Monday, May 6, 2024
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संसदीय शासन में राज्यपाल के अधिकार और चुनौतियाँ:आलोचनात्मक अध्ययन

भारत के संविधान के अंतर्गत संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है ,जिसके अंतर्गत संघीय कार्यपालिका की तरह राज्यों के प्रशासन का स्वरूप संसदात्मक है। राज्यपाल कार्यपालिका का प्रधान एवं राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, जिसको मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है। भारत के संविधान के अंतर्गत प्रावधान है कि अनुच्छेद 153 के अंतर्गत राज्यपाल के पद का उपबंध किया गया है, जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा। दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल हो सकता है।

राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होती है; वह अपने कार्यपालिका शक्तियों का अनुप्रयोग स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करता है। अधीनस्थ प्राधिकारी के अंतर्गत मंत्री परिषद एवं नौकरशाही भी होती है ।भारत में एक संविधान है ;इसी संविधान से संघ एवं इकाई शक्ति प्राप्त करती है। संघीय शासन प्रणाली में शक्ति का मुख्य स्रोत संविधान होता है। संविधान के भाग – 6 में राज्य सरकार का प्रावधान है।

राज्यपाल का पद चर्चा एवं विवाद का विषय भी है। इसके साथ ही प्रत्येक राज्य की विशिष्ट ऐतिहासिक एवं सामाजिक- आर्थिक वातावरण के कारण राजनीतिक प्रक्रिया एवं राजनीतिक क्रियाकलाप अलग – अलग होता है। राज्यपाल राष्ट्रपति के द्वारा 5 वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है एवं वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बना रहता है ;इसका आशय यह है कि राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती है; परंतु इसे 5 वर्ष से पहले भी हटाया जा सकता है।

संसदीय परंपराओं, संवैधानिक विकास के अनुसार राज्य की वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद में निहित होती है। मंत्री परिषद के प्रधान को मुख्यमंत्री कहा जाता है। राज्यपाल राज्य विधान मंडल एवं कार्यपालिका प्रमुख होने के कारण दोहरी भूमिका निभाता है। राज्यपाल का संवैधानिक दायित्व है कि वह राज्य के शासन एवं प्रशासन को सुचारु रुप से गतिशीलता प्रदान करें ।दोहरी भूमिका से आशय है कि:-
1. वह राज्य का कार्यपालिका प्रधान और संवैधानिक प्रधान है;
2. राष्ट्रपति एवं केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है।

अनुच्छेद 164 (ए) में प्रावधान है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है ।जब चुनाव पश्चात किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं प्राप्त होती है, इस स्थिति में राज्यपाल को विवेकाधिकार प्राप्त है। इस तरह राज्यपाल अपने विवेक से निम्न पर विचार कर सकता है:-
1. बहुमत प्राप्त दल को सरकार गठन के लिए न्योता देना;
2. चुनाव पूर्व गठबंधन के नेता को न्योता देना;
3. सबसे ज्यादा विधायक सीट पाने वाले दल को न्योता देना और
4. राज्यपाल किसी ऐसे व्यक्ति को सरकार गठन करने का न्योता दे सकता है जिस व्यक्ति पर राज्यपाल को विश्वास है कि वह व्यक्ति विधानसभा में बहुमत सिद्ध कर सकता है।

श्री के. एम . मुँशी के शब्दों में “राज्यपाल को मंत्रिमंडल की इच्छा के विरुद्ध काम करने का कोई अधिकार नहीं है ।उसकी स्थिति वैसी है जैसी ब्रिटेन में राजा या रानी की है।”
राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति के समान राज्य में आयोजित समारोह की शोभा बढ़ाता है, और विशेष एवं विशिष्ट मेहमानों का स्वागत करता है ।इस संबंध में श्री टीटी कृष्णा मचारी जी का कहना है कि” राज्यपाल मात्र संवैधानिक प्रधान है जिसके पास वास्तविक प्रशासन में हस्तक्षेप करने की कोई संवैधानिक शक्ति नहीं हैं “।

राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख है; परंतु साथ ही इससे कुछ अलग भी माना गया है। इस दृष्टि से उनके अधिकार को मुख्यतः दो संदर्भ में परीक्षण कर सकते हैं:-
1. राज्य के संवैधानिक प्रमुख रूप में; और
2. राज्य में केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में।

राज्यपाल की शक्तियों का अध्ययन विधाई ,कार्यपालक,न्यायिक एवं एवं राज्य में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में करने पर स्पष्ट होता है कि कार्यपालकिय/प्रशासनिक शक्तियों के अंतर्गत राज्य का प्रशासन राज्यपाल के द्वारा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों की सहायता से चलाया जाता है ।संविधान के अनुच्छेद 164 के अंतर्गत राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है एवं मुख्यमंत्री के परामर्श पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। राज्यपाल लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति करता है ।राज्य के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति राज्यपाल से सलाह ले सकता है ।राज्यपाल राज्य विधानमंडल में एंग्लो इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व के लिए मनोनीत करता है ,तथा राज्य विधान परिषद में निर्धारित सदस्यों को मनोनीत करता है।

राज्यपाल राज्य विधानमंडल का अभिन्न अंग है ।इस संदर्भ में राज्यपाल विधानसभा की बैठकर बुला सकते हैं, इसका सत्रावसान वासान कर सकता है तथा इसे भंग भी कर सकता है ।राज्यपाल प्रत्येक सत्र के आरंभ में अभिभाषण करता है। विधान मंडल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल के अनुमोदन के पश्चात कानून बन जाता है। इस विषय में राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के लिए मंजूरी के लिए आरक्षित कर सकता है ।अनुच्छेद 213 के अंतर्गत राज्यपाल को राज्य विधानसभा अधिवेशन अंतर काल में अध्यादेश जारी करने का अधिकार है ,लेकिन अध्यादेश की वैधता को प्रदान करने लिए विधानसभा की स्वीकृति आवश्यक है। न्यायिक अधिकार के अंतर्गत राज्य सूची के विषय के अंतर्गत मामले में दोषियों के दंड को माफ कर सकता है, कम कर सकता है या उस पर दोष को बदल सकता है। केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल यह देखता है कि सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य कर रही है। राज्य में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति संतोषजनक है। राज्यपाल को यह महसूस हो जाएं कि संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत शासन संचालित नहीं हो रहा है। कानून व्यवस्था पर गंभीर खतरा है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति को प्रतिवेदन कर अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर सकता है।

संसदीय शासन प्रणाली में राज्यपाल के अधिकार एवं चुनौतियों को चयन करने का मौलिक उद्देश्य है कि राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक अधिकार एवं विवेकाधीन शक्तियों पर बहस होती है ।राज्यपाल की शक्तियां वास्तविक ना होकर भी राज्य शासकीय व्यवस्था में सर्वाधिक सम्मानित एवं प्रतिष्ठित संवैधानिक व्यक्तित्व का है। राज्यपालों के संवैधानिक शक्तियों एवं विवेकी शक्तियों से सिद्ध हुआ है कि परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों में राज्यपाल ने संवैधानिक प्रधान से अधिक भूमिका निभाई है। स्वविवेक से निर्णय लेने में पूर्ण सक्षम प्राधिकारी सिद्ध हुए हैं। राज्यपाल स्व विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने में निर्वाचित मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद का सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है ।मंत्रिपरिषद द्वारा दिए गए निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं है। राज्य विधानसभा में किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त ना होने की स्थिति में राज्यपाल अपने विवेक का प्रयोग करके किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त कर सकता है जिससे कुछ अन्य दलों के मिले-जुले समर्थन से बहुमत प्राप्त हो सकता है एवं मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त कर सकता है।

राज्यपाल स्व विवेकाधीन शक्तियों के कारण एक संवैधानिक प्रधान से भी बढ़कर अपनी भूमिका निभाता है। इस संबंध में डॉ पी के सेन जी का कथन उल्लेखनीय है कि” राज्यपाल केवल नाम मात्र का अध्यक्ष नहीं है वरन व राज्य का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति है, जिसका कार्य देखना है कि राज्य का शासन ठीक प्रकार से चल रहा है अथवा नहीं ।” राज्यपाल की वास्तविक स्थिति के संबंध में विभिन्न प्रकार से आलोचना की जाती हैं ।सर्वाधिक आलोचनाओं में कहा जाता है कि राज्यपाल संघीय सरकार के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। इस संबंध में श्री बी .जी खेर का कहना है कि “एक कुशल राज्यपाल शासन को बहुत उपयोगी बना सकता है और एक और राज्यपाल शासन को अनुपयोगी सिद्ध कर सकता है।” इस संबंध में प्रोफेसर एमपी शर्मा ने लिखा है कि- “राज्यपाल अपने राज्य का उसी प्रकार संवैधानिक अध्यक्ष है जिस प्रकार राष्ट्रपति संघीय सरकार का है। हम यह कह सकते हैं कि संकटकालीन तथा आंतरिक शक्तियों से शून्य राष्ट्रपति है।” उद्देश्य की दृष्टि से कहा जा सकता है कि” वह केवल नाममात्र का अध्यक्ष नहीं, वह एक ऐसा प्राधिकारी है जो राज्य के शासन में महत्वपूर्ण रूप से भाग ले सकता है।”

1967 में चौथे आम चुनाव के पश्चात राजस्थान ,पश्चिम बंगाल ,पंजाब ,बिहार, मध्य प्रदेश ,हरियाणा ,उत्तर प्रदेश तथा केरल राज्यों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के पश्चात राज्यपालों ने जिस प्रकार अपने विवेक का इस्तेमाल करके मुख्यमंत्री नियुक्त किए या कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किए ।इस राजनीतिक उथल-पुथल से संकेत मिलता है कि राज्यपालों ने अपने पद का दुरुपयोग राजनीतिक कारणों से किया था।

1975 में राष्ट्रीय आपात के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता को केंद्रीय करण करने के मजबूत संकल्पित इच्छा से राज्यपालों के पद का दुरुपयोग खुले रूप में केंद्र में सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए किया गया, जबकि राज्यपालों ने गैर- कांग्रेसी सरकारों को राजनीतिक अस्थिरता पहुंचाया एवं इसके अतिरिक्त जिन व्यक्तियों को श्रीमती गांधी जी नापसंद करती थी उनके विरुद्ध भी राज्यपालों ने अस्थिरता एवं हस्तक्षेप किया। तमिलनाडु की सरकार और उत्तर प्रदेश में श्री एचएन बहुगुणा की सरकार।

सार रूप में कहा जा सकता है कि राज्य में राज्यपाल के रूप में संवैधानिक प्रधान एवं केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में एक प्रतिष्ठित एवं सम्मानजनक पद प्रदान किया गया है जो राज्य के कार्यों में राज्य की कार्यपालिका को सहयोग, सहायता एवं मार्गदर्शन देते हैं। औपचारिक एवं संवैधानिक प्रधान होने के नाते वास्तव में सलाह एवं सहायता मुख्यमंत्री व मंत्री परिषद से प्राप्त करता है ,लेकिन राज्य के राजनीतिक प्रशासन सही ढंग एवं सुचारु ढंग से चल रहा है, केंद्र की नीतियों को राज्य में किस प्रकार से अनुमोदन एवं स्वीकृति दी जा रही है ? ऐसे विभिन्न विषयों पर वह केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में आवश्यक दिशा निर्देश जारी करता है।राज्यपाल की गरिमामई उपस्थिति से राज्य का राजनीतिक तंत्र महत्वपूर्ण रूप से संचालित होती है। राज्यपाल संघ और राज्य के बीच सेतु का कार्य करता है। राज्य को एक बड़े भाई के रूप में संघ को राज्य की आकांक्षा का संचार करना है और एक डाकिया की तरह राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को राज्य स्तर पर लाना है। सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट्स में कहा है कि राज्यपाल का पद राजनीति से ऊपर है। राज्यपाल के कार्यालय को राज्य के कल्याण की जिम्मेदारी दी जाती है, इसलिए राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति का दायरा सीमित है। राज्यपाल के कार्यों को मनमाना नहीं दिखना चाहिए। राज्यपाल ना तो सजावटी प्रतीक है, बल्कि संघवाद को मजबूत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

स्वतंत्रता के बाद राज्यों के शासकीय व्यवस्था में राज्यपाल की जो भूमिका रही है, उसके कारण केंद्र- राज्य संबंधों में व्यापक तनाव, संघ व्यवस्था के सिद्धांत एवं व्यवहार पर चोट और भारतीय लोकतंत्र को चलाने में बड़ी कठिनाई आई है ;इसलिए समय-समय पर प्रेक्षकों, समितियों ,आयोगों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा राज्यपाल के कार्यों और भूमिका पर काफी सुझाव आए है। 1969 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि राज्यपाल पद पर उस व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिए, जिसे सार्वजनिक जीवन तथा प्रशासन का लंबा अनुभव हो, जिस व्यक्तित्व पर यह विश्वास किया जा सके कि वह पक्षपात से ऊपर रहेगा और दलीय दबावों से प्रभावित नहीं होगा। प्रशासनिक सुधार आयोग जोर देकर कहा है कि राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री के साथ विचार-विमर्श होना चाहिए ।

आयोग का यह भी सुझाव था कि कार्यकाल पूरी होने के बाद पुनः नियुक्ति नहीं होना चाहिए। 1983 में सरकारिया आयोग का गठन हुआ जिसकी प्रतिवेदन 19 87 में पेश की गई थी ।सरकरिया आयोग का सुझाव था कि उच्च सम्मानित और सक्रिय राजनीति से अलग व्यक्तियों को ही राज्यपाल पद पर नियुक्त करना चाहिए। सरकारियां आयोग ने सुझाव दिया था कि राज्यपाल की नियुक्ति में उपराष्ट्रपति( राज्यसभा का सभापति) लोकसभा अध्यक्ष एवं संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श पर होना चाहिए। प्रशासनिक सुधार आयोग का कहना था कि मुख्यमंत्री के नियुक्ति में राज्यपाल को निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का परिचय देना चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवँ आचार्य हैं)

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