Thursday, May 9, 2024
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वेदों में गणेश

*विषय -* मनुष्य, ‘परमात्मा की उपासना कैसे करे’।

*ऋषिः -* प्रजापतिर्ऋषिः
*देवता -* गणपतिर्देवता
*छन्दः -* शक्वरी
*स्वरः -* धैवतः

*गणानान्त्वा गणपतिँ हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपतिँ हवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिँ हवामहे वसो मम।*
*आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।।*

– यजुर्वेद २३/१९

*पद पाठः -*
गणनाम्। त्वा। गणपतिमिति गणऽपतिम्। हवामहे। प्रियाणाम्। त्वा। प्रियपतिमिति प्रियऽपतिम्। हवामहे। निधीनामिति निऽधीनाम्। त्वा। निधिपतिमिति निधिऽपतिम्। हवामहे। वसोऽइति वसो। मम। आ। अहम्। अजानि। गर्भधमिति गर्भऽधम्। आ। त्वम्। अजासि। गर्भधमिति गर्भऽधम्॥

*पदार्थः -*
हे जगदीश्वर! हम लोग
*गणानाम्* = गणों के बीच
*गणपतिम्* = गणों के पालनेहारे
*त्वा* = आपको
*हवामहे* = हम स्वीकार करते हैं
*प्रियाणाम्* = अतिप्रिय सुन्दरों के बीच
*प्रियपतिम्* = अतिप्रिय सुन्दरों के पालनेहारे
*त्वा* = आपकी
*हवामहे* = प्रशंसा करते
*निधीनाम्* = विद्या आदि पदार्थों की पुष्टिकरनेहारों के बीच
*निधिपतिम्* = विद्या आदि पदार्थों की रक्षा करनेहारे
*त्वा* = आपको
*हवामहे* = स्वीकार करते हैं।
*वसो* = परमात्मन्! जिस आप में सब प्राणी वसते हैं, सो आप
*मम* = मेरे न्यायाधीश हूजिये, जिस
*गर्भधम्* = गर्भ के समान संसार को धारण करने हारी प्रकृति को धारण करने हारे
*त्वम्* = आप
*आ, अजासि* = जन्मादि दोषरहित भलीभंति प्राप्त होते हैं, उस
*गर्भधम्* = प्रकृति के धर्त्ता आपको
*अहम्* = मैं
*आ, अजानि* = अच्छे प्रकार जानूं

*भावार्थः -*
हे मनुष्यो! जो सब जगत् की रक्षा, चाहे हुए सुखों का विधान, ऐश्वर्य्यों का भलीभांति दान, प्रकृति का पालन और सब बीजों का विधान करता है, उसी जगदीश्वर की उपासना सब करो॥

*मन्त्र की मुख्य बातें -*
१) हे जगदीश्वर गणों में हम आपको गणपति के रुप में ग्रहण करते हैं।
२) हे जगदीश्वर प्रिय पदार्थों में हम आपको प्रियपति के रुप में ग्रहण करते हैं।
३) हे जगदीश्वर निधियों में हम आपको निधिपति के रुप में ग्रहण करते हैं।
४) आप हमारे वसु है, आप में ही सब प्राणी बसते हैं।
५) मैं जीव, ब्रह्माण्ड को अपने गर्भ में धारण करने वाले आपको चारों और से जानूँ।
६) आप परमात्मा, ब्रह्माण्ड जननी प्रकृति को चारों ओर से गति देते हो।

*व्याखानः -*
हे समूहाधिपते! आप मेरे गण = सब समूहों के पति होने से आपको ‘गणपति’ नाम से ग्रहण करता हूँ तथा मेरे प्रिय कर्मकारी, पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हैं, इससे आपको ‘प्रियपति’ मैं अवश्य जानूँ, एवं मेरी सब निधियों के पति होने से आपको मैं निश्चित निधिपति जानूँ। हे सब जगत् जिस सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है, उस स्वसामर्थ्य का धारण और पोषण करनेवाला आपको ही मैं जानूँ। गर्भ सबका कारण आपका सामर्थ्य है, यही सब जगत् का धारण और पोषणकरता है। यह जीवादि सशरीर प्राणिजगत् तो जन्मता और मरता है, परन्तु आप सदैव अजन्मा और अमृतस्वरूप हैं। आपकी कृपा से मैं अधर्म, अविद्या, दुष्टभावादि को दूर फेकूँ तथा हम सब लोग आपकी ही अत्यन्त स्पर्धा [प्राप्ति की इच्छा] करते हैं, सो आप अब शीघ्र हमको प्राप्त होओ, जो प्राप्त होने में आप थोड़ा भी विलम्ब करेंगे तो हमारा कुछ भी कहीं ठिकाना न लगेगा।

मन्त्र में प्रथम प्रार्थना यह की गई है –
*१) गणानान्त्वा गणपतिँ हवामहे -* हे जगदीश्वर गणों में हम आपको गणपति के रुप में ग्रहण करते हैं। हे प्रभु जब भी मैं अपने लिये सर्वश्रेष्ठ लोगों की गिनती करता हूँ तब आप मेरे लिये सर्वप्रथम होते हैं। आपके इस विशेष गुण के लिये ही हम आपकी गणपति नाम से स्तुति करते हैं। हे गणपति प्रभु हम आपको हमारे समूह का नेता मानते हैं समूह को एकत्रित करने और संगठन को संगठित करने में आप हमारे मार्गदर्शक हैं। हम समुहों में रहें। हमारा समूह सुदृढ़ रहे।

मन्त्र में द्वितीय प्रार्थना यह की गई है –
*२) प्रियाणान्त्वा प्रियपतिँ हवामहे -* हे जगदीश्वर प्रिय पदार्थों में हम आपको प्रियपति के रुप में ग्रहण करते हैं। हम आपको अपना सबसे प्रियकर मानते हैं। मेरे पास आपसे प्रिय कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारे पास आपसे प्रिय कोई पदार्थ नहीं है। हमारे पास आपसे अच्छा अन्य कोई प्रिय सहायक नहीं है। हमारे पास आपसे ज्यादा स्नेह करने वाला और कोई दूसरा नहीं है। हे प्रियपति प्रभो आप हमारी रक्षा कीजिए।

मन्त्र में तृतीय प्रार्थना यह की गई है –
*३) निधीनान्त्वा निधिपतिँ हवामहे -* हे जगदीश्वर निधियों में हम आपको निधिपति के रुप में ग्रहण करते हैं। हे प्रभु मेरी सबसे बडी सम्पत्ति कहूं या निधि कहूँ आप ही हैं। मैं भूलवश भौतिक निधि धनधान्य को कईबार आपसे ऊपर मान लेता हूँ। हे हमारे स्वामी हम सभी आपको अपना निधिपति मानते हैं क्योंकि हमारे पास जो कुछ भी विद्या है वह सब आपका ही है। हम आपको निधिपति मानकर पुकारते हैं।

मन्त्र में चतुर्थ प्रार्थना यह की गई है –
*४) वसो मम -* आप हमारे वसु है, आप में ही सब प्राणी बसते हैं। वसु आठ होते हैं – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र। ये सब सृष्टि में निवास हेतु सहायक होने से वसु कहाते है परमात्मा इन वसुओ में व्याप्त होकर इन वसुओं को चलाने और नियंत्रक होने से आप ही वसु है। जब इसप्रकार हम परमात्मा को जानते हैं तब हमें परमात्मा की शक्तिमत्ता का आभास होता है।

मन्त्र में पञ्चम प्रार्थना यह की गई है –
*५) आ त्वम् अजासि गर्भधम् -* हे ब्रह्माण्ड पति आप जन्म राहित होकर, ब्रह्माण्ड जननी प्रकृति को चारों ओर से गति देते हो। “अखिलं ब्रह्माण्डं यः गर्भे धारयति स गर्भधम्” जिसने अखिल ब्रह्माण्ड को अपने गर्भ में धारण किया हुआ है वह गर्भधम् परमात्मा कभी जन्म नहीं लेता। उस ब्रह्माण्ड के बाहर भीतर व्याप्त होकर उसे गति देता है।

मन्त्र में षष्ठम प्रार्थना यह की गई है –
*६) आ अहम् अजानि गर्भधम् -* मै जीवात्मा ऐसे महान परमात्मा को जो गणपति है, प्रियपति है, निधिपति है और ब्रह्माण्डपति है। जिसने की इस ब्रह्माण्ड को अपने गर्भ में धारण किया हुआ है।उस ब्रह्माण्ड पति को मैं अच्छी प्रकार से जानूँ। क्योंकि वह अपने गर्भ में समस्त ब्रह्माण्ड को धारण करके उसको गति प्रदान करता है। जब तक जीवात्मा उस ब्रह्माण्ड पति को ठीक ठीक नहीं जान लेता। वह कुछ नहीं जानता। जब उसे जान लेता है तो ब्रह्माण्ड को जान लेता है और जब ब्रह्माण्ड को जान लेता है तो उसे जान लेता है। इसलिये ऐसे महान जगदीश्वर की मैं अच्छे समूहों को निर्माण के लिये, अच्छे प्रियकर पदार्थों के लिये, अच्छी निधि के लिये तथा परमेश्वर को वसु और ब्रह्माण्डपति मानकर अच्छी प्रकार से जानकर उसकी प्रार्थना और उपासना करुं और अन्यों को भी प्रेरित करुं।

आज गणपति पूजा नाम का एक रूप हम भारत में देखते है। लोग आज जिस प्रकार से उसकी पूजा में प्रवृत्त हो रहें है। सौ वर्ष पूर्व ऐसा न था। और आगे सौ वर्षों में किन रुपों में परिवर्तित होगा ईश्वर ही जानें। किन्तु इसका सबसे वीभत्स रुप इसका विसर्जन है। जिस प्रकार से रंगो और केमिकल से गणेश जी की मूर्ति का निर्माण होता है और उसे नदी तालाब कुएं और समुद्रों में विसर्जन करते है यह न तो शास्त्रोक्त है ना ही प्रकृति के अनुकूल है। यह पूर्ण रुप से अप्राकृतिक व्यवहार है। इससे प्रकृति का बहुत विशाल रुप में अनिष्ट हो रहा है। नदियों तालाबों के किनारे में विसर्जन के बाद जिस तरीके से प्रतिमायें पडी रहती है गन्दगी में आधी डूबी हुई, टूटी फुटी हुई और शुद्र प्राणियों को उस पर मल मूत्र विसर्जन करते हुये दिखते है यह सब देखकर मन विचलित होता है। दो दिन पहले जिसको घर में इतनी साज सज्जा फुल मालाओ अगरबत्ती धूप लड्डू फल कलश और लाइटिंग से सजाकर आरती कर रहे थे उसकी यह दुर्दशा देखकर बहुत पीडा होती है। क्या यही पूजा पद्धति और आराधना का लाभ है? इस पर लोगों को विचार करना चाहिए।

मैं गणपति, प्रियपति, निधिपति और ब्रह्माण्डपति परमात्मा से आप सभी के लिये उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करता हूँ परमात्मा आपकी मनोकामनाएं पूर्ण करें।।

*#आओ लौटें वेदों की ओर*

*आचार्य राहुलदेवः*
आर्यसमाज बडा़बाजार
कोलकाता

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एक निवेदन

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