Friday, April 26, 2024
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भगवान् महावीर के जीवन पर ग्रहों का प्रभाव

अनेक शास्त्रों में एक रोचक शास्त्र है- ज्योतिष शास्त्र। ग्रह नक्षत्रों की गति, स्थिति आदि पर विचार करने वाला शास्त्र। ग्रह, नक्षत्रों आदि के शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र। ज्योतिष शास्त्र में मुख्यतः 9 ग्रह, 12 राशियाँ और 27 नक्षत्र होते हैं। हमारी धरती पर 9 ग्रह में से सूर्य का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। उसके बाद चन्द्रमा का प्रभाव माना गया है। उसी प्रकार क्रमशः मंगल, गुरु और शनि का भी प्रभाव पड़ता है। ग्रहों का प्रभाव सम्पूर्ण धरती पर पड़ता है, किसी एक मानव पर नहीं। धरती के जिस भी क्षेत्र विशेष में जिस भी ग्रह विशेष का प्रभाव पड़ता है, उस क्षेत्र विशेष में परिवर्तन देखने को मिलता है। अमावस्या और पूर्णिमा का भी धरती पर प्रभाव पड़ता है। समुद्र में ज्वार-भाटा का आना भी सूर्य, चन्द्र की आकर्षण शक्ति का ही प्रभाव है। फिर वह समुद्र का जल हो या पेट का जल।

जहाँ तक ग्रहों के अच्छे और बुरे प्रभाव का संबंध है, तो इस संबंध में कहा जाता है कि जब मौसम बदलता है तो कुछ लोग बीमार पड़ जाते हैं और कुछ नहीं। ऐसा इसलिए कि जिसमें जितनी प्रतिरोधक क्षमता है, वह उतनी क्षमता से प्रकृति के बुरे प्रभाव से लड़ेगा। दूसरा उदाहरण है कि जिस प्रकार एक ही भूमि में बोए आम, नीम, बबूल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार गुण-धर्मों का चयन कर लेते हैं और सोने की खदान की ओर सोना, चाँदी की ओर चाँदी और लोहे की खदान की ओर लोहा आकर्षित होता है, ठीक उसी प्रकार पृथ्वी के जीवधारी विश्व चेतना के अथाह सागर में रहते हुए भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप भले-बुरे प्रभावों से प्रभावित होते हैं। तो आइये, अब हम देखते हैं भगवान् महावीर की जन्म कुंडली। भगवान् महावीर पर ग्रहों का प्रभाव किस प्रकार रहा?

श्री महावीर स्वामी की जन्म कुण्डली
प्रस्तुत कुण्डली के आधार पर भगवान् महावीर का जन्म मकर लग्न में हुआ है। लग्न में मंगल उच्च का है। चतुर्थ घर में सूर्य उच्च का है। सप्तम घर में बृहस्पति और दसवें घर में शनि उच्च का है। विशेष बात है कि चारों ही उच्च ग्रह केन्द्र में हैं। 5वें त्रिकोण स्थान में शुक्र स्वग्रही है। नौवें घर में चंद्रमा बैठा है। बुध, सूर्य के साथ चैथे घर में बैठा है।

अनुभव के अनुसार मंगल, शनि, बुध, सूर्य और शुक्र इन 5 ग्रहों में से एक भी ग्रह केन्द्र में उच्च राशि का होता तो महापुरुष योग बनता है। अनेक ग्रंथों में प्रचलित यह कुण्डली पूर्ण रूप से सही प्रतीत होती है। प्रभु के जन्म समय में राशियों का प्रचलन नहीं था। पंचांग के 5 अंगों में से केवल तीन अंग का ही प्रचलन था। जैसे तिथि, नक्षत्र और करण।

भगवान् महावीर का जन्म ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के दूसरे पक्ष चैत्र सुदी त्रयोदशी को हस्तोत्तरा अर्थात् उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में हुआ था।

आचारांग के पश्चात् कल्पसूत्र में वर्णन आया है- ‘‘पुव्वरत्ता व रत्तकाल समयंसि’’ ‘‘उच्चठाणगयेसु गहेसु’’ अर्थात् मध्यरात्रि में उच्च ग्रहों के समय में जन्म हुआ था, जो कुण्डली में बैठा मेष का सूर्य भी प्रमाणित कर रहा है। प्रभु का जन्म 12 बजे से 2 बजे के बीच में हुआ होगा।
सुखी, भोगी, धनी, नेता, मंडलपत्ति नृपति, राजा, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि पदवियाँ ऐसी श्रेष्ठ कुंडली का ही फल है। यदि एक ग्रह भी उच्च का हो तो वह व्यक्ति महान उन्नति करता है। यदि दो, तीन, चार, पांच ग्रह उच्च राशि के हों तो महापुरुष का योग बनता है। भगवान् महावीर की कुण्डली में इस प्रकार पांच महापुरुष योग, तीन उच्च ग्रह केन्द्र में होने से उत्कृष्ट महापुरुष योग बन गया है, अर्थात् तीर्थंकर योग बन गया है।

वर्ष के 12 महीनों में चैत्र महीना सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ‘‘मासानां मधुमासोस्मि’’ ऋतुओं में वसंत ऋतु पतझड़ की उदासी को उल्लास में, सूनेपन को चेतना में बदलकर प्रकृति पुलक उठती है। ग्रंथों में इस ऋतु को ज्ञानियों का, मुनियों का, साधकों का, महापुरुषों का माना है। इसी मास में अर्थात् चैत्र शुक्ला नवमी को श्री राम, चैत्र सुदी पूर्णिमा को हनुमान का, चैत्र कृष्णा अष्टमी को भगवान् ऋषभदेव का , चैत्र सुदी त्रयोदशी को भगवान् महावीर का जन्म हुआ। तिथियों में श्रेष्ठ तिथि है तीज या तेरस। कहावत है- ‘‘बिन देख्या मुहूत्र्त भलो, के तीज के तेरस।’’
आपका मकर लग्न होने का फल है- वृषभ के समान मांसल स्कंध थे, भुजाएं लम्बी थीं, पूरा शरीर सुगठित, सिंघेण, संस्थान से युक्त था। वीर, साहसी, धैर्यशाली, शरीर की प्रभा निर्मल स्वर्ण रेखा के समान थी। पराक्रमी, परिश्रमी, प्रभावशाली थे।

उदाहरण- भगवान् महावीर जब 8 वर्ष के भी नहीं हुए थे, उस समय वे अपने साथियों के साथ प्रमदवन में क्रीड़ा कर रहे थे। उसी क्रीड़ा में सभी बालक किसी एक वृक्ष को लक्ष्य करके दौड़ते, जो बालक सबसे पहले वृक्ष पर चढ़कर नीचे उतर जाता, वह विजयी बालक पराजित बच्चों के कंधों पर चढ़कर उस स्थान पर जाता, जहां से दौड़ शुरु की थी। उस समय देवराज इंद्र ने बालक वर्धमान के वीरत्व की प्रशंसा की। एक अभिमानी देव प्रशंसा को चुनौती देता हुआ, उनके साहस की परीक्षा लेने के लिए भयंकर सर्प का रूप धारण कर उस वृक्ष पर लिपट गया। फुंकार करते हुए नागराज को निहार कर अन्य सभी बालक भयभीत होकर वहां से भाग गए, पर किशोर वर्धमान ने बिना डरे, बिना झिझक के उस सर्प को पकड़कर एक तरफ रख दिया। इस खेल का नाम था- ‘द्रुमक्रीड़ा।’

बालक पुनः एकत्र हुए और खेल फिर प्रारंभ हुआ। इस बार वे ‘‘तिंदुषक क्रीड़ा’’ खेलने लगे। द्रुमक्रीड़ा व तिंदुषक क्रीड़ा में फर्क इतना ही है- द्रुमक्रीड़ा में वृक्ष पर चढ़कर उतरना था, तो तिंदुषक क्रीड़ा में वृक्ष को छूकर आना। इस बार वही देव किशोर का रूप धारण कर उस क्रीड़ादल में सम्मिलित हुआ। खेल में वर्धमान के साथ हार जाने पर नियमानुसार उसे वर्धमान को पीठ पर बैठाकर दौड़ना पड़ा। किशोर रूपधारी देव दौड़ता-दौड़ता बहुत आगे निकल गया और उसने विकराल रूप बनाकर वर्धमान को डराना चाहा। देखते ही देखते किशोर ने लंबा ताड़-सा भयंकर पिशाच रूप बनाया, किन्तु वर्धमान उसकी करतूत देखकर भी घबराए नहीं। वे अविचल रहे और साहस के साथ उसकी पीठ पर ऐसा मुष्टि प्रहार किया कि देवता वेदना से चीख उठा। गर्व खंडित हुआ। स्वरूप में आए देव ने वर्धमान के पराक्रम का लोहा मानकर उन्हें वंदना करते हुए कहा- इन्द्र ने आपकी जैसी प्रशंसा की थी, आप उससे भी अधिक धीर व वीर है। देव बालक की स्तुति कर अपने स्थान पर चला गया। इस घटना ने बालक वर्धमान को महावीर बना दिया।

प्रभु की शक्ति तो जन्म लेते ही पता चल गई थी। इन्द्र के मन में विचार उठा कि यह नन्हा-सा बालक अनेक देवों द्वारा की जाती हुई अभिषेक धाराओं को कैसे सहन करेगा? भगवान् ने अवधिज्ञान से जान लिया। शंका का निवारण करते हुए अंगूठे से मेरु पर्वत को हिला दिया था, जिससे विश्व में क्षोभ उत्पन्न हो गया। इन्द्र ने विचार किया कि भगवान् के अभिषेक से तो सम्पूर्ण विश्व में प्रसन्नता की लहर व्याप्त होनी चाहिए थी, यह अकस्मात भूकम्प कैसे आ गया? अवधिज्ञान से इन्द्र ने जान लिया, यह तो जिनेश्वर देव के अनंत सामथ्र्य का ही फल है। तब इन्द्र ने अपने अपराध की क्षमा मांगी। ज्योतिष शास्त्र के अनुसर यह है उच्च मंगल का प्रभाव। जो विरोध को आसानी से सहन नहीं कर पाते हैं। अपने बल से निर्भीक होकर धैर्य से शत्रुओं को परास्त करने में होशियार होते हैं।

आपकी कुण्डली के द्वितीय भाव में कुंभराशि है, जिसका मालिक शनि उच्च का होकर दशम भाव में, केन्द्र में स्थित है। वाणी में ओज, तेज, प्रखरता प्रदान करनेवाला, ‘‘कटु वाणी किन्तु सत्य’’ जिसे कोई भी नकार नहीं सकता। न्यायप्रिय देवता शनि न्याय की ही बात करवाता है।

शनि का ही प्रभाव समझो- भगवान् महावीर ने अपने दिव्य व भव्य संदेश के द्वारा ‘‘अवरुद्ध मानसिक जड़ता’’ को झकझोर कर विशुद्ध मानवता का पाठ पढ़ाया। धार्मिक विचारों में जो अज्ञान का जंग लग चुका था, उसे साफ किया। निर्भयतापूर्वक पुरोहितों के काले कारनामों को जनजीवन के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा- मनुष्य जाति एक है। जैसे ब्राह्मणों को धर्म करने का अधिकार है, वैसा ही अधिकार शूद्रों को भी है। जैसे पुरुष आध्यात्मिक विकास कर सकता है, वैसे ही नारी भी कर सकती है। इस प्रकार स्त्री-पुरुष एवं ब्राह्मण-शूद्र जाति का भेदभाव मिटाया। सत्यं शिवं और सुन्दरं का मधुरघोष जन-जन के कर्ण कुहरों में गूंजने लगा। क्रांति के सूर्य भगवान् महावीर ने जनजीवन में से अज्ञान का अंधकार नष्ट किया। पाप का पर्दा हटाया। सर्वत्र क्षमता का सागर लहराने लगा। यह था वाणी का प्रभाव। शनि ने सबको न्याय प्रदान किया, अन्याय का अनादर किया।

कुण्डली के चैथे भाव में स्थित उच्च राशिगत सूर्य, बुध के सहयोग से बुधादित्य योग होकर बुद्धि बल का प्रभाव किस प्रकार दर्शाया है, वह प्रस्तुत दृष्टांत से सहज ही समझा जा सकता है-भगवान् महावीर जब 8 वर्ष के हुए तो माता-पिता ने शुभ मुहूत्र्त देखकर उनको अध्ययन के लिए कलाचार्य के पास भेजा। माता-पिता को उनके जन्मसिद्ध 3 ज्ञान का व अलौकिक प्रतिभा का ज्ञान नहीं था। माता-पिता पुत्र को लेकर जा रहे थे कि इन्द्र का आसन चलायमान हुआ और देखा अवधिज्ञान से, कि विशिष्ट ज्ञानी को सामान्य पंडित क्या पढ़ायेगा? भगवान् महावीर के बुद्धि वैभव तथा प्रतिभा का परिचय विद्या गुरु तथा जनता को कराने की दृष्टि से ब्राह्मण के वेश में आकर सब की उपस्थिति में व्याकरण के जटिल प्रश्न पूछे। भगवान् महावीर ने सबके उत्तर सही दे दिए। महावीर की अलौकिक प्रतिभा को देखकर सभी पंडित व विद्यार्थी चकित रह गए। पंडित ने भी अपनी कुछ पुरानी शंकाओं का समाधान किया। ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र ने कहा- विज्ञवर! यह कोई साधारण बालक नहीं है, यह विद्या का सागर है, सम्पूर्ण शास्त्रों का पारगामी है। महावीर के मुख से निकले निसरत उन उत्तरों को व्यवस्थित संकलित कर, ‘‘ऐन्द्र व्याकरण’’ की संज्ञा दी।

राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला ने पुत्र की असाधारण योग्यता देखी तो बहुत ही प्रसन्न हुए कि हमारा पुत्र तो गुरुओं का गुरु है, देवों का देव है, मानव में महामानव है।

इस बुधादित्य श्रेष्ठ योग के प्रभाव से ही आप एक बहुत बड़े दार्शनिक कहलाए।

मेष राशि में स्थित सूर्य ग्रह उच्च का होने से कुण्डली के स्वामी को संसार का पिता, संसार का मालिक, शासन का नायक आदि परम पद को प्राप्त करवाकर चारों ही नहीं, दसों दिशा में यश कीर्ति की ध्वजा फहराकर जगत् प्रसिद्ध कर दिया। यह है उच्च राशि के सूर्य का परिणाम।
सूर्य शनि आमने-सामने दोनों ही उच्च राशि में बैठकर एक-दूसरे को देख रहे हैं। जैसे पिता पुत्र का और पुत्र पिता का ख्याल रख रहे हों। दोनों के 7 घर दूर बैठने से आपस के प्रेम, आत्मीयता, स्नेह आदि में वृद्धि दर्शाता है। साथ ही साथ पंचम स्थान में बैठा स्वग्रही शुक्र भी संतान के रूप में, पुत्र-पुत्री के रूप में, शिष्य-शिष्याओं के प्रति प्रेम दिखाया जा रहा है। शायद है कि इसी कारण से भगवान् महावीर का विशाल शिष्य समुदाय था। 14 हजार साधु, 36 हजार साध्वियां, 1 लाख 59 हजार श्रावक, 3 लाख 18 हजार श्राविकाएं हुए।

पाठकों के मन में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि इतना बड़ा समुदाय प्रभु ने कैसे संभाला होगा? गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जब प्रभु के उच्च का मंगल, जिसने उनको यह पद प्रदान करवाया, तो वह उनको संभालने का साहस-शक्ति व सामथ्र्य भी प्रदान करता है। जब भी कोई विचलित हुए, उन्हें अविचल किया। जब कोई अस्थिर हुए, उन्हें स्थिर किया। अधर्मी को धर्मी, अज्ञानी को ज्ञानी, हिंसक को अहिंसक, संसारी को संयमी और संयमी को सिद्ध बनाकर इतिहास में नाम अमर कर दिया।

मंगल, सूर्य, बुध व शुक्र के बारे में प्रस्तुत कुण्डली से ग्रहों का बल व फल जानने का प्रयास किया है। चार ग्रहों का प्रभाव देखा है, किन्तु पांच ग्रहों का प्रभाव भगवान् महावीर पर कैसा रहा है? यह जानना अभी शेष है।

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