Tuesday, October 15, 2024
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नकल से नहीं असल किरदार से फिल्मों को सँवारें – मनु नायक

हमारे नए राज्य के दूसरे दशक के मध्य में छालीवुड की खुशियों में चार चाँद लगाते हुए छत्तीसगढ़ी फिल्मों को 50 बरस पूरे हो गए.14 अप्रैल 1965 में पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘ कहि देबे संदेश’  रिलीज़ हो गई थी. छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जनक मनु नायक ( मुम्बई ) ने इस लेखक की दूरभाष पर हुई आत्मीय चर्चा में बड़ी पते की बात कही। श्री नायक ने कहा कि मौजूदा दौर में छत्तीसगढ़ी फिल्मों में नक़ल ज्यादा जारी है। आज की फिल्मों में संवाद तो छत्तीसगढ़ी में होते हैं, किन्तु किरदार और परिवेश में बाहरी असर साफ़ नज़र आता है। यही कारण है कि दर्शक उन्हें आसानी से अपना नहीं पाते हैं। श्री नायक ने कहा कि पहले की छत्तीसगढ़ी फिल्मों में कैरेक्टर्स को देखने और सुनने पर दर्शकों को महसूस होता था कि उनमें वे स्वयं भी हैं, उनका जीवन भी है, समस्याएं  हैं, सपने हैं, जिसका आज सर्वथा अभाव है। इसलिए, श्री नायक का कहना है कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में माटी की महक लाने के लिए जागरूकता अभियान चलायें। सेमीनार,कार्यशाला आदि आयोजित करें। छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़ के जानकार लोगों से मार्गदर्शन लिया जाये तो कुछ सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं। 

छत्तीसगढ़ी फिल्मों की आधी सदी पूरी होने के सौभाग्यशाली पल को और यादगार बनाने के लिए तीन दिन पूर्व रायपुर में एक समारोह का आयोजन किया गया. समारोह में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जनक मनु नायक को सम्मानित किया गया. छत्तीसगढ़ी फिल्मों के जाने-माने व्यक्तित्व मोहनचंद सुंदरानी सहित अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति इस पल के गवाह बने.

बहरहाल गौरतलब है कि इस अवसर पर मनु नायक ने अपने पहली फिल्म के निर्माण का अनुभव बताते हुए कहा "माटी का कर्ज चुकाने के लिए मैंने फिल्म बनाई थी. उस समय फिल्म बनाना बड़ी चुनौती थी, फिर भी मैंने ये साहस किया. छत्तीसगढ़ी फिल्म को मैंने मुंबई से जोड़ा. गायक, कैमरामैन, कलाकार सब मुंबई से लेकर आया था. आज तो बहुत संसाधन हैं, फिर भी अच्छी फिल्म नहीं बन पा रही है. मेरी फिल्म छुआछूत पर आधारित थी.”

श्री मोहनचंद सुंदरानी ने इस ऐतिहासिक पल के किए सभी को बधाई दी. छत्तीसगढ़ी फिल्मों को प्रोत्साहित करने में सबसे आगे रहने वाले एडीजी राजीव श्रीवास्तव ने छत्तीसगढ़ी फिल्मों के सफर को याद करते हुए बताया, “पहली फिल्म ‘ कहि देबे संदेस’ को मां की गोद में बैठकर देखा था जो आज भी मेरे लिए अविस्मरणीय है और आज 50 साल बाद उनके निमार्ता के साथ हूं, ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है.” विधायक श्रीचंद सुंदरानी ने कहा कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बढ़ावा मिले इसके लिए सब मिलकर प्रयास करें. छोटे-छोटे जगहों में थिएटर बने और इसके लिए सरकार की मदद लेनी चाहिए.

जब बात माटी महतारी की रजत पट की दुनिया की आधी सदी के महोत्सव की चल पड़ी है तो क्यों न हम थोड़ी सी चर्चा पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म  देबे संदेस की कर लें. चित्रपट संसार के लोगो के साथ पार्श्व ध्वनि में सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद रचित महाकाव्य ‘कामायनी’ की पंक्ति निर्माता-निर्देशक मनु नायक की आवाज में गूंजती है –

इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रांत भवन में टिक रहना
किंतु पहुंचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है।

सम्मानित पत्रकार मोहम्मद ज़ाकिर हुसैन के मुताबिक पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वाले मनु नायक की कहानी भी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है। उन्होंने लिखा है कि 11 जुलाई 1937 को रायपुर तहसील के कुर्रा गांव (अब तिल्दा तहसील) में जन्मे श्री नायक 1957 में मुंबई चले गए थे कुछ बनने की चाह लेकर। यहां शुरूआती संघर्ष के बाद उन्हें काम मिला निर्माता-निर्देशक महेश कौल के दफ्तर में। आज शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि गोपीनाथ, हम कहां जा रहे हैं, मुक्ति, दीवाना, प्यार की प्यास, सपनों का सौदागर, तलाक और पालकी जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाले कश्मीरी मूल के फिल्मकार महेश कौल का रायपुर से भी रिश्ता था।

खैर,स्व.महेश कौल की सुप्रसिद्ध पटकथा लेखक पं.मुखराम शर्मा के साथ व्यवसायिक साझेदारी में अनुपम चित्र नाम की कंपनी थी। इसी अनुपम चित्र के दफ्तर में मुलाजिम हो गए मनु नायक अनुपम चित्र कंपनी के मुलाजिम के तौर पर 350 रूपए मासिक पगार पाने वाले मनु नायक के सामने चुनौती थी कि छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाएं तो बनाएं कैसे ? फिर चला संघर्ष और चुनातियों का सामना करते हुए अपने स्वप्न को साकार करने की अंतहीन कोशिशों का ईमानदार सिलसिला और एक अनुबंध के अनुसार श्री नायक अपनी टीम लेकर 12 नवंबर 1964 को मुंबई से रायपुर के लिए रवाना हो गए। बाद की कहानी कुछ ऎसी है कि लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया। फिल्म की शूटिंग का रास्ता साफ हो गया. रामकृष्ण मिशन आश्रम में जाकर उन्होंने स्वामी आत्मानंद से मुलाकात की और धूम्रपान की पाबंदी की शर्त पर उन्होंने आश्रम के भीतर एक दृश्य फिल्माने की इजाजत ले ली। कुछ दृश्य रायपुर और भिलाई में भी शूट किए गए। 

मोहम्मद रफी साहब की आवाज में रिकार्ड हुआ पहला गीत। श्री हुसैन खुद मनु नायक की जबानी इसकी कहानी कुछ इस तरह सुनाते हैं  – “वहां जैसे ही रफी साहब रिकार्डिंग पूरी कर बाहर निकले, मैनें उनके वक्त की कीमत जानते हुए एक सांस में सब कुछ कह दिया। मैनें अपने बजट का जिक्र करते हुए कह दिया कि मैं छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म बना रहा हूं, अगर आप मेरी फिल्म में गाएंगे तो यह क्षेत्रीय बोली-भाषा की फिल्मों को नई राह दिखाने वाला कदम साबित होगा। चूंकि रफी साहब मुझसे पूर्व परिचित थे, इसलिए वह मुस्कुराते हुए बोले – कोई बात नहीं, तुम रिकार्डिंग की तारीख तय कर लो। और इस तरह रफी साहब की आवाज में पहला छत्तीसगढ़ी गीत -‘झमकत नदिया बहिनी लागे’ रिकार्ड हुआ। इसके अलावा रफी साहब ने मेरी फिल्म में दूसरा गीत ‘तोर पैरी के झनन-झनन’ को भी अपना स्वर दिया। इन दोनों गीतों की रिकार्डिंग के साथ खास बात यह रही कि रफी साहब ने किसी तरह का कोई एडवांस नहीं लिया और रिकार्डिंग के बाद मैनें जो थोड़ी सी रकम का चेक उन्हें दिया, उसे उन्होंने मुस्कुराते हुए रख लिया। मेरी इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर ने भी गाने गाए लेकिन जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत करते हुए इन दूसरे सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी। इस तरह रफी साहब की दरियादिली के चलते मैं पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म में इन बड़े और महान गायकों से गीत गवा पाया।”

आउटडोर शूटिंग के बाद मुंबई में सुआ गीत सहित कुछ अन्य दृश्यों की इनडोर शूटिंग हुई। पोस्ट प्रोडक्शन के बाद अंतत: 4 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में। जब फिल्म टैक्स फ्री हो गई तो रायपुर के राजकमल में प्रदर्शित हुई। कही देबे सन्देश और घर द्वार जैसी फिल्मों के दौर से लेकर आज इक्कीसवीं सदी में सूचना क्रान्ति की असीम दस्तक के बीच छत्तीसगढ़ी फिल्मों को बहुत कुछ नया गढ़ना है. मंज़िलें अभी और भी हैं।
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लेखक छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण से 
सम्मानित और शासकीय दिग्विजय पीजी 
ऑटोनॉमस कालेज, राजनांदगांव में प्रोफ़ेसर हैं। 

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