श्रीमती क्षमा मिश्र, पश्चिम रेलवे महिला कल्याण संगठन (WRWWO) की कार्यकारी समिति की सदस्याएँ तथा पश्चिम रेलवे के कर्मचारियों द्वारा किया गया। सत्र का नेतृत्व डॉ. जैन्सी शेखर एवं उनकी टीम ने किया।

श्री अभिषेक ने आगे बताया कि इस वर्ष की थीम ‘स्वयं और समाज के लिए योग’ व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने में योग की दोहरी भूमिका को उजागर करती है। योग सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देते हुए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देता है। पश्चिम रेलवे के सभी छह मंडलों में योग सत्र भी आयोजित किए गए, जिसमें अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया। पश्चिम रेलवे के सोशल मीडिया हैंडल के माध्यम से जानकारीपूर्ण और आकर्षक वेब कार्ड पोस्ट किए गए, जिनमें योग के लाभों को बढ़ावा दिया गया और बताया गया कि कैसे योग ने दुनिया को एक साथ लाया है, वैश्विक मूल्यों को नया आकार दिया है और विभिन्न स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों को करीब लाया है।

फोटो कैप्शन: पहली एवं दूसरी तस्वीर में पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक श्री अशोक कुमार मिश्र और पश्चिम रेलवे महिला कल्याण संगठन की अध्यक्षा श्रीमती क्षमा मिश्र वरिष्ठ रेल अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ अंतरराष्‍ट्रीय योग दिवस मनाने के लिए योग आसन करते हुए देखे जा सकते हैं।

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पाकिस्तान के कट्टर मुसलमानों की पोल खोलती पाकिस्तानी लेखक की किताब ने धूम मचाई

तहज़ीबी नर्गीसीयत पाकिस्तान के वरिष्ठ चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर साहब की किताब है। इसका शाब्दिक अर्थ है सांस्कृतिक नार्सिसिज़्म। बात शुरू करने से पहले आवश्यक है कि जाना जाये कि नार्सिसिज़्म है क्या ? यह शब्द मनोवैज्ञानिक संदर्भ का शब्द है जो ग्रीक देवमाला के एक चरित्र से प्राप्त हुआ है।

ग्रीक देवमाला की इस कहानी के अनुसार नार्सिस नाम का एक देवता प्यास बुझाने झील पर गया। वहाँ उसने ठहरे हुए स्वच्छ पानी में स्वयं को देखा। अपने प्रतिबिम्ब को देख कर वो इतना मुग्ध हो गया कि वहीँ रुक-ठहर गया। पानी पीने के लिये झील का स्पर्श करता तो प्रतिबिम्ब मिट जाने की आशंका थी। नार्सिस वहीँ खड़ा-खड़ा अपने प्रतिबिम्ब को निहारता रहा और भूख-प्यास से एक दिन उसके प्राण निकल गए। उसकी मृत्यु के बाद अन्य देवताओं ने उसे नर्गिस के फूल की शक्ल दे दी। अतः नर्गीसीयत या नार्सिसिज़्म एक चारित्रिक वैशिष्ट्य का नाम है।

नार्सिसिज़्म शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति, समाज स्वयं को आत्ममुग्धता की इस हद तक चाहने लगे जिसका परिणाम आत्मश्लाघा, आत्मप्रवंचना हो। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि ऐसे व्यक्ति, समाज को स्वयं में कोई कमी दिखाई नहीं देती। यह स्थिति व्यक्ति तथा समाज की विकास की ओर यात्रा रोक देती है। ज़ाहिर है बीज ने मान लिया कि वो वृक्ष है तो वृक्ष बनने की प्रक्रिया तो थम ही जाएगी। विकास के नये अनजाने क्षेत्र में कोई क़दम क्यों रखेगा ? स्वयं को बदलने, तोड़ने, उथल-पुथल की प्रक्रिया से गुज़ारने की आवश्यकता ही कहाँ रह जायेगी ?

किन्तु नार्सिसिज़्म का एक पक्ष यह भी है कि आत्ममुग्धता की यह स्थिति कम मात्रा में आवश्यक भी है। हम सब स्वयं को विशिष्ट न मानें तो सामान्य जन से अलग विकसित होने यानी आगे बढ़ने की प्रक्रिया जन्म ही कैसे लेगी ? हमें बड़ा बनना है, विराट बनना है, अनूठा बनना है, महान बनना है, इस चाहत के कारण ही तो मानव सभ्यता विकसित हुई है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से अहंकार से भरा हुआ है मगर इसकी मात्रा संतुलित होने की जगह असंतुलित रूप से अत्यधिक बढ़ जाये तो ? यही इस्लाम के साथ हुआ है, हो रहा है।

न न न न मैं यह नहीं कह रहा बल्कि पाकिस्तान के एक चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर कह रहे हैं। मुबारक हैदर साहब की उर्दू किताबें तहज़ीबी नर्गीसीयत { सांस्कृतिक आत्मप्रवंचना }, मुग़ालते-मुग़ालते { भ्रम-भ्रम }, “Taliban: The Tip of A Holy Iceberg” लाखों की संख्या में बिक चुकी हैं। इन किताबों ने पाकिस्तान और भारत के उर्दू भाषी मुसलमानों की दुखती रग पर ऊँगली रख दी है। उनकी किताब के अनुसार नार्सिसिस्ट व्यक्तित्व स्वयं को विशिष्ट समझता है। क्षणभंगुर अहंकार से ग्रसित होता है। उसको अपने अलावा और कोई शक्ल दिखाई नहीं पड़ती। उसके अंदर घमंड, आत्ममुग्धता कूट-कूट कर भरी होती है। वो ऐसी कामयाबियों का बयान करता है जो फ़ैंटेसी होती हैं। जिनका अस्तित्व ही नहीं होता। ऐसे व्यक्तित्व स्वयं अपने लिये, अपने साथ के लोगों के लिये अपने समाज के लिये हानिकारक होता है। अब वो प्रश्न करते हैं कि ऐसे दुर्गुण अगर किसी समाज में उतर आएं तो उसका क्या होगा ?

वो कहते हैं “आप पाकिस्तान के किसी भी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय समाचारपत्र के किसी भी अंक को उठा लीजिये। कोई कॉलम देख लीजिये। टीवी चैनल के प्रोग्राम देख लीजिये। मुहल्लों में होने वाली मज़हबी तक़रीर सुन लीजिये। उन मदरसों के पाठ्यक्रम देख लीजिये, जिनसे हर साल 6 से 7 लाख लड़के मज़हबी शिक्षा ले कर निकलते हैं और या तो पुरानी मस्जिदों में चले जाते हैं या नई मस्जिदें बनाने के लिये शहरों में इस्लाम या सवाब याद दिलाने में लग जाते हैं। रमज़ान के 30 दिन में होने वाले पूरे कार्यक्रम देख लीजिये। बड़ी धूमधाम से होने वाले वार्षिक मज़हबी इज्तिमा {एकत्रीकरण} देख लीजिये, जिनमें 20 से 30 लाख लोग भाग लेते हैं।

आपको हर बयान, भाषण, लेख में जो बात दिखाई पड़ेगी वो है इस्लाम की बड़ाई, इस्लाम की महानता का बखान, मुसलमानों की महानता का बखान, इस्लामी सभ्यता की महानता का बखान, इस्लामी इतिहास की महानता का बखान, मुसलमान चरित्रों की महानता का बखान, मुसलमान विजेताओं की महानता का बखान। मुसलमानों का ईमान महान, उनका चरित्र महान, उनकी उपासना पद्यति महान, उनकी सामाजिकता महान। यह भौतिक संसार उनका, पारलौकिक संसार भी उनका, शेष सारा संसार जाहिल, काफ़िर और जहन्नुम में जाने वाला अर्थात आपको इस्लाम और मुसलमानों की महानता के बखान का एक कभी न समाप्त होने वाला अंतहीन संसार मिलेगा।

इस्लाम अगर मज़हब को बढ़ाने के लिये निकले तो वो उचित, दूसरे सम्प्रदायों को प्रचार से रोके तो भी उचित, मुसलमानों का ग़ैरमुसलमानों की आबादियों को नष्ट करना उचित, उन्हें ज़िम्मी-ग़ुलाम बनाना भी उचित, उनकी स्त्रियों को लौंडी {सैक्स स्लेव} बनाना भी उचित मगर ग़ैरमुस्लिमों का किसी छोटे से मुस्लिम ग्रुप पर गोलियाँ चलना इतना बड़ा अपराध कि मुसलमानों के लिये विश्वयुद्ध छेड़ना आवश्यक। इस्लाम का अर्थशास्त्र, राजनीति, जीवन शैली, ज्ञान बड़ा यानी हर मामले में इस्लाम महान। केवल इस्लाम स्वीकार कर लेने से संसार की हर समस्या के ठीक हो जाने का विश्वास।

ग़ैरमुस्लिमों के जिस्म नापाक और गंदे, ईमान वालों {मुसलमानों} को उनसे दुर्गन्ध आती है। उनकी आत्मा-मस्तिष्क नापाक, उनकी सोच त्याज्य, उनका खाना गंदा और हराम, मुसलमानों का खाना पाक-हलाल-उम्दा, दुनिया में अच्छा-आनंददायक और पाक कुछ है तो वो हमारा यानी मुसलमानों का है। इस्लाम से पहले दुनिया में कोई सभ्यता नहीं थी, जिहालत और अंधकार था। संसार को ज्ञान और सभ्यता अरबी मुसलमानों की देन है।

अब अगर आप किसी इस आत्मविश्वास से भरे किसी मुस्लिम युवक से पूछें, कहते हैं चीन में इस्लामी पैग़ंबर मुहम्मद के आने से हज़ारों साल पहले सभ्य समाज रहता था। उन्होंने मंगोल आक्रमण से अपने राष्ट्र के बचाव के लिये वृहदाकार दीवार बनाई थी। जिसकी गणना आज भी विश्व के महान आश्चर्यों में होती है।

भारत की सभ्यता, ज्ञान इस्लाम से कम से कम चार हज़ार साल पहले का है। ईरान के नौशेरवान-आदिल की सभ्यता, जिसे अरबों ने नष्ट कर दिया, इस्लाम से बहुत पुरानी थी। यूनान और रोम के ज्ञान तथा महानता की कहानियां तो स्वयं मुसलमानों ने अपनी किताबों में लिखी हैं। क्या यह सारे समाज, राष्ट्र अंधकार से भरे और जाहिल थे ?

तो आप बिलकुल हैरान न होइयेगा अगर नसीम हिज़ाजी का यह युवक आपको आत्मविश्वास से उत्तर दे, देखो भाई ये सब काफ़िरों की लिखी हुई झूठी बातें हैं जो मुसलमानों को भ्रमित करने और हीन-भावना से भरने के लिए लिखी गयी हैं और अगर इनमें कुछ सच्चाई है भी तो ये सब कुफ़्र की सभ्यताएँ थीं और इनकी कोई हैसियत नहीं है। सच तो केवल यह है कि इस्लाम से पहले सब कुछ अंधकार में था। आज भी हमारे अतिरिक्त सारे लोग अंधकार में हैं। सब जहन्नुम में जायेंगे। कुफ़्र की शिक्षा भ्रमित करने के अतिरिक्त किसी काम की नहीं। ज्ञान केवल वो है जो क़ुरआन में लिख दिया गया है या हदीसों में आया है। यही वह चिंतन है जिसके कारण इस्लाम अपने अतिरिक्त हर विचार, जीवन शैली से इतनी घृणा करता है कि उसे नष्ट करता आ रहा है, नष्ट करना चाहता है।

चिंतक, लेखक, शायर मुबारक हैदर समस्या बता रहे हैं कि पाकिस्तान की दुर्गति की जड़ में इस्लाम और उसका चिंतन है। वो कह रहे हैं कि हम जिहाद की फैक्ट्री बन गए हैं। यह छान-फटक किये बिना कि ऐसा क्यों हुआ, हम स्थिति में बदलाव नहीं कर सकते। संकेत में वो कह रहे हैं कि अगर अपनी स्थिति सुधारनी है तो इस चिंतन से पिंड छुड़ाना पड़ेगा। उनकी किताबों का लाखों की संख्या में बिकना बता रहा है कि पाकिस्तानी समाज समस्या को देख-समझ रहा है। यह आशा की किरण है और सभ्य विश्व संभावित बदलाव का अनुमान लगा सकता है।

आइये इस चिंतन पर कुछ और विचार करते हैं। ईसाई विश्व का एक समय सबसे प्रभावी नगर कांस्टेंटिनोपल था। 1453 में इस्लाम ने इस नगर को जीता और इसका नाम इस्ताम्बूल कर दिया। स्वाभाविक ही मन में प्रश्न उठेगा कि कांस्टेंटिनोपल में क्या तकलीफ़ थी जो उसे इस्ताम्बूल बनाया गया ? बंधुओ, यही इस्लाम है। सारे संसार को, संसार भर के हर विचार को, संसार भर की हर सभ्यता को, संसार भर की हर आस्था को…….मार कर, तोड़ कर, फाड़ कर, छीन कर, जीत कर, नोच कर, खसोट कर…….येन-केन-प्रकारेण इस्लामी बनाना ही इस्लाम का लक्ष्य है।

रामजन्भूमि, काशी विश्वनाथ के मंदिरों पर इसी कारण मस्जिद बनाई जाती है। कृष्ण जन्मभूमि का मंदिर तोड़ कर वहां पर इसी कारण ईदगाह बनाई जाती है। पटना को अज़ीमाबाद इसी कारण किया जाता है। अलीगढ़, शाहजहांपुर, मुरादाबाद, अलीपुर, पीरपुर, बुरहानपुर और ऐसे ही सैकड़ों नगरों के नाम…….वाराणसी, मथुरा, दिल्ली, अजमेर चंदौसी, उज्जैन जैसे सैकड़ों नगरों में छीन कर भ्रष्ट किये गए मंदिर इन इस्लामी करतूतों के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

आपने कभी कुत्ता पाला है ? न पाला हो तो किसी पालने वाले से पूछियेगा। जब भी कुत्ते को घुमाने ले जाया जाता है तो कुत्ता सारे रास्ते इधर-उधर सूंघता हुआ और सूंघे हुए स्थानों पर पेशाब करता हुआ चलता है। स्वाभाविक है कि यह सूझे यदि कुत्ते को पेशाब आ रहा है तो एक बार में क्यों फ़ारिग़ नहीं होता, कहीं उसे पथरी तो हो नहीं गयी है ? फिर हर कुत्ते को पथरी तो नहीं हो सकती फिर उसका पल-पल धार मारने का क्या मतलब है ? मित्रो! कुत्ता वस्तुतः पेशाब करके अपना इलाक़ा चिन्हित करता है। यह उसका क्षेत्र पर अधिकार जताने का ढंग है। बताने का माध्यम है कि यह क्षेत्र मेरी सुरक्षा में है और इससे दूर रहो अन्यथा लड़ाई हो जाएगी। ऊपर के पैराग्राफ़ और इस तरह की सारी करतूतें इस्लामियों द्वारा अपने जीते हुए इलाक़े चिन्हित करना हैं।

अब बताइये कि सभ्य समाज क्या करे ? इसका इलाज ही यह है कि समय के पहिये को उल्टा घुमाया जाये। इन सारे चिन्हों को बीती बात कह कर नहीं छोड़ा जा सकता चूँकि इस्लामी लोग अभी भी उसी दिशा में काम कर रहे हैं। बामियान के बुद्ध, आई एस आई एस द्वारा सीरिया के प्राचीन स्मारकों को तोडा जाना बिल्कुल निकट अतीत में हुआ है। इस्लामियों के लिये उनका हत्यारा चिंतन अभी भी त्यागने योग्य नहीं हुआ है, अभी भी कालबाह्य नहीं हुआ है। अतः ऐसी हर वस्तु, मंदिर, नगर हमें वापस चाहिये।

राष्ट्रबन्धुओं! इसका दबाव बनाना प्रारम्भ कीजिये। सोशल मीडिया पर, निजी बातचीत में, समाचारपत्रों में जहाँ बने जैसे बने इस बात को उठाते रहिये। यह दबाव लगातार बना रहना चाहिए। पेट तो रात-दिन सड़कों पर दुरदुराया जाते हुए पशु भी भर लेते हैं। मानव जीवन गौरव के साथ, सम्मान के साथ जीने का नाम है। हमारा सम्मान छीना गया था। समय आ रहा है, सम्मान वापस लेने की तैयारी कीजिये।

(इस पुस्तक की भूमिका में लेखक ने बहुत तल्ख शब्दों में पाकिस्तानी मुस्लिम कट्टरवादियों की मानसिकता पर प्रहार किया है)

पिछले कुछ बरसों के दौरान मुसलमानों ने आतंकवाद के सम्बंध में बड़ा नाम कमाया है। लेकिन आतंकवाद की घटनाओं से पहले भी हमारे मुस्लिम समाज विश्व समुदाय में अपने अलगाववाद और आक्रामक गर्व की वजह से प्रमुख स्थिति में रहे हैं।

दुनिया भर में इस्लाम और आतंकवाद के बीच सम्बंध की तलाश जारी है और ज्यादातर समृद्ध या विकसित समाज का दावा है कि जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है, वो इस्लामी सक्रियता के बुनियादी चरित्र का हिस्सा है। दूसरी ओर मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी लगातार स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं कि इस्लाम में हिंसा और आतंकवाद की कोई अवधारणा ही मौजूद नहीं है।

सच क्या है, ये जानने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। खासकर ये सवाल महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम समाज में मौजूदा हिंसा की लहर के खिलाफ विरोध न होने के बराबर क्यों है? जाहिर है कि जो तत्व तबाही पैदा करने की मौजूदा प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उन्हें अपने प्रिय लोगों, अपने पड़ोसियों और अपनी बस्तियों की तरफ से नफरत का सामना नहीं है। अगर किसी समाज के रवैये में किसी अमल से सख्त नफरत मौजूद हो तो वो अमल फल फूल नहीं सकता। जैसे औरत की आज़ादी और मज़हबी आज़ादी के खिलाफ हमारे समाज में नफरत मौजूद है तो इन आज़ादियों के पनपने का सवाल ही पैदा नहीं होगा। इसलिए कहीं न कहीं हिंसा और तबाही को कोई ऐसा समर्थन हासिल है जो उसे ऊर्जा प्रदान करती है।

हिंसा और तबाही का ये अमल जिसने दुनिया भर के मुस्लिम लोगों को विश्व समाज की नज़र में संदिग्ध बना दिया है। यहां तक कि भारतीय उपमहाद्वीप और अफगानिस्तान के मुसलमान भय और नफरत का प्रतीक बन गए हैं। क्या ये अमल कुछ लोगों की सोच बिगड़ने से शुरू हुआ है? क्या मुस्लिम समाज दुनिया के दूसरे समुदायों के साथ चलने को तैयार हैं? क्या भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात् बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के मुसलमान आधुनिक युग की सभ्यताओं के साथ शांतिपूर्वक रह सकते हैं? क्या अफगानियों की भूमिका एक क्षेत्रीय संस्कृति तक सीमित रह सकता है? या प्राचीन विजेताओं की ये क़बायली आबादी मध्य एशिया, चीन, पाकिस्तान और भारत को जीतने की आज भी वैसी ही इच्छा रखती है जैसे हज़ारों साल के दौरान रही है? और सबसे बढ़कर ये कि दुनिया की मौजूदा सभ्यताओं से मुस्लिम संस्कृति का टकराव क्या नतीजा दिखाएगा? क्या वैश्विक आबादी जो मुसलमानों की आबादी से चार गुना बड़ी है और जिसमें अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन, जापान और भारत जैसे संगठित और सशस्त्र समाज हैं, अपने देशों की तबाही बर्दाश्त करते रहेंगे?

दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करने वाले मुसलमान यात्रा के दौरान जिस अनुभव से गुज़रते हैं, मैं भी कई बार इस पीड़ा से गुज़रा हूँ। मुझे यातना और अपने प्रिय लोगों, अपने दोस्तों और देशवासियों का सामूहिक अपमान परेशान करता है। अपने बच्चों और भावी पीढ़ियों की बेबसी और बर्बादी की कल्पना बेचैन करती है। मैं पाकिस्तानियों की उस पीढ़ी से हूँ जिसने एक आधुनिक और सभ्य पाकिस्तान का सपना देखा था। हमने 1960 और 1970 के दशकों में कदम कदम पर उगती हुई उम्मीदों की फसल देखी। फिर अपनी आँखों के सामने अपनी खाक उड़ती देखकर हम बर्बादी के अमल को रोक न सके, हमारा समाज अज्ञानता और नर्गिसियत का शिकार हो गया और राष्ट्रों के आधुनिक मानवीय आंदोलनों से कटता चला गया, नींद में चलते हुए एक काम की तरह जिसे अमल करने वाले ने अपने खेल के लिए सुला दिया हो।

मुझे इस किताबचे की कटुता का एहसास है। मुझे ये भी पता है कि जिस वर्ग को अकास बेल से उपमा दी है और जिन आदरणीय लोगों के विचारों पर आपत्ति की है वो कितने प्रभावशाली और तुनक मिजाज़ हैं और मेरे समाज को कितना तुनक मिजाज़ बना दिया गया है … मुझे डर है कि हमारे समाज को तबाही की ओर धकेलने वाला कारक अपने विचारों की तबाही का विश्लेषण करने पर तैयार नहीं होगा। बल्कि तरह तरह के कारण और आरोप प्रत्यारोप के माध्यम से अपने खेल को जारी रखने की कोशिश करेगा। इसके बावजूद मेरा मानना है कि इस कारक का हाथ रोकना ज़रूरी है, जितना भी हमसे हो सके।

धर्म को राजनीति और रोजगार बनाने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या ईमानदारी से अपने रास्ते को सिराते मुस्तक़ीम (सीधा रास्ता) समझती है। ये सरल लोग आत्ममोह वाले लोग हैं जो मुस्लिम समाज के दूसरे लोगों की तरह कुछ शातिरों की चाल का शिकार हुए हैं, लेकिन धर्म से रोज़गार और सामाजिक सत्ता हासिल होने के कारण ये लोग अपने मौजूदा भूमिका से संतुष्ट हैं, बल्कि गर्व करने की स्थिति में हैं। मेरी कामना और दुआ है कि इस पर ईमानदारी और सरल लोगों के मजमे में से कोई ऐसा आंदोलन जन्म ले जो उन्हें अनावश्यक गर्व से मुक्त करके आत्म आलोचना और सच्ची नम्रता की ओर ले जाए।

मुस्लिम समाज के वो लोग जो आधुनिक सभ्य समाज के नागरिक बन गए हैं, कुछ समय पहले तक अपने पैतृक समाज का मार्गदर्शन किया करते थे। उनकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम और गैर मुस्लिम जनता मानव सभ्यता के विकास को पसंद करने की नज़र से देखते और ईर्ष्या करते थे, लेकिन ये एक बड़ी बदनसीबी है कि आप्रवासी लोग तेज़ी से प्रतिगमन और अज्ञानता के इस आंदोलन से प्रभावित हो रहे हैं जो उन्हें इस्लामी पहचान के नाम पर ज्ञान और चेतना से नफरत पर उकसा रही है और जिसके नतीजे में मुस्लिम जनता के हीरो और रोल मॉडल न तो वैज्ञानिक है न आविष्कारक बल्कि वो क़ारी, मस्जिदों के इमाम उनके लीडर बन गए हैं जिनकी कुल संपत्ति रटी हुई आयतें और कहानियाँ हैं। जिसका अर्थ भी वो पूरी तरह नहीं जानते और जिनके ख़ुत्बों (धार्मिक भाषणों) में झूठे गर्व और वाहियात दावों के अलावा अगर कुछ है तो वो नफरत है जिसका अंजाम मुस्लिम जनता का अकेलापन और पिछड़ापन है … अगर ये किताबचा (पुस्तिका) आप्रवासी मुसलमान युवकों का ध्यान पा सके तो उसे भी खुश नसीबी समझूँगा।

मुस्लिम नौजवानों के मानस पर मदरसा और क़ारी के कल्चर ने कई नकारात्मक प्रभाव छोड़े हैं। लेकिन इनमें संकीर्णता और लोगों को तकलीफ देने में खुशी सबसे महत्वपूर्ण हैं। तोड़फोड़ उन्हीं का ज़हरीला फल है। हम यातना में जीने और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के आदी हो गए हैं। हमारी मस्जिद का इमाम हो या आम मुसलमान गर्व से दावा करता है कि हम ने अमुक को बर्बाद कर दिया। जैसे हमने रूस को बर्बाद कर दिया, हम अमेरिका को बर्बाद कर रहे हैं, हम भारत को भी बर्बाद करेंगे।

चीन को याजूज माजूज कहने की मुहिम जारी है और वक्त आने पर चीन को बर्बाद करने का दावा भी सुना जा सकेगा। लेकिन आप इस इमाम या उस मुक़्तदी के मुंह से ये नहीं सुनेंगे कि हमने किस किस को आबाद किया। उसे अपनी या अपने लोगों की तकलीफें दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं। उसे गर्व है कि वो बर्बाद कर सकता है … यातना देने और मासूम बच्चों पर हिंसा की जिस संस्कृति ने मदरसा में जन्म लिया था, वो बढ़कर युनिवर्सिटी तक आई और अब बाज़ार तक फैल गयी है। हमारे बुद्धिजीवियों सहित हममें से किसी ने भी अपनी आध्यात्मिक नर्गिसियत से निकलकर इस बर्बरता पर आपत्ति नहीं की।

मुझे स्वीकार है कि ये पुस्तिका अपने विषय के विस्तार और गहराई के सामने बहुत अपर्याप्त, बहुत सरसरी और सतही है। फिर भी इसे इस उम्मीद के साथ पेश करने का साहस कर रहा हूं कि मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवी और समझदार लोग मेरी कमियों को नज़रअंदाज करके इस विषय पर हमारा मार्गदर्शन करेंगे।

(लेखक जाने माने शायर व कवि हैं और इस्लाम व उर्दू के विशेषज्ञ हैं। अपने यू ट्यूब चैनल https://www.youtube.com/@TufailChaturvedi के माध्यम से कतट्टरपंथियों की पोळ खोलने का अभियान चला रहे हैं) 

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हम अपने ही अतीत के गौरव से अंजान हैं

इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था कि, विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।

भारतीय इतिहास का प्रारम्भ तथाकथित रूप से सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए। भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर नकारात्मकता से ग्रस्त स्वयं सिद्ध इतिहासकारों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और स्वयं सिद्ध इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और स्वयं सिद्ध इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे…
1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और उन इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और स्वयं सिद्ध द्वारा फैलाये गए आर्य द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।

3. अंग्रेज और स्वयं सिद्ध इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।
कुछ इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है…
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। ये निष्कर्ष लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद निकला।

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में संस्कृत आदि भाषाओं में लिखे गए और भारत में लगाये गए।

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया ।

सुभाष काक ने तो बहुत शोध पत्र तैयार किया एवम सिंधु घाटी की लिपि को लगभग हल कर लिया था, परंतु प्रकाशित करने के एक दिन पहले रहस्यमय मृत्यु हो गई। ये भी शास्त्री जी वाली कहानी थी।

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा। ब्राह्मी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है। सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।

इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।
ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे; श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।
निष्कर्ष यह है कि…

1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।

3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।

4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।

5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।

वैदिक सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, यहां के लोगों का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। आर्य द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।

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नोबुल पुरस्कार ठुकराने वाले  ज्यां पॉल सार्त्र लेखक ही नहीं क्रांतिकारी भी थे

 (जन्म 21 जून 1905, पेरिस , फ्रांस – मृत्यु 15 अप्रैल 1980, पेरिस) 

एक फ्रांसीसी दार्शनिक, उपन्यासकार और नाटककार थे, जो कला के अग्रणी प्रतिपादक के रूप में जाने जाते हैं।20वीं सदी में अस्तित्ववाद के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत ही अलग था। 1964 में उन्होंने साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया , जो उन्हें “उनके काम के लिए दिया गया था, जो विचारों से भरपूर और स्वतंत्रता की भावना और सत्य की खोज से भरा हुआ था, जिसने हमारे युग पर दूरगामी प्रभाव डाला है।”

सार्त्र ने कम उम्र में ही अपने पिता को खो दिया था और अपने नाना कार्ल श्वित्जर के घर में पले-बढ़े, जो मेडिकल मिशनरी अल्बर्ट श्वित्जर के चाचा थे और खुद सोरबोन में जर्मन के प्रोफेसर थे। वह लड़का, जो खेलने के लिए साथियों की तलाश में पेरिस के लक्जमबर्ग गार्डन में भटकता था, कद में छोटा था और उसकी आंखें टेढ़ी थीं। उनकी शानदार आत्मकथा , लेस मोट्स (1963;शब्द ), पार्क में माँ और बच्चे के रोमांच का वर्णन करते हैं, जब वे एक समूह से दूसरे समूह में जाते हैं – स्वीकार किए जाने की व्यर्थ आशा में – और अंत में अपने अपार्टमेंट की छठी मंजिल पर वापस चले जाते हैं “उन ऊंचाइयों पर जहाँ (सपने) बसते हैं।” “शब्दों” ने बच्चे को बचाया, और उसके लेखन के अंतहीन पृष्ठ उस दुनिया से पलायन थे जिसने उसे अस्वीकार कर दिया था लेकिन जिसे वह अपनी कल्पना में फिर से बनाना चाहता था।

सार्त्र पेरिस में लीसी हेनरी चतुर्थ में गए और बाद में, अपनी मां के पुनर्विवाह के बाद, ला रोशेल में लीसी में गए। वहां से वे प्रतिष्ठित इकोले नॉर्मले सुपीरियर गए, जहां से उन्होंने 1929 में स्नातक किया। सार्त्र ने जिसे “बुर्जुआ विवाह” कहा, उसका विरोध किया, लेकिन छात्र रहते हुए भी उन्होंने एक-दूसरे के साथ संबंध बनाए।सिमोन डी बोवुआर एक ऐसा मिलन था जो जीवन भर एक स्थायी साझेदारी बना रहा। सिमोन डी बोवुआर के संस्मरण, मेमोइरेस डी’उन ज्यून फ़िल रंगी (1958;एक कर्तव्यपरायण बेटी के संस्मरण ) और ला फ़ोर्स डे लागे (1960;द प्राइम ऑफ़ लाइफ ), सार्त्र के जीवन का एक अंतरंग विवरण प्रदान करता है, जो उनके विद्यार्थी वर्षों से लेकर उनके 50 के दशक के मध्य तक का है।

इकोले नॉर्मले सुपीरियर और सोरबोन में ही उनकी मुलाकात कई ऐसे व्यक्तियों से हुई जो महान लेखक बनने के लिए किस्मत में थे; उनमें रेमंड एरन , मौरिस मर्लेउ-पोंटी , सिमोन वेइल , इमैनुएल मौनियर, जीन हिप्पोलाइट और क्लाउड लेवी-स्ट्रॉस शामिल थे। 1931 से 1945 तक सार्त्र ने ले हावरे , लाओन और अंत में पेरिस के लाइसेज़ में पढ़ाया । दो बार उनके शिक्षण करियर में रुकावट आई, एक बार बर्लिन में एक साल के अध्ययन के कारण और दूसरी बार जब सार्त्र को 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध में सेवा करने के लिए तैयार किया गया । उन्हें 1940 में कैदी बना लिया गया और एक साल बाद रिहा कर दिया गया।

ले हावरे में अध्यापन के वर्षों के दौरान, सार्त्र ने ला नौसी (1938;नौसी ( Nausea ) । डायरी के रूप में लिखा गयायह दार्शनिक उपन्यास , एक निश्चित रोक्वेंटिन द्वारा अनुभव की गई घृणा की भावना को बयान करता है, जब उसे पदार्थ की दुनिया से सामना करना पड़ता है – न केवल अन्य लोगों की दुनिया बल्कि अपने स्वयं के शरीर के बारे में जागरूकता। कुछ आलोचकों के अनुसार, ला नौसी को एक रोग संबंधी मामले के रूप में देखा जाना चाहिए, एक प्रकार का विक्षिप्त पलायन।

व्यक्तिगत बचाव में अपना लेख लिखने के बादस्वतंत्रता और मानवीय गरिमा के लिए संघर्ष करते हुए, सार्त्र ने अपना ध्यान सामाजिक जिम्मेदारी की अवधारणा की ओर लगाया। कई वर्षों तक उन्होंने गरीबों और सभी प्रकार के वंचितों के लिए बहुत चिंता दिखाई थी। एक शिक्षक के रूप में, उन्होंने टाई पहनने से इनकार कर दिया था, मानो वे अपनी टाई के साथ अपने सामाजिक वर्ग को त्याग सकते हैं और इस तरह कार्यकर्ता के करीब आ सकते हैं।

उनके सार्वजनिक व्याख्यान L’Existentialisme est un humanisme (1946;अस्तित्ववाद और मानवतावाद )। स्वतंत्रता का तात्पर्य अब सामाजिक जिम्मेदारी से था। अपने उपन्यासों और नाटकों में सार्त्र ने अपना नैतिक संदेश पूरी दुनिया तक पहुँचाना शुरू किया।उन्होंने 1945 में शीर्षक के तहत चार खंडों वाला उपन्यास शुरू कियालेस केमिन्स डे ला लिबर्टे, जिनमें से तीन अंततः लिखे गए: लेज डे राइसन (1945; द एज ऑफ़ रीज़न ), ले सुरसिस (1945; द रिप्रीव ), और ला मोर्ट डान्स लामे (1949; आयरन इन द सोल , या ट्रबल्ड स्लीप )। तीसरे खंड के प्रकाशन के बाद, सार्त्र ने संचार के माध्यम के रूप में उपन्यास की उपयोगिता के बारे में अपना विचार बदल दिया और नाटकों की ओर लौट आए।

सार्त्र ने कहा कि एक लेखक को मनुष्य को वैसा ही दिखाने का प्रयास करना चाहिए जैसा वह है। मनुष्य तब अधिक मानवीय होता है जब वह क्रियाशील होता है, और नाटक बिल्कुल यही चित्रित करता है। युद्ध के दौरान वह इस माध्यम में पहले ही लिख चुके थे, और 1940 और 1950 के बचे हुए दशकों में उन्होंने कई और नाटक लिखे, जिनमें लेस मौचेस ( द फ्लाईज़ ), ह्यूइस-क्लोस ( इन कैमरा , या नो एग्ज़िट ), लेस मेन्स सेल्स ( डर्टी हैंड्स , या रेड ग्लव्स ), ले डायबल एट ले बॉन डियू ( लूसिफ़ेर एंड द लॉर्ड ), नेक्रासोव , और लेस सेक्वेस्ट्रेस डी’अल्टोना ( लूज़र विंस , या द कंडम्ड ऑफ़ अल्टोना ) शामिल हैं। सभी नाटक, मनुष्य के प्रति मनुष्य की कच्ची शत्रुता पर अपने जोर में , मुख्य रूप से निराशावादी प्रतीत होते हैं इसी अवधि के अन्य प्रकाशनों में एक पुस्तक, बौडेलेयर (1947) शामिल है, जो फ्रांसीसी लेखक और कवि पर एक अस्पष्ट नैतिक अध्ययन हैजीन जेनेट शीर्षकसेंट जेनेट, कॉमेडियन एट शहीद (1952; सेंट जेनेट, एक्टर एंड मार्टिर ), और अनगिनत लेख जो लेस टेम्प्स मॉडर्नेस में प्रकाशित हुए थे, वह मासिक समीक्षा जिसे सार्त्र और सिमोन डी ब्यूवोइर ने स्थापित और संपादित किया था। इन लेखों को बाद में शीर्षक के तहत कई खंडों में एकत्र किया गयापरिस्थितियाँ .

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद , सार्त्र ने फ्रांसीसी राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रुचि ली और उनका झुकाव वामपंथ की ओर अधिक स्पष्ट हो गया। वे सोवियत संघ के मुखर प्रशंसक बन गए, हालांकि वे फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी (पीसीएफ) में शामिल नहीं हुए । 1954 में उन्होंने सोवियत संघ, स्कैंडिनेविया, अफ्रीका, संयुक्त राज्य अमेरिका और क्यूबा का दौरा किया।

हालांकि, सार्त्र की साम्यवाद की उम्मीदें दुखद रूप से कुचल दी गईं। उन्होंने लेस टेम्प्स मॉडर्नेस में एक लंबा लेख लिखा , “ले फैंटोम डे स्टालिन,” जिसने सोवियत हस्तक्षेप और पीसीएफ के मास्को के हुक्म के आगे झुकने की निंदा की। वर्षों से इस आलोचनात्मक रवैये ने “सार्त्रियन समाजवाद” के एक ऐसे रूप का रास्ता खोल दिया, जिसकी अभिव्यक्ति एक प्रमुख रचना में हुई,डायलेक्टिक के कारण की आलोचना , खंड 1: व्यावहारिक समूहों के समूह का सिद्धांत (1960; डायलेक्टिकल रीजन की आलोचना, खंड 1: व्यावहारिक समूहों का सिद्धांत )। सार्त्र ने मार्क्सवादी द्वंद्ववाद की आलोचनात्मक जांच करने का प्रयास किया और पाया कि सोवियत रूप में यह रहने योग्य नहीं था।

हालांकि वह अब भी मानते थे कि मार्क्सवाद वर्तमान समय के लिए एकमात्र दर्शन है , उन्होंने स्वीकार किया कि यह कठोर हो गया था और विशेष परिस्थितियों के अनुकूल खुद को ढालने के बजाय इसने विशेष को पूर्वनिर्धारित सार्वभौमिक में फिट होने के लिए मजबूर किया। इसके मौलिक, सामान्य सिद्धांत जो भी हों, मार्क्सवाद को अस्तित्वगत ठोस परिस्थितियों को पहचानना सीखना चाहिए जो एक समूह से दूसरे समूह में भिन्न होती हैं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। क्रिटिक , जो कुछ हद तक खराब निर्माण से ख़राब है, वास्तव में एक प्रभावशाली और सुंदर पुस्तक है। एक प्रस्तावित दूसरा खंड, हालांकि अधूरा था, अंततः L’intelligibility de l’histoire (1985; इतिहास की बोधगम्यता) के रूप में प्रकाशित हुआ ।

1960 से 1971 तक सार्त्र का अधिकांश ध्यान एल’इडियट डे ला फ़ैमिली ( द फ़ैमिली इडियट ) के लेखन में लगा , जो 19वीं सदी के फ्रांसीसी उपन्यासकार पर एक विशाल – और अंततः अधूरा – अध्ययन था।गुस्ताव फ़्लाबेर्त । 1971 के वसंत में इस कृति के दो खंड प्रकाशित हुए।  सार्त्र अंधे हो गए और उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया । अप्रैल 1980 में फुफ्फुसीय शोफ से उनकी मृत्यु हो गई। उनके अंतिम संस्कार में लगभग 25,000 लोग शामिल हुए,जो लोग इसमें शामिल हुए वे आम लोग थे जिनके अधिकारों की सार्त्र की कलम ने हमेशा रक्षा की थी।

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सैर लंदन की  

बचपन से कहना तो बेमानी होगा लेकिन जबसे सक्रिय पत्रकारिता के क्रम में देश-विदेश भ्रमण का सिलसिला शुरू हुआ और खासतौर से रूस, अमेरिका और चीन की यात्रा कर लेने के बाद से ही विश्व की पांच महाशक्तियों में शुमार युनाइटेड किंगडम के इंग्लैंड और इसके राजधानी शहर लंदन आने की इच्छा हिलोरें मार रही थीं। लंदन आने और हमारे भारत पर दो सदियों (तकरीबन 190 साल) तक राज करनेवाले अंग्रेजों के साम्राज्य और राजधानी शहर में घूमने और इसके इतिहास, भूगोल, संस्कृति और समाज को देखने समझने की ललक भी थी। मन में हूक तो फ्रांस की राजधानी पेरिस और वहां विश्व प्रसिद्ध एफिल टॉवर को भी देखने की उठती रहती है। देखें मन की यह मुराद कब पूरी होती है।

लंदन यूनाइटेड किंगडम और इंग्लैंड की राजधानी और सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। यूनाइटेड किंगडम में इंगलैंड के अलावा वेल्स, स्काटलैंड और उत्तरी आयरलैंड शामिल हैं। इंग्लैंड के इतिहास में सबसे स्वर्णिम काल उसका औपनिवेशिक युग है। अठारहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के मध्य तक ब्रिटिश साम्राज्य विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य हुआ करता था जो कई महाद्वीपों में फैला हुआ था और कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता।

ग्रेट ब्रिटेन द्वीप के दक्षिण पूर्व में थेम्स नदी के किनारे स्थित, लंदन राजनीति, शिक्षा, मनोरंजन, मीडिया, फ़ैशन और शिल्प के क्षेत्र में वैश्विक शहर के रूप में जाना जाता है। सदियों पहले इसे रोमनों ने लोंडिनियम के नाम से बसाया था। लंदन में तमाम देशों के तमाम धर्म-संप्रदायों के लोगों और संस्कृतियों की विविधता है। यहां 300 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन आम (कॉमन) भाषा अंग्रेज़ी है। 1831 से 1925 तक लंदन विश्व के सबसे अधिक आबादी वाला शहर था। आज लंदन की आबादी तकरीबन एक करोड़ है। यहां चार विश्व धरोहर स्थल हैं: टॉवर ऑफ़ लंदन; बकिंघम पैलेस, वेस्ट्मिंस्टर पैलेस, वेस्ट्मिन्स्टर ऍबी और सेंट मार्गरेट्स चर्च क्षेत्र; और ग्रीनविच वेधशाला (जिसमें रॉयल वेधशाला, ग्रीनविच प्राइम मेरिडियन, जीरो डिग्री रेखांकित और जीएमटी चिह्नित होती है)।

अन्य प्रसिद्ध स्थलों में बकिंघम पैलेस, लंदन आई, पिकैडिली सर्कस, सेंट पॉल कैथेड्रल, टावर ब्रिज, ट्राफलगर स्क्वायर, और द शर्ड आदि शामिल हैं। लंदन में ब्रिटिश संग्रहालय, नेशनल गैलरी, प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, टेट मॉडर्न, ब्रिटिश पुस्तकालय और वेस्ट एंड थिएटर सहित कई संग्रहालयों, दीर्घाओं, पुस्तकालयों, खेल आयोजनों और अन्य सांस्कृतिक संस्थानों का घर है।

गीता जी और सुमेधा के साथ लंदन यात्रा का संयोग इस जून महीने की 11 तारीख को बड़े सुपुत्र प्रतीक के सौजन्य से संभव हो सका। वह यहां सेंसबरी में स्टाफ इंजीनियर के रूप में कार्यरत हैं। हम विस्तारा की उड़ान से स्थानीय (लंदन) समय के अनुसार शाम के 8.30 बजे लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर पहुंचे। इमिग्रेशन के लिए लंबी कतारों को पार करने में तकरीबन डेढ़ घंटे का समय लग गया। हालांकि इमिग्रेशन प्रक्रिया बहुत सुमता से दो मिनट में ही संपन्न हो गई।

 जहां से लगेज लेना था, प्रतीक हमारा पहले से ही इंतजार कर रहे थे। हवाई अड्डे पर ही भूमिगत स्टेशन पर अत्याधुनिक एलिजाबेथ ट्यूब (मेट्रो) रेल पर सवार होकर हम लोग प्रतीक के निवास के करीब शैडवेल स्टेशन पर उतरे। बीच में ह्वाइट चैपल पर बदलकर दूसरी ट्यूब रेल लेनी पड़ी। स्टशन से बाहर निकलते ही हमारा स्वागत तेज रफ्तार नम हवाओं ने किया। बचाव के लिए जैकेट और मफलर का सहारा लेना पड़ा। शैडवेल से पांच-सात मिनट पैदल चलकर हम प्रतीक के निवास पर पहुंच गए।
लंदन में दुनिया का सबसे पुराना भूमिगत रेलवे नेटवर्क है। यहां सबसे पुराना ट्यूब रेल स्टेशन बेकर स्ट्रीट है जहां 10 जनवरी 1863 को पहली भूमिगत मेट्रो (अब ट्यूब) रेल का परिचालन शुरू हुआ था। यहां कुछ स्टेशनों पर जमीन के सात मंजिल नीचे भी ट्यूब रेल के प्लेट फार्म हैं।
साभार- https://www.facebook.com/jaishankargupt से
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डाक विभाग ने उत्साहपूर्वक मनाया ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’

वाराणसी। 10वां ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ समारोह डाक विभाग द्वारा विभिन्न मंडलों और डाकघरों में उत्साहपूर्वक मनाया गया। वाराणसी कैण्ट प्रधान डाकघर परिसर में पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव के नेतृत्व में डाक अधिकारियों और कर्मियों ने योगाभ्यास किया। इस अवसर पर उन्होंने योग को अपनाकर स्वस्थ भारत के निर्माण में सहभागी बनने और डाक विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों को नियमित योगाभ्यास कर इसे अपनी नियमित जीवन शैली में जोड़ने पर जोर दिया। योग प्रशिक्षक डॉ. एस.आर. सिंह ने इस अवसर पर योगा प्रोटोकाल के तहत विभिन्न आसनों की महत्ता बताते हुए योगाभ्यास कराया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने अपने उदबोधन में कहा कि योग वस्तुत: अनुशासित जीवन जीने का विज्ञान है। योग के माध्यम से स्वयं एवं समाज के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा कर उनका सशक्तिकरण किया जाना है। इस ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ को ‘योग स्वयं और समाज के लिए’ की थीम को समर्पित कर इसे चरितार्थ भी किया गया है। योग हमारी प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है I ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ के माध्यम से भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य और विलक्षण धरोहर को वैश्विक स्तर पर अपनाया गया है। आज के भौतिकवादी युग में योग न केवल निरोग रहने का साधन है, बल्कि मानवता के संरक्षण का प्रबल अवलंबन भी है। योग मन और शरीर, विचार और क्रिया की एकता का प्रतीक है जो मानव कल्याण के लिए मूल्यवान है।

इस अवसर पर अधीक्षक डाकघर विनय कुमार ने कहा कि, योग न सिर्फ हमें नकारात्मकता से दूर रखता है अपितु हमारे मनोमस्तिष्क में अच्छे विचारों का निर्माण भी करता है।

इस अवसर पर डाक अधीक्षक विनय कुमार, सहायक निदेशक ब्रजेश शर्मा,आरके चौहान, लेखाधिकारी प्लाबन नस्कर, सहायक डाक अधीक्षक इन्द्रजीत पाल, पल्ल्वी मिश्रा, निरीक्षक अनिकेत रंजन, दिलीप पाण्डेय, रमेश यादव, कैण्ट पोस्टमास्टर गोपाल दुबे के साथ श्री प्रकाश गुप्ता, रामचंद्र यादव, राकेश कुमार, राहुल वर्मा, मनीष कुमार, पंकज सिंह, शम्भू कुमार, अभिलाषा सहित तमाम लोग उपस्थित रहे।

(आर. के. चौहान)
सहायक निदेशक
कार्यालय- पोस्टमास्टर जनरल
वाराणसी क्षेत्र, वाराणसी -221002

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