Friday, May 3, 2024
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टुकड़े टुकड़े पाकिस्तान / ९

पाकिस्तान का टूटता तारा – बलूचिस्तान / १

(जाने माने इतिहास लेखक व राजनीतिक चिंतक प्रशांत पोळ ने भारत विभाजन के दौर की घटनाओँ पर जबर्दस्त शोध किया है और पाकिस्तान बनने और उसके बाद के घटनाक्रमों पर कई ऐतिहासिक साक्ष्य जुटाएं हैं , उनके इस अभिनव कार्य की छठी कड़ी में प्रस्तुत है गाँधी और नेहरु द्वारा खैबर पख्तुनावा जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर क्षेत्र को पाकिस्तान के पाले में डालने का षड़यंत्र और बादशाह अब्दुल गफ्फार खान से धोखाधड़ी की दास्तान के बाद पढ़िये बलूचिस्तान का ऐतिहासिक महत्व और पाकिस्तान द्वारा षड़यंत्रपूर्वक इस पर कब्जा कर यहाँ की हिंदू व बौध्द संस्कृति को नष्ट करने की कुटिल चालों के बारे में )

बलूचिस्तान. पाकिस्तान का, फैलाव की दृष्टि से, या क्षेत्रफल की दृष्टि से, सबसे बड़ा राज्य. पाकिस्तानी जमीन का ४४% हिस्सा समेटने वाला. लेकिन सघन बसाहट नहीं. इसलिए जनसंख्या के मामले में पिछडा हुआ. सवा करोड़ के लगभग आबादी. समंदर को छूता हुआ किनारा. कुछ हिस्सा ईरान से जुड़ा हुआ, तो कुछ अफगानिस्तान से.

आज कुछ उजड़ा हुआ सा लगने वाला यह प्रदेश किसी जमाने में अत्यंत संपन्न था. विश्व में खेती करने के सबसे प्राचीन प्रमाण, इसी क्षेत्र में मिले हैं.

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बलूचिस्तान का इतिहास काफी पुराना हैं. कुछ हजार वर्ष पुराना. *पहले यह पूरा क्षेत्र हिन्दू था. संस्कृत के श्लोक, वेदों के मंत्र, उपनिषदों की ऋचाएँ यहाँ के दर्रे में गूँजती थी. इसी प्रदेश के मकरान क्षेत्र में, हिंगोल नदी के पास, अत्यंत दुर्गम पहाड़ी पर देवी भगवती के ५१ शक्तिपीठों में से एक, ‘हिंगलाज माता का मंदिर’ हैं. अरबी समुद्र से यह मंदिर मात्र २० किलोमीटर दूरी पर हैं. चूंकि यह क्षेत्र रेगिस्तानी भाग में आता हैं, इसलिए इसे ‘मरुतीर्थ हिंगलाज’ भी कहा जाता हैं.* इसी रास्ते से सिकंदर भारत पर आक्रमण करने आया था. ऐसा माना जाता हैं, की इस स्थान पर प्रभु श्रीराम, जमदग्नि ऋषि, गुरु गोरखनाथ और गुरु नानक देव जी भी आ चुके हैं.

हिंगलाज माता को चारणों की कुलदेवता माना जाता हैं. ये चारण लोग, बाद में बालूच कहलाएं. महाभारत काल में यह स्थान गांधार महाजनपद का हिस्सा था. महाभारत के यूध्द में इस पूरे महाजनपद ने कौरवों की तरफ से युध्द में भाग लिया था.

इसी बलूचिस्तान मे, बालाकोट के पास, मेहरगढ़ क्षेत्र में जो उत्खनन हुआ, उसमे हड़प्पा से भी पुरानी सभ्यता के अवशेष मिले. इस प्रदेश में बोलन नदी के किनारे कुछ हजार वर्ष पूर्व एक विकसित सभ्यता थी, यह सिध्द हुआ हैं.

सन ७११ मे, जब मुहम्मद – बिन – कासम ने इस क्षेत्र पर हमले प्रारंभ किए, तब हिन्दू – बौध्द रहा यह पूरा इलाका, धीरे धीरे मुस्लिम होता गया. अकबर के शासन काल में, बलूचिस्तान मुगल साम्राज्य के आधीन था. लेकिन सन १६३८ में मुगलों ने पार्सिया (अर्थात ईरान) को यह इलाका सौंप दिया. लेकिन बाद में कलात के मीर नासीर खान ने १७५८ में अफगान शासन की आधीनता मान्य की.

प्रथम अफगान युध्द के बाद (अर्थात १८४२ के बाद), इस क्षेत्र पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. अंग्रेजों ने इसे चार रियासतों में बाँट दिया – कलात, मकरान, लस बेला और खारत. लेकिन बीसवी सदी के प्रारंभ से बलुचों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ किया. १९४१ में (जब द्वितीय विश्व युध्द अपने चरम पर था) बलूचिस्तान की आजादी के लिए *‘अंजुमन – ए – इत्तेहाद – ए – बलूचिस्तान’* का गठन हुआ. सन १९४४ मे, अंग्रेज़ जनरल मनी ने बलूचिस्तान की स्वतन्त्रता की दिशा में स्पष्ट संकेत दिये.

मजेदार बात यह, की रहमत अली ने पाकिस्तान की कल्पना करते हुए, इस मुस्लिम राष्ट्र के नाम में जो ‘स्तान’ जोड़ा था, वह बलूचिस्तान से ही लिया था. लेकिन जिस दिन पाकिस्तान स्वतंत्र हुआ, उस दिन उसके नक्शे में बलूचिस्तान नहीं था..!* जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, या जिसका ‘पाकिस्तान’ इस प्रस्तावित नाम में भी उल्लेख नहीं था, ऐसा पूर्व बंगाल पाकिस्तान में था. लेकिन बलूचिस्तान नहीं आ सका.

वह तो पाकिस्तान को आजादी मिलने के, अर्थात १४ अगस्त, १९४७ से तीन दिन पहले ही आजाद हो गया था.

कलात…. बलूचिस्तान के प्रमुख शहरों में से एक. क्वेटा से केवल नब्बे मील दूरी पर स्थित सघन जनसंख्या वाला यह शहर है. मजबूत दीवारों के भीतर बसे हुए इस शहर का इतिहास दो-ढाई हजार वर्ष पुराना है. कुजदर, गंदावा, नुश्की, क्वेटा जैसे शहरों में जाना हो तो कलात शहर को पार करके ही जाना पड़ता था. इसीलिए इस शहर का एक विशिष्ट सामरिक महत्त्व भी था. बड़ी-बड़ी दीवारों के अंदर बसे इस शहर के मध्यभाग में एक बड़ी सी हवेली थी. इस हवेली के, (गढी के) जो खान थे, उनका ‘राजभवन’ यह बलूचिस्तान की राजनीति का प्रमुख केन्द्र था. इस राजभवन में मुस्लिम लीग, ब्रिटिश सरकार के रेजिडेंट और कलात के मीर अहमद यार खान की एक बैठक हुई. इनके बीच एक संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसके माध्यम से ११ अगस्त १९४७ से, कलात एक स्वतन्त्र देश के रूप में काम करने लगा.

ब्रिटिश राज्य व्यवस्था में बलूचिस्तान के कलात का एक विशेष स्थान पहले से ही था. सारी ५६० रियासतों और रजवाड़ों को अंग्रेजों ‘अ’ श्रेणी में रखा है, जबकि सिक्किम, भूटान, और कलात को उन्होंने ‘ब’ श्रेणी की रियासत का दर्जा दिया हुआ था. अंततः ११ अगस्त को, दोपहर एक बजे संधिपत्र पर तीनों के हस्ताक्षर हुए. इस संधि के द्वारा यह घोषित किया गया कि कलात अब भारत का राज्य नहीं रहा, बल्कि यह एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया. मीर अहमद यार खान इस देश के पहले राष्ट्रप्रमुख बने.

कलात के साथ ही मीर अहमद यार खान साहब का पूर्ण वर्चस्व इस इलाके के पड़ोस में स्थित लास बेला, मकरान और खारान क्षेत्रों पर भी था. इसलिए भारत की स्वतंत्रता और पाकिस्तान का निर्माण होने से पहले ही, इन सभी भागों को मिलाकर, मीर अहमद यार खान के नेतृत्व में बलूचिस्तान राष्ट्र का निर्माण हो गया…!

बलूचिस्तान के बलोच लोगों ने न तो पहले कभी पाकिस्तान में जाने के बारे में सोचा था, न ही आज भी उनकी वैसी मानसिकता हैं. बलूचिस्तान स्वतंत्र देश बनना चाहता था, और वह बना भी.*

किन्तु बलूचिस्तान की यह स्वतन्त्रता पाकिस्तान को फूंटी आँख नहीं सुहा रही थी. आखिरकार, सात महीने और सोलह दिन की बलूचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद, दिनांक २७ मार्च, १९४८ को पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल अकबर खान ने इस छोटे से देश पर बलात कब्जा कर लिया.* पिछले साढ़े सात महीनों में, यह छोटासा देश अपने सेना की जमावट भी ठीक से नहीं कर सका था. इसलिए प्रतिकार ज्यादा हुआ नहीं और पाकिस्तान के कब्जे में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर यह प्रदेश आ गया.

पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर कब्जा तो कर लिया, किन्तु शासन करना कठिन था. मकरान, खारन और लस बेला तो पूर्णतः पाकिस्तान में शामिल हो गए. किन्तु कलात रियासत ने शामिल होने के बाद भी अपना अस्तित्व कायम रखा. आखिरकार, सन १९५५ में कलात रियासत भी पाकिस्तान में पूर्णतः विलीन हो गई.

मार्च १९४८ में बलूचिस्तान पर पाकिस्तान का कब्जा होते ही विरोध के स्वर बुलंद होने लगे. कलात के अहमद यार खान ने तो पाकिस्तानी कब्जे का ज्यादा विरोध नहीं किया. परंतु उनके भाई राजकुमार अब्दुल करीम ने, जुलाई १९४८ में पाकिस्तान के इस बलात कब्जे के विरोध में विद्रोह कर दिया. अपने अनुयाइयों के साथ वह अफगानिस्तान चला गया. तत्कालीन अफगान सरकार, बलूचिस्तान को पाकिस्तान से अलग कर के, उसे अपने कब्जे में लाना चाहती थी. क्यूंकी उन्हे समुद्री बन्दरगाह (सी पोर्ट) नसीब नही था और बलूचिस्तान के पास समंदर था.

लेकिन राजकुमार अब्दुल करीम को अफगान सरकार से वांछित समर्थन नहीं मिल पाया. अंततः लगभग एक वर्ष के बाद, राजकुमार करीम ने पाकिस्तानी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.

बलूचिस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन में एक जबरदस्त नाम उभरा – नवाब नौरोज़ खान. १९५५ में जब कलात रियासत को समाप्त कर, उसका पूर्णतः पाकिस्तान मे, ‘वन यूनिट’ पॉलिसी के अंतर्गत विलय किया गया, तो नवाब नौरोज़ खान ने पाकिस्तान का प्रखर विरोध किया. १९५८ में उन्होने पाकिस्तानी सरकार के विरोध में गुरिल्ला युध्द छेड़ दिया. वे नहीं चाहते थे की अन्य राज्यों की तरह बलूचिस्तान पर भी पाकिस्तान का नियंत्रण हो.

किन्तु कुछ ही महीनों के बाद, अर्थात १५ मई १९५९ को, नवाब नौरोज़ खान, पाकिस्तान सरकार के सामने आत्मसमर्पण को मजबूर हुए. पाकिस्तानी सरकार ने उन्हे और उनके सभी साथियों को माफी का आश्वासन दिया था. लेकिन फितरत के मुताबिक, पाकिस्तान सरकार ने अपना ही वचन तोड़ दिया. नवाब के रिश्तेदार और १५० वफादार सैनिकों को पाक सरकार ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया. आखिरकार १५ जुलाई को इस विद्रोह के पांच नेताओं को फांसी पर लटकाकर मारा गया. नवाब नौरोज़ खान की उम्र हो चली थी, इसलिए उन्हे बख्शा गया. लेकिन पांच साल बाद, १९६४ मे, नवाब साहब कोहलू के जेल में चल बसे.

इस विद्रोह की चिंगारी भी इसी के साथ समाप्त हो जायेगी ऐसा पाकिस्तान सरकार को लगा. किन्तु ऐसा हुआ नहीं.

पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान की स्थिति देखते हुए, वहां संवेदनशील इलाकों में सैनिकी अड्डे तयार करवाने का काम शुरू किया. इससे स्वतंत्र बलूचिस्तान समर्थक खौल उठे. उनके नेता शेर मोहम्मद बिजरानी ने, ७२ हजार किलोमीटर के क्षेत्र में अपने गुरिल्ला लड़कों के अड्डे खड़े किए. बलूचिस्तान में गॅस के अनेक भांडार हैं. ये विद्रोही नेता चाहते थे की पाकिस्तान सरकार इन गॅस भांडारों से मिलने वाली कुछ आमदनी इन कबाईली नेताओं से भी साझा करे. यह लड़ाई छह साल चली. किन्तु अंत में बलूचिस्तान की स्वतंत्रता चाहने वाले विद्रोही सैनिक थक गए और राष्ट्रपति यांह्या खान के साथ युध्दविराम को राजी हो गए.

युध्दविराम होने के कुछ ही महीनों बाद, १९७० के दिसंबर में पाकिस्तान में पहले आम चुनाव हुए, यह आम चुनाव पाकिस्तान की किस्मत बदलने वाले थे. पाकिस्तान का इतिहास और भूगोल इन्ही चुनावों ने बदला.*

१९७० के इन चुनावों में जहां पूर्व पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग प्रचंड बहुमत से विजयी रही. तो यहाँ पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फ़ीकार भुट्टो के पी पी पी की लगभग सभी प्रान्तों में जीत हुई – सिवाय बलूचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ़्रोंटियल प्रोविन्स (NWFP) के. बलूचिस्तान में नेशनल अवामी पार्टी जीती, जो की स्वतंत्रता वादी बलुचों की पार्टी थी. राष्ट्रीय असेंब्ली की ३०० में से शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग ने जीती १६७ सीटे, तो भुट्टो की पार्टी को मिली मात्र ८१.

१९७१ यह वर्ष पाकिस्तान के इतिहास में भरी उथल पुथल वाला रहा. इस वर्ष के समाप्त होने के पहले, पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और ‘बांग्ला देश’ के रूप में नए राष्ट्र का उदय हुआ, जो पहले ‘पूर्व पाकिस्तान’ था.

अब बचे खुचे पाकिस्तान मे, जनरल यांह्या खान को बलूचिस्तान में ‘नेशनल अवामी पार्टी’ की जीत बहुत अखर रही थी. उसे लग रहा था की, ‘ये बलूच लोग, ईरान के साथ मिलकर एक बड़ा संघर्ष खड़ा करने वाले हैं’.

इसलिए, १९७१ के युध्द से थोड़े उबरते ही, पाकिस्तान ने १९७३ के प्रारंभ में बलूचिस्तान के प्रादेशिक सरकार को बर्खास्त किया और वहां पर ८० हजार पाकिस्तानी फौज उतार दी.

*बंगला देश की गलती से सबक न सीखने वाले पाकिस्तान ने, बलूचिस्तान में भी वही किया. भीषण अत्याचार…! बलूचिस्तान की तरफ जाने आले सभी रास्ते बंद कर दिये गए. बलूचिस्तान के कुछ क्षेत्रों में, जहां पाकिस्तानी सेना को, बलूची विद्रोहियों के अड्डे होने की आशंका थी, वहां पर हवाई हमले भी किए. अनेक स्थानों पर बलूच विद्रोही और पाकिस्तानी सेना में जबरदस्त संघर्ष भी हुआ. हजारों की संख्या में दोनों तरफ के लोग मारे गए. अनेक विद्रोही बलूच नेता, अफगानिस्तान पहुंचने में सफल रहे.*

इस भयानक अत्याचार, दमन और संघर्ष के बाद, बलूच स्वतंत्रता आंदोलन में एक छोटासा ठहराव आया….

लेकिन इस ठहराव से एक सृजन हुआ – संगठित सशस्त्र आंदोलन का. *बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी* का…!
(क्रमशः)
– प्रशांत पोळ

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