Tuesday, April 30, 2024
spot_img
Homeश्रद्धांजलिवीरेश्वर जी: पितृ तुल्य स्नेह, मित्र तुल्य चर्चा, गुरु तुल्य मार्गदर्शन

वीरेश्वर जी: पितृ तुल्य स्नेह, मित्र तुल्य चर्चा, गुरु तुल्य मार्गदर्शन

वीरेश्वर जी नहीं रहे, अंतिम दर्शन भारती भवन में होगा। अंतर में कुछ टूट सा गया । मैंने मात्र एक दिन का आलस्य किया और इस बार वे बिना मिले अनंत की यात्रा पर निकल पड़े। कार्यालय से सीधे भारती भवन की और बढ़ चली ।वीरेश्वर जी को अंतिम प्रणाम करके घर वापस आते हुए अनंत स्मृतियाँ लुकाछिपी खेलती रहीं, एक दूसरे को परे धकेलती, मन के आँगन में खेलने को उतावली। ये समय चक्र पर अंकन के अनुसार नहीं संवेदनाओं पर अंकन के अनुसार उभर रही हैं। उनके साथ की गई दक्षिण भारत की यात्रा, अचानक दंगा भड़कने पर हमें सुरक्षित घर पहुँचाना, हमारे जैसे किशोर और युवाओं को विचार परिषद की बैठक में बुलाना जिसमें बड़े बड़े विद्वान भाग लिया करते थे और हमें भविष्य के चिन्तक कहकर संबोधित करना, राष्ट्रधर्म में उनके सानिध्य में लिखना पढ़ना। कितनी सौभाग्यशाली हूँ कि स्वयंसेवक की बेटी के रूप में जन्मी और फिर वीरेश्वर जी जैसे नि:स्वार्थ राष्ट्र और समाज को समर्पित प्रचारक का सानिध्य प्राप्त हुआ…..अब दोनों ही नहीं रहे …….

ऐसे ही स्मृतियों में डूबते उतराते, रसोई की एक अलमारी खोली। उसमें एक डब्बा च्यवनप्राश का और एक आंवले के अचार का है, दोनों ही पिछले चार महीनों में वीरेश्वर जी ने दिए हैं। एक बार भी अपने कक्ष से बिना कुछ खिलाए पिलाए या कुछ दिए वापस आने नहीं दिया, हर बार जैसे बेटी मायके में आई हो वैसा स्वागत करते थे । जीवन के अंतिम चरण में लखनऊ का विश्व संवाद केंद्र उनका निवास बना। स्वास्थ्य और आयु दोनों की ही चुनौतियाँ थीं किन्तु राष्ट्रसेवा, ध्येय के प्रति समर्पण और पल पल हिन्दू समाज के लिए खपाने का वो संकल्प चिर युवा था। एक एक करके पुरानी टोली को इकठ्ठा किया। नयी दृष्टि से कुटुंब प्रबोधन को देखा ।

अभिनव योजना के साथ आगे बढ़े और स्वास्थ्य की चिंताओं से जूझते हुए दो बड़े कार्यक्रमों के हेतु बने, तीसरे कार्यक्रम की योजना के बीच ही अस्वस्थता बढ़ गयी और कार्यक्रम टलता रहा……अंतिम भेंट तीसरे कार्यक्रम की योजना बनाते हुए हुई थी जिसमें उन्होंने कहा था, “मीनाक्षी, तुम जो विषय ले रही हो इसको और रि-फ़ाईन कर लो, पूरी सामग्री को मैं पुस्तक के रूप में छपवाना चाहता हूँ।“ पहले दो कार्यक्रमों में मैं लव जिहाद विषय रख रही थी। इस विषय पर अभिनव रूप से बड़ी योजना सामने लाने का विचार था उनका। अब पता नहीं…..कौन देगा मानस पाथेय…..

“मानस पाथेय” से ध्यान आया, संघ सम्बंधित कार्यक्रमों में मंच सञ्चालन करते समय मैं प्रायः इस शब्द युग्म का प्रयोग करती हूँ, “मानस पाथेय” । छोटी थी, पिता जी और परिवार के साथ प्रज्ञा प्रवाह के एक कार्यक्रम में गई थी जिसका संचालन वीरेश्वर जी कर रहे थे । उन्होंने इस शब्द युग्म का प्रयोग किया था और ये सुनने में इतना अच्छा लगा कि मेरे मस्तिष्क में जम कर बैठ गया।

अस्सी के दशक का उत्तरार्ध और नब्बे का पूर्वार्ध श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण था । भिन्न भिन्न स्तरों पर कार्यक्रम चल रहे थे । सब को एकत्र किया जाता था- पढ़ने वाले, लिखने वाले, सुनने वाले, समझने वाले । वीरेश्वर जी ने पढ़ने लिखने में रुचि रखने वाले तरुण आयु वर्ग के लोगों को ऐसी बैठकों में बुलाना आरम्भ किया था जिसमें प्रायः वरिष्ठ और विद्वतजन आया करते थे । कुछ ने आपत्ति की और कुछ ने स्वागत किन्तु वीरेश्वर जी अडिग रहे । वो हमें भविष्य के चिन्तक कहकर संबोधित करते । उनके इस प्रयास से हमें कई महत्वपूर्ण विद्वानों का सानिध्य प्राप्त हुआ, सुनने समझने का अवसर मिला, दृष्टि विकसित हुई । मीडिया और राजनीति में आज के कई बड़े नाम उन तरुण समूहों से निकले हैं ।

जब कुछ वर्षों तक संघ कार्य को नियमित समय देने का निर्णय लिया तो दो अवसर सामने थे । एक प्रस्ताव था नाना जी देशमुख के चित्रकूट प्रकल्प में जाने का और दूसरा लेखन-पठन से जुड़कर प्रचार विभाग में सहयोग करने का । वीरेश्वर जी ने ये कहकर सारी दुविधा दूर कर दी कि, मीनाक्षी राष्ट्रधर्म को समय देगी और उसके पश्चात सीखने समझने का जो अवसर मिला वो सब को यूँ ही नहीं मिलता । पहले दिन कार्यालय में वीरेश्वर जी नहीं थे, उपसंपादक पर्यटक भैया भी प्रवास पर थे । उपस्थित नरेंद्र जी ने मुझे डाक चढ़ाने का कार्य दे दिया कहा कि, पत्रिका चलाना सीखने का प्रथम बिंदु यही है । अगले दिन वीरेश्वर जी आए, पूछा पहले दिन क्या सीखा ? हमने मुंह लटका कर बताया, डाक चढ़ाना। वीरेश्वर जी ने गंभीरता से कहा, “वो भी आवश्यक है । सभी कार्यों को समझना चाहिए।“ एक दो दिन बाद पर्यटक भैया के आने पर, वीरेश्वर जी से चर्चा के उपरांत मुझे सम्पादकीय विभाग की फाइलें मिलने लगीं। सप्ताह में वीरेश्वर जी एक-दो पुस्तकें भी पकड़ा देते, इनको पढ़कर आठ से दस मुख्य बिंदु बना कर देना। गंभीर और विस्तृत आलेखों का संक्षिप्तीकरण वहीं से सीखा।

इस सब से बहुत पहले विद्यार्थी काल में उनके साथ एक समूह में दक्षिण भारत की यात्रा का अवसर मिला था एकदम अप्रत्याशित रूप से । केशव प्रसाद चतुर्वेदी जी स्वयंसेवक थे, हमारे तमिल शिक्षक थे और वीरेश्वर जी के मित्र भी थे। हम उन विद्यार्थियों में थे जिन्होंने तमिल शिक्षा के चार वर्षों के पाठ्यक्रम को सर्वोत्तम अंकों के साथ पूरा किया था। सौभाग्य से हमें मैसूर के दक्षिण भारतीय भाषा केंद्र में तमिल के पंद्रह दिनों के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए जाने का अवसर मिला। जब चतुर्वेदी जी ने हमें जाने वाले विद्यार्थियों की सूची दिखाई तो वीरेश्वर जी का नाम उसमें देखकर हर्ष, प्रसन्नता और आश्चर्य की सीमा नहीं रही। पता चला वीरेश्वर जी ने कई वर्ष पूर्व ही यह परीक्षाएं उत्तीर्ण करी थीं और इतने वर्षों से व्यावहारिक प्रशिक्षण का ये कार्यक्रम लंबित चल रहा था, और जब ये कार्यक्रम आया तो प्राप्त अंकों के आधार पर वीरेश्वर जी भी हमारे समूह में आ गए। हमारी दक्षिण भारत की वो प्रथम यात्रा थी किन्तु चतुर्वेदी जी और वीरेश्वर जी के दक्षिण भारत के प्रत्येक विषय के सूक्ष्म ज्ञान के साथ चलते हुए प्रतीत होता जैसे वर्षों से वहां जाते रहे हों।

उस यात्रा में वीरेश्वर जी का अभिभावक और मित्र रूप एक साथ देखने को मिला। पहली यात्रा का उल्लास और उत्सुकता, दोनों ही कारक हमें बिना थके,अधिक से अधिक घूमने और देखने को खींचते जबकि वीरेश्वर जी गंभीर प्रचारक थे, अनगिनत प्रवास कर चुके थे, कुछ संघ कार्य भी साथ लेकर गए थे। चतुर्वेदी जी का आग्रह था जहाँ जाएगा पूरा समूह जाएगा –यही अनुशासन है । ऐसे में वीरेश्वर जी ने समवयस्क मित्र की तरह हमारा साथ दिया । तिरुपति देवस्थानम से लेकर श्रवण बेलगोला जहाँ जहाँ तक संभव था, सभी स्थलों तक हमने प्रवास किया। मैसूर में रहने के दौरान प्रतिदिन चामुंडेश्वरी की चढ़ाई कर माँ के दर्शन किए । एक दिन भी ऐसा नहीं लगा कि वीरेश्वर जी को इसमें कोई बाध्यता या खीझ लगती है । हर स्थान से जुड़े ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विषयों की विस्तृत जानकारी देकर वे हमारे पर्यटन को सार्थक करते चलते।

स्मृतियों की वीथिका भरी पड़ी है, शब्द सब कुछ कह नहीं सकते।

अंतिम क्षणों में मिलना नहीं हुआ, होता तो संभवत वो अटल जी की पंक्ति सुनाते – “मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं। लौटकर आऊंगा, मौत से क्यों डरूं ।

अनंत यात्रा के पथिक को सादर प्रणाम।

प्रेषक: मीनाक्षी दीक्षित

संपर्क : 9839042167

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार