Friday, April 26, 2024
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अंग्रेजी के आगे चूहे बन जाते हैं सरकार चलाने वाले

दिल्ली के एक उच्च शिक्षा-संस्थान के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए गृहमंत्री राजनाथसिंह ने वही बात कह डाली, जो हम कभी गांधीजी, लोहियाजी और दीनदयाल उपाध्यायजी के मुंह से सुना करते थे। वे कहते थे कि अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा से नफरत करना ठीक नहीं है लेकिन उस भाषा की गुलामी करना अपने आपका पतन करना है। आजकल हमारा सारा देश इसी पतन के गत्—र्त में गिरा जा रहा है।

आज भारत का कोई भी नागरिक चाहे राष्ट्रपति बन जाए या प्रधानमंत्री, चाहे अरबपति बन जाए या खरबपति, चाहे किसी विश्वविद्यालय का कुलपति बन जाए या उप-कुलपति, वह ज्यों ही अंग्रेजी की दुर्गा के सामने आता है, चूहा बन जाता है। हमारा सारा भारत अंग्रेजी की चूहेदानी बन गया है। हमें विश्वास था कि इस बार भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो देश की तकदीर बदलेगी लेकिन हमें क्या पता था कि हम चूहों को ही शेर समझ बैठे थे। वे अनिवार्य अंग्रेजी की बेडि़यां क्या तोड़ेंगे? वे तो अंग्रेजी की बेडि़यों का कण्ठहार बनाकर सारी दुनिया में घूम रहे हैं। उन्होंने गांधी, लोहिया, गोलवलकर और दीनदयाल के विचारों का कचूमर निकाल दिया है। ऐसे घोर निराशा के वातावरण में राजनाथसिंह ने एक दीप-स्तंभ प्रज्वलित कर दिया है।

अंग्रेजी के अनावश्यक वर्चस्व के कारण हमारा जो सांस्कृतिक पतन होता है, उसकी तरफ राजनाथजी ने इशारा किया है। उन्होंने ‘मम्मी-डेडी’ और ‘बाय-बाय’ कल्चर पर प्रहार किया है।

उन्होंने कहा है कि हम भारतीय लोग अपने मां-बाप के पांव छूते रहे हैं लेकिन अब हम उन्हें ‘बाय-बाय’ कहते हैं? अंग्रेजी बोलकर लोग दूसरों पर रौब झाड़ते हैं। अंग्रेजी का ज्ञान का नहीं, रुतबे का प्रतीक है। राजनाथजी ने छात्रों को तो यह सही दीक्षा दे दी लेकिन वे अपनी सरकार का लकवा तो ज़रा दूर करें। उस पर जब तक नीम के कड़वे तेल की मालिश नहीं होगी, उसमें जरा भी हलचल नहीं होगी। साल भर इसने भाषण और भ्रमण में बिता दिया लेकिन यह कैसी सरकार है, जिसके पास न तो कोई भाषा नीति है और न ही कोई शिक्षा नीति? दिमाग इनका बिल्कुल खाली है लेकिन सत्ता का चस्का हमारे नेताओं को राजनीति में खींच लाया है। वरना क्या वजह है कि अब तक सरकारी नौकरियों से, हमारी अदालतों से और संसद से अंग्रेजी विदा नहीं हुई? अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और काॅलेजों पर अभी तक प्रतिबंध क्यों नहीं लगा? अब तो कुछ उल्टा ही हो रहा है। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का नारा लगानेवाले नेताओं ने शीर्षासन कर दिया है। अंग्रेजी उनके सिर पर चढ़कर बोल रही है। वे अपनी हीनता-ग्रंथि से मुक्ति पाना चाहते हैं। वे दुनिया को यह बताना चाह रहे हैं कि हम भी पढ़े-लिखे हैं। आप क्या समझते हैं? हमें भी अंग्रेजी आती है।

साभार- http://www.nayaindia.com/ से�

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