Thursday, May 9, 2024
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प्राचीन भारत में राजधर्म

प्राचीनकाल में राजा या शासक की भूमिका काफी उदार और निष्पक्ष होती थी। राजा का मूलभूत कर्तव्य अपनी प्रजा को पूर्ण न्याय देना होता था, क्योंकि वह समझता था कि समुचित न्याय-प्रणाली सामाजिक सद्भाव और शांति की नींव है। इसके अलावा विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों के बीच समानता कायम रखना एक आदर्श राजा का आवश्यक गुण हुआ करता था। ऐसे प्रजावत्सल राजा यह सुनिश्चित किया करते थे कि गरीब और जरूरतमंद लोग बिना किसी बाधा के अपने चुने हुए काम-धंधे को सुचारू रूप से करने के लिए स्वतंत्र हों।

इस के अतिरिक्त राजा की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अपने पूरे राज्य में समुचित कानून-व्यवस्था बनाए रखना की भी होती थी। इसमें निर्दोषों को दंडित न करने और यह सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता शामिल थी कि जो लोग दोषी हैं, वे न्याय से बचने न पाएं। जिन राजाओं ने ऐसे गुणों के उदाहरण प्रस्तुत किये, इतिहास में उन्हें सदैव याद किया जाता रहा है और उनकी भरसक प्रशंसा भी होती रही है।

ऐसे ही एक निष्पक्ष और न्यायप्रिय राजा का एक शानदार उदाहरण ‘राजतरंगिणी’ में पाया जाता है। ‘राजतरंगिणी’ एक इतिहास-ग्रन्थ है जो 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध कश्मीरी कवि कल्हण द्वारा लिखा गया है। इस काव्य-ग्रन्थ में कश्मीर के राजा चंद्रापीड (711-719 ईस्वी) की उस उल्लेखनीय कहानी का वर्णन मिलता है, जिसमें ‘कानून के शासन’ के प्रति उनके अटूट विश्वास, समर्पण और आस्था के भाव ने कश्मीर में शांति, सद्भाव और न्याय के अनुयायियों पर एक अमिट छाप छोड़ी है।

घटना इस प्रकार है: राजा के अधिकारियों ने मन्दिर बनाने के लिए एक पिछड़ी जाति के मोची(चर्मकार) की भूमि चयनित की ।इस भूमि पर बनाई गयी अपनी झोंपड़ी में वह वर्षों से रहता आ रहा था। अधिकारियों के आदेश के बावजूद, मोची ने दृढ़तापूर्वक अपनी झोंपड़ी खाली करने से इन्कार कर दिया। जब अधिकारियों ने मामले को राजा के ध्यान में लाया, तो उनकी शिकायत पर ध्यान देने या समर्थन देने के बजाय बुद्धिमान और न्यायप्रिय राजा ने उल्टा उन्हें मोची की जमीन पर अतिक्रमण करने का प्रयास करने के लिए फटकार लगाई और कहा, “तत्काल निर्माण रोकें और मंदिर के लिए कोई अन्य स्थान खोजें। जिन लोगों को सही और गलत में अंतर करने का कर्तव्य सौंपा गया है, अगर वही अनुचित करते हैं तो फिर कानून का पालन कौन करेगा?”

राजा की न्यायप्रियता और निष्पक्षता की अद्भुत भावना ने मोची को प्रभावित किया। आभार व्यक्त करने के लिए उसने राजा से मुलाकात की। मोची ने प्रेमपूर्वक कहा, “जिस प्रकार यह महल महामहिम को प्रिय है, उसी प्रकार वह साधारण-सी झोपड़ी भी मेरे लिए बहुमूल्य थी। मैं उसे नष्ट होते हुए नहीं देख सकता था। हाँ, यदि महामहिम चाहें, तो मैं स्वेच्छा से उस भूमि को छोड़ दूंगा क्योंकि आपके न्यायपूर्ण और परोपकारी आचरण ने मेरे हृदय को गहराई तक छू लिया है।” मोची की निस्वार्थता देख राजा ने उदारता और करुणा का परिचय देते हुए मोची की झोंपड़ी को अच्छी कीमत देकर खरीदने का फैसला किया।

तब मोची ने गहरी विनम्रता के साथ आगे कहा, “दूसरों की बात ध्यान से सुनना, चाहे उनकी जाति या स्थिति कुछ भी हो और ‘राजधर्म’ के सिद्धांतों का पालन करना, एक महान राजा की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां हैं। मैं आप को शुभकामनाएं देता हूं और आपके लंबे जीवन के लिए प्रार्थना करता हूँ! अपने कार्यों के माध्यम से, आपने निस्संदेह कानून की सर्वोच्चता को बरकरार रखा है।”

सच में, मोची(चर्मकार) के शब्दों में अपार ज्ञान था, जो एक राजा के कर्तव्य और उसके ‘राजधर्म’ पालन करने की अनिवार्यता को रेखांकित करता है ।

(डॉ. शिबन कृष्ण रैणा)
SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE
(GOVT.OF INDIA)
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