कहानी क़िरदार माँगती है, उपन्यास पात्रों का सामंजस्य, कथाएँ तो कथानक पर ज़िन्दा हैं, निबंध अपनी शैली कहते हैं, लेख तथ्यों से जाने जाते हैं, रिपोतार्ज घटनाओं के सादृश्य चलते हैं, यात्रा चित्र बनाती है, लघुकथा अपना सार छोड़ती हैं, डायरी में निजता बनी रहती है, समाचार में आँखों देखा लिखा जाता है पर कविता का परिचय उसकी ऊँचाई, गहराई, बिम्ब, प्रतीक, शैली और रस के सापेक्ष दिया जाता है।
कविता कोई एक कहन पर हज़ारों शब्दों की बचत का दूसरा नाम है। जो लिखा जा रहा है उसे तब तक कविता नहीं कहा जा सकता, जब तक उसमें शब्दों के कम ख़र्च में रस और सार न अंकित हो, कविता तब तक नहीं हो सकती जब तक वाक्य में प्रवीणता का दर्शन न हो, कविता समय के शिलालेख पर युगबोध होती है, इसीलिए कविता कहन का दर्पण होती है।
कविता युग की भाषा में युग का व्यवहार दर्शाती है, युग की इबारतें गढ़ती हुई इतिहास को महिमा मण्डित करती है, वहीं कविता कवि का ही नहीं वरन् तात्कालीन समाज के मनोभावों का परिचय भी देती है। इसीलिए एक कविता कई कहानियों पर भारी मानी जाती रही है। लिखे या समाहित किए जा रहे शब्दों की मापनी का ईमान भी यह कहता है कि बोझिल होने से पहले ही उसके रस को चरम देते हुए पाठक मन तक बात या कहें विचार पहुँचाने का नाम कविता है।
बहरहाल, बात जब कविता की हो और समय अपनी कहानी में एक ऐसे क़िरदार को जगह न दे, जो स्वयं पात्रों और बिम्बों की अदृश्य लड़ाई के बीच कुछ शब्द अकिंचन चुराकर रस उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखता जो, यह कतई सम्भव नहीं हैं। कविता के दीर्घकालीन इतिहास में जब भी ‘मिनी पोएट्री’ का उल्लेख होगा, तब-तब कालिदास के मालवा या कहें मुक्तिबोध के भीतर की कविताई के ध्वजवाहक राजकुमार कुम्भज की लेखन शैली और कहन को याद किया जाता रहेगा। राजकुमार कुम्भज का जन्म आज़ादी वाले बरस में ही गुलाम भारत के सुदीर्घ मध्यभारत प्रान्त के इन्दौर शहर में हुआ। संभावनाओं की अवधारणा के दीर्घकालिक इतिहास में प्रारम्भ से ही काव्य परम्परा का अनुष्ठान किया जाता रहा है। कविता हमेशा से हृदय के भावों का चित्रण होती है, और इसी शब्द चित्र में एक दर्शन निहित रहता है।
राजकुमार कुम्भज भी उसी परम्परा के कवि हैं, जो रसिक मन को समझकर नए बिम्बों और प्रतीकों के सहारे कल्पनाशीलता के अश्वों की सवारी करते हुए पाठकमन पर उसे अंकित करने में अपना गहरा दखल रखते हैं। प्रेम, अटखेलियाँ, लड़कपन, दर्शन, चोट और व्यंग्यात्मक शैली के बीच से प्रेम के प्रवाह को पुनः स्थापित करते हुए पाठकमन को भावना के साथ तर्कों से सामंजस्य बनाने के लिए विवश करने की शैली के धनी राजकुमार कुम्भज की कविताओं का चयन श्री सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपने संपादन में निकले चौथा सप्तक में सम्मिलित कर इस बात पर मोहर भी लगाई कि कविता के मानकों पर अमिट छाप छोड़ने का सामर्थ्य भी कुम्भज जी में विद्यमान है।
श्री कुम्भज जी की कविता ‘थके-थके से शब्द हैं तो भी’ में वे लिखते हैं कि-
थके-थके से शब्द हैं तो भी
थके-थके से ही हैं शब्दों के संवाहक तो भी
मैं ही नहीं एक अकेला किंतु हैं और-और भी अनेकों
जिनके सीने में अंगार भरी सड़कें
बर्फ़ से ढँके हैं द्वीप उधार
बर्फ़ की चादर लपेट सोया है साहस
फैले हैं, फैले हैं अनलिखे पृष्ठ फैले हैं हर तरफ़
शब्द-दर-शब्द, डर ही डर, वहशी हैं सब
और वे जो अहिंसा के पुजारी, महात्मा, महामानव
सिर्फ़ और सिर्फ़ मौके की प्रतिज्ञा में
प्रतिज्ञा मुझे भी, प्रतिज्ञा में मैं भी
कि जो भी हैं और हैं जितने भी वहशी
दे सकूँ उन्हें एक कविता, एक दिन
अभी थका-हारा हूँ तो क्या हुआ, क्या हुआ
थके-थके से शब्द हैं तो भी
छुक-छुक रेलगाड़ी-सी चल रही है
साँसें मेरी और ज़िंदा हूँ मैं
इस कविता को पढ़ने के बाद सायास लगता है कि शब्द कितनी तकलीफ़ से गुज़र रहे हों, मानो शब्दों की बगावत पर कुम्भज जी भागवत का पाठ करवा रहे हैं। इसी तरह जब कुम्भज जी के समग्र कविता संसार को पढ़ा जाए तब पाठक अपने भीतर उत्साह से लबरेज़ होते हुए एक कहानी ख़ुद की ढूँढता है। जैसे उनकी एक कविता ‘हर हाल जीतेगा आदमी’ कहती है-
जिन राहों पर सूना है
उन राहों पर मेरी चहल क़दमी दून है
जहाँ सूरज की रोशनी नमूना है
वहाँ मेरी हाज़िरी बेधड़क अलून है
पृथ्वी छोटी है, पंख बड़े हैं
जो समुद्र के सामने खड़े हैं
हर हाल जीतेगा आदमी
ऐसी कविताओं के माध्यम से कवि समाज में उत्साह का संचार करते हैं, उत्साह का मंत्र फूँकते हैं, साहस का समन्वय स्थापित करते हैं। राजकुमार कुम्भज जब कविता की गति और यति पर टिप्पणी लिखते हैं तो कहते हैं ‘शब्दों को जितना कम ख़र्च करके कविता को लिखा जाएगा, वही लम्बे समय तक याद रखा जाएगा।’
श्री कुम्भज की कविताओं में शासन प्रणाली की विसंगतियों के प्रति भी करारा प्रहार निर्मित होता है, जिसे इस तरह देखा जा सकता है जैसे उनकी एक पुस्तक है ‘अच्छे दिनों की बात में’ जो संस्मय प्रकाशन से प्रकाशित हुई है उसी पुस्तक से शीर्षक कविता है – अच्छे दिनों की बात में
अच्छे दिनों की बात में
जो संदेश छुपा था अच्छे दिनों का
उस संदेश को समझने में
कुछ वक़्त लगा जनता-जनार्दन को
कि अच्छे दिन आए तो किसके ?
सरकारी ख़र्चे पर विदेश यात्राएँ
सरकारी ख़र्चे पर परिधान-पॉलिटिक्स का प्रपंच
सरकारी ख़र्चे पर स्व-छबि निर्माण
अच्छे दिनों की याद में
शहीद हो गए कई-कई अच्छे दिन
तब जाकर पता चला
कि आए तो आए आख़िर किसके अच्छे दिन ?
सरकारी इश्तहारों की तस्वीरों में
दिखाया गया शेर
मगर शेर वह नितांत सरकारी
नितांत सरकारी उस शेर की दहाड़
दिखाई सुनाई नहीं देती है कहीं भी
अच्छे दिनों की बात में
अच्छे दिनों की प्रतिज्ञा का रुदन है
अच्छे दिनों की प्रतिज्ञा के रुदन में
अच्छे दिनों की प्रतिज्ञा छुपी है
और जो प्रतिज्ञा छुपी है इन दिनों में
उसके अच्छे दिन कभी नहीं, कहीं नहीं
अच्छे दिनों का घोटाला है ये तो
गर्मागर्म तवे पर सिक रही रोटी
और सिक रही रोटी के लिए तरस रहे आदमी का
यही है, यही है एक मला-मला-सा तारतम्य यही है
कि यहाँ और वहाँ
अच्छे दिनों जैसा कुछ नहीं है
कोई एक शेर की तस्वीर है श्वान जैसी
श्वान में शेर जैसी दहाड़ नहीं है
अच्छे दिनों की बात में,
उपरोक्त कविता में राजकुमार कुम्भज ने जिस तरह बेबाक़ी से शासन प्रणाली पर कटाक्ष किया है यह बिरला व्यक्तित्व ही कर सकता है। क्योंकि सरकारों के ख़िलाफ़ लिखने की रवायतें इक्कीसवीं सदी में अपने अस्ताचल की ओर बढ़ चुकी हैं, अब तक चारण, भाट केवल शासन का गुणगान करते नज़र आते हैं। कुछ इसी मिज़ाज की एक ओर उनकी रचना है जिसमें कुम्भज सीधे-सीधे शासन द्वारा धर्म को अपनी ढाल बनाकर, जो राजनीति परोसी जा रही है उस पर प्रहार करते हैं। उनकी कविता है ‘कथावाचक सही है’ जिसमें वो लिखते हैं कि-
मैं ग़लत हूँ
कि महक रही है रातरानी
कथावाचक सही है
कि दहक रहा है सूर्ख गुलाब
क्या दहकता है
और महकता है क्या
ये सब तय करता है
कथावाचक ही
कथावाचक को तय करती है
सरकार
कथावाचक का ग़लत हो जाना
सरकार का ग़लत हो जाना है
ग़लत कैसे हो सकती है सरकार?
सरकार द्वारा तय किया गया
कथावाचक भी
कैसे हो सकता है ग़लत
मैं ही ग़लत हूँ
जो सोचता हूँ
कि महक रही है रातरानी
कथावाचक सही है
यानी कि वर्तमान समय में जिस बेबाक़ी की आवश्यकता है वो राजकुमार कुम्भज के लेखन में दशकों से विद्यमान है। कविता को प्राण मानने वाले श्री कुम्भज अब तक 38 से अधिक क़िताबें लिख चुके हैं, जो विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित हो चुकी हैं। आप मातृभाषा उन्नयन संस्थान के संरक्षक हैं, जिसका कार्य देशभर में हिन्दी भाषा का प्रचार, प्रसार और विस्तार करना है।
कवि होने के निर्वाहन एक कारण आपको कॉफ़ी हाउस के दिनों से ही ‘कविसाब’ कहा जाता रहा है, यूँ कहें कि कई ख़त जिसमें पता कॉफ़ी हाउस होता था वो कवि साब के नाम आया करते थे और कालान्तर में आप भी कई पत्र पत्रिकाओं अपना लेखन ‘कविसाब’ के नाम से भेजते रहे हैं।
इन्दौर का पुराना दृश्य जहाँ जवाहर मार्ग, मल्हारगंज स्थित है, वह पता वर्षों तक कुम्भज जी का स्थायी ठिकाना रहा। कवितागोई की मिठास जो हमेशा युवा रचनाकारों को भी प्रेरणा और हिम्मत देती रही है, उस मिठास का नाम राजकुमार कुम्भज है। कुम्भज जी की कविता में जीवन दर्शन जिस अद्भुत दृष्टिकोण से लिखा गया है, उसे पढ़ने के बाद पाठक की प्यास बढ़ सी जाती है। वे अपनी कविता ‘तुम्हारा आना याद रखूँगा’ में लिखते हैं कि-
तुम्हारा आना याद रखूँगा
अपना जाना मगर देख नहीं सकूँगा
आना अमृत, जाना ज़हर
अगर लिखूँगा कविता कोई एक
तो लिखूँगा यही
कि धूप-धूप बारिश-बारिश
खो गई परछाईं को ढूँढती हुई परछाईं
तुम्हारा आना याद रखूँगा
तुम्हारा जाना मगर देख नहीं सकूँगा
लिखूँगा, फिर-फिर लिखूँगा, चीर कर कलेजा
प्रेम।
उपरोक्त कविता में राजकुमार कुम्भज का ईश्वर के प्रति अपना नज़रिया दिखाई देता है। उनकी कविता के प्रति स्पष्टवादी दृष्टि ही उन्हें समकालीन रचनाकारों से भिन्न दर्शाती है। चूँकि दो बेटियों के भी पिता होने के कारण श्री कुम्भज जी भावनाप्रधान यानी भावुक हृदय के हैं। यही तेज उनकी कविताओं से ध्वनिनाद करता है।
इस तरह लिखी कविताओं में विषयों की भरमार होने के बावजूद कुम्भज जी का कहन अनोखा भी है और ज़िद्दी मिज़ाज का भी। राजकुमार कुम्भज जी को कविता का कुम्भ भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके रचना संसार में प्रेम तत्व की बहुलता के साथ फ़कीराना ठाठ, अल्हड़पन और दीवानी मस्ती जीवित है। और इसी जिजीविषा के पुरुषार्थ का प्रणम्य क़िरदार है राजकुमार कुम्भज।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
लेखक एवं पत्रकार, इंदौर
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[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं।]