रामू की भैंस बड़ी मस्त थी,
कुटिया के पीछे खड़ी रहती थी।
कभी पूंछ उठाती, कभी कान हिलाती थी,
सैंकड़ों मन भूसा खा भ्यां-भ्यां करती थी।
दूध ताज़ा-ताज़ा देती थी,
दही,माखन, मिठाई बड़ी स्वादिष्ट बनती थी,
बत्तीसी चमका कभी बतीया भी लेती थी।
“काला अक्षर-भैंस बराबर”,
सुन उदास भी हो जाती थी।
दोष खुद में ढूंढने लग जाती थी।
सोच-सोच में भैंस बीमार पड़ गई,
दूध की लो हो गई छुट्टी।
रामू की खर्ची हो गई पाई-पाई,
वैद्य की दवाई जो काम आई।
भैंस हो गई फिर हट्टी-कट्टी,
गांव में फिर से छा गई मस्ती।